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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 सितंबर, 2018

कहानी


वे छै आँखें
सुभाष पंत

सुभाष पंत


मैं लेखक नहीं होना चाहता था। लेखक मुझे ऐसे विशिष्ट मानव लगते थे, जिन्हें परमात्मा एक खास सांचे में ढालकर धरती पर भेजता है। उनके पास सौंदर्य बोध, पर दुःखकातर संवेदनशील हृदय, कोमल भाषा और बेहद पवित्र आत्मा होती है। मेरे पास इनमें से कोई गुण नहीं था और ऊपर से मैं गरीब भी था। पिता अपने फन के उस्ताद सिनेमा ऑप्रेटर थे लेकिन उनका दुर्भाग्य यह था कि वे जिस सिनेमा में भी ऑप्रेटरी करते कुछ ही दिनों में उसका दिवाला पिट जाता। उनका वेतन बहुत कम था और वह भी समय से नहीं मिलता था और हमारी रोटियां लगातार प्रश्नों के घेरे में बनी रहती थी। परिवार में लगभग हर साल किसी भाई या बहन का जन्म होता और वो कुछ दिन दिलचस्प लीलाएं दिखाकर कुपोषण या बिमारी में इलाज के बिना हमारा साथ छोड़ देता। ऐसे में घर का बड़ा बेटा होने के नाते मैं वे ही स्वप्न देख सकता था, जो ऐसे बच्चे को उसकी परिस्थिति और आर्थिकी  दिखा सकती थी।
   तब मैंने बैंड मास्टर होना चाहा था। बैंड मास्टर मेरे सपनों में छाया रहता। वाह! उसका क्या रुतबा और क्या नक्शा है। बारात में वह आगे होता, दुल्हा और बाराती उसके पीछे। अपने एक इशारे पर वह बारात को नचा देता। उसकी एक अदा पर सौ सौ जाने निछावर होतीं। उसके लिए छज्जों में महिलाओं का जमावड़ा लग जाता और झरोखे आंखों में बदल जाते। लेकिन मेरा यह स्वप्न भी धराशाई हो गया। मेरे गले में सुर नहीं था और मैं कोई वाद्य बजाना कभी नहीं सीख सका।
   इसी दौरान अजीब बात यह हुई कि अचानक मेरे भीतर रचनात्मक विस्फोट हो गया। मैं तब तहसील जूनियर हाई स्कूल में सातवीं का छात्र था। ये हमारे परिवार के बहुत मुश्किल दिन थे। दो छोटे भाई और एक बहन की मौत के बाद पिता के दिमाग़ में यह बैठ गया कि घर पर किसी ने ओपरा कर दिया है। पंडित ओझाओं ने और हवा दी और इसे उनके दिमाग़ का स्थाई भाव बना दिया। घर हर वक्त दहशत में रहता। उसके हर अंतरे कोने में ओपरी छायाओं का कब्जा हो गया। कानों में अजीब तरह की आवाजें आतीं। आंखों को भयानक परछाइयां दिखाई देतीं। रात में घर की टिन की छत अजीब तरह से भड़भड़ाती। ओपरे से छुटकारे के हर हफ्ते तंत्रतत्र पूजापाठ। पिता की तन्ख्वाह वैसे ही कम और अनियमित थी। उसमें भी अजीओगरीब चेहरे मोहरे और वेशभूषावाले तांत्रिकों ने सुराख कर दिया। धर आर्थिकी के अतिंम बिन्दू पर पहुंच गया। बावजूद इसके कि पिता की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ, ओपरी शक्तियों और तंत्रमंत्र पर उनका विश्वास पागलपन की सीमा तक घनीभूत होता चला गया। यह सारे बचाव का संजाल उस विधवा औरत के लिए था, जिसे तांत्रिकों ने डायन घोषित कर दिया था। यही वह पहला अवसर था जब मेरे भीतर तर्क और फिर अन्याय के लिए विरोध ने जन्म लिया जिन्होंने फिर मेरा साथ नहीं छोड़ा। मेरा तर्क था कि अगर इस महिला में वाकई तांंत्रक ताकते हैं तो यह अपने बच्चे पालने के लिए घर घर जाकर छोटे छोटे मेहनत के काम क्यों कर रही। अपने काले जादू से मंसाराम बैंक से ढेर सारे पैसे क्यों नहीं उड़ा लेती (उन दिनों देहरादून में इस नाम का एक निजी बैंक होता था जो अपने ग्राहकों के पैसे उड़ा कर बाद में फेल हो गया)। यह एक छोटा सा तर्क था जिसने मेरे सोच की सारी दिशाएं बदल दीं। कहा नहीं जा सकता कि यह कालान्तर में मेरे लेखक होने की पूर्व पीठिका रही होगी या नहीं, लेकिन इसने मुझे तार्किक ढंग से सोचने का संस्कार अवश्य दिया। 
   घर आर्थिक, नैतिक और मानसिक टूट के कगार पर था। पिता हम सभी को लेकर एक से दूसरी रिश्तेदारी में भाग रहे थे। मां के मामाओं ने हमें शरण दी। हम उनके गांव अजबपुर चले गए। उन दिनों मैं अपने परिवार के साथ अजबपुर में था और वहां से पढ़ने के लिए चार मील पैदल चलकर तहसील जूनियर हाई स्कूल आया करता था। वक्त की बात है तब दूरियां दूरियां ही नहीं लगती थी। मुझे इस स्कूल में यह कहकर भर्ती किया गया था कि यहां गणित बहुत अच्छी पढ़ाई जाती है, लेकिन भर्ती करने की असली वजह यह थी कि इस स्कूल फीस सभी स्कूलों से कम थी।
   तहसील के स्कूलों में अध्यापकों को कई कई महीने वेतन नहीं मिलता था, जिस कारण वे पढ़ाने में कतई दिलचस्पी नहीं लेते थे। स्कूल के अधिकांश विद्यार्थी गांव के लड़के थे, जिनके पास बेहद रचनात्मक और मौलिक किस्म की गालियों का अकूत खजाना होता था। मैं टाटपट्टी पर बैठा उनके इस अकूत खजाने से अशर्फिया लूटाता रहता था। तब मैंने पहली बार जाना था कि इस देश को समझने के लिए गाली एक अनिवार्य तत्त्व है और यह भी कि गाली का मतलब यहां गाली होता भी है और नहीं भी होता। इस महादेश में गालियां सिर्फ क्रोध या घृणा में ही नहीं दी जातीं, वे तो समानरूप से उदात्त प्रेम और महान श्रद्धा में भी दी जा सकती हैं। बिसमिल्ला खान की शहनाई सुन कर उनकी कला के प्रति उसीम श्रद्धा की अभिव्यक्ति का एक नमूना-’स्साले ने ऐसी शहनाई बजाई कि.......फाड़कर रख दी’


बिस्मिल्लाह खान
उस दिन अपनी मांगे मंगवाने के लिए तहसील स्कूलों के अध्यापकों ने अपने विद्यार्थियों के साथ जुलूस निकाला। यह पहला अवसर था जिसमें मैं जुलूस में शामिल हुआ और मैंने इसकी ताकत को जाना। जुलूस परेड ग्राउंड में जाकर आमसभा में बदल गया और भाषणों का सिलसिला आरम्भ हो गया। उन भाषणों को सुनकर गुरुजनों के संकटों का जो चित्र मेरे मानस में उभरा उसने मुझें भीतर तक उद्वेलित कर दिया। उस रात मैंने ढिबरी की धुआं उगलती रोशनी में अध्यापकों की व्यथाकथा पर आलेख लिखा और मेरी पहली रचना का जन्म हो गया। स्कूल की बालसभा (उन दिनों तहसील स्कूलों में हर महीने के अंतिम शनिवार को  हाफ टाइम के बाद बालसभा होती थी जिसमें बच्चों को अपनी प्रतिभा अभिव्यक्त करने का अवसर मिलता था) में कांपते पैरों और लड़खड़ाते स्वर में मैंनं यह आलेख पढ़ा। आलेख समाप्त हुआ तो मुझे हेड मास्साब ने अपनी बाहों में भर लिया और वर्तनी वगैरह सुधार कर किसी पत्रिका में प्रकाशनार्थ भिजवाने के आलेख मुझसे ले लिया।

