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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 सितंबर, 2018

 उमा शंकर चौधरी की कविताएं


उमा शंकर चौधरी


एक दिन मैं भी

एक दिन मैं भी घर से निकलूंगा
और लौटकर नहीं आउंगा
पत्नी राह देखती रहेगी
बच्चे नींद भरी आंखों के बावजूद
पिता से किस्से सुनने का इंतजार करेंगे

मैं दूर तक जाउंगा
इधर-उधर देखूंगा
सीधा भी चलूंगा
पानी पीउंगा
फिर कहां मार दिया जाउंगा पता नहीं

मेरे आंगन में रोज उतरने वाली कच्ची धूप
मेरा इंतजार करेगी
उन तितलियों को भी मेरा इंतजार रहेगा
जिन्हें पंख फैलाकर उड़ते देख मैं मुस्कराया करता था
मेरी बाड़ी में बैंगन के पौधों में जो फूल हैं
उनका सौन्दर्य अब बिखर जायेगा
मेरे नींबू के पेड़ पर जो गौरैया रोज बैठती है
जिससे रोज मैं बतियाता हूं
अब वह नहीं आयेगी

मैं जाउंगा और लौट कर नहीं आउंगा
अपने बच्चों से जो मैंने गरम मौजे लाने का वायदा किया था
बच्चे उन मौजों का इंतजार करेंगे

मेरी पत्नी, मेरे बच्चे और बुजुर्ग पिता
और मुझे प्यार करने वाले चंद लोग
टटोलेंगे मेरी मौत के कारण
ढूंढेंगे उस हत्यारे को
वे आवाज उठाने की करेंगे कोशिश और थक जायेंगे

वे जायेंगे कीड़े-पतंगे, मिट्टी और झड़ चुके पत्तों के पास
फिर अंत में जायेंगे उन शब्दों के पास
जो लिखे थे मैंने अंधेरे के खिलाफ

मैं जाउंगा और लौट कर नहीं आउंगा
एक दिन मेरी पत्नी समझा देगी बच्चों को
पिता के मौत का सही कारण
और अपने तकिये के नीचे छुपा कर रख लेगी उन शब्दों को
जो मैंने लिखे थे कभी अंधेरे के खिलाफ
मेरे बच्चे सोयेंगे और उनकी मां उनके बाल सहलायेगी
बाहर तिलचट्टे की आवाज होगी

मेरे बच्चे अभी नींद में हैं
उसके सपने में जरूर होगा फूलों का बगिया और तितली
मैं लिख रहा हूं ये शब्द
प्रधानमंत्री अब भी दे रहे होंगे कहीं न कहीं भाषण
बाड़ी की मिट्टी के नीचे हैं कीड़े
मेरे दरवाजे की चौखट से
लकड़ी खाने की आ रही है आवाज करर्र-करर्र, किरर्र-किरर्र
००



मुजफ्फ़रनगर

गाड़ी पहुंची मुजफ्फ़रनगर
तो झांकने लगा खिड़की से मैं
देखने लगा मुजफ्फ़रनगर
ढूंढने लगा वही मुजफ्फ़रनगर

ढूंढ रहा था मुजफ्फ़रनगर
तो सो रहा था मुजफ्फ़रनगर
हांफ रहा था मुजफ्फ़रनगर
सुस्ता रहा था मुजफ्फ़रनगर
लेकिन जगे थे वहां के बच्चे
मुजफ्फरनगर के बच्चे

बच्चों की चहलकदमी और शोर से भरा था मुजफ्फ़रनगर

मैंने दूर खेल रहे बच्चे को
इशारे से पास बुलाकर पूछा क्या यही है मुजफ्फ़रनगर
उसने एक क्षण को घूरा मुझे और पूरा जोर लगाकर कहा
इंशाअल्लाह! हां यही है मुजफ्फरनगर
और फिर भागते हुए उसने
रेलवे ट्रैक से एक पत्थर उठाकर दम लगाकर
फेंक दिया दूर

और इस तरह इतने दिनों बाद एक बार फिर से
मेरे सीने में सुलग उठा मुजफ्फ़रनगर
००


कुछ भी वैसा नहीं

अब जब तक तुम लौट कर आओगे
कुछ भी वैसा नहीं रहेगा
न यह सुनहरी सुबह और न ही यह गोधुलि शाम
न यह फूलों का चटक रंग
न चिड़ियों की यह कतार
और न ही यह पत्तों की सरसराहट

अब जब तक तुम लौटकर आाओगे
रात का अंधेरा और काला हो चुका रहेगा
बारिश की बूंदें और छोटी हो चुकी हांगी
हमारे फेफेड़े में जगह लगभग खत्म हो चुकी रहेगी

