स्मृति शेष:
इस्पाती औघड़ता को धारण किए बिना विष्णु खरे होना संभव नहीं
विपिन चौधरी
कोई भी नवोदित लेखक अपने शुरूआती रचनात्मक सफ़र में साहित्य को आदर्श की कसौटी पर परखने की कोशिश eकरते हुए अपनी कोशिकाओं में निहित नैतिकता के अणुओं को व्यावहारिक रूप देने के क्रम में रोज़मर्रा के जीवन में निहित व्यवहार को खर्च करते हुए जिस तरह सच्चाई और ईमानदारी बरतते हुए इंसानी गरिमा के आवृत में जो जगह बनाता जाता है उसी के जद में एक ऐसी शख्सियत की कामना का समावेश भी होता है जिसके पास साहित्य की आंच में तप कर हांसिल की हुई एक लंबी उम्र हो फिर भले ही उस वरिष्ठ साहित्यकार का सानिध्य उस नवोदित रचनाकार को सहज सुलभ nnaना हो सके पर एक समुचित, सम्मानित दूरी से उनeके लेखन की लौ आगामी पीढ़ियों का मार्ग प्रशस्त करती रहे.
विष्णु खरे ऐसे ही साहित्यकार रहे जो हमेशा युवाओं के लिए उपलब्ध रहे, उनके रचे पर भरोसा रखते रहे उनकी पीठ थाप्थापते भी रहे और साथ ही फटकार भी लगाते रहे.
अपने लेखन-कर्म की शुरुआत से ही जिन साहित्यकारों के लेखन के साथ उनकी गरिमामय छवि ने मेरे भीतर लेखन के प्रति एक संतुलित सकारात्मक दृष्टिकोण बनाए रखा उसमें से एक नाम विष्णु खरे का भी है.
मेरे साथ हमेशा यही दिक्कत रही कि मेरे नज़दीक साहित्य और साहित्यकार की छवि हमेशा साथ ही प्रस्तुत होती रही, लेखक का व्यक्तित्व और उसके लेखन-कर्म दोनों को अलग कर देखने से मुझे आज भी परेशानी होती है. जबकि मेरे कई कवि दोस्त आज तक यही समझाते हैं कि लेखन और लेखक एक ही तासीर के हो ऐसा जरुरी नहीं..
विष्णु जी के व्यक्तित्व में उनके लेखन की तरह ही अपूर्व निष्ठा दिखाई दी, वे अपनी घनीभूत संवेदनात्मक ऊर्जा के बूते लेखकीय-कला के मर्म में उतरते थे फिर चाहे वे कविता, फिल्म या कला का क्षेत्र हो या अनुवाद उनकी रचनात्मकता की थाह पाना किसी गंभीर अध्येता के लिए भी कठिन हो जाता था. उनकी तरह अपने पर भरोसा रखने वाले स्पष्टवादी मनुष्यों को अपने लिए अलग जगह बनाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है विष्णु जी को भी करनी पड़ी और अंतिम समय तक अपनी ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने इसी काम में खर्च किया और इसी क्रम में लगातार वे दूसरों से स्पष्ट रूप से अलग भी होते गए, जाहिर है वे कई मायनों में दूसरों से अलग थे, अक्सर दुनियादारी को दरकिनार कर अपना स्वतन्त्र दृष्टिकोण विकसित कर लगातार उसपर चलते हुए एक ख़ास तरह की मानसिक-संरचना का निर्माण होता है जो इन्सान को ऐसी विशिष्टता प्रदान करती है जिसके वह भीड़ में अलग से दिखाई देने लगता है.
विष्णु जी जुदा थे, अपनी प्रगाढ़ विद्वत्ता के कारण भी और अपनी निष्कपट और बिना लाग-लपेट के अपनी विचारों को प्रकट कर दूसरों को खफा करने के कारण भी. इस दुरूह व्यक्तिव की द्रढ़ता की प्रतिध्वनि को उनसे हुई कई छोटी-छोटी मुलाकातों में सुनाई दी और अंतर्मन के धनी विष्णु खरे जी की कुछ बेलाग टिप्पणियों को भी साक्षात सुनने का अवसर भी मुझे मिला.