अगले वर्ष तक पिता की मानसिक स्थिति में कुछ सुधार हुआ और हम अपने घर लौट आए। में अब दर्जे आठ में आ चुका था। संयोग से मुझे दूसरी-तीसरी कक्षा के दो भाई-बहनों को पढ़ाने का एक ट्यूशन भी मिल गया। उन दिनों रूपया बहुत बड़ी चीज थी। फीस के रूप में प्रतिदिन मुझे एक पाव गाय का दूध मिलता था। मैं दूध लाते हुए गिलास में झांक कर देखता तो हल्के पीले दूध में मुझे गाय के खुर की परछाई दिखाई देती ( आश्चर्य की बात यह कि लगभग बीस साल बाद मैंने पहली कहानी लिखी और जिसके साथ मैंने साहित्य की दुनिया में कदम रखा, उसका शीर्षक भी गाय का दूध है)। इसी वर्ष आगरा से प्रकाशित शिक्षको की पत्रिका ’शिक्षक बंधु’ में मेरा आलेख भी प्रकाशित हो गया और मेरी यशगाथा गूजने लगी। मैं सतह से ऊपर उठ गया था।  इसका असर यह हुआ कि जब मिडिल पास करने के बाद पिता ने मुझे ’पंजाब एण्ड सिंध प्रैस’ में कम्पोजिंग का काम सीखने के लिए भेजा, तो लेखक होने के अभिमान में मैं वह काम नहीं सीख सका। कम्पोजिंग का काम सीख लेता तो मेरे जीवन की दिशा बदल जाती। नहीं सीख सका तो मुझे नकारा मान कर डीएवी इंटर कॉलेज में कक्षा नौ में भर्ती कर दिया गया। अब तक मैं दो-चार ट्यूशने भी करने लगा था और अपनी पढ़ाई वगैरह का खर्च भी निकाल लेता था। तब भी पता नहीं मुझे ऐसा क्यो लगता था कि मैं किसी अपराधबोध से ग्रसित हूं। खास कर खाना खाते समय तो मैं इसे बहुत शिद्दत से महसूस करता।
 
हाई स्कूल बोर्ड की परीक्षा में अपने और आस-पड़ोस के मोहल्ले में सिर्फ मैं ही उत्तीर्ण हुआ, वह भी दूसरी श्रंणी में। उन दिनों यूपी बोर्ड का रिजल्ट 35-36 प्रतिशत के आसपास ही हुआ करता था। प्रथम श्रेणी में तो तब कोई इरला-बिरला ही पास होता था। पहले ही प्रयास में दूसरी श्रेणी में ंपास हो जानेवाले को भी बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। जिस समय मैंने पिता को अपनी यह उपलब्धि बताई उस समय वे पिछली रात घर की गिरी कच्ची दीवार की मरम्मत कर रहे थे। उन्होंने प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा कि मुझे अब कोई नौकरी ढूंढ लेनी चाहिए और मेरे विरोध करने पर कि मैं आगे पढ़ना चाहता हूं, उन्होंने निराश नजरों से मेरी ओर देखते हुए कहा, ’यार इससे तो तू कहीं पत्थर हुआ होता तो कमस्कम दीवार में चिनने के काम तो आ जाता। मैं पिता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर सका। वे मुझे पत्थर बनाना चाहते थे। मैंनें पत्थर बनने से इंकार कर दिया और ग्यारहवीं कक्षा का विज्ञान का छात्र हो गया। लेकिन अभी आधा सत्र भी नहीं बीता था कि हम फिर मुसीबत में घिर गए। पिता जिस सिनेमा में काम करते थे वह बिक गया। अब वह बनिए का नहीं जुब्बल के राजा का सिनेमा था। पिता की सेवा शर्तों और वेतन में सुधार की संभावनाएं हो गई थी। लेकिन अभी लगभग एक डेढ साल सिनेमा के रिनोवेट होने में लगना था और तब तक पिता को मामूली रिटेनरशिप ही मिलनी थी। परिवार का बड़ा लड़का होने के नाते मुझे कोई कारगर कदम उठाना था और मैंने सचमुच इसका रचनात्मक विकल्प खोज भी लिया था। मेरा एक पढ़ाकू मित्र अपने पढ़ने के लिए लाइब्रेरी से किराए पर उपन्यास लाया करता था। उन दिनों विभाजन में पाकिस्तान से आए शरणार्थी आजीविका के लिए फट्टों की दुकानों में ऐसी लाइब्रेरियां चलाया करते थे। ये रहस्य-रोंमाच या भावुक किस्म के सतही सामाजिक उपन्यास होते थे। मित्र को कोई उपन्यास उद्वेलित कर देता तो वह उस उपन्यास को मुझे भी पढ़वा देता था। मेरा खयाल है तब मैंने कोई ऐसी रचना पढ़ी थी जिसके नायक ने ऐसा उपन्यास रचा कि वह रातों रात यश और प्रसिद्वी के शिखर पर पहुंच गया। मैंने इससे प्रेरणा प्राप्त की और तय कर लिया कि मैं भी कोई ऐसा ही धांसू उपन्यास लिख कर आसन्न संकटों से ही पार नहीं हो जाऊगां बल्कि रुपयों का ढेर लगा दूंगा। यह कल्पना की उड़ान नहीं, ठोस निर्णय था।
   ग्यारहवीं की छुट्टियों में मैंने सचमुच प्रेम-़त्रासदी का उपन्यास ’चमकता सितारा चुभनभरा कांटा’ लिख मारा। उपन्यास लिखते हुए पता नहीं कितनी बार मेरी आंखें नम हुंई और इसकी पांडुलिपि पढ़ने के बाद मेरे परिचितों की। मेरी मां भी, जो बचपन से ही मेरी शत्रु थी, उपन्यास पढ़कर विह्वल हो गई और उसने भी यह स्वीकार कर लिया कि उसका बेटा विलक्षण प्रतिभा-सम्पन्न है। लेकिन मेरे करुणा से भीगे पत्रों से कोई प्रकाशन द्रवित नहीं हुआ। किसी ने भी उपन्यास पढ़ने के लिए नहीं मंगाया। अधिसंख्य प्रकाशकों ने तो पत्र का जवाब ही नहीं दिया। दो-चार ने जवाब दिए कि उन्हें मुझसे सहानुभूति है लेकिन वे पुस्तक प्रकाशित करने में असमर्थ हैं। मैं हताश हो गया कि क्रूर प्रकाशकों ने भविष्य के एक महान लेखक की निर्मम हत्या कर दी। आठ-दस साल बाद हमारे एक पारिवारिक मित्र के प्रयास से लखनऊ के अनाम से प्रकाशन ने बिना कोई पारिश्रमिक दिए इसे प्रकाशित भी किया लेकिन तब तक लिखने का फितूर मेरे दिमाग़ से गायब हो चुका था।
   बीएससी के अतिंम वर्ष में ’वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून’ में तकनीकी सहायक के पद पर मेरा चयन हो गया। यहां फिर मैं एक दुविधा में फंस गया। यह बहुत नाजुक समय था। नौकरी ज्वाइन करता हूं तो बीएससी करना छूट रहा था। बीएससी करता हूं तो नौकरी। मैं अब ऐसे मुकाम पर था कि दोनों में से किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता था। लेकिन इस निर्णायक समय में समीकरण ऐसा बना कि संस्थान ने मुझे ज्वाइनिंग पीरियड में एक महीने की छूट दे दी और कालेज ने मुझे प्रैक्टिकल क्लासेज से छूट दे दी और अटैंन्डेंस देने का वायदा कर लिया। मुझे नौकरी भी मिल गई और आकस्मिक अवकास लेकर परीक्षा दे दी और बीएससी भी हो गया।
   फरवरी 61( जब मैं नौकरी में आया) से जनवरी 1972 (जो मेरे जीवन का एक निर्णायक वर्ष है) के बीच के ग्यारह वर्ष का अर्सा बेहद उथल-पुथल का रहा देश के इतिहास का भी और मेरा भी। मैंने इस दौरान बीएससी के बाद एमएससी किया, दो प्रोमोशन हुए, शादी हुई, अनुसंधान में उल्लेखनीय कार्य हुए, प्लूरिसी और फिर तपेदिक की बिमारियां वगैरह। हालांकि मेरे उपन्यास की पांडुलिपि पढ़कर मेरठ के एक मठाधश लेखक-प्रकाशक अपने नाम से यह उपन्यास प्रकाशित करने और हर माह उनके लिए एक उपन्यास लिखने का मुझे ऑफर मिल गया था, जिसे मैंने अस्वीकार कर दिया था और बाद में मेरा उपन्यास अन्यत्र प्रकाशित भी हो चुका था, लेकिन साहित्य से मेरा रिश्ता अत्यधिक विरल रहा। लिखने का तो कोई सवाल ही नहीं था बस मैं अनियमित धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका वगैरह कुछ पत्रिकाएं और कभी कभार उपन्यास वगैरह पढ़ लेता था। धर्मवीर भारती, और कमलेश्वर-राकेश-यादव की तिकड़ी की मुझे जानकारी थी, लेकिन मैं देहरादून के लेखकों और यहां कि साहित्य संस्थाओं के बारे में कुछ नहीं जानता था।



