मैं क्यों लिखता हूं ?
विनोद शाही
विनोद शाही |
जब से होश संभाली है, मैंने पाया कि मुझे सब से ज़रूरी काम की तरह लिखना सिखाया गया। सब के साथ यही होता है। हम मनुष्य की तरह होने और हो सकने का जो पहला पाठ पढते हैं, वह यही है कि हमें लिखना आता है या नहीं। जिन्हें नहीं आता, उनकी मानव समाज में मनुष्य की तरह गिनती बड़ी मुश्किल से होती है। लिखना मनुष्य की मनुष्य हो सकने की वजह भी है, पहचान भी; परंतु बड़ी जल्दी हम से ‘कुछ लिख पाने’ की हमारी बुनियादी ज़रूरत और सामर्थ्य को हम से छीन लिया जाता है। इससे पहले कि लिखने और लिख पाने के मतलब को समझ सकें, लिखना हमारे लिये एक औपचारिकता में बदल चुका होता है। फिर उसे पढने लिखने की ज़रूरत के क्रम में दूसरे नंबर पर धकेल दिया जाता है। वह ‘पढे गये’ को ‘लिखने की शक्ल ले लेता है। इस तरह लिखने की आज़ादी का, जन्म लेने से पहले ही अंत हो जाता है। इस के पीछे एक गहरी बात छिपी है। हमें बताया जाता है कि हम जो हैं या हो सकते हैं, उसे ऊपर से ‘लिखा’ कर लाये हैं। इसलिये हमारे हिस्से का काम बस इतना है कि हम उस ‘लिखे को पढें’ और उसके मुताबिक चलना और जीना सीखें।
फिर हम ताउम्र खुद को दौहराने के अलावा कुछ नहीं करते।
गोया लिखना, सीखे पढे की गुलामी करने के अलावा कुछ नहीं होता हो।
यह मानवजाति की बड़ी बुनियादी बदकिस्मतियों में से एक है कि उसे लिखने के लिये आज़ादी के लिये भी ताउम्र जद्दोजहद करनी पड़ती है। फिर भी ऐसा कभी कभार ही होता है कि हम वाकई वह लिख पाते हैं, जिसे लिखना मुक्त होने जैसा होता हो।
हमारे लिखना आरंभ करते ही सीखे-पढों की दुनियां में फिक्र की एक हल्की सी लकीर खिंचती है, यह समझने के लिये कि जो लिखा गया है उसे वे अपने किस खांचे में रख सकते हैं। आप किसी के पक्ष में हैं या विपक्ष में, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। बस आपकी सोच के उस मौडल का उन्हें पता चलना चाहिये, जो आपके लिखे की कोटि बनाने में उनकी मदद कर सके। फिर वे आपकी तरफ से बेखबर हो जाते हैं। मनुष्य समाज का बुनियादी विभाजन, विचारधाराओं के आधार पर नहीं होता, आपके लिखे पाठों की कोटियों के होने या न होने से होता है। इस लिहाज से ये दुनियां दो तरह की है, अपने लेखन के आधार पर कोटि-बद्ध या कोटिमुक्त।
रचनात्मक होने का मतलब है, कोटिमुक्त लेखन के लिये संघर्ष करना।
ये एक बड़ी गहरी लड़ाई है, जिसे सच्चा लेखक ताउम्र लड़ता है -पहले लिखे जा चुके तमाम पाठों के खिलाफ।
टी एस इलियट इस जद्दोजहद से वाकिफ थे। इसलिये उन्होंने कहा कि नितांत मौलिक लेखन नाम की कोई चीज़ होती ही नहीं। आप बस अपने से पहले लिखे जा चुके पाठों में थोड़ी मनपसंद फेरबदल के लिये ही आज़ाद होते हो। लिखने को उन्होंने लेखक से स्वतंत्र गतिविधि की तरह देखा। लेखक को वे एक साक्षी की तरह देखते थे, जिसकी मौजूदगी कुछ अलग लिखे जाने की गैर-इरादतन वजह थी।
इस बात को और साफ लफ्जों में रोलां बार्थ ने हमारे सामने रखा। उन्होंने कहा कि लेखक अब मर चुका है, तो ‘लिखने’ की बात करना बेकार है। ये तो पहले लिखे पाठ हैं जो हमारे भीतर सीखे पढे गये रूप में मौजूद रहते हैं और जैसे हालात होते हैं वैसे नये पाठों को ‘लिखते’ रहते हैं। वे पहले वाले पाठ न हों तो लिखना मुमकिन नहीं।
