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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 सितंबर, 2018

कनॉट प्लेस की डायरीः नौ


बीज
कबीर संजय



कबीर संजय

अंडे दुनिया की सबसे पवित्र चीजों में शामिल हैं। उनमें जीवन की संभावना छिपी होती है। आने वाला जीवन उनमें दुबक कर बैठा होता है। चुपचाप बैठे-बैठे वह जनम लेने की तैयारी करता है। पड़े-पड़े वह अचानक ही सांस लेने लगता है। सोते-सोते जाग जाता है। जब तक वह अंदर है। बाहर की दुनिया को कुछ भी जाहिर नहीं है। बाहर की दुनिया बस उस खोल को देखती है, जिसके अंदर कुछ हलचल हो रही है। लेकिन, अंदर क्या हो रहा है, किसी को क्या पता।
अंदर जो जीवन है, वह आगे बढ़ भी रहा है या उसमें जो जीवन पनप सकता था उसकी संभावना ही क्षीण हो गई। समाप्त हो गई। ऐसे ही बीज भी पवित्र हैं। बीज पेड़ों के अंडे होते हैं। उनके अंदर भी अपने मां-बाप के जैसा ही पेड़ बनने की संभावना छिपी होती है। बीज बहुत छोटे होते हैं। बरगद, पीपल के विशाल दरख्तों के बीज कैसे सुई की नोंक के बराबर छोटे-छोटे से दाने जैसे होते हैं। इतने छोटे और तुच्छ कि किसी चिड़िया की एक बीट में हजारों बीज समा जाते हैं। इन बीजों में भी जीवन सोता रहता है। अंडों में जीवन की नींद उतनी गहरी नहीं है। अंडे लंबे वक्त तक नहीं सोते। उनमें या तो जीवन पनपेगा या नष्ट हो जाएगा। उसके पनपने की संभावना ही समाप्त हो जाएगी। उसकी समयावधि तय है। उससे आगे जाने की उसकी संभावना नहीं है। लेकिन, बीज बहुत दिनों तक सोते रहते हैं। कई बार पचासियों सालों तक। कई बार सैकड़ों सालों तक। वे चुपचाप पड़े रहते हैं। इंतजार करते हैं। अनुकूल परिस्थितों के आने का। उनके धैर्य का क्या कोई जवाब है। जैसे ही मौसम उनके अनुकूल होता है, वे तुरंत पैदा हो जाते हैं।


चने के बीज सूखे हुए चुपचाप पड़े रहते है। पता नहीं वे आपस में कुछ बात भी कर पाते होंगे कि नहीं। एक दूसरे से सटे हुए वे एक ही डिब्बे में बंद पड़े रहते हैं। किसी बोरे में भरे हुए। एक-दूसरे को छूने से उन्हें कुछ आश्वस्ति मिलती भी होगी कि नहीं। लेकिन वे चुपचाप पड़े रहते हैं। उनके अंदर जीवन भी है, ऐसा जाहिर नहीं है। वे जताते भी नहीं। पर हैं तो वे भी अपने मां-बाप के बच्चे। जीवन जाहिर नहीं, प्रगट नहीं है। पर जीवन मौजूद है। ऐसा जरूरी नहीं है कि जीवन मौजूद हो तो प्रगट ही हो। जीवन बिना प्रगट हुए भी मौजूद हो सकता है। वह अवसर का, अपने मौके का इंतजार करता है। पानी में भिगोने पर चने के यही दाने कुछ ही घंटों में फूल जाते हैं। एक-दो दिन में ही उनके अंदर मौजूद जीवन जाहिर होने लगता है। जीवन का अंकुर फूट पड़ता है। वे जनम लेने लगते हैं। अपनी लंबी नींद से वे जाग उठते हैं। हां, मैं भी हूं इसी दुनिया में। इसी जीवन में। ऐसा हूं मैं। इस दुनिया में मेरी भी एक भूमिका है। मैं भी सांस लूंगा। पानी लूंगा। खाना खाऊंगा। रहूंगा इसी दुनिया में और फिर इस दुनिया में रहने का हक अदा कर जाऊंगा। लेकर नहीं, कुछ देकर ही जाऊंगा इस दुनिया को।
बरसात का मौसम आता नहीं है कि मिट्टी में दबे हुए न जाने कितने अनजान बीज मुस्कुराकर जाग उठते हैं। सोकर उठने के बाद वे अपनी प्यारी सी अंगड़ाइयां तोड़ते हैं। कुछ तो सीधे जमीन के अंदर से अपने हाथ को सिर के ऊपर करके, जोड़े हुए निकल आते हैं। बाहर आकर उनके दोनों हाथ खुल जाते हैं। वे सफेद-सफेद, नर्म, नाजुक से धागे। उनके ऊपर दो जुड़ी हुई हथेलियां, खुल जाती हैं। वे हरी पड़ने लगती हैं। सूरज उन्हें प्यार करता है। धूप उनको खाना देती है। जीवन किलकारियां भरने लगता है।