विष्णु जी से मुलाकात से पहले उनकी लंबी कविताओं से मुलाकात हुई और उन्हीं दिनों उनके द्वारा किए गए कविता-अनुवाद भी पढ़े. फिर व्यवहार को लेकर और जीवन के प्रति स्पष्ट दृष्टिकोण रखने के कारण उनकी साफगोई से भरे कई ब्यान भी सोशल मिडिया और पत्र-पत्रिकाओं में पढने को मिलते रहे.
उनकी साफगोई उन्हें विशिष्ट व्यक्ति बनाती थी और यही विशिष्टता उन्हें एक विलक्ष्ण कवि के रूप में भी तैयार करती थी, उनकी कविताएँ एकांत में निरंतर अभ्याय कर अपने तीसरे नेत्र को जाग्रत करने वाली कविताएँ हैं. मृत्यु से पहले के क्षणों में जीवन पर किया गए विचार और मृत्यु के ऐन किनारे पर पहुँच कर वापिस दुनिया में लौट कर मृत्यु के अनुभव को बयाँ करने वाली कविताएँ.
जैसे प्रिज्म से निकल कर एक किरण कई रंग अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को साथ लिए बिखर जाते हैं वैसे ही एक स्थिति पर कितने ही आयाम उनकी सोच के रंग भरकर उड़ान भरते हैं उनकी दार्शनिकता एक तरह की स्थूलता से उठ कर एक बड़ा आयतन तैयार करती है जहाँ पाठक के लिए समझने-बूझने के लिए काफी अवकाश मिल जाता है. उनकी कविता एक खास तरह की विशिष्ट बौद्धिक ऊँचाई के सफ़र पर पहुँचने से पहले पाँव पर लगी उस धूल का हवाला देना नहीं भूलती जो ऊँचाई पर भी साथ नहीं छोडती..
विष्णु जी से पहली मुलाकात लगभग पांच साल पहले विश्व पुस्तक मेले में दखल प्रकाशन द्वारा सिनेमा पर आधारित प्रचंड प्रवीर की किताब के लोकार्पण eके अवसर पर हुई, विष्णु जी को सुनने का यह पहला अवसर था, कार्यक्रम की समाप्ति पर मैंने नमस्ते कर अपना नाम बताया तो उन्होंने कहा कि अभी हाल ही किसी ब्लॉग में तुम्हारी कविताएँ पढ़ी हैं. मेरे कई युवा कवि दोस्तों को वे निरंतर अपनी राय से अवगत करवाते रहते थे यह बात मुझे बखूबी मालूम थी.
उस अवसर के बाद कई साहित्यिक कार्यक्रमों में उनसे मुलाकात हुई. विष्णु जी से जब भी मिलती तो विष्णु खरे के साथ अनन्या खरे के पिता से भी मिलना होता. विष्णु खरे जी की सुपुत्री अनन्या खरे (जिसका नाम पहले प्रीति खरे हुआ करता था, मुंशी प्रेमचंद्र के उपन्यास पर बना धारावाहिक ‘निर्मला’ जो 1987 में टेलिविज़न पर टेलीकास्ट होता था, मेरी प्रिय अभिनेत्री है) से भी मिलती विष्णु जी ने बताया इन दिनों अनन्या ‘इस देश naना आना लाडो धारावाहिक की शूटिंग में व्यस्त है.
2017 में साहित्य अकादमी दिल्ली में डॉ. प्रभाकर माचवे की जन्मशती पर आयोजित एक कार्यक्रम में जब उनसे मुलाकात हुई तो वे बहुत कमज़ोर लग रहे थे, उन दिनों उनके ह्रदय का आपरेशन हुआ था. इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर प्रभाकर माचवे के व्यक्तित्व के अनछुये पहलुओं पर इस खूबसूरती से प्रकाश डाला कि मैंने अगले ही दिन प्रभाकर माचवे की कई पुस्तकें संगृहीत कर ली.