इस बात को फिर देरिदा ने और आगे बढाया। उन्होंने कहा कि हमारा काम पहले से मौजूद पाठों को’पढने’ का होता है। हम उन पाठों में , जो लिखा गया है उसे ही नहीं पढते, हम वहां मौजूद ‘अनलिखे’ को भी पढा करते हैं। पर वह हमारा ‘लिखना’ नहीं होता, उस पाठ की खुद को पुनः पुनः लिखने की संभावना को सामने लाना होता है।
अब अगर हम लिखने के बारे में व्यक्त, इन तमाम बातों को ध्यान से देखेंगे, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि कैसे पूरी दुनियां हमारे कुछ नया लिख सकने की संभावना को ही नष्ट कर देने पर तुली हुई है। संकट गहरा है। यह कहना सरल है कि हम लिखने के लिये आज़ाद हैं, पर इस आज़ादी को दरअसल पा लेना दुनियां की सब से मुश्किल बातों में से एक है।
अब मैं उस सवाल पर सीधे आ सकता हूं कि मैं क्यों लिखता हूं ?
मेरे लिये लिखना, कोटिमुक्त होने की अनिवार्य शर्त पर खरा उतरने की कोशिश है।
यह एक असंभव कार्य को करने का ऐसा हठ है, जिस में मेरा असफल होना पहले से तय है। परंतु चूंकि यह काम तर्क साध्य नहीं है, इसलिये इस में उतरने के लिये थोड़ा पागल होना ज़रूरी है। थोड़ा पागलपन हमें अचेतन में उतरने और उसे साधने में मदद करता है, बशर्ते हम नियंत्रण खो कर दहलीज़ के उस पार इतने न निकल जाएं कि हमारा लौटना मुमकिन न रहे।
तो सही मायनों में लिखने का मतलब है खतरा उठाना। खतरा किस बात का है, इसे समझें।
जिसे हम ‘सोचना’ कहते हैं, वह आदतन होता है। उसमें हम ज़्यादा दखल नहीं देते। इसीलिए एक विचार दूसरे विचार को पैदा करता चलता है। हम लगातार हमेशा कुछ न कुछ सोचते हैं। फिर हम सो जाते हैं। तब भी हमारा दिमाग नहीं रुकता। वह हमारे बावजूद अपनी आदत का चलन जारी रखता है। फिर सपने आ जाते हैं। वे हमें सोचना छोड़ कर ‘देखने’ के लिये कहते हैं। जैसे ही हम देखने वाले हो जाते हैं, दृश्य हमें पकड़ लेता है। वह हमें भी उस दृश्य के एक हिस्से में बदल देता है। तब दृश्य हमें, हमारे बावजूद, जहां हांकना चाहता है, हांक देता है। तो ये दो तरह की बुनियादी गुलामियां हैं। एक भाषा की है, जो हमे बेवजह सोचने में लगाये रहती है। दूसरी दृश्य की है, जो हमें वह दिखाती है, जो वह चाहती है, न कि वह, जो हम चाहते हैं। ‘लिखना’ इन दो तरह की गुलामियां से आजाद होने की कोशिश है।
भाषा की और दृश्य की, दोनों की कोटियां होती हैं। हर शब्द अपने आप में एक कोटि होता है। हर दृश्य उन तमाम शब्द-कोटियों का मनोबिंब होता है । यानी ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह हैं। पुरानी भाषा में इसे नाम-रूप की दुनियां कहा जाता था। ‘लिखने’ के बारे में सोचने का मतलब है कि अब हमारा अपना भी कुछ है जिसे हम इन कोटियों के भीतर खोजेंगे, हो सका तो इन में दखल देंगे । और फिर पूछेंगे कि हम मुक्त हो सकते हैं या नहीं।
पर हम में से कितने हैं जो लिखने के इस मतलब को समझते हुए लिखने की ओर आते हैं ?
