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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 सितंबर, 2018

ज्योति चावला की कविताएं



ज्योति चावला



पन्ना धाय तुम कैसी मां थी
(चित्तौड़ के राजपूताना गौरव और वंश को बचाए रखने के लिए पन्ना धाय ने कुंवर उदय सिंह की जगह अपने पुत्र चंदन की कुर्बानी दी थी)

पन्ना धाय तुम कैसी मां थी
जो स्वामीभक्ति के क्षुद्र लोभ में
गंवा दिया तुमने अपना चंदन सा पुत्र

मैं जानती हूं राजपूताना इतिहास के पन्नों पर
लिखा गया है तुम्हारा नाम स्वर्णाक्षरों में
मैं जानती हूं कि जब-जब याद किया जाएगा
राजपूती परंपरा को, उसके गौरव को
याद आएगा तुम्हारा त्याग, तुम्हारी स्वामीभक्ति और
तुम्हारा अदम्य साहस भी, पर
उन्हीं इतिहास की मोटी किताबों मे
कहीं जिक्र नहीं है तुम्हारे आंसुओं का
चित्तौड़ के फौलादी किलों की फौलादी दीवारों के पार
नहीं आ पाती तुम्हारी सिसकी, तुम्हारी आहें
तुम्हारा रुदन, तुम्हारा क्रंदन

मैं जानती हूं पन्ना धाय
जब इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में
लिखा जा रहा था तुम्हारा नाम
ठीक उसी वक्त तुम रो रही थी सिर पटक
चंदन की रक्त से लथपथ देह पर
उदय सिंह को उसके हिस्से का राजपाट दिलवा
तुम कहां गई पन्ना धाय
इतिहास को उसकी कोई सुध नहीं
नहीं ढूंढा गया पूरे इतिहास में फिर कभी तुम्हें
तुमसे लेकर तुम्हारे हिस्से का बलिदान
इतिहास मौन हो गया

पन्ना धाय सच बतलाना
कुंवर उदय सिंह की जगह चंदन को कुर्बान
कर देने की कल्पना भर से क्या
तुम कांप सी नहीं गई थी
क्या याद नहीं आए थे वे नौ माह तुम्हें
जब तुम्हारे चांद से पुत्र ने आकार लिया था
ठीक तुम्हारी अपनी देह के भीतर
क्या नाभि से बंधा उसकी देह का तार
तुम्हारे दिल से कभी नहीं जुड़ पाया था पन्ना धाय

मैं कल्पना करने की कोषिष करती हूं और हार जाती हूं
कि आखिर वह कौन-सा क्षण था
जब तुम पर मातृत्व से बढ़कर
सत्ता का अस्तित्व हावी हो गया

तुम रोई थी पन्ना धाय
कई दिन, कई रातें
तुम्हारे उनींदे सपनों में आता रहा था चंदन
और तुम डर कर उठ बैठती थी
तुम काटती थी गहरी रातें अपने दासत्व की
और फल-फूल रहा था गौरव चित्तौड़ का

आज इक्कीसवीं सदी के इस बरस
जब तुम्हारे त्याग को इतनी सदियां बीत गईं
मैं आई हूं उदयपुर घूम कर
जानती हो यह उदयपुर उसी उदयसिंह के नाम पर है
जिसकी रक्षा के लिए तुमने गंवा दिया
अपना चंदन सा दुधमुंहा पुत्र
उदयपुर के उस गौरवमयी किले के ठीक पीछे
विषालकाय गहरी झील है
लोग कहते हैं कि इस झील ने दुगुना कर दिया है
किले के सौंदर्य को
चांदनी रात में झील के पानी पर
देखा जा सकता है किले का प्रतिबिम्ब
पन्ना धाय क्या तुम जानती हो
इस किले को देखने दूर-दूर से आते हैं सैलानी
और उसकी खूबसूरती पर रीझ से जाते हैं

मुझे मालूम है पन्ना धाय
वह झील जिसमें चमकता है किले का प्रतिबिम्ब
वह झील नहीं बल्कि तुम्हारे आंसू हैं
जिनका इतिहास में कहीं कोई ज़िक्र नहीं।





समझदारों की दुनिया में मांएं मूर्ख होती हैं

मेरा भाई और कभी-कभी मेरी बहनें भी
बड़ी सरलता से कह देते हैं
मेरी मां को मूर्ख और
अपनी समझदारी पर इतराने लगते हैं
वे कहते हैं नहीं है ज़रा सी भी
समझदारी हमारी मां को
किसी को भी बिना जाने दे देती है
अपनी बेहद प्रिय चीज़
कभी शॉल, कभी साड़ी और कभी-कभी
रुपये-पैसे भी
देते हुए भूल जाती है वह कि
कितने जतन से जुटाया था उसने यह सब
और पल भर में देकर हो गई
फिर से खाली हाथ