   जनवरी 72 में मैं एक प्रॉजेक्ट के सिलसिले में अहमदाबाद एक्सप्रेस की प्रथमश्रेणी के कोच में, गर्वीली आत्मा के साथ अहमदाबाद जा रहा था। पालनपुर रेलवे स्टेशन पर मैंने देहरादून से लाए बचे और जूठे खाने का पैकेट खिड़की से बाहर फेंका। उस पर एक मां और उसके दो छोटे बच्चे ऐसे झपटे मानो वे अशर्फियां लूट रहे हो। मैंने अपने भीतर पता नहीं क्या अनुभव किया जिसने मुझे बेहद आहत और असहनीय बेचैनी से भर दिया। रेलवे स्टेशनों पर रेलगाड़ी के डिब्बों की खिड़कियों से फेंके बासी जूठे खानों के पुड़को पर भूखें लोगों का झपटना कोंई नया वाकया नहीं था। यह तो इस महादेश की एक निर्मम सच्चाई है। मैंने पता नहीं रेलयात्राओं में कितनी बार ऐसे दृश्य देखे होंगे। लेकिन यह पहली बार हुआ था कि कोई मेरे फेंके खाने पर झपटा था। मैं खुद इस घटना का एकपात्र था और यह बताने की शायद जरूरत नहीं है कि मैं किधर खड़ा था। रेलगाड़ी पटरीपर सरकने लगी। मैं उन्हें जमीन पर बिखरे हुए खाने को समेटकर खाते हुए देखता रहा और जब वे मेरी नजरों से ओझल हो गए तो उनकी छैं आंखें मेरा पीछा करने लगी। मुझे ऐसा लगा जैसे छै आग में तपी हुई छड़े मेरी पीछा कर रहा है और वे कभी भी मेरी पीठ में सुराख कर देंगीं। अहमदाबाद में भी। अहमदाबाद पावर जेनेरेशन की शीतक मीनारों में भी, जहां मेरा प्रॉजेक्ट चल रहा था। वापसी में देहरादून तक भी वे तब तक मेरी पीछा करती रही जब तक कि मैंने अपनी जिंदगी की पहली कहानी ’गाय का दूध’ नहीं लिख ली, हालांकि यह कहानी इस घटना के गिर्द नहीं बुनी गई। कहानी का रफ ड्र्ाफ्ट अपने पास रख कर उसकी फेयर कॉपी मैंने ’सारिका’ को भेज दी और भूल गया। उन दिनों रचनाएं प्रकाशित करवा लेना बहुत मुश्किल होता था। सारिका तो वैसे भी सर्वश्रेष्ठ कहानी पत्रिका मानी जाती थी। दरअसल मैं उन आखों की तपती हुई सलाखों से मुक्त होना चाहता था और कहानी लिख कर फौरी तौर से उनसे मुक्त भी हो गया था।
   लगभग दो महीने के बाद मुझे कमलेश्वर जी के हाथ से लिखा पत्र मिला, जिसमें कहानी की बहुत प्रशंसा, प्रकाशित करने की स्वीकृति थी और मुझे से परिचय और फोटो मंगी गई थी। मैं जैसे आसमान में उड़ रहा था। मेरी समझ में ही नहीं आया कि मैं अपनी खुशी किसके साथ साझा करूं। मैं साहित्यकार नहीं था और न मेरा कोई दोस्त ही साहित्यकार था। बहरहाल पत्नी ने मुझे उत्साहित किया और मैंने सुबह की क्लासेज में एमए हिन्दी में प्रवेश ले लिया। कमलेश्वर जी के पत्र ने मुझे देहरादून के साहित्य जगत में प्रवेश दिलाया। नई पीढ़ी के ये शानदार और समर्पित लेखक थे जिनकी आत्मा और लहू में बस साहित्य था। हालांकि इनकी रचनाएं प्रकाशित नहीं हो रहीं थी, लेकिन बिना थके ये निरंतर लिख रहे थे। उन दिनों रचनाएं प्रकाशित करने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता था। फरवरी 73 के सारिका के दूसरे विशेषांक ’आजादी के पच्चीस वर्ष : सामान्य जन ओर सहयात्री लेखक’ में यह कहानी ( इस संदर्भ में तीन विशेषांक  निकाले गए थे और लेखक-लेखिकाओं की कहानियों के साथ पत्रिका के कला विभाग द्वारा बनाए उनके पोर्टेट भी प्रकाशित किए गए थे) में प्रकाशित हुई। इसकी प्रतिक्रिया में मुझे बेशुमार पत्र मिले। इस पर कई जगह गोष्ठियां हुई, रेडियो नाटक तैयार हुआ, अंग्रेजी समेत भारत की अनेक भाषाओं में अनूदित हुई,  पाठकों की राय से यह उस अंक की सर्वाधिक उल्लेखनीय कहानी मानी गई और सारिक के ’समांतर विशेषांक’ के लिए अगली कहानी लिखने का कमलेश्वर जी का आत्मीय आग्रह भी आ गया। और मैं जिसे साहित्य का  अ ब स भी नहीं मालूम था लेखकों की बड़ी बिरादरी में शामिल हो गया (उन दिनों सारिका में किसी का पत्र प्रकाशित होना ही उपलब्धि समझा जाता था )।
   यह बेहद व्यस्त दौर था। सुबह साइकिल घसीटते हुए कालेज, कालेज से दफ्तर, शाम को चाय घर में साहित्य चर्चाएं, गोष्ठियां, ठेकों पर ठर्रेबाजी, थोड़ा लिखना-पढ़ना भी, परिवार भी। मैं ये सारे दबाव नहीं झेल पाया और मेरी पुरानी बिमारी फिर से उभर गई। बीमारी के दौरान किसी तरह एमए की परीक्षा तो मैंने निबटा ली लेकिन उसके बाद मुझे कसौली सेनिटोरियम भर्ती होना पड़ा और मेरा लेखन जो अभी शुरु ही हुआ था पूरी तरह से पटरी से उतर गया।
   सेनिटोरियम से लौटने के बाद समान्तर सम्मेलनों में शामिल होने और अनेक प्रतिष्ठित और नई पीढ़ी के लेखकों से मिलने का संयोंग हुआ और कुछ लिखना भी शुरु हो गया। मैंने जो कुछ भी लिखा वह अच्छा भलेही न रहा हो लेकिन वह प्रतिरोध और असहमतियों का लेखन था। देश में आपातकाल घोषित हो गया और लिखना पूरी तरह छूट गया। लेकिन तब तक मेरा पहला कहानी संग्रह ’तपती हुई जमीन’ तैयार हो चुका था। वह प्रकाशन के लिए स्वीकृत था लेकिन आपातकाल के कारण प्रकाशित होने से रोक लिया गया था। बहरहाल भारतीय इतिहास से घोषित आपातकाल का काला अघ्याय खत्म हो गया। मेरा कहानी संकलन भी प्रकाशित हो गया। आपातकाल की घुटन समाप्त हो गई थी और अभिव्यक्ति की स्वतं़त्रता का दौर शुरु हो गया था। यह सरकार इसी नारे के साथ चुनाव जीत कर आई थी। अभिव्यक्ति के इस स्वर्णकाल में मैं लेखन के लिए सीबीआई की जांच के दायरे में आ गया। मेरी कसूर यही था कि मैं अपने लेखन में उन वंचितो के साथ खड़ा था, जिनके साथ खड़ा होना हर सरकार अपने खिलाफ खड़ा होना मानती है। खैर यह एक दूसरी कहानी है। बहरहाल, अब मुझे अपने को लेखक मानने का अधिकार प्राप्त हो गया था। वह भी प्रतिरोधी किस्म का। लेकिन अब तक लेखकों के प्रति बचपन में बना मेरा महान श्रद्धा  भाव समाप्त हो चुका था। मैं जान चुका था कि वह भयानकरूप से आत्ममुग्धता का शिकार है। साहित्य के इतिहास में अपना नाम लिखवाने के लिए आलोचको के चरण चूमता है, सम्पादकों के दरबारों में हाजरी बजाता है, पुरस्कार झटकने के लिए जोड़तोड़ करता है साथ ही अन्याय के खिलाफ आवाज बुलन्द करनेवाला वह इतना निरीह प्राणि है कि प्रकाशक से अपना पारिश्रमिक तक नहीं मांग सकता वगैरह। यह तब मेरी लेखको के प्रति सामन्य धारणा बनी थी, जब मैं खुद लेखक हो चुका था। इस बात के लगभग
तीस-पैतीस बरस बाद भी लेखकों के प्रति मेरी यह धारणा कमजोर पड़ने की जगह ज्यादा पुख्ता हुई है( हालांकि एक नियम कभी भी सब पर लागू नहीं होता अपवाद तो रहते ही हैं और जो अपवाद होते हैं वे साहित्य से बाहर कर दिए जाते है)। सवा सौ करोड़ से ज्यादा कि जनसंख्या में उसका क्रांतिकारी साहित्य कितने पाठकों लक पहुंचता है यह आंकडा़ तो वाकई शर्मनाक है।
   प्रश्न फिर वहीं, तो  मैं लिखता क्यों हूं?
   वे छै आंखें, जो अब मिथक बन चुकी हैं फिर फिर मेरे सामने उभरती हैं। वे मुझे लिखने के सिर्फ बाध्य ही नहीं कर देतीं, यह भी बताती है कि मुझे किनके लिए लिखना है और क्या लिखना है और साथ ही चेतावनी भी देती है कि मैंने जीवन में हर जगह समझौता किया है, लेकिन मैं लिखने में समझौता न करूं।
   पतंग