जब तुम गये थे तब हमने सोचा था
कि अगली सर्दी खत्म हो चुका होगा हमारा बुरा वक्त
राहत में होंगी हरदम तेज चलने वाली हमारी सांसें
लेकिन अगली क्या उसकी अगली और उसकी अगली सर्दी भी चली गयी
और ठीक सेमल के पेड़ की तरह बढ़ता ही चला गया हमारा दुख

अबकि जब तुम आओगे तो
तुम्हें और उदास दिखेंगे यहां हवा, फूल, मिट्टी, सूरज
और सबसे अधिक बच्चे
अबकि जब तुम आओगे तो चांद पर और गहरा दिखेगा धब्बा

मैं जानता हूं कि तुम आओगे देखोगे इन उदास मौसमों को
और तुम जान लोगे हमारे उदास होने का ठीक ठीक कारण।
००

यादवेन्द्र



शब्दों के अर्थ

इस बीच जब बदलने की की जा रही है कोशिश
हमारा मिजाज, हमारा इतिहास
हमारी सोच
और सबसे अधिक ये फिजाएं
तब अब बदले जाने लगे हैं शब्दों के अर्थ भी

बचपन में पिता ने जिन शब्दों के बतलाये थे जो अर्थ
अब इस समय में उन शब्दों के
ठीक-ठीक नहीं रह गए हैं वही अर्थ

जैसे मिट्टी को मिट्टी कहना
हवा को ठीक ठीक कहना हवा
खुशबू को खुशबू कहना
किसी भी रंग को अब ठीक वही रंग कहना आसान नहीं है

अब गड़बड़ा गए हैं बचपन में सीखे शब्दों के
ठीक-ठीक हिज्जे
शब्दों के ठीक-ठीक प्रयोग
अब जब भी लिखना चाहता हूं प्रेम
प्रेम बदल लेता है अपना स्वरूप

अब कुछ शब्द महज शब्द नहीं आपकी पहचान है
अब जब भी मैं निकलता हूं अपने देश को प्रेम करने
प्रेम बदल लेता है अपना स्वरूप
मेरे सामने खड़े हो जाते हैं ढेर सारे सवाल
कि कितना करते हैं प्यार आप फूलों से, भंवरे से
या चिड़ियों की चहचहाहट से
कितना करते हैं प्यार बारिश की बूंदों से उठने वाली मिट्टी की खुशबू से
कितना करते हैं प्यार अपनी पहचान से, इस हरियाली से
कुछ आवाजों से, अपने आंसू से, अपनी वजूद से
या फिर अपनी अंतरात्मा से

मैं या कि आप कोरे कागज पर लिखते हैं कुछ शब्द-
भूख
आजादी
और अस्मिता
और जितनी देर में झुकते हैं इन शब्दों को दुरुस्त करने के लिए
देखते हैं महज उतनी ही देर में बदल गए हैं उसके मायने
महज उतनी ही देर में बदल गई है हवा की तासीर

आपने इधर उस कोरे कागज पर लिखा नहीं
आजादी कि उतनी ही देर में
आपके दरवाजे पर खड़ी हो जायेगी पुलिस

मेरे मन में हैं ढेर सारे शब्द
जिन्हें मैं लिख डालना चाहता हूं यहां-वहां
हवा, पानी, आकाश
और यहां तक कि बच्चों की किलकारियों पर भी
पर हर बार उन शब्दों के बदल दिये जाते हैं अर्थ
और इन बदले हुए अर्थों के साथ
हर बार खड़ा हो जाता है एक विशाल हुजूम
और हर बार मैं बना दिया जाता हूं उतना ही सशंकित और संदेही।
००



उस लड़की के करीब

अपनी स्मृति में जब भी मैं उस लड़की को लाता हूं
वह लड़की मुझे उदास और चुप्प दिखती है
ऐसे जैसे उसने ओढ़ ली हो
चुप्पी की एक कठोर चादर

वह लड़की बैठती है
और दूर कहीं अपनी निगाह को उलझा लेती है
उसकी पुतलियां उलझ जाती हैं
किसी खास दृश्य या किसी खास वस्तु से
जबकि वह उस वक्त नहीं चाहती है देखना
उन सब चीजों में से कुछ भी

वह लड़की जो तय नहीं कर पाती है
अपना कोई पक्ष
उस लड़की के भीतर हैं ढेर सारे उलझाव
ढेर सारी गुत्थियां
आंसू की कुछ बूंदें
कांच के कुछ टुकड़े
और फूल की ढेर सारी पंखुड़ियां

उस लड़की के मन के भीतर है
बर्फ की एक कठोर सिल्ली

उस लड़की के करीब बैठो
बर्फ की सिल्ली बूंद-बूंद कर पिघलने लगेगी।
००

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लेकिन तब भी

जब चारों तरफ हो रही थी हत्याएं
तब वे चुप थे
जब बन्दूकों की नोक के ठीक सामने
रख दिए गए थे चिड़ियों के कोमल दिल
जब बारूद की सुरंग पर रख दी गयी थी बच्चों की किलकारियां
तब साध ली गई थी चुप्पी

वे बोलते तो पहचाने जाते
पहचान ली जाती उनकी हंसी
उनका अट्टहास ??

