स्त्री और प्रेम की अवधारणा
सुधा अरोड़ा
प्रेम को किसी कालखंड में बांट कर नहीं देखा जा सकता . सामंतवाद और पूंजीवाद , उत्पादन से जुडी अर्थव्यवस्थाएं हैं . सामंती व्यवस्था के बनिस्बत पूंजीवाद में आजादी के मायने ज्यादा खुले. सामंती व्यवस्था में जमींदार और सामंत मजदूरों के मालिक थे. उनकी पुश्त दर पुश्त सामंतों की गुलाम रही, जबकि पूंजीवाद में पूंजीपतियों ने पैसा देकर श्रम को खरीदा पर उद्योग से बाहर श्रमिक आजाद था . इन व्यवस्थाओं ने मानव समाज में प्रेम की अवधारणा को प्रभावित जरूर किया पर प्रेम हर काल में और आर्थिक समीकरणों की सीमाओं के बावजूद रहा .
प्रेम को सामंती अवधारणा कहना गलत है . जो धारणा स्त्री विरोधी और सामंती है , अव्व्ल तो वह प्रेम है ही नहीं . पुरुष अगर उसमें एक आका , एक मालिक की भूमिका में है तो यह अवधारणा सामंती लग सकती है . सामंती समाज में स्त्रियों के अधिकारों की बात कभी की ही नहीं गई . त्याग और एकनिष्ठता , सेवा और बिना किसी शर्त के समर्पण किसी भी स्त्री की अलिखित आचार संहिता के अनिवार्य गुण थे . सामंती समाज के बाद ही स्त्री पुरूष के प्रेम में परस्पर सम्मान और निजी पहचान को बरकरार रखने की अनिवार्यता महसूस की गई .
आदिम काल से जिस आदम हव्वा की कहानियों को हम धार्मिक किताबों में पढते हैं , वह वस्तुत: प्रेमाख्यान ही है और जिस सेव को खाने के कारण उन्हें स्वर्ग से बहिष्कृत करके धरती की मुश्किलें झेलने के लिये भेज दिया गया था , वही आज भी प्रेम का प्रतिसाद दिखाई देता है . भारत के गांवों में ऑनर किलिंग के बावजूद , अपनी जान को हथेली पर रखकर , अनेक युवा प्रेमी प्रेम कर लेते हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वे किसी सामंती समाज को मजबूत बना रहे हैं बल्कि वे एक नया समाज रचने की कोशिश कर रहे हैं , बेशक इसके लिये उन्हें अपनी जान की आहुति देनी पडती है . विश्व साहित्य की महानतम कृतियां वस्तुत: प्रेम आख्यान हैं .
आज पूरी दुनिया में स्त्री पुरूष दैहिक संबंधों में लिप्त दिखाई पडते हैं . लेकिन जब कभी वे कहीं मानसिक रूप से जुडते हैं तो एक ऐसी परिघटना होती है जिसे हम प्रेम के रूप में जानते हैं . प्रेम किसी को भी धारा के विरूद्ध बहने और विपरीतता से लडने की ताकत देता है और जाहिर है , ये बातें सामंती और रूढिग्रस्त पुरूषवादी समाज को ध्वस्त कर एक नया समाज गढने की प्रेरणा देती हैं . कबीर ने जब ‘‘ ढाई आखर प्रेम का’’ पढने की बात को तो निश्चित रूप से प्रेम को वृहत्तर संदर्भों में देखा , सिर्फ दैहिक वासना के रूप में नहीं ।
क्या प्रेम स्त्री विरोधी धारणा है ? प्रेम अगर स्त्री विरोधी होगा तो क्या पुरुष समर्थक होगा ? क्या आप ऐसे किसी प्रेमी को जानते हैं जिसने सच्चे मायने में प्रेम किया हो और स्त्री को बराबरी का दर्ज़ा न दिया हो ? जब एक स्त्री से कोई प्रेम करता है और एकनिष्ठता बरतता है , तो वह प्रेम स्त्री विरोधी कैसे हो सकता है . किसी को दबा कर या आतंकित कर प्रेम तो किया ही नहीं जा सकता . प्रेम दरअसल स्त्री को मुक्त करता है क्योंकि जो भी प्रेम करेगा वह केवल एक देह से प्रेम नहीं करेगा . वह एक दिल से और एक दिमाग से प्रेम करेगा और ज़ाहिर है कि कोई भी प्रेमी या प्रेमिका एकदम बने-बनाये , सही सांचे में नहीं मिल सकता . उसकी समझ , उसके स्वभाव और संवेदना की ढेरों ग्रंथियां होंगी जिसे दोनों को मिलकर तोडना और एक दूसरे के अनुकूल बनना होगा . प्रेमी या प्रेमिका की विलक्षणता यह होती है कि वे प्रेम को चोरों की क्रिया नहीं मानते बल्कि खुले आम स्वीकार करते हैं . अगर प्रेम का स्वीकार नहीं है तो वह प्रेम नहीं है .