हम में से ज्यादातर लेखक उसी तरह के हैं जो देरिदा की व्याख्या में खप जाते हैं। यानी वे पहले लिखे गये पाठों के भीतर से प्रकट होने वाले ‘अनलिखे’ को पढने की योग्यता रखते हैं। उनका यह पाठ उन्हें पहले मौजूद पाठ को उसके अब तक अनलिखे हिस्से को ‘लिखने’ की ओर ले जाता है। इस तरह पुराने भाषापाठ लगातार नये भाषापाठ में बदलते रहते हैं।
दुनियां के सभी भाषापाठ, ‘”लिखे गये दस्तावेजी पाठ होते हैं । वे अपनी गहराई में अन्य बेशुमार अर्थों में अभी तक अनलिखे पड़े मिलते हैं। पर इन अनलिखे पाठों की तरह इन्हें ‘लिखना मौलिक नहीं होता । वह’अब तक के भाषापाठों की निर्धारित की गयी कोटियों के तहत लिखना होता है। परंतु जब मैं कोटिमुक्त रूप में लिखने की बात करता हूं, तो इसका मतलब कोटिविहीन रूप में लिखना नहीं होता। इस के उलट वह इस ‘समझ’ को पाना होता है कि भाषापाठ के भीतर मौजूद उनके अनलिखे पाठों की संभावना हमें उन पाठों तक ही सीमित नहीं रखती, अपितु उन पाठों के ‘पार हो सकने’ में मदद भी करती है। आइए इसे गहराई से समझने की कोशिश करते हैं।
इस बात को हर सच्चा लेखक अपने तरीके से अनुभव करता है कि वह तभी लिखता है , जब वह पहले मौजूद भाषापाठों से असंतुष्ट होना आरंभ करता है। यह असंतोष मेरे भीतर भी है और इस कदर है कि मैं अपने भीतर किसी गहरे कोने में हमेशा बेचैन रहता हूं। हर रचनाकार की तरह यह बेचैनी इस तरह की है कि अगर मैं नहीं लिखूंगा , तो मुझे इस बेचैनी से निजात नहीं मिलेगी। यहां, इस लिहाज से, सारे रचनाकार एक ही ज़मीन पर खड़े होते हैं। फिर होता ये है कि जैसे ही लगता है कि हमारा लिखा लोगों में कुछ दिलचस्पी पैदा कर रहा है, तो हम उस बात में रस लेने लगते हैं। हमारी बेचैनी अपनी जगह बदस्तूर बनी रहती है, पर उसका ताउम्र साथ देने वाले विरले ही होते हैं। नाम, सम्मान, यश, प्रशंसा, धन, पद, सत्ता, प्रेम आदि बहुत सी चीजें हैं, जो उस बेचैनी पर लिहाफ ओढा देती हैं और हम उसे अपना तकिया बना कर, अपने ही पूर्व पाठों की चादर ओढ कर, सो जाना ज़्यादा पसंद करने लगते हैं।
तो जिस लेखन को हमारे कोटि मुक्त होने तक जाना चाहिये था, वह हमारे भीतर के लेखक की मृत्यु की घोषणा कर देता है। रोलां बार्थ सब से पहले हमें मारता है, फिर हमें आश्वस्त करता है कि घबराओ नहीं, तुम्हीं नहीं मरे, दुनियां भर में मौलिक लेखक नाम की चीज़ का अंत हो चुका है।
पर मैंने सजग रूप में लेखन को फिर भी इसलिये चुना है क्योंकि मुझे लगता है कि उसमें हमें मुक्त करने की सामर्थ्य है।
इस लिहाज से मैं खुद को दो मोर्चों पर संघर्ष करता पाता हूं। पहला मोर्चा है अपनी नींद का, कि मुझे तब तक नहीं सोना है, जब तक मेरे लेखन में वह बात नहीं आ जाती कि वह मुझे मुक्त कर सके। और दूसरा मोर्चा है, उस भाषापाठ की खोज का, जो कोटिमुक्त हो। यहां मुझे बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। कई दफा भाषा इतनी अजनबी और क्लिष्ट तक हो जाती है, कि पढने वालों को लगने