विष्णु जी से आखिरी मुलाकात इसी वर्ष फरवरी में ‘समान्तर साहित्यिक उत्सव-जयपुर’ में मुलाकात हुई. दो-तीन दिनों के दौरान उनके कई बार बातें हुई. उसी आयोजन में जब कई युवा दोस्त मुक्तिबोध पर अपने एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में उन्हें घेर कर बैठे थे और सवाल-जवाब कर रहे थे तब कुछ देर के लिए मैं भी उस मंडली में शामिल हुई, विष्णु जी उत्साह में भर कर कह रहे थे, “ हम मुक्तिबोध की जन्म-शताब्दी क्यों बना रहे है, मुक्तिबोध को सबने मraaरा हुआ समझ लिया है, मुक्तिबोध जैसा व्यक्ति कभी मर नहीं सकता.”
आज विष्णु जी के चले जाने के बाद उनके द्वारा कहा गया यही वाक्य बार-बार याद आ रहा है और इसी वाक्य की प्रतिध्वनि से यह भी ध्वनित हो रहा है कि विष्णु खरे को भी भुला देना संभव नहीं है. आखिर वे ऐसे विलक्षण कवि थे जिनके व्यक्तित्व की साफगोई और लेखन के प्रति उनकी एकनिष्ट एकाग्रता उनके जीते जी भंग करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई और उनकी मृत्यु के बाद आज वे एक ऐसे कदावर कवि के रूप में हमारे सामने है जिनसे एक युवा कवि यह सीख पा सकता है कि व्यक्तित्व में सच्चाई, ईमानदारी और स्पष्टवादिता के बिना रची गई कविता ऐसी गुरुत्वाकर्षण-विहीन कविता है जो अंतरिक्ष के व्लैक-होल में लोप हो जाने के लिए ही बनी है.
०००
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मैं क्यों लिखती हूं : विपिन चौधरी
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/blog-post_65.html?m=1
इस्पाती औघड़ता को धारण किए बिना विष्णु खरे होना संभव नहीं
विपिन चौधरी
कोई भी नवोदित लेखक अपने शुरूआती रचनात्मक सफ़र में साहित्य को आदर्श की कसौटी पर परखने की कोशिश eकरते हुए अपनी कोशिकाओं में निहित नैतिकता के अणुओं को व्यावहारिक रूप देने के क्रम में रोज़मर्रा के जीवन में निहित व्यवहार को खर्च करते हुए जिस तरह सच्चाई और ईमानदारी बरतते हुए इंसानी गरिमा के आवृत में जो जगह बनाता जाता है उसी के जद में एक ऐसी शख्सियत की कामना का समावेश भी होता है जिसके पास साहित्य की आंच में तप कर हांसिल की हुई एक लंबी उम्र हो फिर भले ही उस वरिष्ठ साहित्यकार का सानिध्य उस नवोदित रचनाकार को सहज सुलभ nnaना हो सके पर एक समुचित, सम्मानित दूरी से उनeके लेखन की लौ आगामी पीढ़ियों का मार्ग प्रशस्त करती रहे.
विष्णु खरे |
विष्णु खरे ऐसे ही साहित्यकार रहे जो हमेशा युवाओं के लिए उपलब्ध रहे, उनके रचे पर भरोसा रखते रहे उनकी पीठ थाप्थापते भी रहे और साथ ही फटकार भी लगाते रहे.
अपने लेखन-कर्म की शुरुआत से ही जिन साहित्यकारों के लेखन के साथ उनकी गरिमामय छवि ने मेरे भीतर लेखन के प्रति एक संतुलित सकारात्मक दृष्टिकोण बनाए रखा उसमें से एक नाम विष्णु खरे का भी है.
