image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 सितंबर, 2018

फिल्म-समीक्षा :
  
 ‘मुल्क’ : इस दौर में भारतीय मुसलमान
   कैलाश बनवासी

 बीते तीन दशकों से भारतीय समाज जिन गहरे सामाजिक-सांस्कृतिक संकटों से गुजर रहा है,इसके हम सब गवाह हैं. इस दौर में  देश,देशप्रेम,धर्म या जाति के नाम पर जैसा हिंसक,उन्मादी वातावरण आज तैयार कर दिया गया है,वह हम सबके सामने है. इस जहरीले माहौल ने विभिन्न समुदायों में आज ऐसी दूरियां, नफरत, डर और संदेह पैदा कर दिया है कि हमारा सदियों पुराना आपसी सौहार्द्र,भाईचारा--जिसे हम अपनी गंगा-जमुनी तहजीब कहते आए हैं-- बेहद खतरे में है. हमारा संविधान धर्म-निरपेक्ष राज्य की घोषणा करता है,लेकिन साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा इसे ही तोड़-मरोड़ देने की कोशिश आक्रामक ढंग से जारी है.

कैलाश बनवासी


अब यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि यहाँ का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय-मुसलमान विभिन्न हिन्दुत्ववादी राजनैतिक,धार्मिक,सांस्कृतिक संगठनों,दलों,सेनाओं के निशाने पर है. ये ताकतें राष्ट्र को हिन्दू राष्ट्र के रूप में ही देखना चाहती है. इस दौरान दोनों फिरकों में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण  में तेजी आई है.दंगे-फसाद पहले भी राजनितिक या धार्मिक कारणों से होते आए है,इन्हें करवाया जाता रहा है.लेकिन यह तो हमारे रोज की सुर्खियाँ हो गयी हैं. ऐसी हिंसा,हत्याएं लगातार बढती ही जा रही हैं. यह नहीं भूलना चाहिए की भारत विभिन्न जातियों संस्कृतियों का देश रहा है, और इसकी हार्मोनी कभी दुनिया के लिए नजीर थी.गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने जिसे महामानव समुद्र कहा है. राजनीति में धर्म के अब सीधे-सीधे घुस जाने ,वोट बैंक की राजनीति ने अपने फायदे के लिए साम्प्रदायिक उभारों की बाढ़ ने लोकतंत्र को गहरा क्षत-विक्षत किया है. और आज जैसी भयानक स्थिति है,वह रोज हमारे सामने आ रही है.
  फिल्मों के प्रसिद्ध समीक्षक जवरीमल्ल पारख ने अपने एक महत्वपूर्ण लेख ‘हिंदी सिनेमा में भारतीय मुसलमान’ में यह कितना सही लिखा है,’ इन फिल्मों की सबसे बड़ी सीमा यह है कि ये हिन्दी-मुस्लिम संबंधों के उस यथार्थ से सीधे टकराने का साहस प्राय: नहीं करती जिससे टकराए बिना हमारा समाज वास्तविक अर्थों में एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक और समतावादी समाज नहीं बन सकता.प्राय: ऐसी फ़िल्में बनाने से बचा गया जिनमें साम्प्रदायिकता की समस्या को विषय बनाया गया हो.’( ‘बया’—अप्रैल-जून 2018) ‘मुल्क’ इस मायने में बहुत साहसिक फिल्म है जो आज इन समस्या की जड़ तक जाने की कोशिश करती है, उससे आँख से आँख मिलाकर टकराती है--बेशक अपनी सीमाओं  में ही सही. साम्प्रदायिक नफरत के ज़हरीले माहौल में देश का आम मुसलमान आज जिन स्थितियों,प्रताड़नाओं या झूठे दुष्प्रचारों का गहरा शिकार है, इसे ही निर्देशक अनुभव सिन्हा की यह फिल्म अपना विषय बनाती है. ‘मुल्क’ समाज में अपनी  गहरी जड़ें जमा चुकीं उन्हीं साम्प्रदायिक धारणाओं और समस्याओं को नए सिरे से,आज के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करती है. यह पहले ही बता देना ठीक होगा कि ये फिल्म हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे,सद्भावना या एकता की बरसों से लोकप्रिय, सतही और सिनेमाई छवि को फिर से स्थापित करनेवाली नहीं है; बल्कि उन कारणों की तलाश करने की कोशिश करती हैं जिनके चलते यह समस्या विकराल होती जा रही है. आमतौर पर मुख्यधारा  की फिल्में इस समस्या को या तो बहुत उथले ढंग से पेश करती रही हैं या फिर तोड़-मरोड़कर,  जिसमें मुस्लिम कैरेक्टर बिलकुल एकायामी,एकरैखिक होगा—निहायत उदार, मानवता की प्रतिमूर्ति होगा --‘अब्दुल्लाह’’खान-दोस्त’ में राजकपूर का किरदार,या ‘शोले’ में अँधा बूढा इमाम( ए.के. हंगल ),या फिर महान देशभक्त(‘क्रान्ति’ में करीम खान(शत्रुघ्न सिन्हा ) , या  नहीं तो फिर  राक्षस नुमा खलनायक और देशद्रोही--तेज़ाब’ में लोटिया पठान(किरण कुमार),;ग़दर एक प्रेम कथा’ में अशरफ अली( अमरीश पूरी)



