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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 सितंबर, 2018


मेरी बनारस की यात्रा                                   
अमृता सिन्हा


अमृता सिन्हा 


कुछ स्थानों की यात्राएँ ऐसी होती हैं जोकि जितनी बार जाए उतनी बार नया साअनुभव देती हैं और फिर दशहरे में काशीयात्रा का हमेशा एक अलग और अनोखाअनुभव होता है।
                   दशहरे में बनारस देखनेकी चाह में , इस बार हमने अपनी यात्राकुछ अलग ढंग से करने की सोचीक्योंकि हर बार तो हम परिवार के साथही जाते , किन्तु इस बार हमने यह निर्णयलिया कि काशी दर्शन अपने दोस्तों केसाथ किया जाए 
            लिहाज़ा हम तीन दोस्तों नेप्लान बनाया है कि पटना से बनारस कीयात्रा की जाए। मैं मुंबई से , अपने मायकेपटना पहुँच गई  दूसरे ही दिन स्टेशनपर मुझे अपनी सहेलियों से मिलना था,जहाँ से हमारी यात्रा आरंभ हो गयी।स्टेशन पर पहुँचने पर हमें मालूम हुआकि वाराणसी जाने वाली सभी गाड़ियांदसदस घंटे लेट चल रही हैं , हम लोगबड़े ऊहापोह में थे कि क्या किया जाए इत्तफ़ाक से बनारस जानेवाली श्रमजीवीगाड़ी प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी थी , पूछताछकी खिड़की से पता किया तो मालूमहुआ कि अभी फ़िलहाल श्रमजीवी हीवाराणसी जा रही है वरना सारी गाड़ियाँविलंब से जायेंगी , तो हम लोगों ने आननफ़ानन में निर्णय लिया कि इसी ट्रेन सेनिकल लिया जाए।




हम तीनों अपनेसामानों के साथ गाड़ी की तरफ़ लपकेऔर झट से एस थ्री के एसी कंपार्टमेंट मेंघुस गए और घुसते ही गाड़ी खुल गई हम लोगों ने चैन की साँस लीअब गाड़ीके अंदर हमारी बैठने की कवायद शुरूहो गई क्योंकि सारी सीटें रिज़र्व थे औरहमारा रिज़र्वेशन था नहीं ख़ैर मेरी दोस्तममता ने टी सी से बातचीत कर सीट काइंतज़ाम करवा लिया और हम बड़ेइत्मीनान से बैठ गए।
                ट्रेन पाँच घंटे में वाराणसीपहुँचाएगी , यही सोच कर हम आराम सेपैरों को ऊपर कर बैठ गए ,हमारे आस-पास की सीटों पर भी कुछ लड़कियाँ हीथीं , सो हम लोग बड़ी बेतकल्लुफी औरआराम से बातचीत में मशग़ूल हो गए।बीच-बीच में हम लोग अपने घर से लाएहुए नाश्तेपूरी ,भुजियाअचार और सूखेनाश्ते का भी लुत्फ़ उठाते गए।बाजूवाली सीट में किसी ने म्यूज़िक तनिकज़ोर से बजा रखा था और गाने भी हमारेमन पसंद थे सो हमें तो इयर-फ़ोन औरम्यूज़िक की ज़रूरत नहीं पड़ी  बातों हीबातों में पाँच घंटे बीत गये और हमबनारस स्टेशन पर कब पहुँच गये पता हीनहीं चला  स्टेशन पर उतरकर देखा तोमाया दीदी का ड्राइवर बसंतु अपनी गाड़ीलेकर हाज़िर था मैं , ममता और ख़ुशबूखुश थे कि बिना किसी हील हुज्जत केट्रेन ने , सही समय पर हमें पहुँचा दिया  
                    माया दीममता की बड़ीबहन हैं जो वाराणसी में रहती हैं और हमेंउन्हीं के घर पर ठहरना था  दरअसलमाया दी , अपनी बेटी के पास लंदन गईहुई थीं और उनका पूरा घर ख़ाली पड़ाथा और हम लोगों के रहने की जगह वहींथी। बसंतु जी गाड़ी चलाते रहे और रास्तेभर पूरे बनारस का ब्यौरा भी देते रहे जल्दी ही हम गुरुद्वारा पहुँच गये,घर गया था सो सब सामान उतार कर रखवादिया गया और हमने बसंतु को कुछ देरबाद आने को कहा और फिर हम लोगफ्रेश होने चले गए।