बिन्नी को इस दिन का, जिसे वह अपनी तरह से जीना चाहता था, लम्बे समय से इंतजार था। यह स्कूल स्पोर्ट-डे था और उसने अपने मम्मी-पापा को यह विश्वास दिला दिया था कि वह जूनियर वर्ग में रिले रेस, लम्बी कूद और साइकिल रेस में भाग लेने के लिए चुन लिया गया है। संदेह की कोई गुंजाइश नहीं थी। वह हफ़्ते भर से इसकी बेहद व्यस्त तैयारी में जुटा हुआ था। किट की मरम्मत हो गई थी। साइकिल के स्पोक कसवा लिए गए थे और उसकी चेन में ग्रीज़ वगैरह लगवाकर उसे दुरुस्त कर लिया गया था। हाऊज़ शर्ट और हाफ-पैंट धुलवा और प्रैस कराकर तैयार करा ली गई थी। मम्मी बहुत-बहुत उत्साहित थी। पापा भी, जो एक दरम्याने किस्म का सरकारी अधिकारी था और जिसे मम्मी एक आदर्श प्रतिमान के रूप में उसके सामने पेश करती थी। हालांकि बिन्नी को ढीली-ढाली पतलून, पुरानी काट की बुशर्ट पहने, लस्त-पस्त और दफ़्तर से लौटते हुए सब्जी का थैला लादे उस आदमी में ऐसी कोई चमकदार बात नहीं दिखाई नहीं पड़ती थी कि उसे एक आदर्श प्रतिमान के रूप में स्वीकार किया जा सके।
   वे एक चौकन्ने और शंकालु पिता की तरह हर शाम उसे पढ़ाते और अकसर उसकी पढ़ाई पर नाराज़ होते। ऐसे वक्त वे दुनिया का बहुत निर्दयी और आने वाले समय का बेहद निराशाजनक रूप प्रस्तुत करते और सारी समस्याओं से पार पाने के लिये पढ़ाई को एकमात्र विकल्प के रूप में पेश करते।
   ‘‘सब कुछ छोड़कर अपनी पढ़ाई पर घ्यान दो तभी इस दुनिया में अपनी जगह बना सकोगे। बहुत निर्दयी है ये दुनिया, नकारे आदमी को उठाकर कूड़ेदान में फेंक देती है। भविष्य एकदम अंधकारमय है और शिक्षा ही वह हथियार है जो उसमें सूराख कर सकता है।’’ वे कहते। सिर्फ इतना ही नहीं वगैरह वगैरह और भी बहुत कुछ।
   उसका मन पापा की बात मानने से इनकार करता। उनके अनुभवों के विपरीत उसे दुनिया बहुत लुभावनी लगती। रंगों और खुशबुओं से भरी। थिरकती और आनन्द में नांचती। बहरहाल अगर यह मान भी लिया जाए कि दुनिया वाकई निर्दयी है तो उसके ट्रांशमिशन ऑव हीट, स्टैम मॉडिफिकेशन, एम्पटी-सबसैट वगैरह जान लेने से उसका निर्दयी चरित्र कैसे बदल जाएगा? यह उसकी समझ में नहीं आता था।
   ‘‘तुम्हारे पास सारी सुविधाएंँ हैं और तुम ऐसे स्कूल में पढ़ रहे हो, हम बचपन में जिसके गेट के भीतर झांकने से भी डरते थे। अब मुझे देखो...’’ और इस तरह पापा अपने हर भाषण में खुद कूद आते। वे बचपन की अपनी ग़रीबी और कठिनाइयों के बारे में बताते। ट्यूशनें पढ़ाकर कैसे उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की? हाई स्कूल करने के बाद उन्हें नौकरी कर लेनी पड़ी, हालांकि वे होशियार विद्यार्थी थे। उनके साथ के आज भी क्लर्की कर रहे हैं लेकिन वे अपनी मेहनत के बल पर डबल एओ यानी एकाउंट एण्ड एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर बन गए हैं। माना वे सिर्फ एक दरम्याने किस्म के अधिकारी हैं, लेकिन वे दफ़्तर की धुरी हैं, जिसके गिर्द वहाँ का सारा कार्य-व्यापार चक्कर काटता है।
   आत्ममुग्ध पिता इस कहानी को बार-बार दोहराते, जिसमें उसकी कतई दिलचस्पी नहीं थी और इस कहानी को सुनकर उसे उबासियाँ आने लगती थीं। इतने लस्त-पस्त पापा, जिनके सिर पर हर वक्त दफ़तर सवार रहता हो और जो सिनेमा के हीरो की तरह दस-दस बदमाशों से निबटने की जगह दुनिया से हर समय घबराए रहते हों, उसके हीरो नहीं हो सकते थे। अलबत्ता वे खलनायक जरूर नहीं थे। उनकी कुशाग्र बुद्धि पर भी उसे संदेह था। अनेक बार टीवी पर देख लेने के बाद भी वे न रवीना टंडन को पहचान सकते थे और न अजय देवगन को। न वे माइकल जैक्सन के बारे में कुछ जानते थे और न मैराडोना के बारे में। वह इन सब के इतिहास-भूगोल को जानता था लेकिन पिता अपने को योग्य घोषित करते और उसे मंदबुद्धि।
   लेकिन स्पोर्ट्स में इनाम पाने के दावेदार के रूप में उभरकर उसने पापा को चारोंखाने चित्त कर दिया था। इस मामले में वे पिटे सिपाही थे। अपने शिक्षाकाल में उन्हें किसी खेल में कभी साबुनदानी तक इनाम में नहीं मिली थी। वे जीतोड़ प्रयास करते, पर लद्दड़ रहते। एक सामान्य हिन्दुस्तानी पिता की तरह वे अपने बेटे के रूप में वह सब कुछ प्राप्त करना चाहते थे जिसके लिए कोशिश या इच्छा तो उन्होंने बहुत की थी पर पा नहीं सके थे। लिहाजा वे बहुत खुश थे और उनकी आत्मा झकाझक थी।
   लेकिन वास्तविकता यह थी कि बिन्नी सब इवेन्ट्स के प्रारम्भिक चयन में ही रद्द़ हो चुका था। उसे झूठ इसलिए बोलना पड़ा था क्योंकि वह एक पूरा दिन अपने लिए चाहता था, जिसमें वह पूरी शिद्द़त के साथ पतंग उड़ा सके और गोलू की पतंग काट सके। उसे पतंग उड़ाने की मनाही थी। उससे जो कुछ बनने की आशा की जाती थी उसमें पतंग जैसी वाहियात चीज के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी।
   उसने सुबह ही डोर से भरी चर्खी अपने किट बैग में छुपाली थी जिसमें सादी डोर के साथ काफी मांजा था। उसके पास जेब खर्च से बचाए बीस रुपए थे। किसी जानकार ने उसे बताया था कि सब्जीमंडी के पतंगसाज सादिक भाई की दुकान पर जनपद में सबसे तेज और पक्का मांजा मिलता है। उसने सादिक भाई को देखा नहीं था और न उसकी दुकान ही देखी थी। यह पहला अवसर था जब उसे सादिक भाई को खोजना था और और उससेे ऐसा मांजा प्राप्त करना था जो एक घिस्से में गोलू की पतंग काट सके।
   वह उछांह से भरा स्कूल के बहाने सब्जीमंडी में पहुँच गया। सादिक भाई इतना महत्वपूर्ण आदमी नहीं था जितना वह सोच रहा था। उसकी दुकान ढूँढने में उसे बहुत दिक्कत हुई और दुकान ढूँढ लेने के बाद घोर निराशा। हालांकि दुकान की दीवार पर अनेक आकार और रंगों की पतंगें और छत से मांजे की चर्खियां लटक रही थी, लेकिन वह फट्टे की एक दरिद्र दुकान थी। उसके मैले-से थड़े पर धारीदार लुंगी और चीकट बनियान पहने एक अधेड़ आदमी बैठा था जो मरियल और सुस्त किस्म का था। उसे सादिक भाई होना चाहिए था और वह था भी, लेकिन उसकी आँखों में वह चमक नहीं थी जो जनपद में सबसे तेज मांजा बेचनेवाले की आँखों में होनी चाहिए थी। इसकी जगह उनमें एक याचना भरा कांइयांपन था।
   ‘‘आप मांजा बेचनेवाले सादिक भाई हैं?’’ उसने पूछा ताकि वह आश्वस्त हो सके कि वह ठीक जगह से मांजा खरीद रहा है।
   ‘‘हाँ।’’ उसने जवाब दिया और उसकी आँखों में हलकी-सी चमक आई। खोए हुये आदमी को फिर से पहचाने जाने वाली चमक।
   ‘‘मैंने सुना है कि आप भौत तेज मांजा बेचते हैं।’’ बिन्नी ने कहा लेकिन उसकी आँखों मे अविश्वास था।
   उसकी आँखों के अविश्वास को देखकर सादिक भाई ने भूमिका बांधी, ‘‘कभी हमारा मांजा लखनऊ-बरेली के नवाबों के यहाँ जाता था। क्या जमाना था और कैसे पतंगबाज थे! एक-एक पेंच पर रियासतें लग जाती थीं।’’
   वह पतंगबाजी के किस्से सुनाने लगा और बिन्नी की आँखों के सामने उनके चित्र उभरने लगे। फिर पता नहीं कब उन चित्रों में खेया वह खुद नवाब बन गया। वह अटारी पर खड़ा पतंग उड़ा रहा है। खादिम ने चर्खी थाम रखी है। कनीज तमीज़ से उगालदान लिए कोर्निश की मुद्रा में झुकी है। पूरा शहर दिल थामें उसकी रेशमी पतंग को देख रहा है। पतंग गोता मारती तो पूरा शहर उसके साथ गोता खाता, ढील दी पतंग करवटें बदलते हुई हवा में तैरती तो शहर उसके साथ हवा में तैरता।
   सादिक भाई ने गहरा उच्छवास छोड़ा, ‘‘जमाना ही बदल गया है। न वे नवाब रहे, न पतंगबाज.....हमारे आरट की कदर करनेवाली पीढ़ी ही खतम हो गई। यह धंधा घाटे का सौदा हो गया फिर भी मैंने इसे नहीं छोड़ा। पैसा ही बड़ी चीज नहीं है। धंधें के हुनर और पुरखों की यादगार को जिलाए रखना भी तो आदमी का फरज है.....’’
   बिन्नी की नजरों में उसका कद बहुत बढ़ गया। अब वह फट्टे की दरिद्र दुकान के थड़े पर बैठा धारीदार लुंगी और चीकट बनियान पहने पतंग का धंधा करने वाला दीन-हीन आदमी नहीं रह गया था। वह तो उस महान परम्परा का वारिस था जिसके मांजे की धार रियासतें बनाती थी और बिगाड़ती थी।






