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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 सितंबर, 2018

उपन्यास  अंश "मोरीला "

बलराम कांवट


बलराम कांवट





“कण-कण होग्या रंग रँगीला पग-पग याह बदड्या नीला
थारी प्रीत सुहाणी ऐसी याह जग सारा मोरीला” 
—  एक लोकगीत, जिससे मेरा परिचय उस लड़की ने करवाया। उसने इसका अर्थ भी बताया जिसे मैंने पेपर पर लिख लिया था। - “धरती का कण-कण रंगीन हो गया और आकाश का चप्पा-चप्पा नीले रंग से भर गया। तेरा प्रेम ऐसा मोहक है कि सारा संसार मेरे लिए मोर-सा हो गया है।” 





1
“आपको मेरे शब्द सुनने चाहिए।” - लड़की ने अनगिनत आग्रह किये। 
“मैं तैयार हूँ” - मैंने अंततः हारकर कहा “लेकिन ध्यान रहे, जिस काम के लिए आया हूँ, तुम्हारी दलीलों के बाद भी फैसले का अधिकार मेरे पास है।” 
“थैंक्स सर, मुझे नहीं पता मेरे शब्द कितना महत्त्व रखते हैं लेकिन विश्वास दिलाती हूँ कि वे सच्चे शब्द होंगे। इससे पहले कि आप कोई नतीजा निकालें, मेरा एक और आग्रह है” - उसने कहा “मेरे शब्दों के साथ-साथ आपको मेरी कहानी में उतरना होगा।” 
मैं उतरा। मैं उसके साथ उसकी दुनिया में उतर गया। मैंने उसके सारे शब्द सुने। वे मुझे एक बिखरी हुई आत्मा के शब्द लगे और उसकी दुनिया कई अनसुलझे सवालों से भरी दिखाई दी। 
बावजूद इसके - कहानी का ‘नतीजा’ पहले से मेरे सामने था।

मैं उस समय जंगल में था। जंगल में रहने वालों को लेकर यह एक अधूरी धारणा है कि उजाड़ में केवल जानवर या देवता ही रह सकते हैं - नहीं! इनके अलावा कुछ अन्य प्राणी भी हैं जो जंगल में रहते या अपने अंदर ही एक जंगल बसाए रखते हैं। दरअसल यह दुनिया उनके लिए कुछ कम पड़ गई होती है इसलिए वे अंततः अकेले में चले जाते हैं - कोई कवि, सन्यासी, यायावर… कोई वन विभाग का आदमी। मैं ऐसा ही आदमी हूँ। वह जुलाई का एक सुन्दर सबेरा था जब मैं अपने सरकारी कमरे में सोया हुआ था। पिछले हफ्ते मौसम की शुरूआती बूँदें बरसी थीं इसलिए राहत में आँखें ज्यादा देर तक लगी हुईं थीं। यह जैसे बदले का भाव था जब हम गर्मियों की सूखी नींद का बदला बारिश में ज्यादा सोकर लेते हैं। मैं गहरी नींद में था और शायद कोई स्वप्न देख रहा था कि अचानक बढ़ते हुए क़दमों के साथ मेरे सहयोगी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी -
“वहाँ देवता वाली पहाड़ी पर” - उसने कहा “एक मोर की हत्या हुई है।”
मेरा स्वप्न टूटा, पता नहीं क्या अज्ञात कारण था कि मैंने इस सूचना को उल्टा सुन लिया।
“वहाँ मोर वाली पहाड़ी पर” - मैंने सुना “एक देवता की हत्या हुई है।”
मैं आश्चर्य में था और आँखें फाड़कर साथी को घूर रहा था, जब उसने दुबारा दोहराया कि ‘उठो यार! वहाँ किसी ने एक मोर को मार डाला है’ तो मेरा भ्रम दूर हुआ। मैंने वापस आँखें मूँद लीं और करवट बदलते हुए सिर्फ इतना-सा महसूस किया कि यह दुनिया लगातार बहुत बेरंग होती जा रही है। 
कई वर्षों से ऐसी घटनाओं के बारे में सुनना और फिर कोई कदम उठाना मेरे लिए बहुत सामान्य बात थी। जंगल में हमारा पहला काम वृक्षों की रक्षा करना था क्योंकि लकड़हारों का काफी डर था। वे अक्सर अँधेरी रातों में साहस दिखाते और सुबह हमें धरती से चिपके ठूँठ मिलते। किसी पेड़ की लाश देखना दुःखद है लेकिन इससे भी दुःखद वे घटनाएँ हैं जिनका सम्बन्ध ‘खून’ से होता। इन खूनी कारनामों को वे शिकारी अंजाम देते जो बंदूकों के साथ जंगल में प्रवेश करते और खरगोश, हिरन या किसी नीलगाय को लहूलुहान करके उठा ले जाते। सबसे भयानक घटना का आधार वह वन्यजीव होता जिसकी घटती संख्या के कारण ऊपरी कुर्सियों का भारी दबाव होता था - बाघ। अब तक यही सब होते देखा लेकिन यह मोर वाला मामला कुछ नया था। इसे लेकर कहीं से कोई दबाव नहीं आया। जो भी दबाव था, मेरे अंदर का था। मुझे ऐसी खूबसूरत चीजों की मृत्यु बहुत बुरी लगती है। ड्यूटी के समय जब हम अपने कुत्तों की चेन पकड़े पगडंडियों से गुजरते और अचानक पैरों तले कोई फूल कुचल जाता तो मैं अपने साथियों से कहता - ‘फूलों की मृत्यु बहुत बुरी बात है, इन्हें अमर रहना चाहिए।’ इस शोक-संवाद के बाद मेरे दोस्त ‘साला सनकी’ कहकर मेरा मजाक बनाने लगते और मैं खामोश हो जाता।