लगता है कि मैं लिखते वक्त उनका ध्यान नहीं रखता। वे भाषा के हर हाल में संप्रेषणीय होने के पक्ष में दलीलें दे कर मुझे खारिज कर के चलते बनते हैं। मैं जानता हूं, वे एकदम गलत नहीं होते। मुश्किल से मुश्किल बात को भी आसान बना कर लिखा जा सकता है। परंतु यहां एक बात ऐसी भी है, जो उनके पक्ष में नहीं जाती। वह बात यह है कि जिसे हम आसान भाषा कहते हैं वह आसान इसलिये होती है, क्योंकि हमारी सोच की किसी न किसी कोटि के फ्रेम में वह ‘फिट’ हो जाती है। हर वो बात, जिसकी हमारे भीतर कोई पूर्व निर्धारित कोटि नहीं होती, वह कितनी भी आसान भाषा में क्यों न हो, समझने के लिहाज से कठिन ही होती है।
एक उदाहरण लोजिये। न्याय शब्द हमारे लिये अजनबी नहीं हैं। हमारे भीतर इस शब्द की एक कोटि है। जब कोई बात उस कोटि से मेल खाती है, तो हमें लगता है कि वहां न्याय होगा ही। पर जहां से यह शब्द आया, न्याय मीमांसा से, उस अर्थ से अब इसे अधिक लेना देना नहीं है। कानून के आदमी के लिये न्याय की अपनी कोटि है, गांव के आदमी के लिये अपनी। गांव का आदमी जिस कुदरती या दैवी न्याय को न्याय की अपनी कोटि की तरह देखता है, वह भी आज शहर की दुनियां का दमित पाठ है। तो न्याय की कथा को पढते हुए हम वहां मौजूद उसके बहुत से ‘दमित पाठों’ को भी महसूस कर रहे होते हैं। इससे हमें वहां उस न्याय की कथा के कुछ अनलिखे पाठों को पढने की ज़रूरत भी महसूस हो सकती है। हम जब उन्हें देख पाते हैं, तो उन्हें लिखना भी चाह सकते हैं। अनलिखे पाठों में आप प्रकृति से होने वाले न्याय-अन्याय को, आदिवासी के, स्त्री के, पशु-पक्षी के, समुद्र के , पृथ्वी के, ब्रह्माण्ड के साथ होने वाले न्याय-अन्याय तक भी जा सकते हैं। यहां तक सब ठीक ठाक है। इस सब की बाबत आसान भाषा में, संप्रेषणीय तरीके से लिखा जा सकता है। पर जैसे ही आप इन अनलिखे दमित पाठों को ‘उनकी अपनी भाषा में’ पढने की ओर आयेंगे, खुद आप को लगेगा कि सब बेबूझ सा हुआ जाता है।और यह भी कि उसे आसानी से समझ में आने वाले तरीके से कहना, कम से कम, शुरुआती रूप में, बेहद कठिन होता है।
इसका मतलब यह है कि पहली मुक्ति, हर अनलिखे दमित पाठ को उसकी अपनी भाषा में बोलने का मौका देने से घटित होती है। वह घटने लगे, तो इसके एवज में दूसरी मुक्ति खुद ब खुद घट जाती है - लेखक की मुक्ति के रूप में।
यह सब कहना आसान है पर यही वो चीज़ है, जिसकी अभिव्यक्ति पर पहरे लगे हैं। कठिन है, वहां जाना, उसे खुद बोलने देना और फिर उसे समझ कर दूसरों को वह सब समझा भी पाना।
फिलहाल मानव जाति भाषा में ‘मानववादी’ तरीके से रचनाशील होने के दौर में है।