  यह फिल्म अपनी कथावस्तु,प्रस्तुतीकरण में आधुनिक इसलिए कही जाएगी कि यह उन्हें ऐसे महज एकायामी रूप में नहीं देखती.उन्हें देवता नहीं बनाकर,उनके प्रेम,नफरत,गुस्से,खीझ,हताशा,निराशा जैसी  भावनाओं को सामने लाती है,साथ ही इस समुदाय के आर्थिक,सामाजिक पिछड़ेपन के सवालों को भी.
  फिल्म में बनारस में बरसों पहले से बसे परिवार की अभी की पीढ़ी मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर)के संयुक्त परिवार है—जिसमें  उसकी पत्नी तबस्सुम (नीना गुप्ता) छोटा भाई बिलाल(मनोज पाहवा),उसकी बीवी(प्राची शाह) और भतीजा शाहिद(प्रतीक बब्बर),और भतीजी आयत. पैसठ वर्षीय मुराद अली पेशे से बनारस का एक जाना-माना वकील है. वह और उसका परिवार इस मुल्क को वैसे ही अपना समझकर जी रहे हैं जैसे दूसरे करोड़ो देशवासी. उसका भतीजा शाहिद आतंकियों के जाल में मजहब के नाम पर फंसकर आतंकवादी बन जाता है. वह एक बस में बम विस्फोट का अपराधी है,जिससे सोलह जानें गयीं. शाहिद के आतंकवादी बन जाने के बाद  पूरा माहौल बदल जाता है. और पूरे परिवार को आतंकवादी मन लिया जाता है.वह आदमी जो कल तक अपने मोहल्ले के हिन्दू साथियों का चहेता था,आज दुश्मन हो जाता है. फिल्म  इस मायने में महत्वपूर्ण है जिसमें वह आज बन रही,या बन गयी या बना दी गयी परिस्थितियों में देश में मुस्लिम आइडेंटिटी के बदलते या कहें कि  लगातार विकृत किये जाते( वो भी धड़ल्ले से!) छवि को सही परिप्रेक्ष्य में सामने लाती है. शाहिद का पिता बिलाल अपनी स्वभावगत लापरवाही की कीमत आतंकवादी का पिता कहलाकर चुकता है. फिल्म में दिखाया गया मुस्लिम परिवार टिपिकल मुसलमान परिवार नहीं है.इसमें उसके बेटे आफताब ने हिन्दू लड़की आरती( तापसी पन्नू) से प्रेमविवाह किया है.जो अमेरिका में रहते हैं आधुनिक सोच रखनेवाले इस  परिवार ने आरती को  बहुत खुले मन से अपनाया है..वह बहू ही इस परिवार को सही साबित करने की कानूनी लड़ाई लडती है.खूबी इसके पात्रों की बुनावट में भी है जिसके चलते यह संगीन मसला उस मुकाम तक पहुँच  पाता है,जहां पहुंचना चाहिए. वह सब दलीलें जो वह गैर-मुस्लिम होकर देती है,किसी मुस्लिम की तुलना में ज्यादा प्रभावी हो जाती हैं.