उनका बड़बोलापन
पहचान ली जाती उनकी आत्मा
उनका रंग

जब सारे लोगों ने उम्मीद के साथ
टिका रखी थी उस कुर्सी के सामने निगाहें
तब वहां एक सन्नाटा था
तब सो रहे थे प्रधानमंत्री

सो रहे थे प्रधानमंत्री और लोग
ठीक उसी वक्त अपनी उंगलियों पर
उस निशान को ढूंढ़ने की कर रहे थे कोशिश
जो मिटाये नहीं मिट रहा था अब
तमाम प्रयासों के बावजूद

चारों तरफ हो रही थीं हत्यायें
और प्रधानमंत्री चुप थे

जब चिताएं शांत हो जाएंगीं
आततायी लौट जायेंगे अपने घर
विरोध में उठने वाली आवाजों को कर दिया जायेगा दरकिनार
बहुत से निर्दोष साबित कर दिये गए होंगे कसूरवार
तब उठेंगे प्रधानमंत्री अपनी नींद से

प्रधानमंत्री उठेंगे अपनी नींद से
और बजायेंगे इस देश के लिए नगाड़ा
नगाड़े की इस आवाज से सहम जाएंगे पक्षी
यह आकाश, बादल, पेड़, पौधे
बच्चे बंद कर देंगे खेलना
लेकिन तब भी कहीं न कहीं सुलग रही होगी कोई आग
तब भी जंगल में चमक रही हांगी
भेड़िये की दो आंखें।
००



खीझ की तरह

वह उठाकर चल रहा है
मीलों अपने कन्धे पर अपनी पत्नी की लाश
देश के दूसरे हिस्से में
जवाब देने से सकुचाती सरकार
बीच में छोड़ देती है प्रेस कॉन्फ्रेंस
चैन की नींद सोया बच्चा जग जाता है मां की गोद में
हकीकत से परे फिल्म में कह देता है एक सात साल का बच्चा कि
इन बातों को समझने में अब नहीं लगने वाले हैं पंद्रह वर्ष

सुबक रही है दीना मांझी की बारह साल की बेटी
घर में बैठी मेरी छः साल की बेटी खेलते-खेलते हो जा रही है गुम
पक्की सड़क पर घिसट रही है दीना मांझी की चप्पल
याद आ रहे हैं प्रेमचन्द के फटे जूते
फटे जूते से निकल रही है उंगली
खेत में खड़े होकर किसान खुद बर्बाद कर रहे हैं
प्याज की फसल

कोयल कूकने वाली वादियों में है
बन्दूक की कर्कश आवाज
बन्दूक से निकलने वाले छर्रे से
उस बच्ची की चली गई दोनों आंखें

मजबूत हो रहा है लोकतंत्र
अट्टहास कर रहा है देश का मुखिया
दमक रही है उसके सिर पर केसरिया फाग

देश के जिस हिस्से में होनी चाहिए
सुनहरी धूप, सुहाना मौसम
बिखरे पडे़ हैं वहां पत्थर के ढेर सारे टुकड़े
लेकिन तभी कठिन कर्फ्यू के बीच
सेनाओं की बन्दूक की नोक के ठीक सामने
निकल पड़ती है तीन साल की एक अबोध बच्ची

सरकार दीना मांझी की बारह साल की बेटी के
आंसू की भी रक्षा नहीं करती
और न ही उस बच्ची के अबोधपन की
जो है बन्दूक की नोंक के ठीक सामने

हम चाहें तो पढ सकते हैं इस कविता को
खबरों के एक कोलाज की तरह
या फिर एक सिरफिरे कवि की खीझ की तरह

सरकार के कूड़ेदान में बढ रहे हैं ऐसे ढेर सारे कागजों के टुकड़े
सरकार करेगी अभी खून के रंगों की पहचान
और अभी और होंगी बहसें खून के रंग पर
००