बीज के अंदर मौजूद जीवन कितने दिन तक जीवित रह सकता है। क्या हजारों साल पहले किसी पेड़ पर उगे बीज आज भी जीवित हो सकेंगे। मुझे लगता है कि बीजों की भी समयावधि तय होती है। कुछ बीज शायद एक हजार साल बाद भी अनुकूल परिस्थियां होने पर जी उठें। पर कुछ बीज हो सकता है कि कुछ ही सालों में नष्ट हो जाएं। अपने अनुकूल समय आने का उनका इंतजार पूरा न हो। वे अंदर बैठे-बैठे इंतजार करते रहें कि समय बदलेगा, उनका वक्त भी आएगा। अच्छे दिन आएंगे। ऐसा भी होगा कि जब वे खुली हवा में सांस ले सकेंगे। जब उनके भी बच्चे होंगे। जब वे भी अपने बीज इस धरती को दे जाएंगे। जब वे भी अपने बीज इन हवाओं, पक्षियों, इंसानों और न जाने किन-किन माध्यमों से धरती के अलग-अलग कोने में बिखेर देंगे। उन्हें पता है कि यह सबकुछ परमार्थ नहीं है। वे सब उसके बीजों को खा जाएंगे। फिर भी कुछ बीज बचे रहेंगे। वे फिर से जनम लेंगे और संतति को आगे बढ़ाएंगे। पर जाहिर है कि हमेशा ऐसा नहीं होता। समय बीतने के साथ ही कुछ बीज बांझ हो जाते हैं। उनके अंदर बैठे जीवन के जनम लेने की संभावना नष्ट हो जाती है। अंदर ही अंदर वे मर चुके होते हैं। न वे जनम लेते हैं और न ही उनकी संततियां ही आगे बढ़ती हैं। उनका अनुकूल समय कभी नहीं आता। अच्छे दिन नहीं आते। उनका इंतजार खत्म नहीं होता।
आपने कभी लंग फिश का नाम सुना है। अफ्रीका के कुछ हिस्सों में लंग फिश पाई जाती है। यह मछली अफ्रीका के कई ऐसे तालाबों में रहती है जो गर्मियों की मार नहीं झेल पाते। लंबी गर्मियों के मौसम में ये सूख जाते हैं। इनका पानी सूखता जाता है। तालाब की पहले गहराई कम होती है। फिर उसकी तली दिखने लगती है। उसमें जमा कीचड़ दिखने लगती है। फिर वह कीचड़ भी सूखने लगती है। उनमें दरारें पड़ जाती हैं। तालाब में रहने वाले बहुत सारे जीव-जंतु मर जाते हैं। या फिर वे भाग जाते हैं। वे ऐसी जगहों पर चले जाते है, जहां पर उन्हें जीवन की ज्यादा अच्छी संभावना मिल सकती है। पर लंगफिश कहीं नहीं जाती। वो उसी कीचड़ में पड़ी रहती है। वो अपने शरीर से एक खास किस्म का स्राव करती है। उससे उसके पूरे शरीर के इर्द-गिर्द एक खोल तैयार होता है। वो उसी खोल में चुपचाप सो जाती है। यह मौत की नींद होती है। चुपचाप सारी चीजें बंद। जैसे वह मर गई हो।


अक्सर ही लोग उस तालाब की मिट्टी को खोद लाते हैं। उसके बड़े-बड़े से डले बनाकर उससे अपने कच्चे घरों की दीवार बना लेते हैं। घर की दीवार खड़ी रहती है। महीनों बीत जाते हैं। गर्मियां बीतती हैं। बरसात का मौसम अच्छा नहीं रहा। बहुत जोर की बारिश नहीं हुई। फिर जाड़ा आ गया। फिर गर्मियां आईं। फिर बरसात का मौसम अच्छा नहीं रहा। बादलों की गड़-गड़ाहट तो बहुत हुई। लेकिन पानी ऐसा नहीं बरसा। ऐसे ही एक-दो-तीन-चार साल बीत गए। फिर बारिश के किसी मौसम में लंगफिश का इंतजार पूरा होता है। हवाएं अपने साथ बादलों का पूरा जत्था खींच लाती हैं। वे जोर-जोर से हांका लगाते हुए बरसने लगते हैं। उनका पानी धरती को तर-बतर कर देता है। सबकुछ भीगने लगता है। मिट्टी की दीवार भी गीली हो जाती है। पानी की नमी उसके अंदर भी जाने लगती है। लंग फिश को अहसास हो जाता है कि बाहर चारों तरफ पानी की बौछार पड़ रही है। अच्छे दिन आ चुके हैं। हर तरफ पानी भरा होगा। गीला होने पर, पानी से भीगने पर मिट्टी की दीवार भी ढीली पड़ जाती है। लंगफिश चुपचाप अपने खोल से निकलती है। वो रेंगते हुए बाहर आती है। वो दीवार से नीचे गिर जाती है। फिर बरसात के पानी के साथ बहते हुए चुपचाप उसी तालाब में पहुंच जाती है, जहां पर वो पैदा हुई थी। यहां पर दोबारा उसे ढेर सारा पानी मिलता है। हां, यही तो वो जीवन है, जिसका वो इंतजार कर रही थी। उसके अंदर के जीवन की संभावना दोबारा पूरी तरह से जाग उठती है। अब फिर से जियेगी, सांस लेगी, अपनी संततियां पैदा करेगी।
अपने खोल में सिमटा, सिकुड़ा मैं सोच रहा हूं, मेरा इंतजार कब पूरा होगा। ०००
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1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुंदर।आदमी के भीतर भी अखुअने की आशा ऐसे ही फूटती है।बहुत कम ही होता है जब ज़िन्दगी का बीज तत्व यूं ही गल जाए।अगली कड़ी का इंतज़ार है।

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