मुझे ख़ामोशी का लम्बा अनुभव है इसीलिए मैं शब्दों की तलाश में रहता हूँ।
जब इस हत्या का पता चला तो मैं देर तक विभिन्न पहलुओं पर गौर करता रहा और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यह किसी पेशेवर शिकारी का काम नहीं हो सकता। मैं जितना जानता हूँ - इस इलाके के लोग मांसाहारी नहीं हैं, और अगर कोई है तब भी धार्मिक कारणों के चलते मोर को मारना लगभग असंभव कृत्य है। हाँ! एक-दो बार नीलगायों की हत्या की पुष्टि जरूर हुई थी जब फसल नष्ट करने के जवाब में उन्हें मारा गया लेकिन यह बात किसी मोर पर लागू नहीं होती। वह एक सीधा-सादा सुन्दर पक्षी है जो कभी कोई ऐसा ‘असहनीय-हस्तक्षेप’ नहीं करता कि उससे व्यथित होकर उसे मार ही डाला जाए। जब मैं कोई ठोस कारण नहीं सोच पाया तो घटनास्थल पर जाकर तहकीकात के बारे में सोचने लगा। मैं अभी खाली था और घर जाने के लिए जिन छुट्टियों के इंतज़ार में था, वे थोड़ी दूर थीं। मैंने फैसला किया कि यहाँ ऊबते हुए वक्त बिताने से बेहतर है कि आज जंगल से बाहर निकलकर कुछ नए दृश्य देखें जाएँ। 
इस तरह मैं उस पहाड़ी की ओर रवाना हुआ।
मैंने सरकारी खटारा जीप ली और घंटे-भर के सर्पिल रास्तों से बढ़ता गया। 
मैं जंगल को पीछे छोड़ता गया, पहाड़ी के करीब आता गया।
मैं पहुँचा। 
मुझे दूर से वह पहाड़ी दिखाई दी - वह एक सूखी पहाड़ी थी जो कई कतरों में बँटकर समतल मैदानों में लेटी थी। उसे देखकर कोई भी कह सकता था - वह किसी सुंदर साँवली ग्रामीण स्त्री की तरह है जो करवट लेकर धरती पर लेटी हुई है।
अब मैं पहाड़ी पर था। मुझे सबसे पहले उसकी चोटी पर बना वह मंदिर दिखाई दिया जिसकी वजह से इसे ‘देवता वाली पहाड़ी’ कहा जाता है। मंदिर के पास एक पीपल का पेड़ था जिसकी बनावट को मैंने कड़कती बिजली से जोड़कर देखा - जैसे कोई बिजली पहाड़ी से उठकर आकाश की ओर फैली हो। मैं एक पत्थर पर बैठ गया और आँखों की अंतिम सीमा तक ये दृश्य देखने लगा - मुझे दूर-दूर तक टुकड़ों में बँटे खेत दिखाई दिए। उनके बीच से जाती हुई सड़क एक नदी-सी लगी जिसमें इंसान वाहनों के साथ बह रहे थे। वहीं छोटे-छोटे फासलों पर बिजली के खम्भे थे। उन्होंने एक-दूसरे को तारों से बाँध रखा था। इन्हीं खम्भों की एक कतार चढ़ती हुई मंदिर तक आती थी। मुझे मंदिर के दरवाजे पर लटका बल्ब दिखा। वह दिन में भी जल रहा था। मुझे सामने के मैदानों में कुछ गड़रिए दिखाई दिए जो छोटे-छोटे पशुओं के संग रेंग रहे थे। वहीं आम के पेड़ खड़े थे जो मुझे किसी पेपर पर टपकी स्याही की बूँदों-से लगे। मैंने नीचे उन घरों को देखा जो अलग-अलग झुंडों में बँटे थे और आँगनों से धुआँ उठ रहा था। मैंने गर्दन मोड़ी और पहाड़ी की दूसरी दिशा को देखने लगा। मुझे वहाँ बहुत दूर रेल की पटरियाँ दिखाई दीं जो सुनसान-सी लगीं। पटरियों के पार वह आबादी थी जिसे कुछ लोग ‘छोटा शहर’ और कुछ ‘बड़ा क़स्बा’ कहते हैं। जीवन की ये सारी झलकियाँ मुझे कविता के शब्दों की तरह प्रतीत हुईं।
मैं कविताई अहसास में था कि अचानक मेरी नज़र पैर के पास पड़े एक मोरपंख पर गई। मैं वापस मुद्दे पर आया। मैंने उसे चुटकी से उठाया और देखने लगा - वह एक नन्हा पंख था जिसकी छोटी-सी सिरकी पर रंगीन सिक्काई चाँदा उभरा हुआ था। यह कितना बुरा है कि कुछ समय पहले तक वह अपने मूल शरीर से जुड़ा हुआ होगा और अब अनाथ पड़ा है। यह दु:खद है। मैंने उसे अपने पर्स की दरार में रख लिया और मोर के मृत शरीर को खोजने लगा। मुझे मिली सूचना के अनुसार वह मंदिर के पास पीपल पर बैठता था इसलिए वहीं से देखना शुरू किया - वहाँ कुछ नहीं था। एक क्षण के लिए यह घटना अफवाह-सी लगी और मुझे वापस लौटने का भी खयाल आया लेकिन जब पेड़ के अलावा इधर-उधर देखा तो पता चला कि मामला इतना खाली भी नहीं है। वहाँ कुछ था। मैंने पाया कि वहाँ बड़ी संख्या में मोरपंख बिखरे हुए हैं। वे कँटीली झाड़ियों और चट्टानों की आड़ से लेकर नीचे तलहटी तक फैले पड़े थे। मैंने ढलानों पर उतरते हुए उन्हें समेटना शुरू किया। यह पिछली बूँदों और अंधड़ का असर था कि वे इतनी दूर तक उड़कर चले गए थे और मिट्टी के गँदले छीटों से सने थे। मैंने इकट्ठा करके गिना - वे एक सौ पच्चीस से अधिक थे यानी वह अवश्य ही कोई युवा या उम्रदराज मोर रहा होगा जो काफी जीवन जी चुका होगा।

