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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

10 सितंबर, 2018

'हंस' का मीडिया विशेषांक: 

आभासी दुनिया की चाल, चरित्र व चेहरा परखने का सराहनीय प्रयास 

अखिलेश्वर पांडेय

जो लोग फेसबुक और वाट्यएैप को लेकर इस धारणा के साथ आज भी गुमराह हैं कि यह महज एंटरटेनमेंट और टाइमपास का साधन है, उन्हें 'हंस' का सितंबर 2018 अंक अवश्य पढ़ना चाहिए. ये वही गुमराह लोग हैं जो मीडिया को अधिक संचारी बनाने के बजाय 'संस्कारी' बनाने की वकालत करते हैं. इधर मीडिया का संचार महानगरों से होते हुए छोटे-छोटे शहरों के रास्ते इंटरनेट की पीठ पर सवार होकर अब गांव तक पहुंच चुका है. अब मीडिया और सोशल मीडिया से आगे न्यू मीडिया की बातें हो रही हैं. बिहार के सुदूर बाढ़ग्रस्त गांव में रहने वाली गृहिणी दिल्ली में रह रहे अपने मरद से वीडियो कॉल के मार्फत बात करती है. इंतजार और बेकरारी में दिन काट रहे जोड़े एक-दूसरे का लालायित चेहरा देखकर मन की साध पूरी कर लेते हैं. किसान यू-ट्यूब पर फसलों के लिए कीटनाशक तलाशता है. 


सेवानिवृत मास्साब रफी और लता के गाने अपने स्मार्टफोन पर देखते-सुनते हैं. ट्रेनों-बसों का सफर अब बोरिंग नहीं रहा. स्मार्टफोन से रेडियो सुनते या पसंदीदा वीडियो देखते यात्रियों का सफर मनोरंजक हो गया है. सामाजिक, साहित्यिक व राजनीतिक आंदोलन की रुपरेखा से लेकर भारत बंद तक सोशल मीडिया पर आयोजित हो रहे हैं. कंपनियां आपका वाट्सएैप नंबर पता चलते ही अपने प्रोडक्ट की जानकारी आपके स्मार्टफोन पर ठेलने लग जाती हैं और फेसबुक स्क्रॉल करते हुए भी आप कई ब्रांडों से जाने-अनजाने रूबरू होते रहते हैं. फेसबुक और वाट्सएैप ने लिखने की असीमित आजादी देकर हर किसी को लेखक और दार्शनिक बना दिया है. अब साहित्य की भूख सिर्फ किताबों से ही मिटाने की लाचारी बीती बात हो चुकी है. वेबसाइट्स, फेसबुक, विभिन्न वाट्सएैप समूहों और यू-ट्यूब चैनलों पर आपको अपनी मनचाही पठनीय सामग्री आसानी से उपलब्ध है. नामी-गिरामी साहित्यकार, लेखक, प्रकाशक और साहित्य के सुधी पाठक अब पुस्तकालय के बजाय अपने लैपटॉप, डेस्कटॉप और स्मार्टफोन पर क्वालिटी टाइम बिता रहे हैं. बावजूद इसके 'ई-लिटरेसी' बहुत है. विशेषकर हिंदी में. यही वजह है साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिका 'हंस' ने मीडिया विशेषांक प्रकाशित करने का निर्णय लिया. इस अंक के कवर पेज पर शीर्षक अंकित है - नवंसचार के जनाचार. न्यू_मीडिया_सोशल_मीडिया_विशेषांक. जी हां! इस शीर्षक से ही नवाचार का अंदाजा आप लगा सकते हैं. मीडिया विशेषज्ञ विनीत कुमार और रविकांत इस अंक के अतिथि संपादक हैं. कुल 270 पेज की इस पत्रिका का मूल्य है 80 रुपये. हंस इससे पहले भी विशेषांक निकालता रहा है. यूं कहें तो हंस के विशेषांक हर समय में काफी चर्चित रहे हैं. इस विशेषांक की तैयारी भी पिछले एक साल से चल रही थी. योजना के तहत इसे बहुत पहले ही बाजार में आ जाना था पर कई कारणों से यह विलंब होता रहा. बावजूद इसके 'देर आयद दुरुस्त आयद' कहने में कोई हिचक नहीं हो रही. संपादकद्वय की मेहनत इस अंक में स्पष्ट तौर पर देखी व महसूस की जा सकती है. हंस का यह विशेषांक न सिर्फ युवा पीढ़ी के लिए बल्कि सभी के लिए ज्ञानवर्द्धक, रोचक और संग्रहणीय है.

