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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

21 अक्टूबर, 2018

परख बाइस

   
अँधेरे समय की उजली कविताएँ

गणेश गनी


हंसराज भारती


मुश्किल दिनों में कविता ही काम आएगी। कविता विश्वास जगाएगी। कविता बदलाव लाएगी। कविता की रोशनी से अंधकार छंटेगा। शर्त मात्र यही है कि कवि चुप्पी न साधे बस। जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख़्त की यह कविता एक कवि की जिम्मेदारी तय करने के लिए काफी है-

वे नहीं कहेंगे
कि वह समय अन्धकार का था
वे पूछेंगे
कि उस समय के कवि चुप क्यों थे।

जिस समय पंजाब में आतंकवाद का अन्धकार था और देश में नक्सलवाद की काली छाया अपना आकार बढ़ा रही थी, ठीक उस समय पंजाब में बटालवी और पाश जैसे दो कवि जीवन की दो अलग अलग धाराओं पर यात्रा कर रहे थे। इस यात्रा में साहित्य के दो दीये जलते हुए आगे आगे चल रहे थे। विद्वानों ने शिव बटालवी को ' मौत की शान ' का शायर और पाश को ' जिंदगी की शान ' का शायर कहा है। पाश को तो खतरनाक कवि भी कहा गया है।
इस कठिन अँधेरे समय में पंजाब की धरती पर एक तीसरा कवि चुपके से अपनी कलम को धार दे रहा था। हिमाचल के मंडी से सम्बद्ध कवि कथाकार हंस राज भारती की रचनाएँ बटालवी और पाश से बेहद प्रभावित हैं। कवि इन दोनों की शैली और परम्परा को आत्मसात किये है। कवि का पूरा यौवन पंजाब में बीता और यही कारण है कि इनकी रचनाओं में पंजाब की नदियों की महक और मिट्टी की सुगंध भरपूर मिलती है। बटालवी और पाश को आदर्श मानने वाले कवि हंसराज भारती ने एक तीसरी धारा पर यात्रा की जिसमें प्रेम कविताएँ भी हैं और क्रांति गीत भी। उस वक्त यह तीसरा दीया भी टिमटिमा रहा था। हंसराज भारती ने प्रेम कविताएँ और कथाएँ तो लिखी ही हैं साथ में मुखर स्वर में क्रन्तिकारी रचनाएँ भी खूब लिखी हैं। समाज में हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध अपने विद्रोही तेवर लिए कवि ने आवाज तो बुलन्द की ही साथ में प्रेम से परिपूर्ण रचनाएँ भी लिखीं। बटालवी और पाश की परिपाटी को एक साथ निभाने वाले कवि हंसराज भारती की रचनाओं का शिल्प और शैली सरल है। इसी सरलता को निभाना भी बड़ा कठिन है जब हम देखते हैं कि न शब्द ज्यादा हैं और न कम।
यहाँ यह देखना भी रुचिकर होगा कि उस दौर में एक युवा कवि क्या लिख रहा था-

वक्त के हुक्मरानों
धर्म के ठेकेदारो
मानवता के सौदागरों
यह याद रखना कि
आने वाली नस्लें थूकेंगी
तुम्हारे मुँह पर।

कवि न केवल विद्रोही तेवर अपनाए हुए है बल्कि कई प्रश्न खड़े करने में भी सक्षम है-

वे हाथ
जो सदा रहे हैं
हाथ से हाथ मिलाने के पक्षधर
आज इस कद्र अकेले से क्यों हैं
जो हाथ आज
बन्दूक उठाए हैं।

यहां कवि को इस बात का यकीन है कि हमारा समाज भी कई अनचाही घटनाओं के लिए जिम्मेवार होता है। बंटवारे की राजनीति भी इसी समाज में उत्पन्न हुई है।
हंसराज भारती को अपने शब्दों पर इतना यकीन है जितना कि एक किसान को अपने खेत पर होता है। कवि ऐसे ही विश्वास के आधार पर चलता है-

शब्दों को अब
गाने ही होंगे
हमारे संघर्षों के गीत
चलना ही होगा
हमारे साथ
दूर मंजिल तक
देंनी होगी गवाही सरेआम
हमारे श्रमगीतों के पक्ष में।

कवि को पढ़ते हुए लगता है जैसे शब्द होने का अर्थ उसे समझ आ गया है। एक कलमकार को अपने शब्दों के अर्थ मालूम होने चाहिए। उसे शब्दों की ताकत का अंदाजा होना चाहिए। शब्द जीवित होते हैं। ये मृत नहीं होते। शब्दों ने ही क्रांतियां लायी हैं-

शब्द होने का अर्थ
सिर्फ अपने लिए जीना नहीं
बल्कि उनके लिए मरना है
जिनके लिए सारे शब्द
हो गए हैं अर्थहीन।

हंसराज भारती ने शब्दों की सत्ता पर कई कविताएँ लिखी हैं। कवि चाहता है कि उसके शब्द हिमालय से भी ऊंचे हों-