बावजूद इसके - मुझे शरीर कहीं नहीं मिला। 
“यह कौन कर सकता है?”
यह सवाल मैंने लगभग बीस लोगों से पूछा जिनमें दो पुलिसवाले भी शामिल थे। वे पहाड़ी के कोने पर सड़क-किनारे रहते थे जहाँ चौकी थी। “हमने कभी कोई मोर नहीं देखा।” - एक पुलिसवाले ने मुझसे कहा, जबकि दूसरे ने बताया कि यहाँ मोरों की संख्या इतनी अधिक है कि वे कभी किसी ‘एक मोर’ पर ध्यान ही नहीं दे पाए। उन दोनों ने फिर मिलकर बताया कि वे चोटी पर कभी गए ही नहीं, फुरसत ही नहीं मिली क्योंकि वे अपना काम बहुत जिम्मेदारी से करते हैं और उनका काम है - अवैध खनन रोकना। मैंने उनके कन्धों के बीच से देखा - मेरी नजर एक ट्रक पर पड़ी जहाँ कुछ आदमी पहाड़ी के कोने में ‘व्यस्त’ थे। “हम सिर्फ अपने काम से काम रखते हैं।”- उस ट्रकवाले ने मुझसे कहा “लेकिन मोर के बारे में कुछ जानना है तो गड़रियों, किसानों और दूसरे गाँव वालों से पूछो।” उसके बाद मैं कुछ गड़रियों से जाकर मिला। वे मुझे बीते संसार की अंतिम निशानियों-से लगे। उन्होंने वहाँ मोर के रहने की पुष्टि की, उसकी उपस्थिति को लेकर लम्बे-लम्बे बयान भी दिए लेकिन किसी ने नहीं बताया कि अब ‘अनुपस्थिति’ का क्या कारण है? कुछ किसान - जो तलहटी के एक खेत में ट्रैक्टर के पास खड़े थे और अच्छी बारिश की आस में नई फसल बोने पर विचार कर रहे थे, मैंने उनसे पूछा। “मेरे हिसाब से वह देवता का पक्षी था।” - एक किसान ने कहा। “तब तो मरने का प्रश्न ही नहीं उठता।” - उस किसान की पत्नी बोली। उसके बाद मैंने कुछ अन्य महिलाओं से पूछताछ करनी चाही लेकिन उनमें से अधिकांश ने बात करने से मना कर दिया और कुछ ने डाँवाडोल जवाब दिए। मैंने वहीं एक खेत में खड़ा खँडहर देखा जिसकी छत पर कुछ लोग खिलखिला रहे थे। उनके पास गया तो पता चला कि वे बदनाम शराबी हैं जो सुबह-सुबह ही शुरू हो चुके हैं। “यहाँ मोरपंख बीनने वालों की बड़ी तादाद है।” - एक शराबी ने कहा। “हो सकता पैसे के लालच में उसे सदा के लिए उड़ा दिया हो।” - दूसरे शराबी ने मुझसे कहा। उनके अन्य साथियों ने भी ऐसे ही नशीले जवाब दिए जिन्हें स्वीकारना असंभव था। मैंने कुछ ऐसे युवाओं से भी जानना चाहा जो शहरों में पढ़ते या नौकरी करते हैं और थोड़े समय के लिए घर-परिवार से मिलने आते हैं। वे इस समय किसी शादी में शामिल होने आए थे। उन्होंने खुद को असमर्थ बताते हुए कहा कि वे अपने माता-पिता की खबर रख लें, यही काफी होगा। मैंने कुछ बच्चों से भी पूछा जो स्कूल-बस से उतरकर तेजी से घरों की ओर भाग रहे थे। उन्होंने मुझे कोई एलियन समझा जो पृथ्वी पर मोर ढूँढ़ता फिर रहा है। “आपने कभी मोर नहीं देखा?” - एक जरा-सी बच्ची बोली - “ये देखो।” उसने अंग्रेजी वर्णमाला की एक नन्हीं पुस्तक खोलकर दिखाई जहाँ नाचते मोर का चित्र था और लिखा था - P for Peacock पीकॉक यानी मोर।









इस तमाम पूछताछ के बाद मैं कहीं किसी ठिकाने पर नहीं पहुँच पाया। ये सारे जवाब बहुत उलझाऊ और अंतर्विरोधों से भरे थे। मैं खाली हाथ वापस चला आता लेकिन इन जवाबों में मैंने एक इशारे को बहुत ‘कॉमन’ पाया। उस इशारे ने मेरा ध्यान खींचा। इन लोगों में से दो-तीन को छोड़कर लगभग सबने बताया कि पिछले साल से यहाँ एक लड़की को आते-जाते देखा गया है। उसका पहाड़ी से गहरा संबंध है। वह रोज शाम को यहाँ आती रही है इसलिए हो सकता है मोर की हत्या उसी ने की हो, और अगर नहीं! तब भी सबसे अधिक जानकारी वही दे सकती है।
यह ठिकाना पाकर लगा कि शायद अब कुछ खोजबीन हो सकती है। 


मैं उस लड़की से मिला। यह दो लोगों की आपसी मुलाकात थी। हम पहाड़ी पर ही मिले। मैंने उसे देखा तो पाया उसकी उम्र बीस बरस से अधिक नहीं है, हालांकि शरीर से वह परिपक्व लगी और ऐसी लगी जैसे अपनी कक्षा में सबसे बड़ी उम्र की छात्रा हो। वह एक सुन्दर साँवली लड़की थी जिसने गाढ़ी नीली जींस पर गेरुई रंग का कुरता पहन रखा था। मैंने गौर किया - उसके कुरते पर कई भाषाओं के छोटे-बड़े रंगीन शब्दों की छाप थी। इस पहले ही क्षण में वह मुझे शब्दों से भरी दिखाई दी। “आपको मेरे शब्द सुनने चाहिए।” - उसने भिड़ते ही कहा। इससे पहले कि मैं कुछ और सुन सकता, वह बार-बार यही दोहराती रही - ‘प्लीज, मेरे शब्द सुनिए।’ मुझे लगता है कि आप कुछ भी नकारें लेकिन किसी के बार-बार दोहराए शब्दों को नहीं। वे उम्मीद से भरे घड़े की तरह होते हैं। वे ऐसे ही शब्द थे जिन्हें मैं नकार नहीं सका। उन्हें कहने का ‘आग्रह’ और सुनने का ‘दायित्व’ इतना अधिक गहरा था कि अंततः मुझे तैयार होना पड़ा। मैंने उसे सुना - मुझे यह कहानी हाथ लगी। उसने सच्चे शब्दों का वादा किया था जिसका दूसरा अर्थ यह था कि ‘सच्ची कल्पना’ का अधिकार मुझे दे दिया गया है।
- और अपने अधिकारों का तो हर कोई फायदा उठाता है! 