यह प्रभाव किसी मुसलमान वकील से संभवत: पैदा नहीं हो पाता. वह मुस्लिम समाज के अंतर्विरोधों,मान्यताओं,संकीर्णताओं पर खुलकर,निरपेक्ष होकर बात कर सकती है. वह  उन्हें हीरो बनाने के बजाय जो ‘सच’ है,उसे हीरो बनाती है. एक कैरेक्टर एंटी टेररिस्ट स्क्वाड के पुलिस अफसर दानिश जावेद (रजत कपूर) हैं,जो इस ग्रंथि से पीड़ित हैं कि यदि मुस्लिम थोडा भी गलत है,तो चूंकि इससे कौम बदनाम होती है, तो उसे कड़ी से कड़ी सजा देकर अपने कौम की रक्षा करो.वह  चाहता तो शाहिद गिरफ्तार कर सकता था,लेकिन इसीलिए मार देता है कि अपने कौम में कोई अपराधी ना रहे,जिससे कौम का सर ना झुके. यह फिल्म इस दौर में हमारे ऊपर थोपकर बाकायदा स्थापित किये जा चुके  हिन्दू या मुसलमान की तयशुदा पहचान को कटघरे में खड़ा करती है,और इसे द्वंद्वात्मकता में उभारती है. ‘हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता,किन्तु हर आतंकवादी मुस्लमान होता है’ की सोच इतनी आसानी से लोगों के ज़ेहन में बिठा देने वाले लोग कौन हैं, और इन ताकतों को उर्जा कहाँ से मिल रही है,ये बातें भी उभरकर आती हैं. जज( कुमुद मिश्रा) जब  अभियोजन के सरकारी वकील(संतोष आनंद) से कहता  है कि वाट्सअप को छोड़कर इतिहास की किताबें पढ़ लिया करो तो आपके भीतर ऐसे ख्याल नहीं आएँगे. यानी तुमको अपनी समझ दुरुस्त करने की जरूरत है. और देखा जाये तो यही इस फिल्म का हासिल भी है-अपनी समझ दुरुस्त करना.  नफरत फ़ैलाने, घृणा करने,गालियाँ देने,चरित्र हनन करने का जो कुत्सित अभियान जो मीडिया और  ‘ट्रोल-इंडस्ट्री’ द्वारा देश में  बड़े पैमाने पर चलाया जा रहा है, इस मानसिकता को गढ़ने में  उनकी सबसे बड़ी भूमिका है. 
 और किसी समुदाय को देशद्रोही,या आतंकी के खाते में डाल देने की मानसिकता कहाँ  और कैसे विकसित हो रही है? अरसे बाद शायद ऐसी फिल्म आई है जो मुसलमानों को ‘फ़िल्मी’ तरीके से पेश नहीं करती. निर्देशक ने कोशिश की है कि इसमें उनकी मान्यताओं,बदलती सोच, धार्मिक अंतर्विरोधों, या धार्मिक कट्टरता के वे सारे सच आपको मिले जो हिन्दू मानसिकता में पहले तो चोरी-छुपे मिला करते थे,और आज इतने बेधड़क,बेख़ौफ़ होकर--व्हाया पचीसों हिंदूवादी संघठन,इस विचारधारा को लेकर चलने वाली पार्टियां, मुख्यधारा की अधिकाँश मीडिया और  हायर्ड ट्रोल–इंडस्ट्री द्वारा दिन-रात असंख्य तादाद में साम्प्रदायिक ज़हर फ़ैलाने वाले ट्विटस ,वाट्सअप या फेसबुक के पोस्ट—जिनमें मुस्लमान देशद्रोही ही होता है,देश के टुकड़े-टुकड़े करनेवाला,पाकिस्तान की दिन-रात गानेवाला,यहाँ के हिन्दुओं से बेहद नफरत करनेवाला,क्रूर ,धोखेबाज,ग़द्दार,हत्यारे,अपने ही भाई-बहनों का खून कर देने वाले ऐतिहासिक दरिन्दे! कि एक-एक मुसलमान द्स-दस बच्चे पैदा करता है,जिहाद में भेजता है,इत्यादि-इत्यादि ....