 तब तक सहायिकादुर्गा दीदी भी  गई थी और चाय वायका इंतज़ाम उन्होंने किया चाय पी करहमारी सारी थकान उतर गई 
             शाम हो चली थी हम लोगों नेनिर्णय लिया कि सबसे पहले दशाश्वमेधघाट चला जाए।बसंतु जी तो  गए थेपर हमने उनको मना कर दिया।दरअसलहम चाह रहे थे कि रिक्शे से ही घाट कीओर चला जाए  वैसे भी कहते हैं किबनारस में जीना है तो बनारसी हो जाइएयही छोटा सा सिद्धांत है काशी कोसमझने का 

बेतहाशा भीड़ होने के कारण रिक्शे वाले को घाट के बहुत पहले ही छोड़ दिया और हम पैदल ही निकल पड़े भीड़ को चीरते हुए , रास्ते में बैठी जुगाली करती गायों से बचते हुए और यत्र- तत्र मिलते भिक्षुकों को नमस्कार करते हुए ।पूरी सड़क लोगों से भरी हुई, सब अपने अपने में मस्त ।
            चलते चलते घाट आ पहुँचा , फिर वहाँ से नाविकों ने घेरना शुरू किया,सबके अपने-अपने रेट थे ,नाव से घाटों का दर्शन कराने के लिये । कुछ गाइड भी आ गये जो बहुत करीब से आरती दिखाने का वादा कर रहे थे और आस - पास घुमाने का भी । वे बोलते हुए हमारे साथ-साथ चले जा रहे थे और हम कुछ सुनते हुए , कुछ अनसुना कर घाट की तरफ़ बढ़ रहे थे,अंततः हम सीढ़ियों तक पहुँचे तो देखा आरती की तैयारी हो रही है , हमने कुछ तस्वीरें खिंचवाई और निर्णय लिया कि पहले आरती देखा जाए। हमलोग वहीं खड़े होकर पूरा नज़ारा देख रहे थे तभी एक युवक आया उसने बताया कि वह नाविक है और कहा कि यदि हम चाहें तो नौका पर बैठ कर ही आरती देख सकते हैं ताकि सामने से आरती दिखे । उसके बाद वह हमें प्रत्येक घाट घुमाएगा साथ ही उनसे जुड़ी कथाओं से भी अवगत कराएगा।हमने आपस में मशविरा किया कि क्यों न चाँदनी रात में नौका विहार का मज़ा लिया जाए।हम तीनों तैयार हो गए और नाविक , जिसका नाम रोहित था, की नाव में जाकर बैठ गये । गंगा आरती अभी तक हो ही रही थी । हमारी नाव के साथ साथ ढेरों और कई नावें भी वहाँ थीं , प्रत्येक नावों पर लोगों का हुजूम था ।देशी- विदेशी लोग , सभी गंगा आरती का आनंद ले रहे थे, आरती समाप्त होने के बाद सारी नावें चल पड़ी धीरे धीरे।
                        रात गहराने लगी थी , ऊपर देखा तो आसमान में सफ़ेद चाँद और ढेर सारे जगमगाते तारे जैसे काली चादर में जड़े सलमे -सितारे। रात्रि बेला में नौका विहार का हमारा पहला अनुभव था और हम तीनों सहेलियाँ चुपचाप प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य को देख रहीं थीं । घाटों पर झिलमिलाती रौशनी में डूबी ,आस-पास की नीरवता को महसूस कर चकित थे हमलोग ।इधर कलकल बहती गंगा के साथ चप्पू की रोमांचकारी जुगलबंदी जारी थी , जी चाह रहा था कि नाव चलती रहे और हम रात की रूमानियत में भीगते रहें ।