   ‘‘मांजा आप हाथ से सूंतते हैं?’’
   ‘‘नहीं छोटे साब, अब वो कदरदान कहाँ जिनके लिए हाथ से मांजा तैयार किया जाए.....’’
   बिन्नी निराश हो गया। उसे सादिक भाई के हाथ का मांजा चाहिये था। ठीक वैसा जैसा नवाबों के लिए बनता था।
   ‘‘तुम कहोगे तो तुभ्हारे वास्ते हाथ से मांजा तैयार कर देंगे,’’ उसकी निराशा देखकर सादिक भाई ने कहा, ‘‘लेकिन उसमें टैम लगता है और खरच भी भौत आता है। हाँ, तो तुम्हे कितना मांजा चाहिये छोटे साब?’’
   ‘‘पन्द्रह रुपए का।’’ बिन्नी ने कहा।
   सादिक भाई चैतन्य हो गया। उसे यह उम्मीद नहीं थी कि यह छोकरा पन्द्रह रुपए का ग्राहक है। उसने वहीं से चाय के खोखेवाले को आवाज दी, ‘‘जग्गू पाव दूध की चाय भिजवा।’’ फिर मांजे की चर्खियों की ओर इशारा करते हुए उसने बिन्नी से पूछा, ‘‘कौन-सा मांजा लोगे छोटे साब?’’
   वह रंग-बिरंगे मांजे देखकर उलझन में फँस गया। कौन से रंग का मांजा ठीक रहेगा लाल, नीला, पीला, भूरा, हरा, कत्थई.....? लेकिन अगले ही क्षण उसने निर्णय लिया कि लाल रंग ठीक रहेगा। खूनी लाल जिसे और रंगों की तुलना में निश्चय ही ज्यादा प्रखर और अक्रामक होना चाहिए। आखिर रंगों का भी अपना मिजाज होता है। ‘‘लाल रंग ठीक रहेगा।’’ उसने कहा।
   सादिक भाई ने उसके रंग चयन की प्रशंसा की। ‘‘वाह! आप तो अच्छे जानकार हैं छोटे साब। इस फन में रंगों की खास अहमियत होती है। लाल और रंगों पर भारी पड़ता है। तो पन्द्रा का लाल नाप दूँं?’’
   ‘‘हाँ।’’ बिन्नी ने उसकी ओर पैसे बढ़ाते हुए कहा।
   ‘‘चर्खी लाए हो? वैसे हमारे यहाँ की चर्खियाँ भौत मजबूत हैं। दिखाऊँं?’’
   ‘‘चर्खी है मेरे पास।’’
   सादिक भाई दोनो हाथों से नापमर मांजा निकलने लगा और वह बड़े उत्साह से उसे चर्खी में लपेटने लगा। बीच में मांजा लपेटना छोड़कर उसने उंगली के पोर से उसकी धार परखी तो सादिक भाई ने उसे टोक दिया, ‘‘मांजे पर हाथ मत लगाओ छोटे साब, इसकी धार खराब हो जाएगी।’’
   वह किसी भी कीमत पर इसकी धार खराब नहीं होने देना चाहता था इसलिए धार की परख करना छोड़कर वह चुपचाप मांजा लपेटने लगा।
   ‘‘पतंग भी खरीदोगे?’’ मांजा नापते हुए सादिक भाई ने पूछा।
   कीलों पर लटकी रंग-बिरंगी पतंगें देखकर उसका मन ललचाने लगा। कितनी खूबसूरत पतंगें हैं! ल्ेकिन वह पतंग नहीं खरीद सकता था, साइकिल की वजह से उसे लेजाने में दिक्कत होगी।
   ‘‘पतंग कहीं से भी खरीद लूँगा,’’ उसने कहा, ‘‘असली बात तो मांजे की है।’’
   ‘‘बात पतंग की भी होती है,’’ सादिक भाई ने कहा, ‘‘इसे बनाना कोई आसान खेल नहीं है। यह आरट है छोटे साब। पतंग के कद के हिसाब से ठुड्डे की मोटाई और उसका घुमाव तय किया जाता है, जभी तो बेजान कागज में जान पड़ती है और वह पतंगबाज की उंगली की नाजुक लोच को समझती है। वैसे तुम्हारी मर्जी।’’
   बिन्नी ने मांजा लपेटकर चर्खी बैग में रखते हुए कहा, ‘‘किसी दिन मैं आऊँगा। मेरे लिए अपने हाथ से मांजा सूत दोगे?’’
   ‘‘जरूर। फिर देखना मेरे हाथ का कमाल।’’
   वापिस लौटकर उसने उसने बहुज जांच-परखकर फकीरें की दुकान से पतंग खरीदी। लाल रंग के लंगोट का काला डग्गा जिसमें दो सफेद रंग के चाँद बने हुए थे। एकदम कसी-तनी पतंग जिसके ठुड्डे उंगली की हल्की-सी चोट से झनझना उठते।
   ‘‘कन्ने बांध दूं?’’ फकीरे ने पूछा। 
   उसे कतई यकीन नहीं हुआ कि इतना सुस्त और कंजूस फकीरा, जिसकी आँखों में धड़ीभर कीच जमी रहती है, कायदे से कन्ने बांध सकेगा। कन्ना तो पतंग का कंट्रोलर है, जानकार आदमी ही इसे ठीक से बांध सकता है। ‘‘कन्ने मैं मिस्त्रीजी से बंधवाऊँगा।’’ उसने शान से कहा।
   मिस्त्री, यानी परभू। अपने जमाने का धांसू पतंगबाज। वह हीरो की अकड़ और शान से पतंग लेकर निकलता तो उसके गिर्द एक भीड़ चलती। सड़क चलते लोगों के पैर थम जाते। वह पतंग उड़ाने के लिए मैदान में पहुँचता तो उसकी चर्खी थामने के लिए कई-कई हाथ लपकते। यह एक प्रतिष्ठा की बात होती कि इन हाथों ने परभू पतंगबाज की चर्खी थामी है। अनेक आँखें इसके लिए लालायित रहती। पर नहीं, वह किसी को चर्खी नहीं थामने देता था। उसकी चर्खी थमती थी सिर्फ दुलारी के हाथें में, जो बाद में उसकी जीवन सहचरी बनी। अपनी तर्जनी और अंगूठे से बनाए अर्धवृत में चर्खी के दस्ते के घूमने की जगह बनाते हुए वह पूजा के थाल की-सी पवित्र भावना से उसे सहेजती और उसकी आँखों में एक अनोखी चमक दमकने लगती। परभू की पतंग एक अजीब-सी शान से आसमान में उड़ती और अनोखे अंदाज में ठुमके लगाती। ढील खाकर आगे बढ़ती तो उसके साथ आसमान तैरने लगता। अर्धाकार गोता खाकर उठती तो आँखों के सामने के पूरे आसमान को नाप लेती। वह विशाल नभमंडल में चमकते हुए खंजर की तरह कौंधती और अन्य पतंगें नतशिर उसके सामने आत्मसमर्पण कर देतीं।