महत्वपूर्ण साक्षात्कार

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी, अपूर्वानंद, अजय ब्रह्मात्मज का लंबा साक्षात्कार इस अंक में उल्लेखनीय है. विनीत कुमार से बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी कहते हैं कई लोग सोशल मीडिया को पत्रकारिता कहते हैं क्योंकि वह एक माध्यम है लेकिन माध्यम होने से कोई भी चीज पत्रकारिता नहीं हो जाती. मैं सोशल मीडिया को पत्रकारिता नहीं मानता. सोशल मीडिया चूंकि कह दिया गया है तो मीडिया शब्द भ्रमित करता है. वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज ने पत्रकारों के प्रशिक्षण को आज की सबसे बड़ी जरूरत बताते हुए अपने इंटरव्यू में कहा है कि सोशल मीडिया को लेकर हम अभी तक जागरूक नहीं हुए हैं, कोई प्रशिक्षण नहीं लिया है. अफसोस की बात है कि मीडिया संस्थानों को इतनी फुर्सत नहीं है कि वो अपने पत्रकारों को इस तरह की कोई ट्रेनिंग दें या उनको भेजें या समय दें कि वह खुद ही देख सकें कि दुनिया में क्या ट्रेंड चल रहा है. कई और शख्सियतों से बातचीत भी इस अंक में मौजूद हैं.


समृद्ध आलेख


इस विशेषांक में शामिल आलेखों की विषय वस्तु इतने विविध व बहुआयामी हैं कि किसी रिसर्च बुक की तरह इसे बरता जा सकता है. पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविजन, ऑनलाइन पोर्टल आदि के पत्रकारों समेत सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों पर सक्रिय कई चर्चित लोगों के आलेख इसमें सम्मिलित हैं. यह अंक पाठकों को न सिर्फ न्यू मीडिया और सोशल मीडिया के अंतर को बताता है बल्कि आवश्यक टूल्स से परिचित भी कराता है. वर्चुअल स्पेस पर हिंदी उर्फ हिंदी 2.0 (विजेंद्र सिंह चौहान), धड़ल्ले से कैसे लिखें देवनागरी में (रवि रतलामी), इंटरनेट पर हिंदी का आना (प्रकाश हिंदुस्तानी), ब्लॉगिंग : आदिम हिजिटल विद्या (अनूप शुक्ल), रचना के फिसलते मौके (बालेंदु शर्मा दाधीच),  ट्रोलनामा (अटल तिवारी), सायबर गणतंत्र में आदिवासी (ए के पंकज), आभासी दुनिया की दिलचस्प दुविधाएं (अनुराधा बेनीवाल), दलित संघर्ष और सोशल मीडिया (डॉ रतन लाल), कानून की दहलीज पर डिजिटल दुनिया (विराग गुप्ता), रंगमंच का डिजिटल स्पेस (अमितेश कुमार) जैसे आलेख अपनी विषय वस्तु की गहराई से पाठकों को समृद्ध करते हैं. विनीत कुमार का 'ग्रंथालेख' पाठकों को कई ऐसे जरूरी पुस्तकों से रूबरू कराता है जिसे पढ़ा जाना आवश्यक है. सोशल मीडिया व न्यू मीडिया के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराती ये पुस्तकें हिंदी पाठकों के लिए समझ के नयी खिड़कियां खोलती हैं.