प्रेम में लैंगिक विभाजन एक शक्ति-सम्बन्ध नहीं बनता . मानवीय भावना का विकास और सहज साहचर्य ही प्रेम है . स्त्री विरोधी प्रवृत्ति दरअसल पुरुष की श्रेष्ठता की भावना और विचार का हासिल है जिसे आमतौर पर हम देख पाते हैं . कबीर कहते हैं कि –‘’ शीश उतारे भुइं धरे , तब पैठे घर माहीं ‘’ . प्रेम के घर में अहंकार को विसर्जित किये बिना तो प्रवेश ही नहीं पाया जा सकता . यहाँ भेद की गुंजाइश नहीं है . और जहाँ भेद नहीं वहां गैरबराबरी और शोषण क्यों हो ।
क्या प्रेम जैसी कोई चीज होती भी है अथवा प्रेम केवल एक सुविधा है ? प्रेम कोई चीज नहीं है कि एक मीटर से आप सारा थान नाप लें . प्रेम को सुविधा ही नहीं , सेक्स का भी पर्याय मान लिया गया है . प्रेम जैसी कोई चीज होती भी है – यह आप तभी जान पायेंगे जब किसी से प्रेम करेंगे । अगर कभी प्रेम किया ही नहीं तो आपको यही लगेगा कि स्त्री पुरूष एकसाथ अगर हैं तो सिर्फ दैहिकता में लिप्त हैं . बेशक आदमी प्रेम के लिये मारा मारा फिरता है , लेकिन उसे प्रेम सिर्फ देह के आधिपत्य से हासिल नहीं होता . प्रेम उसे तभी मिलता है जब वह जीवन की सहज गुनगुनी धूप में बैठ जाये . वह आंसू और पश्चाताप की भाषा मे प्रेम निवेदन करता है और उसे एक मानवीय प्रेम हासिल होता है लेकिन जो प्रेम को एक सीढी बनाते हैं और उस ‘प्रेम’ संबंध के माध्यम से कुछ हासिल करना चाहते हैं , उनके लिये प्रेम सुविधा ही है . और कुछ हो भी नहीं सकता . अलबत्ता हर सुविधा देर सबेर खत्म हो जाती है तब कोई भी बिना किसी दुविधा के उसे कूडेदान में फेंक ही देता है . इसलिये आज के अधिकांश तथाकथित प्रेम संबंध अन्तत: कूडेदान की ही शोभा बढाते देखे जा सकते हैं .
वैसे तो सभी मानवीय रिश्तों के दो विपरीत पहलू देखे जा सकते हैं . हर इंसान के साथ उसकी परस्पर टकराती जरूरतें और भावनाएं होती हैं . जैसे परिवार में रहते हुए भी व्यक्ति अपनी एक स्वतंत्र स्पेस बनाये रखना चाहता है और उसी वक्त वह परिवार से या मित्रों से जुडा भी रहना चाहता है . इसी तरह प्रेम में दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पण होते हुए भी व्यक्ति अपनी पहचान पूरी तरह तिरोहित करना नहीं चाहता . स्त्रीवादी आंदोलनों में स्त्री के लिये अपनी आजादी को हासिल करने की बात पर हमेशा जोर दिया गया लेकिन अन्तत: इस नतीजे पर पहुंचा गया कि एक स्वस्थ समाज को बनाने के लिये अपनी आजादी के साथ साथ परस्पर निर्भरता और जुडाव – जो प्रेम की ही विशिष्टताएं हैं - भी बहुत जरूरी है . एक अन्तर्मुखी वैयक्तिक इकाई से बेहतर है , एक वृहत्तर परिवार और समाज से जुडाव .
आदर्श या एकनिष्ठ प्रेम जैसा कोई भाव है भी या नहीं अथवा यह मात्र एक यूटोपिया है ? आखिर एकनिष्ठता किसके प्रति हो ? क्या यह कोई गणित का सवाल है कि प्रेम में पडने से पहले ही इस समीकरण का हल निकाल लिया जाये । यह तो वह रास्ता है जिस पर चलते हुए ही समझा जा सकता है कि दोनों पक्षों में एकनिष्ठता की किसको कितनी जरूरत है । हर प्रेम का एक वर्ग चरित्र होता है जो प्रेमी या प्रेमिका के व्यवहार से सामने आता है और उनके छिपे हुए हितों को उजागर करता है । अगर किसी का व्यवहार सच्चा , उद्देश्य नेक और आदर्श उंचा होगा तो दूसरा या तो उसके साथ ताउम्र रहेगा या उसे खारिज कर देगा ।
टालस्टॉय के उपन्यास ‘ रेनेसां ‘ और शरतचन्द्र के उपन्यास ‘ देवदास ‘ के मुख्य पात्रों के जीवन व्यवहार से हम यही देखते हैं कि सच्चा प्रेम अन्तत: आदर्श , एकनिष्ठता और उत्सर्ग पर ही खत्म होता है । भारत में भी साहित्यिक और दुनियावी तौर पर ऐसे सैकडो उदाहरण मिलते हैं । यों तो प्रेम किसी भी यूटोपिया को यथार्थ में बदलने की ताकत रखता है , यूटोपिया से आप बहुत सी भीतरी बाधाओं को उलांघ सकते हैं लेकिन किसी कर्महीन के लिये यथार्थ और सौंदर्य भी महज यूटोपिया ही बनकर रह जाता है और वे सारी जडताओं को शाश्वत मान लेते हैं ।
भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने मानव समाज के अर्न्तसंबंधों को न सिर्फ प्रभावित किया है , उन पर अपनी सत्ता भी काबिज की है . ये दोनों ही संस्थाएं मुनाफे के विस्तार को समर्पित संस्थाएं हैं और इसके मुताल्लिक उन्हें जिस भी चीज में फायदा दीखता है , उसे प्रोत्साहित और जिसमें घाटा दीखता है उसे निरुत्साहित करती हैं . भले ही वे मानवीय भावनाएं हों या कोई और जींस . इन दोनों ने प्रेम को भी पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है .
भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने प्रेम की स्वीकृति को बढाया है और देह के प्रति जिज्ञासा को कम कर उसे साधारणता बख्शी है और कई बंदिशों को वाहियात भी साबित किया है . इससे प्रेम की हवाई परिकल्पनाएं कम हुईं हैं , प्लेटॉनिक किस्म का प्यार अतीत की चीज बनकर रह गया है और अभिव्यक्तियाँ बढी हैं . स्त्री ने देह को एक अनुभव की तरह जीना सीखा और एक हद तक उसने चुनाव की आज़ादी भी हासिल की . प्रेम एक साधारण परिघटना बनने लगा और उसकी सामूहिक स्वीकृति बढ़ी . इसके विपरीत प्रेमविरोधी कठमुल्लाओं ने भी अपने जलवे दिखाए लेकिन प्रेम के लोकतान्त्रिक स्वरुप को दबा पाना उनके लिए असंभव है . भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने इसे सुगम बनाया है . लेकिन इसके ठीक विपरीत उसने सामाजिक भागीदारी और आदर्शों को बेकार साबित किया और निजता की एक गुफा ही बना डाली जिससे बाहर निकलना प्रेमियों के लिए असंभव हो गया है . व्यक्ति अपनी जरूरतों और अधिकारों को दूसरों की स्पेस और जरूरत से ज्यादा प्राथमिकता देता है . परिवारों में , दाम्पत्य में और प्रेम सम्बन्धों में यही प्रवृत्ति टकराव का कारण बनती है . पहले सिर्फ पुरुष अपनी स्पेस को अहमियत देता था , आज स्त्रियां भी इसकी मांग करने लगी हैं तो जाहिर है टकराव पहले से ज्यादा बढे हैं तो टूटन भी उतनी ही बढेगी । निजी स्वार्थ की जगह बराबरी और समानता , सहयोग और सम्मान की भावना प्रेम सम्बन्धों को स्वस्थ रूप में विकसित करती है .
इधर कालेज और कार्यस्थलों पर पनपने वाले प्रेम की मात्रा बढ़ गई है लेकिन उनमें आदर्श ऊँचे नहीं दिखाई पड़ते . दूसरे शब्दों में प्रेम जरूरतों का पूरक बन गया है . कई अर्थों में उसमें संकीर्णता भी आ गई है जबकि उसमें उदात्तता और उत्सर्ग की एक सहज अभिव्यक्ति होनी चाहिए .
बदलाव वाली मानसिकता के युग में प्रेम की शाश्वतता क्या प्रश्नांकित है ? प्रेम अंततः है तो दो अस्तित्वों का मिलन ही . वह प्रेम चाहे कितना भी अल्पजीवी क्यों न हो , लेकिन वह एक महान और शाश्वत परिघटना है . इसके बिना कोई भी व्यक्ति और समाज पंगु और निर्जीव हो जाएगा . प्रेम की शाश्वतता को जो प्रश्नांकित करते हैं , वे किसी सौदेबाज़ी की परिभाषा में ही प्रेम को देखते हैं .
प्रेम की शाश्वतता पर सवाल करने से पहले यह मानकर चलना चाहिये कि प्रेम किसी भी व्यक्ति के अन्तर्मन का एक कोमल सी नमी और भीगापन लिये एक तरल कोना है जो बहुत सी पुरानी और खूबसूरत स्थापत्य की इमारतों की तरह पुराने समय में एक दर्शनीय स्थल था जिसकी कलात्मकता को देखने , पहचानने और छूने के लिये भी एक बारीक नज़र की ज़रूरत है और उस नज़र के अभाव में वह आज के बदले हुए समय में एक खंडहर ही रह गया है , जिसे अन्य मानवीय मूल्यों की तरह आउटडेटेड ( प्रचलन से बाहर ) और ऑब्सोलीट ( आज के समय के लिये अनुपयुक्त ) करार दिया गया है . इन ढहते हुए खंडहरों और घिसे हुए सिक्कों की पुरानी चमक को लौटा पाना आज के मानवीय समाज और संवेदना को बचाए रखने के लिये बहुत जरूरी है .