ऐसे विशेषण की बहुत लम्बी लिस्ट है,और दुर्भाग्य की बात तो ये है कि ऐसे विचारों को फासिस्ट सत्ता-कारपोरेट गठजोड़ से मिलते बड़े पैमाने पर समर्थन से सोच ही ऐसी बनने लगी है,और लोग  मानने लगे हैं कि हाँ,ये ऐसे ही होते हैं.ये धारणाएं  हवा में किसी  खतरनाक वायरस की तरह फ़ैल गए हैं. गोएबल्स का कहना अपने यहाँ चरितार्थ किया जा रहा है कि सौ बार बोला गया झूठ सच में बादल जाता है. बर्बरता की इसी आंधी में  हत्या का एक नया तरीका ‘मोब-लिन्चिग’ ढूँढ निकाला गया है जिसमें अपराधी के बचने के पचासों रास्ते निकल आते हैं.और सत्ता का परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन भी इन्हें गौरक्षकों के नाम पर मिला हुआ है. इन हालात में  यह कल्पना करने मात्र से सिहरन होती है कि इतने आरोपों और प्रशासनिक–पुलिसिया दबाव को झेलते हुए गाँव-खेड़े में बसे ये रोज कमाने-खाने वाले गरीब मुसलमान किस हाल में जी रहे हैं?जो थोड़े से निर्भीक और तटस्थ मीडिया हैं,अखबार या वेब पोर्टल हैं,बस वही इनकी खबर ले रहे हैं. उन गांवों की जहां ये  बरसों से रहते आये हैं,अपनी गरीबी और बदहाली में किसी तरह अपना गुजर-बसर करने वाले, सहसा अपराधी सिद्ध किये जा रहे हैं.गाँव में सन्नाटा पसरा हुआ है.कोई मुँह  खोलने को तैयार नहीं,ये इस कदर डरे हुए हैं,कुछ भी जबान से निकालने पर पुलिस के द्वारा और ना जाने कितनी धाराएँ लगा देने के भय के साए में चुप,मुँह सिले जी रहे हैं. इनका एन्काउन्टर किया जा रहा है,मोब लिंचिंग की जा रही है,दाढ़ी काटी जा रही है,दबाव पूर्वक वन्देमातरम,या भारतमाता की जय बुलवाया जा रहा है. अब इनकी क्या मजाल की चूं भी बोले.
  इन भयावह हालात के मद्देनजर फिल्म’मुल्क’  की त्रासदी  तो बहुत मामूली लगती है. ये इस लोकतंत्र में कौनसी श्रेणी के नागरिक हैं,खुद इन्हें भी नहीं पता.नहीं पता कि ये नागरिक हैं या घुसपैठिये ?. जो जलता यथार्थ है,उसकी तुलना में फिल्म ‘मुल्क’ के ये मध्यमवर्गीय पात्र कम पीड़ित लगने लगते हैं क्योंकि ये अपनी लड़ाई लड़ तो पा रहे हैं.पर जो बेगिनती के लोग हिंसा का शिकार हुए हैं,उनकी आवाज़ उठाने वाले कहाँ हैं,और कितने हैं?  