इसलिये वह ‘मनुष्य’ का भी मानववादी किस्म का सरलीकरण करती है। मनुष्य हमारे लिये एक मानववादी कोटि की तरह आता है। सारी दिक्कत इस तरह के कोटिकरण से पैदा होती है। इसके पीछे हमारे दौर तक चला आता पूंजीवाद का अब तक का इतिहास है, जो अब उत्तर औद्योगिक चरण पर आ पहुंचा है । इस दौर तक आते आते मनुष्य, प्रकृति और संस्कृति - ये तीनों ‘समाज’ के हाशिये पर चले गये हैं। मानववाद मनुष्य केंद्रित बात नहीं रहा, मनुष्य के सामाजिक रूप के केंद्र में चली आयी मुनाफवादी और उपयोगितावादी बात बन गया है। इसे उस मनुष्य से कुछ लेना देना नहीं है, जो प्रकृति के साथ एकाकार होना चाहता है और उस अर्थ में अपनी आत्मा को खोज कर मुक्त होना चाहता है। संस्कृति में अब आत्मा नाम की चीज़ अजनबी हो गयी है । तो वह भाषा ,जो शब्द और अर्थ की एकाकारता को अपनी आत्मा कहती थी, उससे भी इसे कुछ मतलब नहीं रहा। अब वह भाषा चाहिये, जिसके हज़ार अर्थ हों। ये हज़ार अर्थ भाषा की उपयोगिता को साबित करते हैं। पर ये तमाम अर्थ भाषा के सामाजिक अर्थ हैं। प्रकृति का सामाजिकीकरण हुआ, तो उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया। अब बात चल रही है कि ऐसे तो प्रकृति विलुप्त हो जायगी । तो उसे बचाने की बात भी सोची जा रही है । पीछे पीछे संस्कृति खतरे में पड़ने वाली है। पर हम तब मुड़ेंगे, जब मनुष्य का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जायेगा। इसलिये अगर हम भाषा में अपनी मुक्ति की संभावना को देख समझ रहे हों, तो ही हमारा ‘लिखना’ अब कुछ अर्थ रखने लायक हो सकेगा। मनुष्य जब ‘अपनी’भाषा की बाबत सोचेगा तो वह फिर से मौन की उस भाषा से हो कर लौटेगा, जहां वह अपनी आत्मा के करीब पहुंचता है । पर वे रास्ते बंद हो चुके हैं। कभी हमारे यहां भाषा के बहुत से स्तरों की बात होती थी। परा, पश्यंती, मध्यमा, वैखरी आदि की। भाषा के बहुत से तंत्र थे। पंचतंत्र को ही लें। वह हमारी जनतांत्रिक भाषा की तरह इकहरा नहीं है। वहां कोशिश हुई है कि पशु, पक्षी, मत्स्य, सरिसृप और मनुष्य - इन पांच की भाषा के विविध तंत्रों में आपसी संवाद की संभावना को सामने लाया जाये। प्रकृति की भाषाओं के अपने तंत्र भी हैं। धातु की, पृथ्वी की, चांद तारों की भाषाएं वहां हैं। पर वे लुप्त हो गयी हैं। हमें अपने वक्त के मुताबिक एक नये भाषा विवेक के साथ उन भाषाओं में लौटने के बारे में सोचना होगा। भाषा से हमारा रिश्ता होगा तो प्रकृति से प्रेम भी बच जायेगा और आखिर प्रकृति भी ।
अब यहां मेरे सामने ‘लिखने’ की वजह स्पष्ट होती है। लिखना , भाषा में रचनाशील होने की मुक्तिदायिनी संभावना तक पहुंचने की हमारी जद्दोजहद है। पर मैं शुरू से ऐसा सोच कर लिखने की ओर नहीं आया था। यह बात तो मेरे सामने अब कहीं जा कर उदघाटित हो रही है।शुरू में बात इतनी थी कि देखो, मैं भी लिख सकता हूं। जब छपने लगा और बार बार अपना नाम छपा देखने की लालसा पकड़ने लगी, तब सवाल उठा कि क्या लिखना अपने छप सकने का प्रमाण देना भर है? इससे छपना भी खुद को दौहराने की बोरियत में बदल गया। पहले कहानी, कविता और नाटक लिखता था। 