नैतिकता और प्रेम में क्या संबंध है ? दो व्यक्तियों के बीच परस्पर सहमति से अगर कोई संबंध बनता है तो वह नैतिक है . जहां प्रेम है , वहां नैतिकता का प्रतिशत बहुत उंचा हो सकता है लेकिन अगर प्रेमी कायर हैं तो यह कपूर की तरह उड जाता है और अपनी खुशबू भी नहीं छोडता . दुनिया की सारी प्रेम कहानियों में कोई भी प्रेमी हत्यारा नहीं होता , लेकिन कोई हत्यारा प्रेमी हो सकता है और वह नैतिक रूप से अपने कुकृत्य को प्रेमविरोधी मानकर उससे मुंह मोड सकता है . कोई भी बुरी बात जो प्रेमिका को या प्रेमी को नागवार गुजरती हो या उसे क्षति पहुंचाती हो या उसके सम्मान को घटाती हो , यह कोई कैसे बर्दाश्त कर सकता है – यह दावा करते हुए कि वह प्रेमी है . ये मनोभाव ही आगे बढते बढते व्यक्ति , समाज , देश और दुनिया के सामने एक मूल्यवान उदाहरण बनते हैं . निश्चय ही यह प्रेम और नैतिकता के निकट संबंध को दरशाता है ।
लिव इन रिलेशनशिप एक बेहद संश्लिष्ट और जटिल स्वतंत्रता है . एक तरह से यह विवाह की प्रतिबद्घता , सन्नद्घता और दायित्वबोध का विलोम है . आज की पीढ़ी ने विवाह को स्त्री के लिये बंधन और गुलामी का दर्ज़ा दिया इसलिये बंधन से आज़ाद रहने के ख्याल से लिव इन रिलेशन का चुनाव किया गया जहां वह एक साथी के साथ , एक ही छत के नीचे रहते हुए भी अपने को बंधन मुक्त समझे लेकिन क्या ऐसा हो पाता है . साथ रहना शुरु करते ही पुरुष शासन और नियंत्रण करने वाले पति के रोल में आ जाता है . लड़कियां यहां भी भावात्मक रूप से जुड़ाव महसूस करती हैं और संबंध टूटने पर अवसाद और निराशा के गर्त में चली जाती हैं .
भारतीय परिवेश में लिव इन रिलेशंस के नकारात्मक पक्ष ही ज्यादा उभर कर सामने आते हैं . जब तक इन अस्थायी और सुविधाजनक संबंधों में विच्छेद होने पर किसी तरह के मुआवज़े और समाज से स्वीकृति की कोई मांग नहीं थी , इन्हें भावात्मक संबंध मानकर इनकी गरिमा कायम थी . लेकिन जहां संपत्ति से मुआवज़ा और ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चों के लिये पैतृक चल अचल संपित्त में अधिकार का दखल हुआ तो यह भावना से अधिक एक सुनियोजित गणित और लेन देन का संबंध होने लगा , जायज़ और नाजायज़ रिश्तों में हिंसा और प्रतिहिंसा जगने लगी .
फिल्म और टी.वी. की दुनिया में यह एक मजबूरी भी बन गया है . दृश्य मीडिया में अपनी जगह बनाने के लिये आये हुए युवा मुंबई जैसे महानगर में एक अदद घर अफोर्ड नहीं कर सकते इसलिये वे एक अस्थायी पार्टनर के साथ घर शेअर करते हैं . यह इसका भौतिक और व्यावहारिक पक्ष है .
विवाह संस्था और पारिवारिक मूल्यों का बचा रहना बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास के लिये आज भी बहुत जरूरी है . लिव इन रिलेशंस में इसकी गुंजाइश बहुत कम है और अपवाद स्वरूप ही ऐसे रिश्ते सफल हो पाये हैं . अमृता प्रीतम और इमरोज़ का नाम इसमें लिया जा सकता है पर वहां रोल रिवर्सल है . इमरोज़ ने वैसा ही समर्पिता का रोल अदा किया जो बहुतायत में आम तौर पर स्त्रियां ही करती रही हैं . दूसरा नाम सार्त्र् और सिमोन द बुवा का लिया जा सकता है पर उनकी जीवन शैली में जितना खुला और विस्तृत स्पेस एक दूसरे के लिये था , वैसा भारतीय परिवेश में संभव ही नहीं है क्योंकि भारतीय समाज में समाज द्वारा बिना लांछित हुए पुरुष तो विवाह में रहते हुए भी अपने लिये खुली स्पेस हमेशा पाता ही रहा है पर विवाहित स्त्री अगर वैसी स्पेस चाहे या चुने तो उसे छिनाल या कुलटा ही कहा जाएगा . परस्पर छूट देते हुए आज के समय में आज़ादखयाल दंपति मिल जाएंगे पर वहां निष्ठा और प्रेम की अनुपस्थिति में सुविधा और अवसरवादी अनुबंध वाला साथ ही ज्यादा दिखाई देगा .
आज के समय में प्रेम को भी मिट्टी की हांडी की तरह ठोक बजाकर पहले जांच लिया जाता है कि वह कितना टिकाउ है और कितने बरस चलने की गुंजाइश बनती है . अफसोस इस बात का है कि जांचने परखने के बावजूद वह अपनी एक्सपायरी डेट पर समय से पहले ही पहुंच जाता है क्योंकि दो व्यक्ति जब साथ आते हैं तो वे जो होते हैं , समय के साथ साथ उनमें भी बदलाव होता है . उस बदलाव से तालमेल बिठा पाना ही प्रेम की अग्निपरीक्षा है और इस अग्निपरीक्षा में बहुत छोटा प्रतिशत ही कामयाब होता है .