2
लड़की ने अपने शब्द शुरू किए। उसे पीपल और मोर से शुरुआत करनी चाहिए थी लेकिन उसने मंदिर और देवता से बात शुरू की। मैंने मुद्दे से दूर जाती हुई बातें काटनी भी चाही लेकिन बचाव में कहा गया कि वह जो कुछ भी बताएगी, उसका सम्बन्ध अंततः मोर से ही होगा। उसका कहना था कि मैं सबकुछ समझे बिना मोर के पेचीदा मसले को नहीं समझ सकता। मैं क्या करता? मुझे यह भी मानना पड़ा। मैं सचमुच मसले को पूरा समझना चाहता था। 
वह एक छोटा-सा मंदिर था जो पहाड़ी के सबसे ऊँचे सिरे पर खड़ा था। उसकी बनावट से ही साफ़ था कि मंदिर तो पुराना है लेकिन इसे समय-समय पर दुरुस्त किया जाता रहा है। उसकी चार दीवारी पर एक गोल नुकीली छत थी जिस पर एक पीला झंडा लटका था। मैंने देखा कि झंडे की लटकन काफी निराशा बयान कर रही है जो शायद शान्त हवा की वजह हो। दीवारों की कलई से पता चल रहा था कि उन्हें हर साल पेंट किया जाता होगा लेकिन धूप और बारिशों की वजह से फ़िलहाल वे कलात्मक पेंटिंग-सी हो गई हैं। मंदिर के सामने का चबूतरा, मैंने उस पर चढ़कर देखा - वहाँ चार दीवारी के बीच एक बेडौल-सा पत्थर रखा था। उस पर केसरिया रंग का लेप चढ़ा था जिससे जाना कि देवता के रूप में इसी को पूजा जाता है। “यह देवता की अंतिम निशानी के रूप में रखा गया था” - लड़की ने कहा “इसकी स्थापना लगभग सात सदी पहले यहाँ के लोगों ने की थी।” उस जमाने में वह एक जीता-जागता इंसान था जो इसी पहाड़ी पर विचरता था। वह एक युवा गड़रिया और ‘एक महान प्रेमी’ था जिसने अपने जीवन में जो प्रेम किया, वह इतना दृढ, गरिमामय और त्याग से भरा था कि मरने के बाद उसके नाम मंदिर बनवाया गया और उसे देवता कहा गया - प्रेम का देवता। आज भी यहाँ का हर आदमी देवता की कहानी को जानता है और महिलाएँ बार-बार अपने गीतों में उसे दोहराती रहती हैं। बच्चे जब भी किसी बात को सत्य साबित करने के लिए कसम खाते हैं तो इसी के नाम खाते हैं। मैं देवता के परिचय से इतना उत्साहित हुआ कि मैंने उसकी कहानी यहीं सुननी चाही लेकिन लड़की ने उसे बाद के लिए बचाकर रखा। मुझे धैर्य रखना था। मैंने रखा। मैंने अभी सिर्फ इतना समझा कि वह अवश्य ही प्रेम का कोई विराट दृष्टा होगा जिसकी आत्मा अब भी पीपल की छाँव में बैठकर जलती-बुझती प्रेम कहानियाँ देखती रहती होगी। 

मंदिर के पास वाला पेड़, जिसे मैं पहले ही पहचान चुका था कि वह बूढ़ा पीपल है, बहुत थका और शान्त लग रहा था। उस समय हवा नहीं थी, अगर होती तो उसके पत्तों की भयावह फड़फड़ाहट से कोई बहरा भी समझ जाता - ‘अरे! ये तो पीपल है।’ इस शान्ति में मुझे वह पेड़ भी देवता की तरह त्याग से भरा लगा। “इसकी उम्र भी लोग सदियों में गिनते हैं।” - लड़की ने बताया। उस पेड़ को देखकर मुझे लगा - काश! इंसान पेड़ों की तरह होते। हमारी तरह चलना-फिरना उनके लिए संभव नहीं, वे जब तक जीते हैं कभी अपना स्थान नहीं बदलते, बहुत सादगी से वहीं मर-मिट जाते हैं जहाँ उगते और बड़े होते हैं। मुझे हमेशा लगता है कि पेड़ों का यही जमाव है जिसके चलते उनसे सच्चा प्रेम किया जा सकता है और अपना बनाकर रखा जा सकता है। यह इंसान के लिए तरस खाने वाली बात है कि वे कभी पेड़ नहीं हो सकते, यहाँ तक कि जानवरों से भी ऐसी उम्मीद रखना बेकार बात होगी। “नहीं-नहीं” - लड़की ने मुझे काटकर कहा “आप उस मोर से यह उम्मीद रख सकते थे। वह बिलकुल देवता और पीपल की तरह दृढ़ था।”

उसने बताया कि वह एक सुन्दर मोर था जिसकी लम्बाई लगभग सात फीट थी। उसकी कद-काठी इतनी पूर्ण थी कि वह अपने-आपमें बहुत गर्वीला लगता था। वह समस्त रंगों का एक उज्ज्वल घोल-सा था, हालांकि नीला रंग ही सबसे अधिक दिखता था। शरीर की रंग-बिरंगी धारियों के पीछे पंखों का भारी हुजूम, वह इतना भारी था कि मोर जब चलता था, धरती को बुहारते हुए चलता था। इस बात पर मुझे किसी अखबार में पढ़ी एक पंक्ति याद आई कि डार्विन - वह कहता था कि उसे जब भी मोर की पूँछ दिखाई देती है, उसकी अनुपयोगिता देखकर उसका सिर दु:खने लगता है। लड़की के साथ ऐसा नहीं था। वह उसे जीते-जागते इन्द्रधनुष की तरह देखती थी और देखकर आनंद से भर उठती थी। उसे सुनकर मुझे बचपन की कुछ किताबें याद आईं जिनमें लिखा रहता था कि मोर समस्त पक्षियों का राजा है। वह संसार का सबसे बड़ा चित्रकार होगा जिसने उसे इतनी बारीकी से रंगा होगा, किताबों के अनुसार निश्चित ही वह चित्रकार स्वयं ईश्वर था इसलिए यह भी उन्हीं किताबों ने बताया कि जब भी मोर सुरीले स्वर में गाता है, उसी अनाम रचनाकार के नाम गा रहा होता है।