1975 से 90 तक धर्मयुग, सारिका, कहानी, नटरंग आदि में लगातार छपता रहा। कई संग्रह भी आ गये। फिर आत्मालोचन का दौर आया। कुछ अर्सा कुछ खास नहीं लिखा। पर न लिखने ने और भी ज़्यादा बेचैन कर दिया। अब ये सवाल और गहराई से उठा कि मेरे लिये लिखना क्यों ज़रूरी हो चुका है। कविता, कहानी और नाटक लिख कर अब मुझे लगने लगा था कि मैं जो कहना चाहता था, वह इन विधाओं के तय हो गये खांचों में खप नहीं पा रहा था। भाषापाठ अपने तयशुदा रूप में हमारी चेतना को अपना गुलाम बनाते हैं -यह बात अब मेरी समझ में आ रही थी। पर विधाओं को तोड़ना मुमकिन नहीं होता, क्योंकि उन्हें एक तयशुदा रूप देने का काम हम नहीं, युग करता है। मैं संस्कृत का छात्र रहा था। बाद में मैंने अंग्रेज़ी साहित्य में भी एम ए कर लिया था। मैं तुलनात्मक रूप में यह देख पा रहा था कि हम लोग किन अर्थों मे ं शास्त्रीय कालों की ऊंचाइयों का अभी तक पीछा कर रहे थे, परंतु अपने आगे बढ जाने की बात को साबित करने के लिये उन्हें चौंकाने वाले अंदाज़ में खारिज करने का दिखावा कर रहे थे। वहां भाषा के विविध रचना संसार अभी भी अपनी मौलिकता के साथ मौजूद थे। हम बस उनके आधुनिक किस्म के सामाजिक तौर पर उपयोगी उत्पाद तैयार कर रहे थे। इसीसे उन भाषापाठों के मुक्तिदायी अर्थ नष्ट हो रहे थे। पर हम इसी वजह से खुद को आधुनिक हुआ मान रहे थे। तो, आधुनिक काल में हमारे यहां पश्चिम से आई ये जो नयी विधाएँ थीं, वे मुझे खुद को गुलाम बनाने वाले भाषापाठों जैसी लगने लगीं। तब मैंने तय किया कि मुझे मनुष्य को गुलाम बनाने वाली तमाम आधुनिक धारणाओं और विचारों को समझना और व्यक्त करना होगा। इस तरह ‘लिखने’ की पहली गहरी वजह ने मुझे पकड़ लिया। उन दिनों मैंने एजाज़ अहमद की ‘इन थ्योरी’ पढी थी। वहां से मैं एडवर्ड सईद तक पहुंचा। फिर असंतुष्ट हो गया। मेरे भारत की उन गहरे अर्थों में गुलामी को ले कर कहीं कोई बड़ी फिक्र नहीं थी।
तब मैंने ‘प्राच्यवाद और प्राच्य भारत’ नाम से अपनी पहली आलोचनात्मक चिंतन की किताब लिखी। इससे मेरे बाद के लेखन के लिये एक लीक पड़ गयी, जिस पर चलते हुए मुझे ‘अपना’ रास्ता बनाना था।’ इस किताब को लिखते हुए यह बात समझ में आई कि औपनिवेशिक दौर ने हमारी गुलामीं के उन्हीं रूपों पर अपना भवन खड़ा किया था जिनकी बुनियादें हमारे अपने अतीत के चिंतन में तैयार हुई थीं।
तो मैं खोजते खोजते अपने यहां विकसित हुई भक्ति की विचारधारा पर अटक गया। मुझे नज़र आया कि उसने हमारी इतिहास की समझ को नष्ट करने के लिये एक अजीबोगरीब रास्ता पकड़ा था। मैं अपने कहानी लिखने के अभ्यास से जानता था कि कहानी में एक घटना के भीतर से दूसरी घटना निकलती है। इससे हमें घटनाओं के घट सकने की वजह मिलती है। जिसे हम इतिहास कहते हैं, वह भी घटनाओं का सिलसिला होता है। इस तरह कथा हमें अपने इतिहास बोध को तर्क संगत’ रूप में हासिल करने में मदद करती है। पर जिस तरह की कथा हम लोग इधर लिखने लगे थे, वहां हमारा इतिहास बोध नहीं था। वह पश्चिम के इतिहास बोध के मुताबिक खुद को ढाल सकने की बात को तर्क संगत साबित करने जैसा था। हमारा इतिहास बोध , अपने ज़मीनी रूप में तो, रामायण और महाभारत से आता है। पर