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सुधा अरोड़ा का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए
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सुधा अरोडा
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सुधा अरोड़ा
सुधा अरोड़ा |
प्रेम को किसी कालखंड में बांट कर नहीं देखा जा सकता . सामंतवाद और पूंजीवाद , उत्पादन से जुडी अर्थव्यवस्थाएं हैं . सामंती व्यवस्था के बनिस्बत पूंजीवाद में आजादी के मायने ज्यादा खुले. सामंती व्यवस्था में जमींदार और सामंत मजदूरों के मालिक थे. उनकी पुश्त दर पुश्त सामंतों की गुलाम रही, जबकि पूंजीवाद में पूंजीपतियों ने पैसा देकर श्रम को खरीदा पर उद्योग से बाहर श्रमिक आजाद था . इन व्यवस्थाओं ने मानव समाज में प्रेम की अवधारणा को प्रभावित जरूर किया पर प्रेम हर काल में और आर्थिक समीकरणों की सीमाओं के बावजूद रहा .
प्रेम को सामंती अवधारणा कहना गलत है . जो धारणा स्त्री विरोधी और सामंती है , अव्व्ल तो वह प्रेम है ही नहीं . पुरुष अगर उसमें एक आका , एक मालिक की भूमिका में है तो यह अवधारणा सामंती लग सकती है . सामंती समाज में स्त्रियों के अधिकारों की बात कभी की ही नहीं गई . त्याग और एकनिष्ठता , सेवा और बिना किसी शर्त के समर्पण किसी भी स्त्री की अलिखित आचार संहिता के अनिवार्य गुण थे . सामंती समाज के बाद ही स्त्री पुरूष के प्रेम में परस्पर सम्मान और निजी पहचान को बरकरार रखने की अनिवार्यता महसूस की गई .
आदिम काल से जिस आदम हव्वा की कहानियों को हम धार्मिक किताबों में पढते हैं , वह वस्तुत: प्रेमाख्यान ही है और जिस सेव को खाने के कारण उन्हें स्वर्ग से बहिष्कृत करके धरती की मुश्किलें झेलने के लिये भेज दिया गया था , वही आज भी प्रेम का प्रतिसाद दिखाई देता है . भारत के गांवों में ऑनर किलिंग के बावजूद , अपनी जान को हथेली पर रखकर , अनेक युवा प्रेमी प्रेम कर लेते हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वे किसी सामंती समाज को मजबूत बना रहे हैं बल्कि वे एक नया समाज रचने की कोशिश कर रहे हैं , बेशक इसके लिये उन्हें अपनी जान की आहुति देनी पडती है . विश्व साहित्य की महानतम कृतियां वस्तुत: प्रेम आख्यान हैं .
आज पूरी दुनिया में स्त्री पुरूष दैहिक संबंधों में लिप्त दिखाई पडते हैं . लेकिन जब कभी वे कहीं मानसिक रूप से जुडते हैं तो एक ऐसी परिघटना होती है जिसे हम प्रेम के रूप में जानते हैं . प्रेम किसी को भी धारा के विरूद्ध बहने और विपरीतता से लडने की ताकत देता है और जाहिर है , ये बातें सामंती और रूढिग्रस्त पुरूषवादी समाज को ध्वस्त कर एक नया समाज गढने की प्रेरणा देती हैं . कबीर ने जब ‘‘ ढाई आखर प्रेम का’’ पढने की बात को तो निश्चित रूप से प्रेम को वृहत्तर संदर्भों में देखा , सिर्फ दैहिक वासना के रूप में नहीं ।
क्या प्रेम स्त्री विरोधी धारणा है ? प्रेम अगर स्त्री विरोधी होगा तो क्या पुरुष समर्थक होगा ? क्या आप ऐसे किसी प्रेमी को जानते हैं जिसने सच्चे मायने में प्रेम किया हो और स्त्री को बराबरी का दर्ज़ा न दिया हो ? जब एक स्त्री से कोई प्रेम करता है और एकनिष्ठता बरतता है , तो वह प्रेम स्त्री विरोधी कैसे हो सकता है . किसी को दबा कर या आतंकित कर प्रेम तो किया ही नहीं जा सकता . प्रेम दरअसल स्त्री को मुक्त करता है क्योंकि जो भी प्रेम करेगा वह केवल एक देह से प्रेम नहीं करेगा . वह एक दिल से और एक दिमाग से प्रेम करेगा और ज़ाहिर है कि कोई भी प्रेमी या प्रेमिका एकदम बने-बनाये , सही सांचे में नहीं मिल सकता . उसकी समझ , उसके स्वभाव और संवेदना की ढेरों ग्रंथियां होंगी जिसे दोनों को मिलकर तोडना और एक दूसरे के अनुकूल बनना होगा . प्रेमी या प्रेमिका की विलक्षणता यह होती है कि वे प्रेम को चोरों की क्रिया नहीं मानते बल्कि खुले आम स्वीकार करते हैं . अगर प्रेम का स्वीकार नहीं है तो वह प्रेम नहीं है .