“वह देवता के नाम गाता था।” - ये लड़की के शब्द थे। 

वह शायद एक छोटा बच्चा ही था जब उसने पहाड़ी को अपना घर मान लिया। वह यहीं बड़ा हुआ और पूरा युवा होने के बाद भी इस जगह को त्यागने की जरूरत नहीं समझी। यह अद्भुत बात है। कुछ पक्षियों का यह स्वभाव होता है कि वे किसी एक पेड़ को अपना सारा संसार मान लेते हैं, यहाँ तक कि उन्हें एक निश्चित डाली पर ही बैठना रास आता है। वे पता नहीं क्यों संसार की खुली डालियाँ छोड़कर एक ही डाल चुनते हैं और उसी से अपनी पहचान कायम रखते हैं। वे दिन में कहीं भी रहें, रात होते ही वापस ‘घर’ लौट आते हैं। मैंने गौर से उसका घर देखा - मैं पीपल के नीचे खड़ा होकर पत्तों की झालर से वह शाख देखने लगा जहाँ पंजें जमाकर मोर रातें गुजारता था। वह एक मजबूत और लम्बी शाख थी। भयानक बारिशों से लेकर ठिठुरती सर्दियों, सर्दियों से तेज गर्मियों तक की सारी रातें उसने वहीं बिताई थी। जिस तरह लड़की ने बताया, उसके अनुसार वह सुबह की पहली किरण के साथ ही नीचे उतर जाता था और दिन की शुरुआत चबूतरे पर नाचने से करता था। गर्दन उठाकर, देह को फड़फड़ाते हुए एक तेज झुर्राहट के साथ वह पंखों को खोलता और फिर गोल-गोल घूमते हुए नाचता रहता। लड़की को सुनते हुए लगा कि मोरनाच देखकर समय के उस पार देवता की आँखें खुल जाती होंगी, वह अपनी अंतिम शक्ति तक उसे देखता रहता होगा। 







नृत्य के बाद - वह नीचे तलहटी में खेतों की ओर चला जाता जहाँ से दूसरे मोर-मोरनियों के संग घूमने निकलता। इन संगी-साथियों के साथ वह कभी फसलों और झाड़ियों में बैठा रहता, कभी मेंड़ों पर टहलता रहता। वह खेतों-खलिहानों में दाने चुगता रहता और फिर दोपहर को किसी टंकी या डबरियों में पानी पीता दिखाई देता। वह दिन भर इसी तरह भटकता रहता लेकिन उसकी भूख शान्त नहीं होती। इस शान्ति के लिए उसे शाम का इंतज़ार करना पड़ता जब खाने के लिए एकसाथ बहुत कुछ मिलता। वह शाम होने से पहले ही वापस पहाड़ी पर लौट आता और एक ख़ास चट्टान पर आ खड़ा होता। वह यहाँ ऐसे खड़ा रहता जैसा किसी चिंतन में हो। मैंने खुद वह चट्टान देखी - वह पहाड़ी पर एक छज्जे की तरह जमी हुई थी जहाँ से नीचे के घर रंग-बिरंगे डिब्बों-से दिखाई देते हैं। वह यहीं से उन घरों के झुंड को ताकने लगता। उसकी सीधी अकड़ी देह, मटकती गर्दन और पंखों की हल्की कसरत से ही अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि वह अब उस ओर छलाँग लगाने वाला है। वह झुककर उड़ने की तैयारी करता और फिर उछलकर एक जोरदार छलाँग मारता। वह खेतों, पेड़ों और घरों के ऊपर से तैरता हुआ आगे बढ़ता। अपनी उड़ान की सीमाओं के कारण बीच में वह कुछ स्थानों पर विराम लेता और अंततः उस दो मंजिले मकान की छत पर जाकर उतरता जहाँ पहुँचना उसके लिए किसी ‘दैवीय कानून’ को निभाने जैसा था।
“वह मेरा घर था” - लड़की ने बताया “जहाँ आना उसकी रोज की आदत थी।”
छत पर कूदकर वह पहले पंखों को व्यवस्थित करता। झटक-झटककर पंजों से गर्दन खुजलाता और चोंच से पीठ सँवारता। फिर इधर-उधर ताक-झाँक करते हुए नाजुकी से डग भरता हुआ मँडराना शुरू करता। इन आरामदायक हरकतों के बाद वह धीरे-धीरे मुँडेर की तरफ बढ़ता और फिर आसमान की ओर देखकर तेज-तेज गूँजें मारने लगता। “दरअसल वह बताता था कि देखो - मैं आ चुका हूँ” - लड़की ने कहा “वह समय का पक्का था और मेरे लिए उस घड़ी-सा था जो कभी गलत समय नहीं बताती। उसे देखते ही मैं समझ जाती - चार बज चुके हैं।” यह कुछ प्राणियों का वाकई अचरज-भरा व्यवहार होता है कि वे अपने निश्चित समय पर ही दस्तक देते हैं। मोर का यही व्यवहार था। इससे लड़की का परिवार अवगत नहीं था, सिर्फ वही परिचित थी और गूँज सुनकर इस ख़ास समय से सम्बंधित कई बातें अपनी माँ से करने लगती थी।
- माँ! चार बज गए। अभी तक पापा घर नहीं आए। 
- माँ! चार बज गए। भैंस को पानी नहीं पिलाया, बेचारी प्यासी खड़ी है। 
- माँ! चार बज गए। किचिन में कुछ काम देख लो।
- माँ! चार बज गए। मैं वहाँ जा रही हूँ, जल्दी ही लौट आऊँगी। 
समय को इस तरह देखने की आदत से मेरा भी परिचय था। कई बार ऐसा होता है जब हम अनायास ही आसपास के दूसरे जरियों का सहारा लेकर समय जान लेते हैं। हम कभी-कभी तो उन पर निर्भर हो जाते हैं और ऐसे संयोगों को दैनिक जीवन में शामिल कर लेते हैं। 
लड़की को सुनकर मुझे कुछ दृश्य याद आए - 
पहले मेरे घर के दरवाजे पर रोज एक गाय आ खड़ी होती थी। उसे पहली बार शायद सुबह दस बजे रोटी खिलाई गई थी इसलिए उसके बाद वह उसी समय दस्तक देने लगी, उसे देखकर मेरे पिता अनुमान लगा लेते थे - दस बज गए होंगे। बचपन में स्कूल की छुट्टी के बाद भागते बच्चों को देखकर मेरी माँ जान लेती थी - दोपहर का एक बजा है! मुझे कुछ बुजुर्ग याद आए जो एक छप्पर तले ताश खेलते रहते थे। वे सामने से गुजरते डाकिए को देखकर दो बजने का अंदाजा लगाते थे। मेरे दादा दूर एक मस्जिद की अज़ान सुनकर कहते थे - उठो! चार बज गए। किसी गाँव के पास अगर रेलवे लाइन हो तो वहाँ के लोग अलग-अलग ट्रेनों से समय जानते हैं। पहले भीत की परछाँई से भी समय पता करते थे। मैंने लड़की को ऊपर-नीचे उँगलियाँ रोपकर समय देखने के तरीके पर भी बात की लेकिन ये सब पुरानी बातें थी जब आमतौर पर लोगों के पास घड़ी नहीं होती थी। अब ऐसा होना सिर्फ आदत और संयोग ही हो सकता है। यह एक संयोग ही था कि मोर की किलकारियाँ सुनकर वह शाम के चार बजने को पहचानती थी। वह जैसे ही मीठी गूँज सुनती, ठीक उसी क्षण उस काम के लिए तत्पर हो जाती जिसका उसे पूरे दिन इंतज़ार रहता था। 
“वह पहाड़ी से एक सन्देश लाता था” - लड़की ने बताया “जैसे मोर का मतलब चार बजना था, चार बजने का मतलब था कि मुझे अपने प्रेमी से मिलने निकल जाना चाहिए।”
वह प्रेम में थी और उसके शब्द प्रेम की तरफ निकलेंगे, यह बात मुझे यहाँ पता चली।
वह जैसे ही मोर को सुनती, सबसे पहले उसकी नज़र दीवार पर लटकी घड़ी की तरफ उठती। घड़ी की सुइयाँ रोमन अंक "IV" के आसपास ही रहतीं, कुछ मिनटों की हेर-फेर के अलावा किसी अंतर की गुंजाईश नहीं थी। समय का सही मिलान करते हुए वह किचिन में घुसती, मोर के लिए खाने की कुछ चीजें जुटाती और फिर सीढ़ियों से होती हुई सीधे छत पर चली आती। वह देखती - मोर कित्ता भूखा है, कित्ता उतावला है? लड़की ने बताया कि वह रोज उसे कुछ ना कुछ जरूर खिलाती थी। दोपहर की बची रोटियाँ, बिस्कुट के टुकड़े और अनाज के दानों से लेकर मोर का पसंदीदा आहार - लम्बी लाल मिर्चियाँ। वह उसे प्यार से पुचकारते हुए पास बुलाती और मोर धीरे-धीरे उसकी तरफ कदम बढ़ाने लगता। मैं जानता हूँ इंसानों से तमाम नजदीकियों के बाद भी इस प्राणी का यह स्वभाव नहीं कि वह पालतू पक्षियों की तरह हाथों में आ जाए। वह आधा जंगली, आधा समाजी प्राणी है जो छोटी उम्र वालों के पास तो कभी नहीं आता। लेकिन एक उम्र के लोगों से लगातार संपर्क के बाद थोड़ा करीब आने लगता है और क्योंकि लड़की की उम्र इतनी थी कि उस पर विश्वास दिखा सके इसलिए वह विश्वास दिखाता था। वह हिचकिचाते हुए पास आता और उसकी हथेलियों से खाना उठाकर गटक जाता। यह क्षण उन दोनों को असीम संतोष में डुबो देता था। 