पर यह साहसिक फिल्म इनके ऐसी हालत की पड़ताल करती है. पर यह तो सुखान्त फिल्म है,जिसमें देर-सवेर अंतत: पीड़ितों को न्याय मिल जाता है. इस सुखद अंत से मन में ख़याल आता  है कि काश, अपनी व्यवस्था भी इतनी ही तत्पर ,उदार और न्यायप्रिय होती! यहाँ तो हत्यारों को खुला छोड़ दिया गया है और वे अपनी बहादुरी के किस्से ख़ुफ़िया कैमरे के सामने पूरे जोशो-खरोश के साथ बता रहे हैं,उन्होंने गाय को काटा,हमने उनको काट दिया...कि पहलू खान को भीड़ डेढ़ घंटे तक    पीटती रही. या, कि  कासिम कुरैशी पानी मांगता रहा,हमने नहीं दिया,बल्कि लात मारी...
  ऐसी बर्बरता को आज जिस तरह से फलने-फूलने दिया जा रहा है,वह बेहद खतरनाक हैं.यक़ीनन ये विकृत मानसिकता के लोग कल अपने लोगों पर भी ऐसे ही हमले करेंगे. इन्हें जैसे  इसकी आदत पड़ रही है.ऐसी अराजकता और निरंकुशता  जब हद से बढ़ जाए तो ये विकृतियाँ उन्हें आदमखोर जानवर में तब्दील कर  देंगी ,ये उसी के डरावने संकेत हैं.
 ऐसे घोर पक्षपाती समय में इनका मामला जब कोर्ट में पहुँचता होगा,तो क्या सचमुच इन्हें हमारी न्याय-व्यवस्था से न्याय मिलने का भीतर से कोई भरोसा होता होगा ? हजारों मामले लंबित हैं,जिनकी पूरी जिन्दगी जेल में कट रही है, और  बेहद लम्बे,थका,देने वाले,पस्त कर देने वाले ट्रायल के बाद जब ये बाहर आते हैं तो इनके जीवन का सब कुछ सूख चुका होता है.
       हिंदी सिनेमा भारतीय मुसलामानों की जो तस्वीर हमारे दिल-दिमाग में बिठाती रही है,वह भी हमारी ऐसी मानसिकता गढ़ने के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं.इस दौर में ज्यादातर  मुसलमान कैरेक्टरों को आपराधिक पृष्ठभूमि के,उसमें भी अधिकाँश तो देशद्रोह,या आतंक,या गुंडागर्दी के पर्याय के रूप में दिखाया जा रहा है. याद कर सकते हैं हाजी मस्तान के ऊपर बनी फ़िल्में,’वन्स अपॉन टाइम इन मुंबई’या शाहरुख खान निर्मित-अभिनीत फिल्म’रईस’ जैसी फ़िल्में.  ‘मुल्क’ अपनी सम्पूर्णता में उन बनी-बनाई धारणाओं को तोड़ने की कोशिश करती है. मुराद अली एक सहज इंसान है,वकील है,और आसपास के सभी लोगों से उसकी यारियां है.