प्रेम में लैंगिक विभाजन एक शक्ति-सम्बन्ध नहीं बनता . मानवीय भावना का विकास और सहज साहचर्य ही प्रेम है . स्त्री विरोधी प्रवृत्ति दरअसल पुरुष की श्रेष्ठता की भावना और विचार का हासिल है जिसे आमतौर पर हम देख पाते हैं . कबीर कहते हैं कि –‘’ शीश उतारे भुइं धरे , तब पैठे घर माहीं ‘’ . प्रेम के घर में अहंकार को विसर्जित किये बिना तो प्रवेश ही नहीं पाया जा सकता . यहाँ भेद की गुंजाइश नहीं है . और जहाँ भेद नहीं वहां गैरबराबरी और शोषण क्यों हो ।
क्या प्रेम जैसी कोई चीज होती भी है अथवा प्रेम केवल एक सुविधा है ? प्रेम कोई चीज नहीं है कि एक मीटर से आप सारा थान नाप लें . प्रेम को सुविधा ही नहीं , सेक्स का भी पर्याय मान लिया गया है . प्रेम जैसी कोई चीज होती भी है – यह आप तभी जान पायेंगे जब किसी से प्रेम करेंगे । अगर कभी प्रेम किया ही नहीं तो आपको यही लगेगा कि स्त्री पुरूष एकसाथ अगर हैं तो सिर्फ दैहिकता में लिप्त हैं . बेशक आदमी प्रेम के लिये मारा मारा फिरता है , लेकिन उसे प्रेम सिर्फ देह के आधिपत्य से हासिल नहीं होता . प्रेम उसे तभी मिलता है जब वह जीवन की सहज गुनगुनी धूप में बैठ जाये . वह आंसू और पश्चाताप की भाषा मे प्रेम निवेदन करता है और उसे एक मानवीय प्रेम हासिल होता है लेकिन जो प्रेम को एक सीढी बनाते हैं और उस ‘प्रेम’ संबंध के माध्यम से कुछ हासिल करना चाहते हैं , उनके लिये प्रेम सुविधा ही है . और कुछ हो भी नहीं सकता . अलबत्ता हर सुविधा देर सबेर खत्म हो जाती है तब कोई भी बिना किसी दुविधा के उसे कूडेदान में फेंक ही देता है . इसलिये आज के अधिकांश तथाकथित प्रेम संबंध अन्तत: कूडेदान की ही शोभा बढाते देखे जा सकते हैं .
वैसे तो सभी मानवीय रिश्तों के दो विपरीत पहलू देखे जा सकते हैं . हर इंसान के साथ उसकी परस्पर टकराती जरूरतें और भावनाएं होती हैं . जैसे परिवार में रहते हुए भी व्यक्ति अपनी एक स्वतंत्र स्पेस बनाये रखना चाहता है और उसी वक्त वह परिवार से या मित्रों से जुडा भी रहना चाहता है . इसी तरह प्रेम में दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पण होते हुए भी व्यक्ति अपनी पहचान पूरी तरह तिरोहित करना नहीं चाहता . स्त्रीवादी आंदोलनों में स्त्री के लिये अपनी आजादी को हासिल करने की बात पर हमेशा जोर दिया गया लेकिन अन्तत: इस नतीजे पर पहुंचा गया कि एक स्वस्थ समाज को बनाने के लिये अपनी आजादी के साथ साथ परस्पर निर्भरता और जुडाव – जो प्रेम की ही विशिष्टताएं हैं - भी बहुत जरूरी है . एक अन्तर्मुखी वैयक्तिक इकाई से बेहतर है , एक वृहत्तर परिवार और समाज से जुडाव .
आदर्श या एकनिष्ठ प्रेम जैसा कोई भाव है भी या नहीं अथवा यह मात्र एक यूटोपिया है ? आखिर एकनिष्ठता किसके प्रति हो ? क्या यह कोई गणित का सवाल है कि प्रेम में पडने से पहले ही इस समीकरण का हल निकाल लिया जाये । यह तो वह रास्ता है जिस पर चलते हुए ही समझा जा सकता है कि दोनों पक्षों में एकनिष्ठता की किसको कितनी जरूरत है । हर प्रेम का एक वर्ग चरित्र होता है जो प्रेमी या प्रेमिका के व्यवहार से सामने आता है और उनके छिपे हुए हितों को उजागर करता है । अगर किसी का व्यवहार सच्चा , उद्देश्य नेक और आदर्श उंचा होगा तो दूसरा या तो उसके साथ ताउम्र रहेगा या उसे खारिज कर देगा ।
टालस्टॉय के उपन्यास ‘ रेनेसां ‘ और शरतचन्द्र के उपन्यास ‘ देवदास ‘ के मुख्य पात्रों के जीवन व्यवहार से हम यही देखते हैं कि सच्चा प्रेम अन्तत: आदर्श , एकनिष्ठता और उत्सर्ग पर ही खत्म होता है । भारत में भी साहित्यिक और दुनियावी तौर पर ऐसे सैकडो उदाहरण मिलते हैं । यों तो प्रेम किसी भी यूटोपिया को यथार्थ में बदलने की ताकत रखता है , यूटोपिया से आप बहुत सी भीतरी बाधाओं को उलांघ सकते हैं लेकिन किसी कर्महीन के लिये यथार्थ और सौंदर्य भी महज यूटोपिया ही बनकर रह जाता है और वे सारी जडताओं को शाश्वत मान लेते हैं ।
भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने मानव समाज के अर्न्तसंबंधों को न सिर्फ प्रभावित किया है , उन पर अपनी सत्ता भी काबिज की है . ये दोनों ही संस्थाएं मुनाफे के विस्तार को समर्पित संस्थाएं हैं और इसके मुताल्लिक उन्हें जिस भी चीज में फायदा दीखता है , उसे प्रोत्साहित और जिसमें घाटा दीखता है उसे निरुत्साहित करती हैं . भले ही वे मानवीय भावनाएं हों या कोई और जींस . इन दोनों ने प्रेम को भी पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है .
भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने प्रेम की स्वीकृति को बढाया है और देह के प्रति जिज्ञासा को कम कर उसे साधारणता बख्शी है और कई बंदिशों को वाहियात भी साबित किया है . इससे प्रेम की हवाई परिकल्पनाएं कम हुईं हैं , प्लेटॉनिक किस्म का प्यार अतीत की चीज बनकर रह गया है और अभिव्यक्तियाँ बढी हैं . स्त्री ने देह को एक अनुभव की तरह जीना सीखा और एक हद तक उसने चुनाव की आज़ादी भी हासिल की . प्रेम एक साधारण परिघटना बनने लगा और उसकी सामूहिक स्वीकृति बढ़ी . इसके विपरीत प्रेमविरोधी कठमुल्लाओं ने भी अपने जलवे दिखाए लेकिन प्रेम के लोकतान्त्रिक स्वरुप को दबा पाना उनके लिए असंभव है . भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने इसे सुगम बनाया है . लेकिन इसके ठीक विपरीत उसने सामाजिक भागीदारी और आदर्शों को बेकार साबित किया और निजता की एक गुफा ही बना डाली जिससे बाहर निकलना प्रेमियों के लिए असंभव हो गया है . व्यक्ति अपनी जरूरतों और अधिकारों को दूसरों की स्पेस और जरूरत से ज्यादा प्राथमिकता देता है . परिवारों में , दाम्पत्य में और प्रेम सम्बन्धों में यही प्रवृत्ति टकराव का कारण बनती है . पहले सिर्फ पुरुष अपनी स्पेस को अहमियत देता था , आज स्त्रियां भी इसकी मांग करने लगी हैं तो जाहिर है टकराव पहले से ज्यादा बढे हैं तो टूटन भी उतनी ही बढेगी । निजी स्वार्थ की जगह बराबरी और समानता , सहयोग और सम्मान की भावना प्रेम सम्बन्धों को स्वस्थ रूप में विकसित करती है .
इधर कालेज और कार्यस्थलों पर पनपने वाले प्रेम की मात्रा बढ़ गई है लेकिन उनमें आदर्श ऊँचे नहीं दिखाई पड़ते . दूसरे शब्दों में प्रेम जरूरतों का पूरक बन गया है . कई अर्थों में उसमें संकीर्णता भी आ गई है जबकि उसमें उदात्तता और उत्सर्ग की एक सहज अभिव्यक्ति होनी चाहिए .
बदलाव वाली मानसिकता के युग में प्रेम की शाश्वतता क्या प्रश्नांकित है ? प्रेम अंततः है तो दो अस्तित्वों का मिलन ही . वह प्रेम चाहे कितना भी अल्पजीवी क्यों न हो , लेकिन वह एक महान और शाश्वत परिघटना है . इसके बिना कोई भी व्यक्ति और समाज पंगु और निर्जीव हो जाएगा . प्रेम की शाश्वतता को जो प्रश्नांकित करते हैं , वे किसी सौदेबाज़ी की परिभाषा में ही प्रेम को देखते हैं .
प्रेम की शाश्वतता पर सवाल करने से पहले यह मानकर चलना चाहिये कि प्रेम किसी भी व्यक्ति के अन्तर्मन का एक कोमल सी नमी और भीगापन लिये एक तरल कोना है जो बहुत सी पुरानी और खूबसूरत स्थापत्य की इमारतों की तरह पुराने समय में एक दर्शनीय स्थल था जिसकी कलात्मकता को देखने , पहचानने और छूने के लिये भी एक बारीक नज़र की ज़रूरत है और उस नज़र के अभाव में वह आज के बदले हुए समय में एक खंडहर ही रह गया है , जिसे अन्य मानवीय मूल्यों की तरह आउटडेटेड ( प्रचलन से बाहर ) और ऑब्सोलीट ( आज के समय के लिये अनुपयुक्त ) करार दिया गया है . इन ढहते हुए खंडहरों और घिसे हुए सिक्कों की पुरानी चमक को लौटा पाना आज के मानवीय समाज और संवेदना को बचाए रखने के लिये बहुत जरूरी है .