इस संतोष के बाद लड़की उसे आज़ाद छोड़ देती। वह एक झलक के लिए उस बर्तन पर नज़र डालती थी जो एक घड़े को काटकर मुंडेर पर रखा गया था। वह पानी का बर्तन था जिसमें पक्षियों के लिए पानी भरा जाता। पानी है? हाँ! भरा है। वह संतुष्ट होती और मोर को वहीं छोड़कर वापस नीचे किचिन में चली आती। वह अब प्रेमी के लिए कुछ सामग्री तैयार करती। वह गैस जलाकर चाय की केतली चढ़ाती और फिर आईने के सामने बैठकर खुद को सँवारने लगती। इस सँवारने में वह बालों में एक तितली वाली क्लिप लगाना कभी नहीं भूलती जो उसके प्रेमी को बहुत प्रिय थी। वह इस दौरान समय का भी ध्यान रखती क्योंकि कभी-कभी देर हो जाने पर प्रेमी थोड़ा नाराज हो जाता था। वह उसे कभी नाराज नहीं होने देती। जैसा लड़की ने बताया - वह जल्दी से थरमस में चाय भरती और रोज अपनी माँ के सामने एक झूठी पंक्ति दोहराती - माँ! मैं ‘अपनी दोस्त’ के पास जा रही हूँ, जल्दी लौट आऊँगी।” यह उसकी एक सहेली थी जिसके नाम का वह बहाना करती थी। सहेली का घर पहाड़ी के रास्ते में ही पड़ता था लेकिन उसके पास रुकना बहुत कम होता था। 
वह अपनी स्कूटी उठाती और सीधे पहाड़ी की तरफ निकल जाती थी। 