             तभी ख़ुशबू को गाना गाने की तलब हो आई और उसने गुनगुनाना शुरू कर दिया , हम भी हल्के से गुनगुना लिये साथ-साथ और घूमते रहे घाट घाट।जब भी कोई घाट आता रोहित उससे जुड़ी कथाएं कहता और हम गाना बंद कर चुपचाप उसकी बातें ध्यान से सुनते ।तभी हम मणिकर्णिका घाट तक पहुँच गये, रोहित ने नाव धीमी कर दी और बताने लगा कि यहाँ एक मंदिर भी है जिसे काशी- करवट कहते हैं। देश में काशी में ही एक मात्र घाट , मणिकर्णिका घाट है जहाँ 24 घंटे दाहकर्म होता है , बिना रूके । दूर जलती चिता की अग्नि से उठती उर्ध्वगामी लपटें ,जीवन के अंतिम सत्य का मौन संकेत दे गईं ।
                  हम लौटने लगे थे , हमारी नाव गंगा की लहरों की उलटी दिशा में चल रही थी और नाविक रोहित को चप्पू चलाने में बहुत मेहनत करनी पड़ रही थी।
                      गंगा स्वयं  में आनंद है और काशी की गंगा तो सोने पे सुहागा है।बनारस के घाट गंगा के स्पर्श से और भी दिव्य लगते हैं । शीघ्र ही हमारी नाव किनारे पर आ लगी,नाव से उतरकर हमने तय किया कि कल सुबह भी सुबहे-बनारस का आनंद उठाया जाए।हमने रोहित के पैसे चुकाए और अगली सुबह के लिए , उसी की नाव को बुक कर लिया।
                  घर पहुँचे तो देखा बेड सुसज्जित है एवं टेबल पर खाना लगा हुआ है ।हम लोग फ़्रेश हुए और सबने खाना खाया ।सुबह की थकान थी अब बस सोने का मन था और कल , सुबह -ए -बनारस के लिए भी जाना था सो हम लोग जल्दी सो गए।
          सुबह तड़के उठकर नहाने धोने के बाद हम लोग चल दिए अस्सी घाट की ओर , इन घाटों पर बैठकर उगते सूर्य को देखना सचमुच अपने आप में एक अपूर्व अनुभव है , उस पर संगीत का रस मिले तो क्या कहना ! मन किया तो घाट की सीढ़ियों पर बैठें और मन किया तो नाव करके सीधे मंच के सामने जा पहुँचें।
              रोहित अपनी नाव लेकर हमारा इंतज़ार कर रहा था , हम तट पर पहुँच कर , शांत भाव से नाव में बैठे और एकटक उस अछोर आसमान की ओर देखते रहे, जिसकी फलक पर सिंदूरी आभा लिये , लाल बिंदी की लालिमा धीरे-धीरे आसमां पर बिखेर रही थी । नाव की रफ़्तार तेज़ होने लगी और जल्द ही हम गंगा के बीच में पहुँच गए । रोहित ने नाव को लहरों पर तिरता छोड़ दिया , नाव लहरों पर डोल रही थी । बनारस की सुबह का शांत , ताज़गी भरा वातावरण .... गंगा की लहरों पर अठखेली करती सूरज की कोमल रश्मियाँ एक अलग ही छटा बिखेरती हुई समां बाँध रही थीं ।हम मुग्ध दृष्टि से प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य का रसपान कर रहे थे , अद्भुत क्षणों को अपने मानसपटल पर सहेजते हुए ।
                   दिन चढ़ने लगा था और वापस लौटने का समय हो गया था , हमारी नाव अस्सी घाट की ओर बढ़ने लगी । रात के समय गंगा के आस पास गंदगी नहीं दिख रही थी किंतु सुबह गंगा के तट पर जमा टूटी फूटी नावें , गंदगी के ढेर और वहाँ पर नहाते धोते लोगों को देखकर मन क्षुब्ध हो उठा ।बनारस की सबसे बड़ी संपदा यहाँ के वैभवशाली घाट हैं , उनका ध्यान रखना होगा और ऐसे प्रबंध करने होंगे जिससे उनका मौलिक स्वरूप बचा रहे।