वह यहाँ के बनारसी रंग में वैसे ही घुला-मिला है जैसे शहनाई के उस्ताद बिस्मिल्लाह खान थे. असल में फिल्मकार इनके जीवन को भी वैसे ही सहज दिखाते हैं जैसे औरों का. धर्म इनके लिए नितांत निजी आस्था का मामला है. और धर्म या खान-पान  को लेकर सहज हँसी-मजाक इनके जीवन का आनंद हुआ करता है. ये वैसे स्टीरियो टाइप मुसलमान नहीं गढ़ते. उदाहरण के लिए इसमें मुराद के छोटे भाई बिलाल ( महेश पाहवा) के किरदार की बात कर सकते हैं. वह एक वैसे ही लापरवाह आदमी है जैसे हमारे संयुक्त परिवारों में बहुत आम है. उसे देश-दुनिया से भी कोई खास लेना-देना नहीं है.वह अपनी सीमित दुनिया में ही मस्त रहनेवाला आदमी है. उसकी अपनी लापरवाही ही उसके लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन जाती है. उसका बेटा शाहिद आतंकी लोगों के साथ मिलने-जुलने लगा है,और बिलाल को होश नहीं. यहाँ तक कि अपनी मोबाइल शॉप के 14 सिम बेनामी बंट जाने के बाद भी वह इसे हमेशा की तरह आसानी में ही ले रहा है.और अपने दुकान सँभालने वाले नौकर को हमेशा की तरह इसे पहले की ही भाँति एडजस्ट करने को कह देता है. और इस घर की महिलायें अपने रुटीन कामों,रुचियों में ही मगन हैं.. कहने का आशय यह है कि जो आम जीवन होता है लोगों का, वैसे ही इनका भी जीवन है. समय-समय पर दंगे,जुलूस स इनके जीवन में परेशानियां पैदा कर रहे हैं,इसके बावजूद इन्हें अभी तक देश से वैसी कोई बड़ी शिकायत नहीं है.ये इस कदर यहाँ के जीवन में रचे-बसे हैं. इस लिहाज से भी ‘मुल्क’ एक नजीर पेश करती है.
फिल्म में केन्द्रीय किरदार मुराद अली के विषय में चर्चा करना जरूरी है. इसे किस तरह से देखा जाये? वह वकील है,और आम,समझदारी भरी जिन्दगी जीने में यकीन रखता है.उसके कोई पोलिटिकल एप्रोच नहीं है न ही कोई राजनितिक महत्वाकांक्षा. वह प्रगतिशील विचारों का है,जिसके चलते घर में भी एक स्वाभाविक खुलापन है,मुहब्बत और खुसूसियत है. उसका बेटा आफताब अमेरिका में जॉब करता है,यह भी उसके लिए एक सामान्य सी ही बात है,और परिवार को लेकर वहां रहने-बसने का भी ख्वाब नहीं  जैसे वह अपनी बहू से कहता है,जब वह डोलची में तजा दूध लेकर आता है--मुझे अमेरिका में ये ताजा दूध कहाँ मिलेगा?  ज़ाहिर है,ये छोटी-छोटी बातें उसे एक सहज इंसान ही बनती है,जिसे इस देश से प्यार है.उसके पास अपने देश से प्यार कोई दिखावा करने की चीज नहीं है. वह कहता है, किसी से अपना प्यार आप कैसे दिखाओगे,प्यार करके ही ना!. वह सडक पर हो रहे उर्स के जलसे का भी विरोधी है,जो जनजीवन को डिस्टर्ब करता है. अनुभव सिन्हा ने इस कैरेक्टर को बहुत सहजता से गढ़ा है.  इसे देखते हुए आपको ‘गरम हवा’ के बलराज साहनी की याद आ सकती है.