अभी पिछले ही दिनों मां ने दे दी
भाई की एक बढ़िया कमीज़
किसी राह चलते भिखारी को
जो घूम रहा है उसी तरह निर्वस्त्र
भरे बाज़ार में
बहनें बिसूरती हैं कि
पिता के जाने के बाद जिस साड़ी को
मां उनकी दी हुई अंतिम भेंट मान
सहेजे रही इतने बरसों तक
वह साड़ी भी दे दी मां ने
सुबह-शाम आकर घर बुहारने वाली को

मां सच में मूर्ख है, सीधी है
तभी तो लुटा देती है वह भी
जो चीज़ उसे बेहद प्रिय है
मां मूर्ख है तभी तो पिता के जाने पर
लुटा दिए जीवन के वे स्वर्णिम वर्ष
हम चार भाई-बहनों के लिए
कहते हैं जो प्रिय होते हैं स्त्री को सबसे अधिक

पिता जब गए
मां अपने यौवन के चरम पर थीं
कहा पड़ोसियों ने कि
नहीं ठहरेगी यह अब
उड़ जाएगी किसी सफेद पंख वाले कबूतर के साथ
निकलते लोग दरवाज़े से तो
झांकते थे घर के भीतर तक, लेकिन
दरवाज़े पर ही टंगा दिख जाता
मां की लाज शरम का परदा

दिन बीतते गए और मां लुटाती गई
जीवन के सब सुख, अपना यौवन
अपने रंग, अपनी खुशबू
हम बच्चों के लिए

मांएं होती ही हैं मूर्ख जो
लुटा देती हैं अपने सब सुख
औरों की खुशी के लिए
मांएं लुटाती हैं तो चलती है सृष्टि
इन समझदारों की दुनिया में
जहां कुछ भी करने से पहले
विचारा जाता है बार-बार
पृथ्वी को अपनी धुरी पर बनाए रखने के लिए
मां का मूर्ख होना ज़रूरी है।





झूठ बोलती लड़कियां

न जाने क्यों झूठ बोलती लड़कियां
मुझे अच्छी लगती हैं
झूठ बोलती लड़कियों का झूठ बोलना
न जाने क्यों मुझे अच्छा लगता है

अच्छा लगता है उनका झूठ बोलकर
कुछ पल चुरा लेना सारे दायरों से
इन चुने हुए कुछ पलों में वे
फड़फड़ा आती हैं अपने पंखों को
कुछ देर के लिए खुली हवा में और
सुते हुए नथुनों में भर कर हवा के ताज़े झोंके
वे फिर लौट आती हैं अपने पहले से तय दायरों में

झूठ बोलती लड़कियां बोलती हैं छोटे-छोटे झूठ
और अपने जीवन के चुभते-नुकीले सचों को                                                                                                 
ताक पर रख देती हैं कुछ देर के लिए
वे छूती हैं झूठ से बनी इस छोटी सी दुनिया को
अपनी कोमल उंगलियों के कोमल पोरों से और
उसकी सिहरन से भीतर तक झूम जाती हैं
झूठ बोलती लड़कियां बोलती हैं झूठ और
उन पलों में अक्सर कहती हैं
दुनिया खूबसूरत है, इसे ऐसा ही होना चाहिए।






नकारने की भाषा

उसने धीरे से मेरे कान में कहा
चलो मेरे संग
तुम्हें चांद की सैर करवाता हूं
मैं बिना कुछ सोचे उछल कर उसकी
साइकिल के डंडे पर चढ़ बैठी

उसने कहा मुझसे मुझे दर्द है
तुम इसे महसूस करो और
मैंने दर्द की पराकाष्ठा में आंखें मूंद लीं

उसने कहा यह भी कि मैं प्यार करता हूं तुमसे
मेरे प्यार की गहराई को समझो और
मेरे होंठों पर रख दिए अपने गर्म दहकते होंठ
मैं षिद्दत से उसके प्यार को महसूसने लगी

कहा उसने हम दो नहीं एक जान हैं
सब कुछ भुला कर मुझमें समा जाओ और
मेरी पहचान के सारे निषान धुंधले पड़ने लगे

वह कहता रहा और मैं सुनती रही
वह कहता रहा और मैं करती रही
इस तरह एक दिन मैं बेगानी हो गई अपनी ज़बान से
मैं नकारने की भाषा भूल गई।






बेटी की गुल्लक


मेरी बेटी रोज़ सुबह उठती है
और नियम से अपनी गुल्लक में डालती है सिक्के
इन सिक्कों की खनक से खिल जाती है उसके चेहरे पर
एक बेहद मासूम सी मुस्कान
वह नियम से डालती है अपनी गुल्लक में सिक्के
ठीक ऐसे ही जैसे
नियम से निकलते हैं आसमान में
चांद, सूरज और तारे

वह सोचती है कि एक दिन लेकर अपनी गुल्लक
निकलेगी वह बाज़ार और
खरीद लाएगी अपनी पसंद के मुट्ठी भर तारे
ढेर सारी खुशियां और न जाने क्या कुछ
मैं उसके चेहरे पर खिली इस मुस्कान को देखती हूं हर सुबह
और उसकी मासूमियत पर मुस्कुरा देती हूं

