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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

29 सितंबर, 2018


फ़िल्म: स्त्री
  दिल के दर्जी कहाँ मिलते हैं...
रश्मि मालवीय


दिल के दर्जी कहां मिलते हैं , अगर होते तो शायद सबसे ज्यादा भीड़ वहीं होती....दिलों की सिलाई बहुत कमजोर घागे से हुई होती है आसानी से उधड़ जाती है । खैर...
फिल्म में मध्यप्रदेश के बहुत प्रसिद्ध शहर चंदेरी की गलियों में घूमते हुए आप देख सकते हैं की भारत की असल खूबसूरती इन  गाँव की पगडंडियों में ही है जिनके पास हैं ये अभी तक, वो सौभाग्यशाली हैं।ये  वही चंदेरी है जिसे स्त्रियों की मनपसंद साड़ियों के लिये जाना जाता है।कहानी भी एक स्त्री के इर्द गिर्द ही घूमती है । फ़िल्म का नाम है "स्त्री"

अमर कौशिक इसके निर्देशक है जो बहुत मेहनत से इस फ़िल्म रूपी जहाज को तमाम लहरों से पार कराते हुए किनारे तक पहुँचा देते हैं। जहाज का कप्तान मजबूत हो तो सफर सुहाना होता है और सुरक्षित भी। 
निर्माता दिनेश विजन, राज निदिमोरु और कृष्णा डीके हैं।
लेखक सुमित अरोड़ा (संवाद) जो इस जहाज की पतवार हैं और  बखूबी उन्होंने इसे किनारे पहुँचाते है।

एक किवंदिति मानी गई है कि एक समय कभी वहाँ कोई स्त्री थी जिसे जीवन में लोग तो बहुत मिले लेकिन जैसा कि अक्सर होता आया है सच्चा प्यार नही पा पाती और जब पाती है तो शहर को हजम नहीं होता वे दोनों मारे जाते हैं यहीं से वो स्त्री एक चुड़ैल के रूप में शहर के पुरुषों के लिये जानलेवा बन जाती है। फ्लोरा सैनी- "स्त्री" के रूप में हैं। जो बहुत शानदार हैं।



शहर के हर घर में लिखा दिया जाता है "स्त्री कल आना"। जो नई पीढ़ी को नागवार लगता है और वो पूरे जोर से प्रतिशोध भी करते हैं लेकिन एक के बाद एक घटनाओं के बाद उन्हें भी कुछ मानने के लिये बाध्य होना पड़ता है ।किसी भी बात को जब मान लिया जाता है तब उसे दूर करने के उपाय भी मनुष्य खोजता ही लेता है ।ये जो है मानना है यही महत्वपूर्ण है।

कहानी में जितना पुरानापन है  फ़िल्म में उतना ही नयापन और दमदार शैली है।
इस फ़िल्म को देखना इसलिये भी जरूरी हो जाता है की जीवन कुछ कुछ इसी तरह का है जहाँ तक नज़र जाए वहाँ तक मुसीबत और दुख की परछाई ,इन्ही रोने के कई कारणों में से एक कारण ढूंढना जो थोड़ा हंसा दे ।ये वो फ़िल्म है।
बात ये भी है की इसकी बुनावट कुछ इस तरह की गई है की अन्य भूतों और तथाकथित डरावनी फ़िल्म जहाँ वीभत्सता परोसती हैं और कई कड़वे दृश्य छोड़ जाती हैं मानसपटल पर ।
ये फ़िल्म आपको खूब हल्के और रोचक तरीके से अपनी पूरी स्वाभाविकता से हंसाने का माद्दा रखती है।
इसकी सहजता और सरलता ही इसकी  देखे जाने की ताकत है।

बेचारी स्त्री ,उसे भूत बनकर भी डाँट ही मिली खाने को..
लेकिन जो डाँटता है सबसे अच्छी बात है की वो समझता भी है ....
ये कम बात बिल्कुल भी नहीं है!!

स्त्री को सहन करने की मशीन माना जाता है लेकिन कभी कभी वही जीती जागती मशीन मना कर देती है की बस !!
अब और नहीं !!
ये कहानी यहीं से शुरू होती है ,ये चेतावनी भी है की पार जाने के बाद भी कुछ किस्से अधूरे नहीं छोड़े जा सकते और मार कर भी मारा नहीं जा सकता हमेशा।


राजकुमार राव देखने में लगता है अरे ये तो अगली गली में रहने वाला कोई साधारण सा लड़का है जो अन्य सभी की तरह लड़की के  देख भर लेने से तो जान भी दे  दे। साधारण से कपड़े ,अत्यंत साधारण रहन सहन और उससे भी ज्यादा सहज सरल बोलचाल।
श्रद्धा कपूर अपने सभी भाव खूबसूरती से बचा बचा कर खर्च करती है और अंत तक भुलावे में रख पाती है सभी को। कहने से ज्यादा आँखो से बातें ज्यादा करती दिखाई देती हैं।

अन्य कलाकारों  में  पंकज त्रिवेदी की साधारणता ही उनकी असाधरणता बन जाती है। उनकी उपस्थिति आश्वस्त करती है ।
अपारशक्ति खुराना ,अभिषेक बैनर्जी सहित सभी पात्र कोई कसर नहीं छोड़ते फ़िल्म को आसानी से आगे ले जाने में...

अंत में अंत कुछ और आसान होता तो ज्यादा अच्छा हो सकता था। हालाँकि अगले साल स्त्री आने पर देखती है शहर के दरवाजे पर लिखा देखती है "स्त्री रक्षा करो"और वापस चली जाती है।स्त्री सम्मान पाने की ही अभिलाषा रखती है मरने के बाद भी।
हर स्त्री को उसका प्यार मिले इस स्त्री के साथ साथ ...
और वो भी अपने पूरे वजूद और मर्यादा के साथ!!
आमीन!!

बस एक बात खटकती है की फ़िल्म का संगीत साधारण है जो सचिन -जिगर ने दिया है  ऐसा कोई गीत नज़र नहीं आता जो ज़बानों पर चढ़ा देखा गया हो।  जो 4 गीत  है वो अनावश्यक नहीं लगते  देखे जा सकते है ।
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 परिचय-
रश्मि मालवीय
415/A, तुलसीनगर, इंदौर
452003
7869546149
समाज शास्त्र में परास्नातक
लाइब्रेरी साइंस में स्नातक
शिक्षा में स्नातक
पिछले 13 वर्षों से पुस्कालयध्यक्ष के पद पर कार्यरत
हिंदी  साहित्य से लगाव
पत्रिकाओं एवं  वेब पत्रिकाओं में कविता प्रकाशित




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