  यह गए जमाने की बात है। अब तो सिर्फ दशहरे में उसकी पतंग उड़ती है। उस दिन यह चर्चा का विषय रहती है अैर दुलारी ही उसकी चर्खी थामती है। लेकिन अब कुल मिलाकर उसने यह शौक छोड़कर मुख्य सड़क के ढलान पर एक दुकान खोल ली है जहाँ वह बिगड़ी हुई चीजों की मरम्मतकर उन्हें सुधारने का काम करता है। उसकी दुकान पर विविध प्रकार के मरम्मत के काम होते हैं। स्टोव-साइकिल की मरम्मत, गैस के चूल्हे की मरम्मत और टांका लगाना, पंक्चर लगाना, हवा भरना आदि आदि फुटकर काम। बिन्नी अपनी साइकिल की मरम्मत वहीं कराता था और इस वजह से उसकी परभू से दोस्ती थी। मरम्मत के सभी कामों में दुलारी, जो दबी छिपकली-सी चिपकी पर चमकदार आँखोंवाली एक अति सामान्य औरत थी, उसका हाथ बंटाती। ऐसी महिलाओं को बिन्नी कभी पसन्द नहीं करता था लेकिन दुलारी के लिए उसके मन में बहुत सम्मान था क्योंकि उसकी तर्जनी और अंगूठे के अर्धवृत में महान पतंगबाज की चर्खी घूमती थी और अब भी दशहरे के त्योहार पर घूमती है। परभू बिन्नी का आदर्श था और वह अपने पापा को बताना चाहता था कि सिर्फ पढ़ने से ही नहीं, पतंग उड़ाकर भी आदमी इस दुनिया में अपनी जगह बना सकता है। दुनिया वैसी नहीं है, जैसी आप समझते हैं।
   जिस समय बिन्नी परभू की दुकान पर पहंँचा उस समय वह साइकिल की निकली ट्यूब में हवा भर रहा था और उसकी पत्नी हवा भरे ट्यूब को पानी में डुबोकर उसका पंक्चर ढूँढ रही थी।
   ‘‘कन्ने बांध दोगे अंकल?’’ उसने पूछा।
   ‘‘रुकना पड़ेगा। पैंचर लगा दूँ। इधर बैंच पर बैठ जाओ।’’
   वह बैंच पर बैठ गया।
   ‘‘पतंग उड़ाने का भौत शौक है?’’ पंक्चर लगाने के लिए रबड़ की टुक्की काटते हुए उसने पूछा।
   ‘‘जी।’’
   ‘‘पतंग आदमी को बरबाद कर देती है। मुझे ही देखो......’’ इस बीच दुलारी ने पंक्चर ढूँढ लिया था और वह लकड़ी के हत्थे से बंधे रेगमार से उसे घिस रही थी। परभू ने बात आगे बढ़ाई, ‘‘मैं पतंगबाजी का दीवाना न होता तो पढ़-लिखकर कहीं अच्छी नौकरी कर रहा होता। मेरे पिता मुझे बड़ा आदमी बनाना चाहते थे। मैंने उनकी बात नहीं मानी जिस वजह से आज मुझे मरम्मत का धंधा करना पड़ रहा है। भाइयों ने उनकी बात मानी और वे अच्छी नौकरियों पर लग गए। मैं भी पिता की बात मान लेता तो....’’
   हर पिता अपने बेटे को बड़ा आदमी बनाना चाहता है। बिन्नी ने मन ही मन कहा। तुम पढ़-लिखकर हो सकता है बड़ा आदमी बन जाते, लेकिन तुभ्हारी कोई पहचान नहीं होती जैसी तुम्हारे भाइयों की कोई पहचान नहीं है। फिर दुनिया सिर्फ बड़े आदमियों के कंधों पर ही नहीं चल सकती। उसे सभी तरह के आदमी चाहिएं।
   पंक्चर जोड़कर परभू ने मैले अंगोछे से हाथ पोंछे, पतंग को उठाकर परखा जिससे उसकी आँखें में अजीब किस्म की तरलता फैली और उसने कहा, ‘‘पतंग ठीक नहीं है, झोंक खाएगी।’’
   ‘‘आप ठीक कर देंगे?’’
   ‘‘देखता हूँ।’’ उसने कहा और पतंग के ठुड्डे पर हलका-सा तनाव देकर उसे सिर पर रगड़ा। शायद अब झोंक न खाये। कन्ने कैसे बांधने हैं? ढ़ील के कि खींच के?’’
   बिन्नी उलझन में फँस गया। दरसल उसने यह सोचा ही नहीं था कि वह पेंच ढील से लड़ायेगा या खींच से।             
   ‘‘ढीलवाले कन्ने बांध रहा हूँ। ‘‘तुम खींच से पेंच नहीं लड़ा सकोगे, तुम्हारे हाथ अभी छोटे हैं और इतने फुर्तीले भी दिखाई नहीं देते जितने खींच के लिए जरूरी हैं। पतंग आसमान में खूब ऊंची रखना और पेंच फँसने पर ढील दिए रखना।’’ परभू ने कहा और ढीलवाले कन्ने बांधकर हवा में पतंग को झटक कर कन्ना परखा।
   बिन्नी पतंग लेकर मैदान में पहुँचा गया जहाँ बहुत से बच्चे जमा थे। दूसरे छोर पर गोलू था। उसकी पतंग आसमान में उड़ रही थी और बच्चों की एक टोली उसके साथ थी। कई बच्चे और खासकर वे सभी, जिन्हें उम्मीद थी कि बिन्नी उन्हें थोड़ी देर पतंग उड़ाने का मौका दे सकता है, उसकी चर्खी थामने को उत्सुक थे।