लौटना

सच के लिए मैंने टेलीविजन देखना चाहा
परन्तु वहां अंधेरा था
आज के अखबार के सारे पन्ने भी कोरे थे
आसपास प्रधानमंत्री की भी कोई आवाज नहीं थी
सच के लिए मैं बच्चों के पास गया
बच्चे गुलेल चलाना सीख रहे थे
कुत्ते गहरी नींद में थे उनके मुंह पर मक्खियां थीं

इस लोकतंत्र में सच जानना मेरा मौलिक अधिकार है
यह सोच मैं प्रधानमंत्री के दफ्तर तक गया
वहां प्रधानमंत्री नहीं थे
प्रधानमंत्री के दफ्तर में मेरी जिज्ञासा को रख लिया गया
बाहर पेड़ों से पत्तियां झड़ी हुई थीं
वहां ढेर सारी बत्तियां थीं
सभी जल रही थीं और सभी में रोशनी थी

सामने भीड़ थी उस भीड़ में बहुत शांति थी
सभी लोग आसमान की तरफ ताक रहे थे
पेड़ पर चिड़िया अलसायी हुई थी
पौधे जमीन से अपना भोजन खींच रहे थे
जिसकी बहुत मद्धम परन्तु बहुत ही मधुर सी आवाज
उस फिजा में घुली हुई थी

किसान जो अपने अपने खेतों में अपनी फसल नष्ट कर रहे थे
उन खेतों की आड़ पर खड़े होकर उन्हें देखना
इस लोकतंत्र का सबसे भयानक अनुभव था
उस खेत में एक बिजूका था जो खेत में अब भी खड़ा था
उस पर पक्षियों की बीट थी
मैं वहां से लौटा और सूरज पश्चिम की तरफ ढल गया।
००



स्त्री के सपने में

स्त्री को काम पर जाते देखना
पत्तों पर ओस की बूंद को देखना है
स्त्री काम पर जाती है और मौसम सुहाना हो जाता है
पूरब में सूरज निकल आता है
चिड़ियों की आंखों में चमक आ जाती है
काम करती हुई स्त्री का चेहरा
इस समय का सबसे सुकून भरा चेहरा है

स्त्री काम पर जाती है तो उसके साथ जाता है
आसमान का एक टुकड़ा
बारिश की कुछ बूंदें, पत्तों की हरियाली
और सबसे ज्यादा धूप की तपिश

स्त्री काम पर जाती है तो देखती है पूरे आसमान को
अपने कदमों से पूरी धरती को फलांगती है वह
स्त्री काम पर जाती है और चांद पर अपना घर बना लेती है
उसकी हवाओं से हो जाती है दोस्ती
स्त्री पक्षियों से बतियाने लगती है उनकी भाषा में

काम पर जाती स्त्री अपने पीछे छोड़कर जाती है
दुखों का पहाड़
काम पर जाती स्त्री दुखों के पहाड़ को
रोज थोड़ा थोड़ा तोड़ने की करती है कोशिश

स्त्री काम पर जाती है
और अपने दुखों को थोड़ी देर के लिए दूर धकेल देती है
दुख उसकी तरफ बढ़ते हैं
और वह अपनी मुट्ठी में बंद धूप की तपिश से
अपने चेहरे को ढंक लेती है

काम पर जाती स्त्री रोज जूझती है अपनी स्मृतियों से
उबरने की करती है कोशिश वह
अपनी स्मृतियों में बिखरे काले रंग से

काम पर जाती स्त्री थकती है और सो जाती है

सोती स्त्री रोज सपने में देखती है
कल फिर से काम पर जाने का खुशनुमा पल
जिसमें उसके साथ है थोड़ा सा आसमान, बारिश की कुछ बूंदें
कुछ हरियाली, थोड़ी सी धूप की तपिश
और सबसे अच्छा
चिड़ियों से बतियाने का एक कोमल अहसास
००



अटक जाती है आवाज

अब जबकि बहुत ही चलताउ मुहावरे से
व्याख्यायित हो रहा है देश
राष्ट्रप्रेम की बहुत ही सस्ती हो रही है पुनर्व्याख्या
बहुत ही बदरंग चश्मों से पढ़ा जा रहा है इतिहास
तब उस पेड़ पर बैठी चिड़िया की आंखों में
सबसे अच्छा देखा जा सकता है इस देश का नक्शा
इस देश का अक्स

वह नौजवान चिल्लाना चाहता है
इतिहास के बदलते जा रहे शब्दों को देखकर
और उसके गले में अटक जाती है आवाज
या अटका दिया जाता है उसके गले में एक गुटका
यहां शोर बहुत है
शांति के लिए दबानी पड़ती है गोरैये की आवाज़
पेड़ पर शांत बैठे गोरैये को अपने मुंह में दबा लेता है बाज