मेरे शब्द
जिनके पक्ष में न सत्ता है
न समय न वे स्वयं
उनके पक्षधर बनें।

कवि ने शब्दों पर जो भरोसा किया है वो कमाल का है। केवल शब्दों के बारे इतना अधिक और शानदार लिखने वाला कोई अन्य कवि मैंने नहीं पढ़ा-

मैं बीजना चाहता हूँ
समय की ऊसर मिट्टी में
कुछ ऐसे शब्द
जो उगें आग बनकर
और राख कर दें
धरती पर फैले सारे अँधेरे।

ऐसा हंसराज भारती जैसा अनुभवी और यथार्थ को भोगने वाला कवि ही लिख सकता है।
जिस दौर में पूरा पंजाब आतंकवाद की चपेट में था उस दौर में कवि एक उम्मीद की किरण बचाए रखना चाहता है। आज भी पूरा विश्व आतंकवाद के साए में जी रहा है-

कहीं दूर
घनघोर अंधेरों से ढकी
बस्तियों में जब कभी
किसी दहलीज पर
कोई दीया जलता है
तो लगता है कि अभी
रौशनी जिन्दा है।

कवि कठिन समय में गाना चाहता है पर क्या गाए। अँधेरे समय में कवि कह रहा है-

क्या गाए कोई
ऐसे मौसम में
जहाँ बांसुरी की धुन पर
बन्दूकों के पहरे हों
सत्ता के वारिस
आँखों से अंधे और
कानों से बहरे हों।

कवि उम्मीद नहीं छोड़ता। चाहे कुछ भी हो। उसे विश्वास है कि जो कुछ किया जा रहा है वह व्यर्थ नहीं जाएगा। उसके सपनें साकार होंगे-

धरती की कोख में
हम सिर्फ
फसलें ही नहीं बीजते दोस्त
हर मौसम की
नई धूप ताजा हवा और
बारिश के साथ
बीमार माँ की दवाई
बहिन का दहेज
पत्नी के गहने
मुन्नी की नई फ्रॉक
बेटे की अगली पढ़ाई
जैसे जिंदगी के सामान्य
सपने भी बीजते हैं।

अँधेरे समय के खिलाफ कवि मुखरता से लड़ना चाहता है। वह हवाओं से नई बात करना चाहता है। कवि को साथ चाहिए-

अंधे समय के विरुद्ध
एक मुकद्दमा
उम्मीदों की अदालत में दर्ज करूँ
इसके लिए मुझे
जिन्दा मुहावरे
कुछ पक्के गवाह दो।

हंसराज भारती की कवितायेँ व्यवस्था से दो दो हाथ करती हैं। व्यवस्था में चुनकर आए प्रतिनिधि भी जनता को भूलकर अपने स्वार्थ के लिए जीते हैं। उन्हें अपनी कुर्सी का ख्याल हमेशा रहता है-

जानते नहीं हो क्या
हम यहाँ के पहरेदार हैं
हमारे जिम्मे बड़ी बड़ी
जिम्मेवारियां हैं
तुम्हारा यहाँ से आगे जाना
कतई मना है
तुम उतना ही आगे जा सकते हो
जितना जाना हमारे लिए सुरक्षित है।

हंसराज भारती वास्तव में एक संजीदा संवेदनशील इंसान हैं। यदि कवि समाज या व्यवस्था से टकराने का साहस रखता है तो दूसरी ओर उसका हृदय प्रेम से भरपूर है-

तुम थीं
तो दिशाएं चहकती थीं
रास्तों में चहल पहल थी
आँखों में सपने ही सपने थे
मन एक कवि था।

समाज के ताने बाने में कवि को रिश्ते निभाते हुए बहुत कुछ अनुभव हुए। दरअसल एक व्यक्ति कई स्तर पर लड़ाइयां लड़ता है-

ये युद्ध
दुश्मनों से नहीं
मित्रों से हैं
सीमा पर नहीं
घर के अंदर हैं
मुँह के सामने नहीं
पीठ के पीछे हैं।

हंसराज भारती कवि और कथाकार हैं। प्रेम और क्रांति दोनों पर समान अधिकार से लिखते हैं। इनकी लेखनी में सादगी है और अपनी बात कहने की साफ़गोई भी। कवि प्रेम में भी लोकधर्मी बना रहता है। जहां कलम की भूमिका दरांती निभा ले, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए-

मेरे हाथ से कलम नहीं छूटती
और तुम्हारे हाथ से दराटी
कलम और दराटी का यह
हाथ भर का फासला
किस सफ़र से तय होगा मेरी हमसफ़र
आज तक न मैं जान सका न तुम
मेरी कलम लिखती है
बन्द कमरों में बैठकर
कुछ रौशनी भरी कविताएं
मेरी कलम गाती है
उस क्रांति का यशोगान
जिसका इतिहास के पन्नों पर
हो चुका है गर्भपात कई बार।

गणेश गनी

परख २१ नीचे लिंक पर पढ़िए 

औरतें कवि होती हैं ।
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/10/blog-post_14.html?m=1


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