 वह हर किसी को चर्खी नहीं थमा सकता था। इसके लिए उसे एक योग्य लड़के का चुनाव करना था जो उसका इशारा समझकर चर्खी सम्हाल सके और पतंग कट जाने की स्थिति में तेज़ी से मांजा लपेटकर उसे लुटने से बचा सके। उसने इसके लिए मोंटू का चुनाव किया जिसके कान खरगोश के कान की तरह चौकन्ने और बिल्ली की तरह शरारती थे। उसे पूरी उम्मीद थी कि वह इस काम को ठीक अंजाम दे सकता है, क्योंकि दुनिया के सभी बड़े काम वे ही कर सकते हैं जो चौकन्ने और शरारती हों।
   उसने ज़मीन से थोड़ी-सी मिट्टी उठाई और उसे बुरबुराया। उसके कणों की उड़ान से हवा के बहाव की जानकारी प्राप्त की और टोली के सबसे लम्बे लड़के को दुर्गाई देने के लिए हवा की दिशावाले छोर की ओर दौड़ा दिया।
   ‘‘येस्स।’’ उसने आदेश दिया।
   लड़का अनुशासित फौजी की तरह अपने पैरों पर नांचा, फिर सीधा खड़ा होकर उछला और उसने दोनों हाथों में सहेजी पतंग हवा मे उछाल दी।
   बिन्नी ने जैसे ही पतंग का लंगोट जमीन की ओर झुका वैसे ही दनादन कई लम्बी खींच मारी और पतंग उसके सिर के आसमान में ऊँचाई तक उठ गई। उसे लगा जैसे वह पूरी शिद्दत के साथ ज़मीन से उठकर आसमान की बुलंदी तक छा गया है। उसने पतंग को ढील दी तो वह चर्खी से मांजा खींचते हुए हवा में तैरने लगी। वह सिर्फ पतंग नहीं थी जो हवा में तैर रही थी, यह तो वह खुद था बंधनमुक्त हवा में उड़ता हुआ....
   वह आज पहली बार स्वतंत्रतापूर्वक पतंग उड़ा रहा था। इससे पहले जब भी उसने पतंग उड़ाई थी तो किसा जानकार की सहायता से उड़ाई थी। ऐसे में जानकार के निर्देश पर काम करना होता था और पतंग के साथ कोई रिश्ता नहीं बन पाता था। आज वह रिश्ता कायम हो गया था और वह उसकी भाषा समझ रहा था। पतंग बोलती है। बताती है कब उसे ढील चाहिये, कब खींच। कभी वह उंगली पर सधने की मनुहार करती है, कभी ठुमके की चाह। कभी गोता खाने की मांग करती है और कभी एकदम आसमान में चढ़ने की ज़िद्द। बिलकुल ज़िद्दी बच्चे की तरह होती है पतंग।
   उसकी पतंग बिजली के तारों, कोठियों और पेड़ों के ऊपर से होती हुई गोलू की पतंग की ओर लपकने लगी। बच्चों की नज़रों में एकाएक उसका सम्मान बहुत बढ़ गया और वह बिन्नी से बिन्नी भय्या हो गया। आत्मविश्वास से भरा, हवा और आसमान की चुनौती को स्वीकार करता।
   गोलू की पतंग की बराबरी में आकर उसकी पतंग ने इठलाकर और सॉय की गर्वीली आवाज़ के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और मस्त हाथी की तरह झूमते हुए उससे आगे निकल गई।
   तभी गोलू की ओर से हरकारे की भूमिका निबाहनेवाला एक जिम्मेदार लड़का उसका संदेश लेकर आया, ‘‘गोलू ने पूछा है-झुट्टल पेंच लड़ाएगा कि सच्चल?’’
   बिन्नी ने अभिमान से कहा, ‘‘सच्चल।’’
   उसके जवाब से टोली के बच्चों में उत्साह भर गया।
   हरकारा दौड़ता हुआ गया, फिर दौड़ता हुआ वापस लौटा और हाँफते हुए बोला, ‘‘गोलू कहता है--टामी इस्कूल का लड़का क्या खाके सच्चल पेंच लड़ायेगा।’’
   वह इस चुनौती से तड़प गया और गुस्से में बोला, ‘‘कह दे--माँ का दूध पिया है तो पतंग बराबरी में लाकर लड़ा। चोरों की तरह सद्दी पे झपट्टा मारने की कोशिश मत करना।’’
   संदेशवाहक चला गया और वापस नहीं लौटा। मतलब साफ था कि गोलू ने चुनौती स्वीकार करली है। उसकी पतंग तेजी से हवा में लपलपाई और एक लम्बी लहर लेकर बिन्नी की पतंग की बराबरी में आ गई।
   सच्चल पेंच की आशा में दोनों टोलियों में खलबली मच गई।
   बच्चों के सामने, जो इस आशा में खड़े थे कि शायद उन्हें पतंग उड़ने का थोड़ा-सा अवसर मिल जायेगा, अब सम्भावनाओं का पूरा वितान खुला पड़ा था। पतंग-मांजा लूट कर वे याचक से मालिक हो सकते थे। वे दौड़कर मैदान के बीच में आ गए। सिर्फ एक-एक बच्चा, अफ़सोस से भरा और अपनी मूर्खता पर पछताता जिसकी वजह से उन्होंने अपनी सम्भावना के दरवाजे़ बन्द कर लिए थे, दोनों पतंगबाजें के पास रह गया था जो हाथ में चर्खी थामें छटपटे रहे थे।
   पतंगें युयुत्स घोड़ों की तरह आसमान की छाती पर दौड़ रही थीं। कभी वे एकदम पास आ जातीं जिससे बच्चों की आँखें उत्साह से दमकने लगतीं। कभी वे बच्चों की आँखों में निराशा भरते हुए गोता खाकर दूर निकल जातीं। बच्चों की आस्थाएँ बदल चुकी थीं। वे अपने मालिकों के प्रति निष्ठावान नहीं रह गए थे। अब वे लूट में शामिल थे और किसी भी पतंग के कटने का इंतज़ार कर रहे थे।
   गोलू भूरी आँखोंवाला, चालाक और शैतान लड़का था। वह सिगरेट के कश भी खींच लेता था और मुहल्ले की लड़कियों को भी तंग कर लेता था। उसके सिर पर किसी बड़ी सांस्कृतिक विरासत का बोझ नहीं था, न पढ़ाई का ख़ास दबाव और न अंधकार भरे किसी भविष्य का डर। पिता सब्जी की ठेली लगाता था। कुछ नहीं होगा तो वह भी लगा लेगा। उसका लड़कपन जीवन्त औा शिद्द़त भरा था। आगे बढ़ने की होड़ में संघर्षरत परिवारों में उसे पसन्द नहीं किया जाता था और बच्चों को उसके साथ खेलने की मनाही थी। सफल आदमी बनने के बोझ से दबे बच्चों की तुलना में उसका व्यक्तित्व कहीं मुखर और रोबीला था। वह अकसर उनके संभ्रान्त संसार में सेंध मारकर नेतृत्व हथिया लेता था, चाहे वह क्रिकेट का मैदान हो, होली, दिवाली या दशहरे का उत्सव हो।
   पतंगबाजी का भी वह उस्ताद था। जिस कौशल से वह पेड़ों से लीची-आम चुरा लेता था, रामलीला में वानरसेना का मुखिया बनता था, उसी कौशल से पतंग भी उड़ा लेता था और इतने चातुर्य से विरोधी की पतंग काट लेता था कि देखनेवाले हैरान रह जाते थे।
   वह बिन्नी को पतंगबाजी के करतब दिखाने लगा। उसकी पतंग काटने से पहले वह उसे बुरी तरह परेशान कर देना चाहता था। टामी इस्कूल का लड़का, जो बातें कम और थैंक्यू ज्यादा कहता हो, उसे चैलेन्ज दे रहा है। साला सच्चल पेंच लड़ायेगा। उसकी पतंग कभी बिन्नी की पतंग के ऊपर आ जाती, कभी गोता खाकर एकदम नीचे। कभी उपहास उड़ाते हुए ठुमकती, कभी बाज की तरह झपटती। बिन्नी पेंच डालने की कोशिश करता और वह चालाकी से अपनी पतंग बचा ले जाता।
   काफी देर की खिलवाड़ के बाद अचानक उसकी पतंग आक्रामक बाज की तरह बिन्नी की पतंग पर झपटी लेकिन बिन्नी ने ढील देकर उसके वार को भोंथरा कर दिया। बच्चे चिल्लाने लगे, ‘‘पेंच पड़ गए।’’
   गोलू को उम्मीद नहीं थी कि बिन्नी की पतंग उसका वार झेल जायेगी। एक बारगी वह भी घबरा गया। खींच से काम नहीं चलेगा, उसे भी ढील का सहारा लेना होगा।
   पेंच में पड़ी पतंगे आगे, आगे और आगे बढ़ने लगीं। कोई भी पतंग कटने का नाम नहीं ले रही थी। बिन्नी बहुत उत्तेजना में था और गोलू चिंतित। बिन्नी ऐसे ही ढील देता रहा तो वह उसकी पतंग नहीं काट सकेगा।
   बच्चे भी बेहद उत्तेजित थे। मोंटू उत्तेजना के इस बहाव को नहीं रोक पाया, उसने बिन्नी की चर्खी फेंक दी और बिना पीछे देखे सरपट दौड़ता हुआ तमाशाई बच्चों की भीड़ में शामिल हो गया और ताली पीटते हुए आनन्द में नाचने लगा। चर्खी के ज़मीन पर गिरते ही डोर की लय भंग हुई और बिन्नी की पतंग कट गई। उसके कटते ही वह बुरी तरह से टूट गया। कटी पतंग हवा की लहरों पर डोलती जा रही थी, जैसे कोई गरीब आवारा औरत दर-दर की ठोकर खा रही हो। यह सिर्फ कटी पतंग नहीं थी, यह तो बिन्नी था, भग्न, हताश और पूरी तरह से बिखरा हुआ। बच्चे पतंग लूटने के लिए धक्का-मुक्की करते हुए दौड़ रहे थे। लूट की इस दौड़ में खरगोश के से कान वाला मोंटू भी शामिल था, जो कुछ देर पहले उसके युद्ध-रथ का विश्वसनीय सारथी था।