नैतिकता और प्रेम में क्या संबंध है ? दो व्यक्तियों के बीच परस्पर सहमति से अगर कोई संबंध बनता है तो वह नैतिक है . जहां प्रेम है , वहां नैतिकता का प्रतिशत बहुत उंचा हो सकता है लेकिन अगर प्रेमी कायर हैं तो यह कपूर की तरह उड जाता है और अपनी खुशबू भी नहीं छोडता . दुनिया की सारी प्रेम कहानियों में कोई भी प्रेमी हत्यारा नहीं होता , लेकिन कोई हत्यारा प्रेमी हो सकता है और वह नैतिक रूप से अपने कुकृत्य को प्रेमविरोधी मानकर उससे मुंह मोड सकता है . कोई भी बुरी बात जो प्रेमिका को या प्रेमी को नागवार गुजरती हो या उसे क्षति पहुंचाती हो या उसके सम्मान को घटाती हो , यह कोई कैसे बर्दाश्त कर सकता है – यह दावा करते हुए कि वह प्रेमी है . ये मनोभाव ही आगे बढते बढते व्यक्ति , समाज , देश और दुनिया के सामने एक मूल्यवान उदाहरण बनते हैं . निश्चय ही यह प्रेम और नैतिकता के निकट संबंध को दरशाता है ।
लिव इन रिलेशनशिप एक बेहद संश्लिष्ट और जटिल स्वतंत्रता है . एक तरह से यह विवाह की प्रतिबद्घता , सन्नद्घता और दायित्वबोध का विलोम है . आज की पीढ़ी ने विवाह को स्त्री के लिये बंधन और गुलामी का दर्ज़ा दिया इसलिये बंधन से आज़ाद रहने के ख्याल से लिव इन रिलेशन का चुनाव किया गया जहां वह एक साथी के साथ , एक ही छत के नीचे रहते हुए भी अपने को बंधन मुक्त समझे लेकिन क्या ऐसा हो पाता है . साथ रहना शुरु करते ही पुरुष शासन और नियंत्रण करने वाले पति के रोल में आ जाता है . लड़कियां यहां भी भावात्मक रूप से जुड़ाव महसूस करती हैं और संबंध टूटने पर अवसाद और निराशा के गर्त में चली जाती हैं .
भारतीय परिवेश में लिव इन रिलेशंस के नकारात्मक पक्ष ही ज्यादा उभर कर सामने आते हैं . जब तक इन अस्थायी और सुविधाजनक संबंधों में विच्छेद होने पर किसी तरह के मुआवज़े और समाज से स्वीकृति की कोई मांग नहीं थी , इन्हें भावात्मक संबंध मानकर इनकी गरिमा कायम थी . लेकिन जहां संपत्ति से मुआवज़ा और ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चों के लिये पैतृक चल अचल संपित्त में अधिकार का दखल हुआ तो यह भावना से अधिक एक सुनियोजित गणित और लेन देन का संबंध होने लगा , जायज़ और नाजायज़ रिश्तों में हिंसा और प्रतिहिंसा जगने लगी .
फिल्म और टी.वी. की दुनिया में यह एक मजबूरी भी बन गया है . दृश्य मीडिया में अपनी जगह बनाने के लिये आये हुए युवा मुंबई जैसे महानगर में एक अदद घर अफोर्ड नहीं कर सकते इसलिये वे एक अस्थायी पार्टनर के साथ घर शेअर करते हैं . यह इसका भौतिक और व्यावहारिक पक्ष है .
विवाह संस्था और पारिवारिक मूल्यों का बचा रहना बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास के लिये आज भी बहुत जरूरी है . लिव इन रिलेशंस में इसकी गुंजाइश बहुत कम है और अपवाद स्वरूप ही ऐसे रिश्ते सफल हो पाये हैं . अमृता प्रीतम और इमरोज़ का नाम इसमें लिया जा सकता है पर वहां रोल रिवर्सल है . इमरोज़ ने वैसा ही समर्पिता का रोल अदा किया जो बहुतायत में आम तौर पर स्त्रियां ही करती रही हैं . दूसरा नाम सार्त्र् और सिमोन द बुवा का लिया जा सकता है पर उनकी जीवन शैली में जितना खुला और विस्तृत स्पेस एक दूसरे के लिये था , वैसा भारतीय परिवेश में संभव ही नहीं है क्योंकि भारतीय समाज में समाज द्वारा बिना लांछित हुए पुरुष तो विवाह में रहते हुए भी अपने लिये खुली स्पेस हमेशा पाता ही रहा है पर विवाहित स्त्री अगर वैसी स्पेस चाहे या चुने तो उसे छिनाल या कुलटा ही कहा जाएगा . परस्पर छूट देते हुए आज के समय में आज़ादखयाल दंपति मिल जाएंगे पर वहां निष्ठा और प्रेम की अनुपस्थिति में सुविधा और अवसरवादी अनुबंध वाला साथ ही ज्यादा दिखाई देगा .
आज के समय में प्रेम को भी मिट्टी की हांडी की तरह ठोक बजाकर पहले जांच लिया जाता है कि वह कितना टिकाउ है और कितने बरस चलने की गुंजाइश बनती है . अफसोस इस बात का है कि जांचने परखने के बावजूद वह अपनी एक्सपायरी डेट पर समय से पहले ही पहुंच जाता है क्योंकि दो व्यक्ति जब साथ आते हैं तो वे जो होते हैं , समय के साथ साथ उनमें भी बदलाव होता है . उस बदलाव से तालमेल बिठा पाना ही प्रेम की अग्निपरीक्षा है और इस अग्निपरीक्षा में बहुत छोटा प्रतिशत ही कामयाब होता है .
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सुधा अरोड़ा का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/12-13-15-2014-19-377.html?m=1
सुधा अरोडा
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