इन दोनो महान कथाओं के इतिहास बोध को भक्ति ने नष्ट कर दिया था। इस तरह हम इतिहास बोध विहीन जाति में बदल गये थे। राम और कृष्ण की लीला, इतिहास की लीला न हो कर, ईश्वर की लीला हो गयी थी। उनके हर संकटकाल में उनकी मदद के लिये देवता हाज़िर रहने लगे थे। वह मनुष्य के संघर्ष का इतिहास नहीं रह गये थे। संघर्ष की जगह वे समाज को भक्ति में ले गये थे। तो मैंने तय किया कि मुझे राम की कथा को, ‘कथा’के अपने इतिहास बोध के साथ फिर से लिखना होगा।
‘इस तरह रामकथा : एक पुनर्पाठ’ लिखते हुए मैं उन ‘दमित भाषा संसारों’ में पहुंचा, जिन्हें मैं मनुष्य की मुक्ति की अनिवार्य भूमिका बनाने वाला मानता हूं। तब से ले कर मैं किसी न किसी शक्ल में इन गौण और दमित भाषा संसारों को फिर से जीवंत बनाने के लिये रचनात्मक संघर्ष कर रहा हूं। रामकथा में उतरा तो मेरे सामने कभी एक गरुड़ चला आया, तो कभी एक गिद्ध; कभी वानर, कभी भालू ; कभी हिरण, कभी राक्षस ; कभी देवता, कभी असुर, नाग, किन्नर या जाने और कितने दमित भाषा संसारों के लोग ; जिन्हें तर्क संगत रूप में हमारी सभ्यता के विकास की इतिहास-कथा की तरह ‘लिखा जाना’ ज़रूरी लग रहा था। यह मेरी एक कोशिश थी, कथा की, इतिहास की और मौलिक चिंतन की मुक्ति के लिये की गयी एक कोशिश।
अब मेरा ध्यान इसी क्रम में सूफियों की ओर गया। वे मध्य एशिया की कथाओं के साथ, वहां के इतिहास बोध को अपने साथ लेकर यहां आये थे। उन्होंने भारत को मध्य एशिया तक फैली उस महासंस्कृति की तरह खोजा था, जिस में उनका वह इतिहास बोध, हमारी कथाएं बन कर हमारा हो गया था। वारिस शाह की हीर और उनका रांझा यहीं पैदा हुए थे, इसी अपनी सरजमीं पर। अब हम एशिया महाद्वीपीय इतिहास बोध वाले समाज की तरह हो गये थे, जिसका अगला चरण हमारे अपनी तरह से, वैश्विक होने की तरह का हो सकता था।
पर औपनिवेशिक दौर हमारे इस महान इतिहास का विभाजन कर के चलता बना। उसने हमारे सूफियों को भी कट्टर मुल्लाओं के खाने में डाल दिया। हमारी भक्ति का राजनीतिक उद्देश्यों के लिये संकीर्ण इस्तेमाल किया। वह भक्ति जो भारत को अखंड रखने के लिये अपने ज्ञान की परंपरा के विरोध में चली गयी थी, औपनिवेशिक दौर में ‘हिदू की अखंडता’ का संकीर्ण एजेंडा भर हो गयी। भक्ति के इतिहास विरोधी होने की हमें भारी कीमत चुकानी पड़ी।
लेकिन मेरी चिंता और गहरी होती गयी, यह देख कर कि हम अभी तक अपनी भक्ति का और उससे जुड़े भक्तिभाव का, सही मूल्यांकन करने से बच रहे हैं। तो मुझे अपनी एक और किताब पर काम करना पड़ा “: ‘ हिंदी साहित्य का इतिहास : एक उत्तर औपनिवेशिक विमर्श पर। साथ ही साथ मैं दमित भाषा संसारों की मुक्ति के अपने प्रयासों के सिलसिले में पतंजलि के योग दर्शन की ओर मुड़ा।