 


सादिक भाई की दुकान के मांजे और परभू पतंगबाज के हाथ से बंधे कन्नेवाली उसकी पतंग नहीं कटनी चाहिए थी। यह मोंटू की वजह से कटी है, उसने उसे धोखा दिया है। उसे इसकी सज़ा मिलनी चाहिए।
   मोंटू के हाथ कुछ नहीं आया था, वह कुछ ज्यादा ही लालच में फँसा हुआ था। वह कभी पतंग की ओर दौड़ रहा था, कभी कटे मांजे की ओर लपक रहा था और इस दुविधा में दोनों ही चीज से वंचित रह गया था।
   बिन्नी ने बचा हुआ मांजा लपेटा, जो हत्थे तक लुट चुका था और चर्खी बैग में रखी। जूते उतारे और किट पहन ली। मोंटू को सजा देने के लिए किट की मजबूत टो और स्वस्थ गिट्टियाँ ठीक रहेगीं।
   मोंटू अपनी उम्र के लिहाज से ज्यादा चालाक था। वह जानता था कि बिन्नी उसकी पिटाई कर सकता है। उसके किट पहनने के दौरान ही वह ग़ायब हो गया और मैदान की ढलान पर उगी सघन झाड़ियों में छिप गया। यूँ वह अपने घर भी जा सकता था जो झाड़ियों की अपेक्षा कहीं सुरक्षित जगह थी। लेकिन उसने घर वापसी को उचित नहीं समझा क्योंकि वह वहाँ घरवालों के हाथों पढ़ाई के लिए दबोच लिया जाता जबकि वह अभी खेल में शामिल रहा चाहता था।
   बिन्नी ने उसे बहुत ढूँढा पर वह उसे कहीं नहीं मिला।
   इसी समय कटी पतंग लूटकर नाचता-कूदता बनवारी पहुँच गया। छीना-झपटी में पतंग का कचूमर निकल गया था, बनवारी की कमीज़ फट गई थी और उसके शरीर पर कई जगह खरोंचें आ गई थीं। वह फटी कमीज़ और कचूमर निकली पतंग को हाथ में लहराते हुए उस शान से मैदान में खड़ा हो गया जिस शान से शत्रु का दुर्ग जीत कर घायल विजयी योद्धा उस पर अपना ध्वज फहराता है। बिन्नी ने अपनी पतंग को इतनी असहाय हालत में देखा तो उसकी आँखें नम हो गईं। वह नम आँख और झूठ पकड़ लिए जाने के भय के साथ अपमानित और आतंकित घर लौट गया।
   जिस समय वह घर पहुँचा उस समय चुपचाप शाम उतर आई थी। ये वे दिन थे जब शाम को फैलने की हड़बड़ी रहती है और वह अकस्मात इतनी तेज़ी से फैल जाती है कि यकीन ही नहीं होता। पापा आ गये थे, उनका स्कूटर गेट के भीतर खड़ा था। उसकी सबसे बड़ी शत्रु पप्पी बारामदे में बैठी गुड़िया से खेल रही थी। उसे पढ़ने की जगह खेलते देख कर वह जिम्मेदार भाई में बदल गया। उसने उसकी गुड़िया उठाकर फेंकी और उसका कान उमेठते हुए उसे धमकया, ‘‘दिन भर खेलती ही रहेगी.....कभी पढ़ भी लिया कर। मालूम है कल तुझे पराये घर जाना है।’’
   पप्पी मम्मी-पापा की खास चमची थी और उसे उसकी तुलना में योग्य और जिम्मेदार माना जाता था। इसलिए वह अकसर उससे नाराज़ रहता था और कोई भी ऐसा मौका नहीं चूकता था जिसमे बड़े भाई की हैसियत से उसे पप्पी को डांटने का सुयोग प्राप्त हो जाता। इस बार कान उमेठे जाने और गुड़िया फेंक दिए जाने पर भी वह मम्मी के पास शिकायत करने के लिए नहीं दौड़ी और आँख नचाकर मन्द मन्द मुसकुराने लगी।
   बिन्नी का माथ ठनक गया। मामला गम्भीर है। उसके घर पहुँचने से पहले शायद उसका झूठ घर पहुँच गया है। उसे जोर की भूख लगी थी और वह सीधा किचन में जाकर मम्मी से कुछ खाने को मांगना चाहता था। पप्पी की रहस्यभरी मुसकान से उसकी भूख गायब हो गई और पैर ठिठक गए।
   ‘‘अन्दर आइये हुजूर।’’ पापा थे। गुस्से की नहीं व्यंग्य की भाषा बोलते हुए। उन्होंने मम्मी को भी वहाँ बुला लिया। वह आई और सिर झुकाकर खड़ी हो गई। झूठ वह बोला था पर सिर मम्मी का झुका हुआ था। पप्पी को नहीं बुलाया गया था पर वह भी चुपचाप आ कर खड़ी हो गई। दरवाज़े के पास, पर्दे की आड़ में। वह भी चाहती थी कि भय्या को सजा मिले। बहुत सताता है। वह अपनी गोल और चमकीली आँखों से यह नजारा देखने को लालायित थी।





   ‘‘पूछिए अपने साहबजादे से,’’ पापा ने मम्मी से कहा, ‘‘कितने मैडल जीतकर लाये हैं?’’
   मम्मी ने कुछ नहीं पूछा और उसकी तरफ कुछ ऐसी नज़र से देखा जिसमे गहरा अविश्वास और हिकारत थी। 
   उसने भी कोई सफाई पेश नहीं की। सफाई पेश करने के सारे नाके पहले ही बंद हो चुके थे।
   ‘‘तुम्हे बेटा कहते हुये मुझे शर्म आ रही है।’’ पापा ने गहरे दुःख के साथ कहा, ‘‘मैंने तुम्हारे ऊपर कितना पैसा खर्च किया......इतने बड़े स्कूल में पढ़ाया। अपने जीवन के इतने महत्वपूर्ण क्षण मैंने तुम्हारे ऊपर निछावर किए इस आशा में कि तुम तरक्की करागे। लेकिन तुम बने झूठे, आवारा और नकारा। मैं दफ़्तर से छुट्टी लेकर अपने दोस्तों के साथ तुम्हे स्पोर्ट्स में भाग लेते देखने गया था.....मुझे कितनी शर्मिन्दगी उठानी पड़ी होगी......इसका तुम कुछ अन्दाज लगा सकते हो.....’’ इतना कह कर पापा ने डांटना बंद कर दिया और अखबार पढ़ने लगे। वे सिर्फ नाराज़ ही नहीं दुःखी भी थे और शायद पूरी तरह हताश भी। उन्होंने डांटना ही बंद नहीं किया, संवाद ही समाप्त कर दिया।
   वह आत्मग्लानि से भर गया और उसे लगा मानो उसका हृदय अपनी जगह छोड़कर पेट के किसी अनजान कोने में खो गया है। उसमे किसी से आँख मिलाने का साहस ही नहीं हुआ। न मम्मी से, न पापा से और यहाँ तक कि न पप्पी से। उसकी आत्मा उसे धिक्कारने लगी और साथ ही कुछ करने को उकसाने भी। कुछ अनोखा, विलक्षण जिसे उदाहरण की तरह पेश किया जा सके। वह पूरी मेहनत से पढ़ेगा। अभी और इसी क्षण से पढ़ेगा और सब की आँखों से अपने प्रति भरे अविश्वास को मिटा डालेगा।
   वह चुपचाप, गरदन झुकाए हुए लेकिन गम्भीर निर्णय के साथ अपने कमरे में चला गया। अगले दिन पहला पीरियड ज्योमेट्री का था। उसे ही पहले हल करना चाहिए। फिर क्रमवार फिजिक्स, कैमिस्ट्री, बायो, अंग्रेजी। ओफ्! पढ़ने के लिए बहुत है। सोशल स्टड़ीज हफ़्ते में एक बार और हिन्दी......उसके लिए देखा जाएगा।
   वह ज्योमेट्री का सवाल हल करने लगा। ‘समानान्तर चतुर्भुज के आमने सामने के कोणों के समद्विभाजक आपस में बराबर होते हैं।’ वह बारबार समानान्तर चतुर्भुज बनाता और तरह तरह से उसे हल करने की कोशिश करता। उसने कई पन्ने बरबाद कर दिए, पचासों चित्र खींचे, अनेक तरह से दिमाग के घोड़े दौड़ाए लेकिन सवाल हल नहीं हुआ।
   पप्पी उसके पास आई, उसे लग रहा था कि भय्या के साथ शायद कुछ ज़्यादती हो गई है इसलिए उसने अदब के साथ कहा, ‘‘भय्या खाना खालो।’’
   ‘‘सवाल निकालकर आता हूँ।’’
   वह उसे हैरानी से देखने लगी।
   ‘‘मैं तुझे कभी परेशान नहीं करूँगा।’’ सवाल हल करते हुए उसने बिना सिर उठाये कहा, ‘‘लेकिन एक बात याद रखना। खूब मन लगाकर पढ़ना। मम्मी-पापा को पढ़ते बच्चे अच्छे लगते हैं, खेलते बच्चे नहीं।’’
   पप्पी बिना कोई जवाब दिए चली गई।
   कुछ देर बाद मम्मी आई। उसने फिर वही जवाब दिया, ‘‘सवाल निकालकर आता हूँ।’’
   उसके मन में यह विश्वास था कि पापा भी आकर उसे खाने के लिए कहेंगे। वे नहीं आए। हाँ      पप्पी उसका खाना अन्दर कमरे में ही दे गई।
   वह सवाल हल करने में जुटा रहा। उसने सैकड़ों चित्र बनाए। हर तरह से सोचा। सवाल हल नहीं हुआ। वह उसे हल करने का प्रयास करता रहा और रात गहराती रही। पता नहीं कब सवाल हल करते करते वह मेज पर सिर टिकाकर सो गया?


   सुबह खटर-पटर की पहली आवाज से वह हड़बड़ाकर जागा। सवाल हल करना है। उसने नोटबुक खोली तो वह सकते में आ गया। खुले पन्ने पर पतंग के चित्र बने हुए थे। उसने पन्ने पलटे, हर पन्ने पर पतंगों के चित्र।
इतनी पतंगें थी उसकी नोटबुक में, जितनी सादिक भाई की दुकान में भी नहीं होंगी।
   
                                                                           

 280, डोभालवाला देहरादून-248001







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