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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 अक्टूबर, 2018

फ़िल्म पटाखा:

पटाखा के बहानेः नीम की पत्ती कड़वी ही सही ख़ून तो साफ़ करती है ।

सत्यनारायण पटेल

बिजनौर उत्तर प्रदेश में जन्में विशाल भारद्वाज ने ‘ द जंगल बुक ’  के गीत ‘ चड्डी पहन कर फूल खिला है, की रिकार्डिंग से अपने सफ़र की शुरुआत की थी । यह मौक़ा उन्हें गुलज़ार के ज़रिये या द्वारा दिया था । फिर उन्हें ,एलिस इन वंडरलैंड, गुब्बारे और फ़िल्म माचिस में संगीत देने का अवसर भी गुलज़ार ने ही दिया था।

विशाल भारद्वाज


विशाल भारद्वाज अनेक फ़िल्म में गीत-संगीत देने के बाद फ़िल्म निर्देशन भी करने लगे। उनका काम अनेक मंच से सराहा जाता रहा है । उन्हें पुरस्कार भी मिलते रहे हैं । वे लगतार सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ रहे है। हमें कई बार ऎसा भी लगता कि हम सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं, मगर वास्त्व में उतर रहे होते हैं ! यह भी कि चढ़ना जल्दी और उतरना देर से समझ में आता है।

विशाल भारद्वाज ने शेक्सपियर के नाटक पर आधारित फ़िल्म मक़बूल ( मैकबैथ ) ओंकारा ( ओथेलो ) हैदर ( हैमलेट ) भी बनायी है । उन्होंने सात ख़ून माफ़, (रस्किन बांड की कहानी पर ) द ब्लू अम्ब्रेला ( रस्किन बांड के उपन्यास पर ) कमीने आदि भी फ़िल्म बनायी है। कहने का मतलब यह है कि विशाल भारद्वाज जमे-ठमे फ़िल्म निर्माता-निर्देशक हैं, नौसिखिए नहीं । शायद अब उन्हें किसी की प्रशंसा या आलोचना की परवाह भी नहीं होती होगी !  उनकी नयी फ़िल्म ‘ पटाखा ’ है, जो रिलीज से पहले ही अपनी लागत और कुछ मुनाफ़ा अंटी चुकी है ।



फ़िल्म पटाखा चरण सिंह पथिक की कहानी ‘ दो बहनें ’ पर आधारित है । देखना तो थी ही, देख भी ली। मैंने कुछ साल पहले दो बहने पढ़ी थी । दो बहनें मानवीय संवेदना से भरपूर चंद पेज की कहानी है । कहानी पर व्यावसायिकता का कोई दबाव नहीं है । लेकिन जब यह कहानी फ़िल्म के लिए चुनी जाती है और फ़िल्म निर्देशक के निर्देशन पुनः लिखी जाती है, तो व्यवसायिकता दबाव बढ़ने लगता है । दो बहनें जैसा सोबर नाम बदल कर पहले छूरियाँ और फिर पटाखा हो जाता है ! पटाखा, बहन का पर्याय या विकल्प नहीं है । अड़ौस-पड़ौस का शब्द भी नहीं और तो और विलोम भी नहीं है । फिर वह कौन सी वजह है, जो ‘ बहन ’ को ‘ पटाखा ’ कहने पर बाध्य करती है ! सुनने में कैसा लगता है यदि कोई कहे कि मेरी बहन बहुत पटाखा है ! बहुत सम्मानजनक ! बहुत रचनात्मक । मनोरंजक ! कैसा ! क्या यह वही दबाव है, जो ‘ प्रेमिका ’ को ‘ आइटम ’ कहने के लिए विवश करता है !

जब मैं फ़िल्म देख कर लौट रहा था, तब मेरे दिमाग़ में एक बात और चल रही थी कि सफलता का मतलब क्या है ! क्या यह सफलता है कि कहानी पर फ़िल्म बन जाये, तो कहानी लिखना सफल हो गया ! या फिर यह कि फ़िल्म पैसा कमा ले, तो फ़िल्म बनाना सफल हो गया ! या फिर यह कि फ़िल्म और कहानी का संदेश समाज में फैले, जड़ मूल्य को तोड़े, विस्थापित करे और नये मूल्य सृजित कर स्थापित करे ! पहले से बेहतर मनुष्य बनाने का प्रयास करे ! फ़िल्म पटाखा में क्या छुटकी और बड़की बेहतर मनुष्य बनती नज़र आती है ! क्या बहन के लिए पटाखा शब्द ज्यादा गरिमामय है ! क्या बाज़ार के दबाव में बाज़ारू हो जाना ही सफलता का मंत्र है !
मैंने विशाल भारद्वाज कई फ़िल्म देखी है। उनकी फ़िल्म प्रस्तुति का कौशल से दबी नज़र आती है । मक़बूल, ओंकारा और हैदर जैसी फ़िल्म में समस्या का हल खोजने से ज्यादा, हिंसा को भुनाने का हुनर लगती है । हिन्सा का अतिरेक गुणगान व साफ़ायी देने से अहिन्सा के मूल्य को नकारा दिखाने और विस्थापित करने का सफल भोंडा प्रयास होता है । क्या किसी भी फ़िल्म की सफ़लता यही है कि वह ख़ूब पैसा कमाए ! अगर यही सफ़लता है, तो फिर श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी की अनेक फ़िल्म तो असफल ही मानी जानी चाहिए !