मेरे साथ हमेशा यही दिक्कत रही कि मेरे नज़दीक साहित्य और साहित्यकार की छवि हमेशा साथ ही प्रस्तुत होती रही, लेखक का व्यक्तित्व और उसके लेखन-कर्म दोनों को अलग कर देखने से मुझे आज भी परेशानी होती है. जबकि मेरे कई कवि दोस्त आज तक यही समझाते हैं कि लेखन और लेखक एक ही तासीर के हो ऐसा जरुरी नहीं..
विष्णु जी के व्यक्तित्व में उनके लेखन की तरह ही अपूर्व निष्ठा दिखाई दी, वे अपनी घनीभूत संवेदनात्मक ऊर्जा के बूते लेखकीय-कला के मर्म में उतरते थे फिर चाहे वे कविता, फिल्म या कला का क्षेत्र हो या अनुवाद उनकी रचनात्मकता की थाह पाना किसी गंभीर अध्येता के लिए भी कठिन हो जाता था. उनकी तरह अपने पर भरोसा रखने वाले स्पष्टवादी मनुष्यों को अपने लिए अलग जगह बनाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है विष्णु जी को भी करनी पड़ी और अंतिम समय तक अपनी ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने इसी काम में खर्च किया और इसी क्रम में लगातार वे दूसरों से स्पष्ट रूप से अलग भी होते गए, जाहिर है वे कई मायनों में दूसरों से अलग थे, अक्सर दुनियादारी को दरकिनार कर अपना स्वतन्त्र दृष्टिकोण विकसित कर लगातार उसपर चलते हुए एक ख़ास तरह की मानसिक-संरचना का निर्माण होता है जो इन्सान को ऐसी विशिष्टता प्रदान करती है जिसके वह भीड़ में अलग से दिखाई देने लगता है.
विष्णु जी जुदा थे, अपनी प्रगाढ़ विद्वत्ता के कारण भी और अपनी निष्कपट और बिना लाग-लपेट के अपनी विचारों को प्रकट कर दूसरों को खफा करने के कारण भी. इस दुरूह व्यक्तिव की द्रढ़ता की प्रतिध्वनि को उनसे हुई कई छोटी-छोटी मुलाकातों में सुनाई दी और अंतर्मन के धनी विष्णु खरे जी की कुछ बेलाग टिप्पणियों को भी साक्षात सुनने का अवसर भी मुझे मिला.
विष्णु जी से मुलाकात से पहले उनकी लंबी कविताओं से मुलाकात हुई और उन्हीं दिनों उनके द्वारा किए गए कविता-अनुवाद भी पढ़े. फिर व्यवहार को लेकर और जीवन के प्रति स्पष्ट दृष्टिकोण रखने के कारण उनकी साफगोई से भरे कई ब्यान भी सोशल मिडिया और पत्र-पत्रिकाओं में पढने को मिलते रहे.
उनकी साफगोई उन्हें विशिष्ट व्यक्ति बनाती थी और यही विशिष्टता उन्हें एक विलक्ष्ण कवि के रूप में भी तैयार करती थी, उनकी कविताएँ एकांत में निरंतर अभ्याय कर अपने तीसरे नेत्र को जाग्रत करने वाली कविताएँ हैं. मृत्यु से पहले के क्षणों में जीवन पर किया गए विचार और मृत्यु के ऐन किनारे पर पहुँच कर वापिस दुनिया में लौट कर मृत्यु के अनुभव को बयाँ करने वाली कविताएँ.
जैसे प्रिज्म से निकल कर एक किरण कई रंग अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को साथ लिए बिखर जाते हैं वैसे ही एक स्थिति पर कितने ही आयाम उनकी सोच के रंग भरकर उड़ान भरते हैं उनकी दार्शनिकता एक तरह की स्थूलता से उठ कर एक बड़ा आयतन तैयार करती है जहाँ पाठक के लिए समझने-बूझने के लिए काफी अवकाश मिल जाता है. उनकी कविता एक खास तरह की विशिष्ट बौद्धिक ऊँचाई के सफ़र पर पहुँचने से पहले पाँव पर लगी उस धूल का हवाला देना नहीं भूलती जो ऊँचाई पर भी साथ नहीं छोडती..