यहां शोर बहुत है
और पक्षी चैन की नींद सो नहीं पा रहे हैं
बच्चा बड़ा होकर जानना चाहता है अपना इतिहास
इतिहास के पन्नों पर दीमक लग गई है

इस चलताउ मुहावरे के समय में
शब्दों के बदलते जा रहे हैं अर्थ
बदल रही है बादलों की कलात्मकता
नाखून हो रहे हैं धीरे धीरे सफेद

घर से बाहर निकलता हूं तो
शरीर से टकराते हैं ढेर सारे नये-नये शब्द
और शब्दों की नयी-नयी व्याख्यायें
कट गए हैं ढेर सारे पेड़
झड़ गए हैं ढेर सारे पत्ते
घबरा कर लौटता हूं अपने कमरे में
तो साथ ही लौटते हैं ढेर सारे सूख चुके झड़े पत्ते
और फिर उस कमरे में मेरे साथ भर जाती है
पत्तों की सड़ांध
००


दुख के घर में

उसका दुख कहने-न-कहने से ऊपर था
उसकी आंखों के समंदर में बैठकर
उसके दुख को समझा जा सकता था
समझा जा सकता था उसके दुख को
सिर्फ उसके कानों की झिल्ली की गरमाहट को देखकर

उसका दुख एक स्त्री का दुख था

वह बोलती तो दुख था
वह हंसती तो दुख था
वह चलती, उठती, बैठती, सोती तो दुख था
यहां तक कि जब वह बहुत देर बाद पलक झपकाती
तो उसमें भी दुख था
उसकी आंख, बाल, होंठ, गाल सब दुख में गीले थे

उसने इस जगह, इस देश-समाज-धरती को अपना घर समझा
लेकिन सच यह है कि उसका कोई घर यहां नहीं था
चूंकि उसका कोई घर नहीं था
इसलिए अब वह दुख के घर में रहती थी

वह रोज सुबह उठ लंबी सांस के साथ
दुख को थोड़ा झाड़ना चाहती
लेकिन दुख उसके शरीर से गुंथ से गए थे
वह दुख को झाड़ना चाहती और दुख और बड़ा हो जाता
दुख का चेहरा और विकृत हो जाता
उसके नाखून और बढ जाते

वह आइने में अपनी शक्ल देखना चाहती और उसे
उस आइने में एक स्त्री दिखती
वह उस स्त्री के चेहरे पर दुख के निशान ढूंढती
तब उसे वहां चेहरा नहीं सिर्फ दुख ही दिखता

वह दुख की चादर ओढकर
दांतों के बीच अपने आेंठ को भींचकर
उसी दुख के साथ जाकर चांद पर बैठ जाती
चुपचाप, उदास और गुमसुम
००



परिचय

उमा शंकर चौधरी

एक मार्च उन्नीस सौ अठहत्तर को खगड़िया बिहार में जन्म। कविता और कहानी लेखन में समान रूप से सक्रिय।
प्रकाशन- कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे, वे तुमसे पूछेंगे डर का रंग, चूंकि सवाल कभी खत्म नहीं होते। (कविता संग्रह) अयोध्या बाबू सनक गए हैं, कट टु दिल्ली और अन्य कहानियां (कहानी संग्रह) और आलोचना की दो-तीन किताबें प्रकाशित। पहला उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य।
सम्मान - साहित्य अकादमी युवा सम्मान, भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन सम्मान, रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार, अंकुर मिश्र स्मृति सम्मान।
कहानियां, कविताओं का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद। कविता संग्रह ‘कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे’ का मराठी में अनुवाद साहित्य अकादमी से प्रकाशित।
कविताएं केरल विश्वविद्यालय और शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय, कलाडी के पाठ्यक्रम में शामिल। कहानियां विभिन्न महत्वपूर्ण श्रृंखलाओं- पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस की श्रेष्ठ हिन्दी कहानियां (2000-2010), हार्पर कॉलिन्स की हिन्दी की क्लासिक कहानियां और सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित ‘हिन्दी कहानी का युवा परिदृश्य’ में शामिल। कहानी ‘अयोध्या बाबू सनक गए हैं’ पर प्रसिद्ध रंगकर्मी देवेन्द्र राज अंकुर द्वारा एनएसडी सहित देश की विभिन्न जगहों पर पच्चीस से अधिक नाट्य प्रस्तुतियां।
संपर्कः- उमा शंकर चौधरी जे-8 महानदी एक्सटेंशन, इग्नू, मैदानगढ़ी, नई दिल्ली-110068
        मो0- 9810229111 












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