शहर से गांव तक 

जाने-माने टीवी पत्रकार रवीश कुमार अपने आलेख (वाट्सएैप : शौचालय की इबारत) में कहते हैं - हमने खुलापन या लोकतांत्रिक होने के नाम पर जो भी जगह बनाई है, वह ह्वाट्सएैप में आते-आते क्यों सिमट जाती है? हमारा व्यवहार फेसबुक से ह्वाट्सएैप की यात्रा के दौरान इतना कैसे बदल जाता है? एक आदमी जो फेसबुक पर लिख रहा है वही आदमी ह्वाट्सएैप पर कितना अलग हो जाता है. चर्चित रेडियो प्रस्तोता यूनुस खान ने (ये रेडियो वायरल है) में लिखा है कि हम भयंकर 'मीडिया मिक्स' के दौर से गुजर रहे हैं. 'साथी हाथ बढ़ाना' की तर्ज पर अखबार, टीवी चैनल, रेडियो, वेबसाइट... सबको परस्पर सहयोग से आगे बढ़ना पड़ रहा है. ये रोटी-कपड़ा-मकान और इंटरनेट का जमाना है. सोशल नेटवर्क के विशाल समुद्र में हर इंसान स्मार्टफोन की डोंगी पर सवार है. ललित कुमार ने अपने आलेख 'सोशल मीडिया : कविता कोश के बहाने' में लिखते हैं क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य को सोशल मीडिया से अमूल्य सहायता मिली है. पारंपरिक मीडिया के सहारे क्षेत्रीय भाषाओं का साहित्य अपने भौगोलिक क्षेत्र से बाहर कम ही निकल पाता था. फेसबुक और वाट्सएैप ने मैथिली, भोजपुरी, बुंदेली, राजस्थानी, मगही, ब्रजभाषा, कन्नौजी, हरियाणवी आदि को नये पंख दे दिये हैं. कविता कोश के क्षेत्रीय भाषाओं के विभागों से बड़ी संख्या में रचनाएं सोशल मीडिया पर शेयर की जाती हैं. प्रभात खबर के पत्रकार पुष्यमित्र अपने आलेख 'कस्बा-कस्बा बनता खबरिया जाल' में बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की पहुंच पर प्रकाश डालते हुए टिप्पणी करते हैं कि महानगरों से निकला सोशल मीडिया, न्यू मीडिया और डिजिटल क्रांति गांवों-कस्बों में हमारी अपेक्षा से कहीं अधिक रफ्तार से फल-फूल रहा है. 

जाने-अनजाने मुद्दे 


इस अंक में विषयों की बहुलता तो है ही नयापन भी है. लेखक अपनी बात पूरी ईमानदारी व तेवर से करता है. लक्ष्मण यादव अपने आलेख में कहते हैं - सोशल मीडिया आपके भीतर के खोखलेपन को बड़ी चतुराई से उजागर करता है, जिसे सत्ता चतुराई से अपने पक्ष में उपयोग कर डालती है. सत्ताएं इस माध्यम का उपयोग प्रतिरोध की आवाजों को दबाने में भी करने लगी हैं. फेकन्यूज व संदर्भहीन सूचनाओं को आधार बनाकर मीडिया का दुरुपयोग हो रहा है. रोहिन कुमार लिखते हैं - दुनिया भर के विवि, कॉलेजों और अन्य शिक्षण संस्थानों के पारंपरिक चरित्र को सोशल मीडिया ने बहुत हद तक बदल दिया है. भले सोशल मीडिया को आधिकारिक वक्तव्य नहीं माना जाता पर यह जरूर हुआ कि अनाधिकारिक माध्यम पर उठे सवाल भी सार्वजनिक स्पेस में आधिकारिक दावों  की विश्वसनीयता को सवालों के घेरे में खड़ा कर देने की क्षमता रखने लगे. संजीव सिन्हा ने अपने आलेख में लिखा है - अनेक राजनेता ऐसे हैं जो सोशल मीडिया को चलाना नहीं जानते लेकिन इस माध्यम में उनकी उपस्थिति दमदार है. ऐसे खाते उनके अनुयायियों या फिर प्रोफेशनल्स के द्वारा संचालित किए जाते हैं. सोशल मीडिया ने राजनीतिक संचार में बड़े बदलाव किए हैं. गिरींद्रनाथ झा ने कीबोर्ड, किसानी, किस्सागोई शीर्षक आलेख ने लिखा है कि सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लेटफॉर्म पर एक बनते किसान की डायरी लिखते हुए लगता है कि वर्चुअल स्पेस में किसानी के मानवीय पक्षों पर बातचीत होती रहे. फसल को लेकर आपसी मनमुटाव से लेकर मिथिला के सामा-चकेवा पर्व तक को किसान भोगता है. सोशल मीडिया में तेजी से लोकप्रिय हो रहे हिमोजी की निर्मात्री अपराजिता शर्मा ने अपने आलेख 'हिंदी वेब स्टिकर्स का आगाज' में हिमोजी के बनने के की कहानी विस्तार से बताया है. यह सच है कि फेसबुक और वाट्सएैप में इमोजी का इस्तेमाल खूब धड़ल्ले से होता है पर कई बार यूजर संदेह और कन्फ्यूजन में पड़ जाता है कि उसे किस भाव के लिए किस स्टीकर्स का उपयोग करना चाहिए. हिमोजी आपको ऐसे विचलन से बचाता है. इसके भाव (इमोशंस) इमोजी के मुकाबले काफी स्पष्ट हैं. न्यू मीडिया के लिए हिमोजी एक बड़ी उपलब्धि है.
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अखिलेश्वर पांडेय


अखिलेश्वर पांडेय की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2017/10/31-1975-2017.html?m=1


संपर्क : apandey833@gmail.com
मोबाइल : 8102397081

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