3
मोर के साथ प्रेम को जोड़ते हुए लड़की ने शब्द आगे बढ़ाए। उसने प्रेम और प्रेमी के बारे में बताना शुरू किया। मैंने भी प्रेम से जुड़े अपने सारे शब्दों और छवियों को समेटकर इकट्ठा कर लिया ताकि उसका साथ दे सकूँ। देवता की तरह मैं कोई महान प्रेमी या प्रेम का ऐसा दृष्टा तो कभी नहीं रहा लेकिन शायद प्रेम ही वह भावना है जिसके लिए किसी को किसी ‘सिंहासन’ की जरूरत नहीं होती, बल्कि प्रेम के बारे में वे सबसे अधिक सोचते हैं जिनके जीवन में प्रेम का स्थान थोड़ा कम रहा हो या रहकर मिट गया हो। इससे पहले कि शब्द आगे बढ़ें, मैंने उससे प्रेम का वह दूसरा ‘पर्याय’ शब्द पूछा जो उसके दिमाग में सबसे पहले आता हो। “वह कौन-सा शब्द है?”- मैं उसके प्रेम को समझने के लिए वह शुरुआती शब्द समझ लेना चाहता था जो उसके अर्थ के रूप में उसके जीवन में मौजूद रहा हो। 
“फूल” - उसने जवाब दिया “मेरे प्रेम की शुरुआत फूलों से हुई थी।”
यह सुनकर उसके प्रेम को पढ़ने में आसानी हुई। यह सुनकर अनायास ही मुझे एक सनकी आदमी के कुछ किस्से याद आए जिसके प्रेम की शुरुआत एक ‘पौधे’ से हुई थी। वह ‘प्रेम’ के पर्याय में ‘पौधे’ शब्द को देखता था। यह समानता पाकर मैंने उसे उस आदमी के बारे में बताया- लोग कहते हैं एक बार उसने एक पौधा लगाती हुई लड़की को देखा और सिर्फ देखकर ही वह उसके प्रेम में पड़ गया। वह संभवतः उस इमेज में अटक गया था - ‘अहा! पौधा लगाती हुई लड़की।’
"क्या यह संभव है?" - मैंने लड़की से पूछा। 
"पता नहीं, मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ।" - उसने जवाब दिया। 
उसने मुझे बताया कि उसे फूलों को लेकर कोई पूर्वाग्रह नहीं था बल्कि जब तक वह क्षण सामने नहीं आ गया, वह प्रेम शब्द से ही अपरिचित थी। वे कैसे फूल थे और कैसी सुगंध थी? यह जानने के लिए उसने थोड़ा अतीत में चलने की गुजारिश की, अन्य गुजारिशों की तरह मैंने इसे भी स्वीकार कर लिया। 
लगभग एक वर्ष पहले - पिछले बारिश के मौसम में लड़की ने बीसवाँ साल शुरू किया था। यही समय था जब पहली बार उसका अपनी उम्र और आकांक्षाओं से परिचय हुआ। वह जिस स्कूल में पढ़ती थी, वह पहाड़ी के उस पार कस्बे में पड़ता था। वहाँ जाने के लिए वह एक स्कूल-बस में सफर करती थी जिसमें पहली बार उसने उस लड़के को देखा। वह बारहवीं कक्षा की छात्रा थी जबकि लड़का कोई सहपाठी या स्कूली छात्र नहीं बल्कि उससे दो वर्ष बड़ा एक कॉलेज का छात्र था जिससे कुदरतन मुलाकात हुई। लड़के के पिता ने, जो शायद बसों को किराए पर देने वाला व्यवसायी था, अपनी एक बस स्कूल वालों को किराए पर दी हुई थी। वह लड़का कई बार बाइक के अभाव में इस बस का सहारा लेता था जो कई रास्तों से गुजरती हुई पहले स्कूली विद्यार्थियों को ढोकर स्कूल छोड़ती थी, उसके बाद अकेले लड़के के लिए कॉलेज के सामने से गुजरती थी। उनकी कहानी इसी बस में शुरू हुई।
मैं जब भी प्रेम कहानियाँ सुनता हूँ, सबसे अधिक उत्सुकता दो लोगों की पहली मुलाकात और मुलाकात के पहले क्षण को लेकर होती है। संसार की विशाल भीड़ में एक को दूसरे को मिला देने वाला कैसा संयोग रहता होगा? वह कौन-सी शक्ति रहती होगी जो अलग-अलग अतीतों से दो अनजान-अपरिचितों को चुनकर एक डोर में बाँध देती है?
“मेरे लिए वह सामान्य-सा क्षण था।” - लड़की ने कहा। 