फिल्म में मुसलामानों के बारे में आज प्रचलित तमाम सच्चे-झूठे,असली-नकली  दुष्प्रचारों को कोर्ट में सरकारी वकील संतोष आनंद (आशुतोष राणा ) के माध्यम से पेश किया गया है. इन पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों के आधार पर वह इस परिवार को बहुत आसानी से एक आतंकी परिवार साबित करने पर तुला हुआ है. फिल्म में डिफेन्स लायर उनकी बहू आरती है जो इन पूर्वाग्रह भरे आरोपों पर तर्क करती है और सच दिखाने की कोशिश करती है. फिल्म वहाँ बहुत महत्वपूर्ण और किंचित क्रांतिकारी हो जाती है,जब वह इन धारणाओं के हमारे मानस पर बहुत आसानी से पैठ जाने का सवाल उठाती है. ऐसा क्यों? क्योंकि बांटने वाली ताकतें लगातार इसी धारणा को गढ़ने में मुब्तिला हैं,कि समाज को  उन्होंने अपने साम्प्रदायिक एजेंडे के तहत बहुत आसानी से ‘हम’ और ‘वे’ की केटेगरी में बाँट दिया है. और जो ‘वे’ हैं,उन्हें अपना महसूस होना तो दूर,नजदीक फटकने के भी अवसर नहीं दिए जा रहे हैं. उन्हें बार-बार ये बताया जा रहा है कि तुम अलग हो,और हम अलग. इस तरह बाँट देने से हम उनकी तकलीफों में भी विचलित नहीं होते और बड़ी आसानी से उनको गलत और अपने को सही मान लेते हैं. दरअसल,इस फिल्म के बहाने आज के मुसलमानों  के प्रति बना दी गयी,स्थापित कर दी गयी धारणाओं के खिलाफ जिरह है,विमर्श है. आइडेंटिटी को लेकर,स्वतंत्रता को लेकर तीखी बहस है. मुराद अली संतोष आनंद की उस बात का तीखा विरोध करता है,जिसमें वो कहता है कि,आप हमारे साथ मिलजुलकर रहते हैं, इसलिए हम इस देश में आपका स्वागत करते हैं .यह वही फासीवादी सोच है जो किसी कौम को उनको अपनी स्वतंत्रता देने के बजाये अपने अनुसार रहने की कृपा करते हुए अपने रहमोकरम पर रखना चाहते हैं.जबकि देश उनका भी उतना ही है जितना इनका. मुराद अली कहता है- हमें आपके स्वागत की जरूरत नहीं. भला अपने घर में कैसा और क्यों स्वागत?
  ‘मुल्क’ कोर्ट में मुसलामानों पर किये जाते आक्षेपों पर, मुस्लिम आइडेंटिटी पर रेडिकल बहस करते हुए उन तमाम शक्तियों को बेनकाब करने की कोशिश करती है जो इस काम में लगे हुए हैं.
   सिनेमा जैसे घोर व्यावसायिक दुनिया में इस विषय पर फिल्म बनाना किसी जोखिम से कम नहीं. अनुभव सिन्हा यह जोखिम ना सिर्फ उठाते हैं,,बल्कि इसे इस दौर की बहुत महत्वपूर्ण फिल्म बना जाते हैं अपने कसे  हुए निर्देशन से. सत्तर-अस्सी के दशक में चाकलेटी-बॉय कहलाने वाले ऋषि कपूर को मुराद अली मोहम्मद जैसे खुरदुरे,यथार्थवादी चरित्र के रूप में देखना न सिर्फ चौंकाता है,बल्कि सुखद रूप से विस्मित भी करता है.बहुत सशक्त अभिनय किया है ऋषि कपूर ने.निश्चय ही अभिनय के लिहाज से यह उनकी यादगार फिल्म रहनेवाली है. शातिर और साम्प्रदायिक सोच के वकील के रूप में बहुत दिनों बाद परदे पर नजर आये आशुतोष राणा ने कमाल की सहजता से किरदार को जिया है. तापसी पन्नू ने भी अभिनय में कोई कसर नहीं छोड़ी है.बाकि कलाकारों ने भी उम्दा काम किया है.
   कुल मिलाकर हमारे समय की एक जरूरी फिल्म.
००
                           
कैलाश बनवासी की डायरी नीचे लिंक पर पढ़िए
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/08/blog-post_2.html


 कैलाश बनवासी
                           
 41, मुखर्जी नगर
                           
सिकोला भाठा,दुर्ग (छ.ग.)
                           
पिन -- 491001
                             
मो. 98279 93920   


1 टिप्पणी:

  1. मैंने फ़िल्म देखी नहीं परन्तु समीक्षा अच्छी और संतुलित लगी। बधाई।

    जवाब देंहटाएं