संस्कृत के बड़े वैयाकरणों में पाणिनी के साथ पतंजलि को रखा जाता है। पर मैं उन के योगदर्शन की उत्तर आधुनिक व्याख्या करने की ओर मुड़ा। यहां ‘साधनापाद’ में वे उस भाषा को समझने की ओर आये, जिसे हम पशु-पक्षियों, चांद-तारों, हवा-पानी और अपने आंख-कान आदि की भाषा कह सकते हैं। इस बाबत मैंने ‘पहल’ के लिये एक आलेख लिखा था : ‘ भाषा है वाणी का द्वार ‘ शीर्षक से। हम भाषा पर इतने केंद्रित हो गये हैं कि वाणी के अर्थ को, उसकी मौजूदगी के महत्व को, भूल गये हैं। हमारी देह में वामी का एक अपना दमित संसार है, जिसे भाषापाठों की दुनियां ने हाशिये पे डाला हुआ है।
यहां तक पहुंच कर मेरे सामने सवाल यह उठ खड़ा हुआ कि ‘लिखने’ के ऐसे अर्थ का क्या कोई ‘सिद्धांत’ हमारे पास है या नहीं। भाषा और साहित्य की व्याख्या के जो पश्चिमी प्रतिमान मेरे सामने थे, वे मेरी इस तरह की समझ के विपरीत पड़ रहे थे। मेरी बेचैनी इसलिये और बढ रही थी क्योंकि सिद्धांत के मामले में तो हमारा सब ‘उधार’ का था । अपने सिद्धांत के लिहाज से हम रस और ध्वनि की नयी व्याख्या करने पर अटके थे। कुछ लोग भर्तृहरि के ‘वाक्यपदीयम्’ की ओर रुख कर रहे थे, क्योंकि वह पश्चिम की विचार और पाठ केंद्रित सोच के ज्यादा करीब था। यों भी नागार्जुन और भर्तृहरि का असर हम देरिदा के विखंडन पर तो देख ही सकते हैं। पर यहां भी मैंने पाया कि भर्तृहरि ‘वाक्य’ से ‘वाणी’ की ओर आये थे। अभी तक चूंकि पश्चिम ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया है,सो हमें क्या पड़ी है ? हालांकि यहीं से हम दमित वाणी के भाषा संसारों में लौटेंगे। वाणी के परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी के भाषा संसार ऐसी कुंजियों की तरह हैं, जिन से भाषा की बंद दुनियां पर लगे ताले को खोलने में मदद मिलेगी। अब मेरी अगली किताब ‘भाषा दर्शन’ पर होगी। हिंदी में अभी तक किसी ने भाषा के दर्शन की ओर रुख नहीं किया है। साहित्य के ‘सिद्धांत’ के रूप मेआनंद वर्द्धन ज़रूर आये थे इस तरफ। उन्होंने ‘गौण’ अर्थों को मुख्य अर्थ की जगह लाने का रास्ता पकड़ा था। पर फिर अभिनव गुप्त आ गये। वे गौण अर्थों की सारी दुनिया की ओर खुलने की बजाय, रस ध्वनि’ को ही एकमात्र संभावना मान बैठे। भक्ति की तरह वेदांत ने हमारे ज्ञान के विकास को किस तरह रोका, इसे साहित्य के सिद्धांत की दुनियां में देखना समझना हो, तो हमें अभिनव गुप्त को पढना चाहिये। इसका विरोध करते हुए मैंने आनंद वर्द्धन में वापसी की बात उठायी है। इसे मैंने अपनी किताब ‘हिंदी आलोचना की सैद्धांतिकी’ में उठाया है। अब आप देख सकते हैं कि कैसे मेरे लिये ‘लिखना’ आगे से आगे नये सवाल खड़े करता जा रहा है। मैं जानता हूं कि लिखने के अलावा मेंरी मुक्ति का कोई और रास्ता नहीं है। हलांकि यह कहना और भी मुश्किल है कि मैं मुक्त होने की ओर आगे बढ रहा हूं या एक ब्रह्म राक्षस की तरह हमेशा उस मुक्ति का इंतज़ार करने के लिये अभिशप्त होने की ओर।
००
संपर्क : ए 563 पालम विहार, गुरू ग्राम - 122017 मो 09814658098
अद्भुत चिंतनपरक आलेख।लिखने वालों के समक्ष कईं तरह के प्रश्न आते हैं, उन्हें ऐसे लेख पढ़ना चाहिए-अरुण सातले,खण्डवा(मप्र)
जवाब देंहटाएं