              काशी में अस्सी और अस्सी में पप्पू और पप्पू की अड़ी में सियासत की बहस , इन बातों भला कौन अछूता रह सकता है । अड़ी यानी चाय की दुकान जहाँ बतकही लगातार हो ।उपन्यासकार काशीनाथ सिंह द्वारा प्रसिद्ध किए जाने से बहुत पहले ही अड़ी मशहूर थी ।1918 में भी,जब काशी के ब्राह्मण चाय को ‘चाह’ कहते और अंग्रेजों को पेय होने के कारण पीने से परहेज़ करते । बाद में यह उनके घर चुपके से जाने लगी ।पप्पू कि यह अड़ी देश - दुनिया में विख्यात है , फिर हम कैसे चूकते यहाँ चाय पीने से।हम लोगों ने स्टील के गिलास में सुबह की चाय पी और आगे बढ़ गए ।
                शाम को यूँही फ़ाकामस्ती रही सड़कों पर ,गलियों में घूमते हुए और दशहरे की छोटी-मोटी ख़रीददारी करते हुए हम लोग घर लौट आए , रात के खाने में बनारस की स्वादिष्ट राबड़ी विशेष थी ।खाने के बाद हमारी गप्पें शुरू हुई और हम बेबात ख़ूब हँसे और हमारी बेसाख़्ता हँसी हवा में घुलती गई।
                  दशमी का दिन ।दशहरे की बेमौसम बारिश और उसके कारण रपटीली हुई ठठेरी बाज़ार की संकरी गलियां। इन्हीं गीली गलियों में हम तीनों चल दिए आलू , पूड़ी और जलेबी ख़ाने ।इन गलियों में हमने पूरा बनारस देखा ,सब अपनी धुन में मगन ,न किसी से लेना न देना ।दिन के 11 बज रहे थे ओर बसंतु ड्राइवर गाड़ी लेकर हाज़िर थे । हमने जगह- जगह की तस्वीरें ली और चल दिये बी॰एच॰यू विश्वनाथ मंदिर का दर्शन करने ।पहुँचते-पहुँचते हमें 12 बज गए । मंदिर दोपहर के 12-1 बजे तक बंद रहता है तो हम लोगों को बाहर से ही दर्शन कर वापस लौटना पड़ा,वहीं आस-पास हमने कुछ छोटी मोटी ख़रीदारी की और BHU की सड़कों पर थोड़ी देर भटकते रहे ।वैसे तो बनारस के फक्कड़पन पर कई बार लिखा गया है ,पर मैं जब यहाँ आती हूँ हमेशा सोचती हूँ कि बनारस में मुझे क्या अच्छा लगा ।सड़कों की ख़स्ता हालत और अव्यवस्था इतनी कि क्या कहा जाये किंतु शहर तो शहर वालों से होता है, इसके अपनेपन में इतनी मिठास है कि जो भी आता है यहीं का होकर रह जाता है ।
           शाम के चार बजे तक हम लोग संकट मोचन का दर्शन करने गए बहुत ही सहज और सुंदर दर्शन करने के बाद , वहाँ का स्वादिष्ट प्रसाद लेकर हम लोग बाहर आ गए।इसके बाद हम चल दिए दुर्गाकुंड । हालाँकि , दशमी होने के कारण , वहाँ बहुत भीड़ थी फिर भी हमने दर्शन कर लिया।देर शाम तक भीड़ बढ़ने लगी और मूर्तियों को विसर्जित करने के लिए ले जाया जाने लगा ।चारों ओर जयकारे की गूँज से वातावरण भक्तिमय हो उठा।इससे पहले कि भीड़ और बढ़ती हम लोग घर की ओर निकल चले ।
            घर जाते समय रास्ते भर ,बसंतु वाराणसी में खेली जाने वाली रामलीला का गुणगान करता रहा ।उसीने हमें बताया कि कैसे बनारसवासियों के लिए राम लीला,एक सजीव रामलीला होती है।इस दौरान अखाड़े में काशी नरेश भी आते हैं और परंपरा स्वरूप राम लक्ष्मण को सोने की गिन्नी देते हैं।भरत ,शत्रुघ्न का अपने भाइयों को देखते ही साष्टांग प्रणाम करना और लोगों का अपने हाथों से राम के रास्तों को झाड़ना , पोंछना , आस्था के अद्भुत मिसाल हैं। अयोध्या कुमारों का रथ खींचने वाले आम जनों का ऐसा सजीव वर्णन उसने किया कि हमें लगा जैसे हम सचमुच रामलीला देख रहे हैं ।बसंतु की बातों में सच्चाई का पुट था और नगर वासियों की , इसमें अटूट आस्था । राम लीला के दौरान घूमते रथ से फेंका गया तुलसी दल का प्रसाद पाने की लोगों की निर्दोष आतुरता साक्षी होते हैं उन हज़ार भावुक आँखों के जो राममय हो जाते हैं और वातावरण उनके हर हर महादेव के गगनचुम्बी उद्धघोष से भक्ति की तरंगों से नहा उठता है ।बसंतु की बातों में ग़ज़ब का आकर्षण था , हम सब बड़े ध्यानपूर्वक उसके कथाओं को सुन रहे थे तभी उसने गाड़ी रोकी और कहा कि यहाँ , लस्सी पीजिये ये बनारस की सौग़ात है।