विष्णु जी से पहली मुलाकात लगभग पांच साल पहले विश्व पुस्तक मेले में दखल प्रकाशन द्वारा सिनेमा पर आधारित प्रचंड प्रवीर की किताब के लोकार्पण eके अवसर पर हुई, विष्णु जी को सुनने का यह पहला अवसर था, कार्यक्रम की समाप्ति पर मैंने नमस्ते कर अपना नाम बताया तो उन्होंने कहा कि अभी हाल ही किसी ब्लॉग में तुम्हारी कविताएँ पढ़ी हैं. मेरे कई युवा कवि दोस्तों को वे निरंतर अपनी राय से अवगत करवाते रहते थे यह बात मुझे बखूबी मालूम थी.
उस अवसर के बाद कई साहित्यिक कार्यक्रमों में उनसे मुलाकात हुई. विष्णु जी से जब भी मिलती तो विष्णु खरे के साथ अनन्या खरे के पिता से भी मिलना होता. विष्णु खरे जी की सुपुत्री अनन्या खरे (जिसका नाम पहले प्रीति खरे हुआ करता था, मुंशी प्रेमचंद्र के उपन्यास पर बना धारावाहिक ‘निर्मला’ जो 1987 में टेलिविज़न पर टेलीकास्ट होता था, मेरी प्रिय अभिनेत्री है) से भी मिलती विष्णु जी ने बताया इन दिनों अनन्या ‘इस देश naना आना लाडो धारावाहिक की शूटिंग में व्यस्त है.
2017 में साहित्य अकादमी दिल्ली में डॉ. प्रभाकर माचवे की जन्मशती पर आयोजित एक कार्यक्रम में जब उनसे मुलाकात हुई तो वे बहुत कमज़ोर लग रहे थे, उन दिनों उनके ह्रदय का आपरेशन हुआ था. इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर प्रभाकर माचवे के व्यक्तित्व के अनछुये पहलुओं पर इस खूबसूरती से प्रकाश डाला कि मैंने अगले ही दिन प्रभाकर माचवे की कई पुस्तकें संगृहीत कर ली.
विष्णु जी से आखिरी मुलाकात इसी वर्ष फरवरी में ‘समान्तर साहित्यिक उत्सव-जयपुर’ में मुलाकात हुई. दो-तीन दिनों के दौरान उनके कई बार बातें हुई. उसी आयोजन में जब कई युवा दोस्त मुक्तिबोध पर अपने एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में उन्हें घेर कर बैठे थे और सवाल-जवाब कर रहे थे तब कुछ देर के लिए मैं भी उस मंडली में शामिल हुई, विष्णु जी उत्साह में भर कर कह रहे थे, “ हम मुक्तिबोध की जन्म-शताब्दी क्यों बना रहे है, मुक्तिबोध को सबने मraaरा हुआ समझ लिया है, मुक्तिबोध जैसा व्यक्ति कभी मर नहीं सकता.”
विपिन चौधरी |
आज विष्णु जी के चले जाने के बाद उनके द्वारा कहा गया यही वाक्य बार-बार याद आ रहा है और इसी वाक्य की प्रतिध्वनि से यह भी ध्वनित हो रहा है कि विष्णु खरे को भी भुला देना संभव नहीं है. आखिर वे ऐसे विलक्षण कवि थे जिनके व्यक्तित्व की साफगोई और लेखन के प्रति उनकी एकनिष्ट एकाग्रता उनके जीते जी भंग करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई और उनकी मृत्यु के बाद आज वे एक ऐसे कदावर कवि के रूप में हमारे सामने है जिनसे एक युवा कवि यह सीख पा सकता है कि व्यक्तित्व में सच्चाई, ईमानदारी और स्पष्टवादिता के बिना रची गई कविता ऐसी गुरुत्वाकर्षण-विहीन कविता है जो अंतरिक्ष के व्लैक-होल में लोप हो जाने के लिए ही बनी है.
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मैं क्यों लिखती हूं : विपिन चौधरी
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