उसने बताया वह अगस्त की एक सुबह थी जब बारिश की वजह से खेतों और सड़क के गड्ढों में पानी भरा था। वह कई अन्य लड़कियों के साथ थी और कीचड़ से बचते हुए बस की तरफ बढ़ रही थी। तभी उसने दो-चार बूँदें चेहरे पर गिरती हुई महसूस कीं। उसे लगा फिर से बारिश होने वाली है। उसने छाता निकाला और उसे खोलते समय आसमान की ओर देखा - वहाँ बादल दिखाई दिए। उसने गर्दन नीची की तो पहाड़ी और मंदिर दिखा, फिर छाता खोलकर सामने देखने लगी - 
उसने देखा - कोई नीली शर्ट वाला लड़का बस के दरवाजे पर हाथ लटकाए खड़ा है।
यह पहली छवि थी। 
मैंने उस क्षण को गहराई से जानना चाहा तो लड़की ने याद किया कि उस क्षण उसने साथ चलती लड़कियों की खिलखिलाहट सुनी थी। उसने बस ड्राइवर को भी मुस्कुराते देखा। उसने उस क्षण को पूरी तरह टटोलते हुए बताया कि लगभग सारे लोग सुबह की मुस्कुराहटों में गुम थे, सिर्फ स्वयं और वह लड़का ही था जो मुस्कुरा नहीं रहे थे। ‘क्या मुस्कुराते माहौल में दो अजनबियों का ना मुस्कुराना आकर्षण की पहली छवि हो सकती है?’ - मैं पूछना चाहता था लेकिन लड़की ने साफ़ कर दिया कि पहली नज़र में कोई आकर्षण नहीं हुआ, बल्कि उसे यह एक सामान्य-सी सुबह लग रही थी और अभी तक उस लड़के के बारे में कुछ नहीं सोच रही थी।
“लेकिन उसके बाद जो हुआ”- लड़की ने कहा “वह बहुत असामान्य बात थी।”
वह रोज की तरह आज भी अपनी सीट पर बैठी, रोज की तरह बैग पीठ पर ही लादे रखा और रास्ते में पड़ने वाली सारी चीजों को खिड़की से चुपचाप उसी तरह देखती रही जैसे पहले देखती आई थी - 
- सड़क से गुजरते दूसरे वाहनों को…
- घूमते घरों और खेतों को…
- पीछे छूटते पेड़ों और बगीचों को…
लेकिन जैसे ही कक्षा में पहुँची और बैग खोला तो बिलकुल अचंभित रह गई - 
“मैंने देखा कि मेरा बैग फूलों से भरा हुआ था।” - उसने बताया। 
बिना किसी त्वरित विरोध के, उसने ना सिर्फ यह आश्चर्य सबसे छुपाकर रखा बल्कि कक्षा से बाहर निकली और भागती हुई वॉशरूम चली गई। वह गौर से बैग को खँगालना चाहती थी। उसने वहाँ देखा, उसे विश्वास नहीं हुआ, वे सचमुच फूल ही थे जो जीवित कोशिकाओं की तरह हौले-हौले कुलबुलाते हुए लग रहे थे। ओह! यह कैसा आश्चर्य है? इससे पहले कि वह डरकर उन्हें कमोड में डाल दे और चेन खींच दे, उसके अंदर की आवाज़ ने कहा कि ये तो कोई रोमांचक और बहुत भली-सी चीज है। उसने फूलों को छूकर देखा - वे बहुत मासूम और बुदबुदाते हुए-से लगे। उसने फूलों के नीचे दबी किताबें सतर्कता से बाहर निकाल लीं ताकि फूलों को कोई नुकसान ना पहुँचे। वह वापस कक्षा में आ गई लेकिन इतनी-सी देर में सबकुछ बदल चुका था। अब वह फूलों के एक नए तूफ़ान में कैद थी। उस दिन वह कुछ नहीं पढ़ पाई। उसके सामने अध्यापक बोलते रहे और वह बैग में रखे इस ‘चमत्कार’ के बारे में सोचती रही।
स्कूल के बाद - जब वह घर लौटी तो सीधे छत पर चली गई और उन्हें फिर से देखने लगी। वह ऐसे देखती रही जैसे वे कोई विचित्र चीज हों और पहली बार देखा हो। जब पहली बार लड़की ने फूलों को देखा तो फेंका नहीं, बल्कि सहेजकर रख लिया। उसने उन्हें छत पर बनी अटारी में छुपा दिया जहाँ वे घरवालों की नज़रों से बच कर रह सकते थे। उसके बाद यह आदत हमेशा के लिए साथ हो गई। 
वह रोज सुबह स्कूल जाती रही, रोज लड़का आता रहा, उसे देखकर वह बस में बैठती रही और स्कूल में बैग खोलती रही - रोज फूल मिलते रहे। 
“आप सोच सकते हैं यह उस लड़के की वजह से होता था” - लड़की ने कहा “वह रोज चलती बस में खिड़की से हाथ निकालता और रास्ते में पड़ने वाले पेड़ों से फूल तोड़कर बस्ते में डाल देता।” 
वाह! मैं सोचने लगा। वह लड़का वाकई तेज दिमाग और किस्मत वाला रहा होगा। उसकी जगह यदि मैं किसी के लिए इस तरह फूल तोड़ने की कोशिश करता तो निश्चिय ही मेरा हाथ बबूल की टहनियों से टकराया होता, या संभव था कि कोई मनचला पहलवान खिड़की से मेरा हाथ खींचता और बाहर जोरदार पटकी दे मारता। यह सिर्फ मेरे साथ संभव था। उस लड़के के साथ नहीं। वह प्रेम में भाग्य का भोक्ता था जो रोज लड़की के पीछे खड़ा होता, जैसे ही रास्ते में बगीचे आते, वह खिड़की से टकराती डालियों का फायदा उठाकर फूल तोड़ लेता और चुपके से बैग की जिप खोलकर डाल देता। 
लड़की के लिए यह एक मीठा सिलसिला था जो हर सुबह अपनी चमक के साथ चलता रहा। यह एक रोमांचक बात थी इसलिए उसने भी इसे सहजता से चलने दिया। तब एक दिन अचानक - लड़के ने फूलों को बस्ते में डालने के बजाय अपनी जेबों में भर लिया। लड़की अपने स्कूल के सामने बस से उतरी और लड़का उसके पीछे-पीछे चलने लगा। वह सड़क पर चलती हुई लड़की से बात करना चाहता था लेकिन इसके लिए साहस की जरूरत थी। वह डर रहा था इसलिए चलते समय उसकी जेबों से दो-चार फूल हिचकिचाहट के मारे टपक रहे थे। उन दोनों ने यहाँ पहली बार आमने-सामने की भेंट की। बिना कोई शब्द बोले लड़के ने फूल निकाले और लड़की के सामने पेश कर दिए। 
“वह प्रेम का कोमल प्रस्ताव था” - उसने कहा “जिसे बड़े-से डर और छोटी-सी ख़ुशी के साथ मैंने झोली में डाल लिया।” 
उसे प्रेम का यह स्वीकार तो याद रहा लेकिन किस निश्चित क्षण में प्रेम हो जाने दिया, यह बिलकुल नहीं बता सकी। यह सच था कि फूलों को देखकर आकर्षण पैदा हुआ लेकिन कब वह गहरे प्रेम में बदल गया, ऐसा कोई क्षण नोट नहीं किया। वह अब प्रेम में थी। वह नए-नए स्वप्नों में रहने लगी। उसके स्वप्नों के बारे में सुनकर मुझे लगा संभवतः फूल ही वह चीज रही होगी जिसे देखकर इंसान ने पहली बार कोई ‘स्वप्न’ देखा होगा। मुझे लगा कि हमारी आत्मा में प्रेम का विकास पौधों और फूलों के विकास की तरह होता होगा, जो होता तो सामने है लेकिन हमारी आँखें कभी उन्हें नोट नहीं कर सकतीं और फिर एक दिन अचानक पता चलता है - उस पौधे ने नए फूल दिए हैं। 
मुझे उस सनकी आदमी का एक किस्सा याद आया जो पौधा लगाती हुई लड़की को देखकर आकर्षित हुआ था। उसका आकर्षण शायद अब प्रेम में बदल गया था इसलिए वह उस स्थिति को समझने की कोशिश में रहता था। 
मैंने लड़की को यह किस्सा सुनाया -


उस आदमी के आँगन में कुछ पौधे लगे हुए थे जिन्हें वह रोज सुबह उठकर देखता था। वह पेड़-पौधों का दीवाना था लेकिन इससे पहले उसके दिमाग में कभी यह बात नहीं आई, अब क्योंकि वह प्रेम में था इसलिए एक सुबह अचानक सवाल उपजा - ये फूल हमेशा अँधेरे में क्यों खिलते हैं? ये अपना विकास इतने अदृश्य-अगोचर तरीके से क्यों करते हैं? आँखों के सामने क्यों नहीं करते? वह इस सवाल में इतना खो गया कि उसने जवाब खोजने की ठान ली। अगली रात वह टॉर्च लेकर एक स्टूल पर बैठ गया और रात-भर छोटी-छोटी कलियों और पत्तियों को देखता रहा। उसने कहीं कोई हलचल महसूस नहीं की लेकिन जब सुबह फूलों को देखा तो पाया कि परिवर्तन तो हुआ है। शाम तक जो सिर्फ कलियाँ थीं वे अब फूलों में परिवर्तित हो गई हैं और जहाँ कुछ ना था, वहाँ भी कुछ नई कलियों ने जगह बना ली है। उसे लगा कि उसके देखने में कुछ कमी रह गई।

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