               रास्ते में हमने लस्सी पी और बनारसी पान की एक -एक गिलौरी खाई और एक पैक करवाकर घर ले गए कि खाना खाने के बाद खाया जाएगा ।अब तो बस कल वापस जाने की तैयारी है । तड़के सुबह उठकर विश्वनाथ गली भी जाना है तो हम लोग जल्दी सो गए ।
        आज पहली अक्टूबर की सुहानी सुबह ,सवेरे चार बजे उठकर हम लोगों ने नहा- धो लिया और चल पड़े बाबा विश्वनाथ का दर्शन करने ।सुबह - सुबह विशेष भीड़ नहीं थी इसलिए सहज ही सुंदर दर्शन हो गया, बाबा को दूध- जल अर्पित कर आये । हम सब आनंदित थे यहाँ दर्शन करने के बाद माता अन्नपूर्णा का दर्शन करने गए। पूजा - पाठ कर हमलोग विश्वनाथ - गली से बाहर निकले और वहीं अड़ी पर दूध वाली चाय पी।
                             दोपहर की ट्रेन से हमलोगों को पटना वापस जाना था तो हम लोग जल्द ही घर वापस चले गए। दोपहर का खाना खाकर अपने सारे सामान को तैयार कर लिया और उसके बाद ट्रेन की टाइमिंग के लिए ऑनलाइन चेक किया तो मालूम हुआ कि ट्रेन लेट है। हमने सहायिका दीदी को अपनी तरफ़ से दशहरे का बायना दिया और उन्हें धन्यवाद कर उनसे विदा लिया  । सात घंटे ट्रेन लेट होने की वजह से हम लोग घर से देर से निकले किंतु स्टेशन पर पहुँचने के बाद मालूम हुआ कि ट्रेन 10 बजे आयेगी । हम लोगों ने वहीं स्टेशन पर रुकना उचित समझा और ट्रेन का इंतज़ार करने लगे।बसंतु के हम सब बहुत शुक्रगुज़ार थे सो हमने उनका बहुत शुक्रिया अदा किया और उनसे भी विदा लिया इस वादे के साथ कि जब हम अगली बार आएंगे तो सारनाथ ज़रूर जाएंगे।

               स्टेशन पर बैठे-बैठे और इंतज़ार करते-करते आख़िर ट्रेन आ ही गई और हम लोग थके मांदे अपनी अपनी सीट पर जा बैठे।नींद आ गई थी और हम सो भी गए किन्तु बार-बार चौंक कर जाग भी जाते, आख़िर रात के ढाई बजे हम लोग पटना स्टेशन पर पहुँचे ।इतनी रात गये , हमारे परिवार वाले बड़ी बेसब्री से स्टेशन पर हमारा इंतज़ार कर रहे थे और हमें देखते ही उनकी जान में जान आयी ।हम सबने एक दूसरे से विदा ली और मुड़ गये एक नई यात्रा की ओर।



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