श्याम बेनेगल की फ़िल्म अंकुर, निशांत, भूमिका, मंथन, सूरज का सतवा घोड़ा, समर, और वेल्कम टू सज्जनपुर आदि फ़िल्म हों या फिर गोविन्द निहलानी की अर्द्ध सत्य, पार्टी, संशोधन, हज़ार चौरासी की माँ, आक्रोश, और विजेता आदि फ़िल्म हों । यह ऎसी फ़िल्में हैं जो दर्शक को मनोरंजन, शिक्षा, संदेश और संस्कार भी प्रदान करती है। फ़िल्म सिर्फ़ इंटरटेनमेन्ट इंटरटेनमेन्ट इंटरटेनमेन्ट नहीं है । साहित्य हो या फ़िल्म उसकी ज़िम्मेदारी है कि वह बेहतर मनुष्य, उम्दा समाज और ख़ूबसूरत दुनिया रचने में अपना श्रेष्ठ रचनात्मक योगदान दें । फ़िल्म का समाज पर सीधा और गहरा असर पड़ता है । हमारी ज्यादातर फ़िल्म और धारावाहिक भी हिन्सा या फिर सिर्फ़ मनोरंजन से भरी होती है । इस वजह से भी समाज में बेहतर मनुष्यता कम और लंपटता अधिक विकसित हो रही है।

पटाखा में छुटकी-बड़की को इतना लड़ते हुए दिखाया कि जैसे लड़ने के लिए ही जन्मी हो ! उनकी लड़ायी कौन-सा मूल्य, शिक्षा, और संस्कार सृजित व स्थापित करती है ! क्या सचमुच उनकी लड़ायी को भारत-पाकिस्तान, नार्थ कोरिया-साउथ कोरिया, इज़राइल-फ़िलिस्तिन की लड़ायी की तरह देखा-समझा जा सकता है ! दो बहनें ग्रामीण परिवेश की कहानी है। स्थानियता उसका गुण है। बहुत अच्छी कहानी है। लेकिन उसे बिकने वाली और ग्लोबल टच देने का जो निर्देशकीय दबाव, प्रयास और जिद्द है, वह कहानी के साथ रचनात्मक न्याय नहीं है ।

मैंने पिछले पन्द्रह-बीस साल में यह महसूस किया है कि हमारी फ़िल्म तकनीक, कथानक और अभिनय स्तर पर तेज़ी से बदल रही है। यह भी महसूस किया कि बॉलीवुड, हॉलीवुड से प्रतिस्पर्धा कर रहा है । और यह भी लगता रहा है कि हिन्दी फ़िल्म की तुलना में बंग्ला, मराठी और साउथ की अनेक फ़िल्म के कथानक, ज्यादा कलात्मक, रचनात्मक, संदेश परख और संप्रेषणिय हैं । अपने ही देश की तमाम क्षेत्रिय और छोटी-छोटी फ़िल्म से पिछड़ने वाले हिन्दी सिनेमा के दबंग अभिनेता-अभिनेत्री और निर्देशक ग्लोबल होने के गुरूर से भरते जा रहे हैं ! जड़ों का पता नहीं, हवा में उड़ रहे हैं और इसे तरक्की समझ रहे हैं । सफलता समझ रहे हैं । ग्लोबल बनने की यह खुजाल त्रासद है जी । पटाखा के ज़रिए विशाल भारद्वाज भी इसी खुजाल से ग्रस्त नज़र आते हैं ।

पटाखा में डिप्पर का कोई सिर-पैर नहीं है । छुटकी-बड़की का चीख़ना-चिल्लाना, बेवजह या मामूली वजह से लड़ना-भिड़ना थोड़ी देर बाद ऊब पैदा करता है। गुलज़ार गीतों के मास्टर हैं । उन्होंने वॉलीवुड को बेसुमार लोकप्रिय गीत दियें  हैं। लेकिन पटाखा में राजस्थानी सँस्कृति और लोक को पकड़ने में चूकते नज़र आये हैं । इस सब के बावजूद एक अलग तरह की कोशिश है। मगर यहाँ लेखकीय कोशिश और निर्देशकीय जिद्द में टकराव भी दिखता है। फिर भी पटाखा सफ़ल है । चूँकि सफलता का पैमाना पैसा कमाना है। पटाखा यह काम रिलीज होने से पहले ही कर चुकी है।



चूंकि फ़िल्म चरण सिंह पथिक की कहानी पर आधारित है। पथिक जी का हिन्दी कहानी में एक सम्मानजन स्थान है । पथिक जी और मेरे तमाम मित्र मुझे अपनी बात इमानदारी और साफ़गोई से कहने के लिए भी जानते हैं। पटाखा के बहाने से भी मैंने अपनी बात पूरी साफ़गोई से रखने की कोशिश की है । बात और ज्यादा लम्बी न हो, इसलिए कुछ निर्देशकीय भूल-चूक, ‘ जो फ़िल्म देखते वक़्त खलती है, को बहरहाल नज़र अंदाज़ कर रहा हूँ। पथिक जी और पूरी टीम को फ़िल्म की सफलता के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ ।  अंत में फ़िल्म मंटो की एक लाइनः नीम की पत्ती कड़वी ही सही ख़ून तो साफ़ करती है ।
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