मेरी चार साल की मासूम बेटी नहीं जानती
मुद्रा, मुद्रास्फीति और विश्व बाज़ार के बारे में कुछ भी
वह नहीं जानती कि क्यों दुनिया के तराजू पर
गिर गया है रुपये का वज़न
वह इंतज़ार कर रही है उस दिन का
जिस दिन भर जाएगी उसकी गुल्लक इन सिक्कों से और
वह निकलेगी घर से इन चमकते सिक्कों को लिए
खरीदने चमकीले सपने
जानती हूं मैं कि जिस दिन इन सिक्कों को लिए
खड़ी होगी वह बाज़ार में
उसकी आंखों के कोरों में आंसुओं के सिवाय कुछ नहीं होगा

मैं उसकी पलकों पर आंसू की बूंदों की कल्पना करती हूं और
बेहद उदास हो जाती हूं।







बहरूपिया आ रहा है   

इन दिनों घूम रहा है बहरूपिया अलग-अलग रंगों में
उसके झोले में हैं न जाने कितने भेस
न जाने कितने चेहरे, न जाने कितने रूप
वह क्षण क्षण बदलता है रूप और
दुनिया में बैठे लोग अपने रंगीन टी.वी. पर देखकर
उसकी तस्वीर रीझते रहतें हैं उस पर
वह बदलता है मुखौटा और घुस जाता है भीड़ में
और झट से डालकर जेब में हाथ
खींच लेता है तस्वीर अपने ही इस नए रूप की

बहरूपिया खींच रहा है तस्वीर और
खिंचवा रहा है तस्वीरें
यही तस्वीरें बना रही हैं मेरे समय को
और खिलंदड़ा कि खेल रहा है कैमरा
हर रोज़ हमारी स्मृतियों से
बहरूपिये की तस्वीरें छाई हुई हैं
टी.वी., अखबार, इंटरनेट से लेकर
पानी में दिख रही परछाई पर भी

बहरूपिया कहता है हंसो ज़ोर से हंसो
कि अब समय आ गया है हंसने का, खिलखिलाने का
और टी.वी. पर स्पीकर तोड़कर हंसी के ठहाके
गूंजने लगते है
इतनी तेज़ी से हंसता है बहरूपिया कि
घर में सुस्ता रहे खाली मटके तड़क जाते हैं अचानक

बहरूपिया कहता है यह समय ऐतिहासिक समय है
कि इस समय में सबके हंसने के लिए है पर्याप्त कारण
और दूर जंगलों में चार साल का एक आदिवासी बच्चा
भूख से तड़पकर गंवा देता है जान

बहरूपिया बजाता है बीन शांति की
और एक पूरा गांव छोड़कर अपने आंगन के देवता को अनाथ
चल देता है निराश किसी अनजान दिशा की ओर

बहरूपिया फिर बदलता है कपड़े और
कैमरा घूम जाता है उसके कुरते की बुनावट की बारीकियों पर
और उधर नदी में एक मायूस पुरुष जिसकी उम्र
उसके अनुभव से दोगुनी दिखने लगी है
देता है अपनी पत्नी को अंतिम विदाई जो पिछले कई सालों से
नदी में आकंठ डूब पति का हाथ थामे कर रही थी मूक विरोध
सरकारी नीतियों का

बहरूपिया कहता है देखो देखो इधर देखो
कि इधर से ही चमकेगा नया सूरज
इधर ही बनाएंगे हम नई मीनारें जो छू लेंगीं आसमान को
वह कहता है कि विश्वास करो मुझ पर आंखें मीच कर
मैं लाउंगा तुम्हारे लिए धरती की छाती से
तुम्हारे हिस्से का अन्न
तुम्हारे हिस्से की धूप, तुम्हारे हिस्से का पानी
लाने की ज़िम्मेदारी मेरी ही है
वह कहता है मैं जगता हूं रात भर तुम्हारे लिए
ताकि सो सको तुम चैन की नींद
लोग उसके मोहपाश में बंधने लगते हैं
वे मींचने लगते हैं अपनी आंखें उसके समर्थन में
और बहरूपिया फिर रूप बदल लेता है
वह कहता है इंतज़ार करों मैं लाउंगा
तुम्हारे हिस्से का सब कुछ, सब कुछ और
झट से हवाई घोड़े पर सवार हो जाता है

बहरूपिया अभी सात समंदर पार बजा रहा है नगाड़ा
और खींच रहा है नई तकनीक से नई तस्वीरें
और यहां धरती के उस अंधेरे कोने में
रखकर अपनी जीभ पर सल्फास की गोली
सो गया है एक और किसान चुपचाप।






मैं प्रेम करती हूं और ठिठक जाती हूं

तुम्हें प्रेम करने से मुझे रोकता है मेरा समय
कि जब-जब चाहती हूं तुम पर प्यार लुटाना
न जाने कहां से कितने दृष्य हम दोनों के बीच आ खडे होते हैं
जिनमें छिपा रहता है कुछ इतना भयावह, इतना विद्रूप
कि प्रेम एकबारगी गैरजरूरी सा लगने लगता है

इन दिनों जितना तेज़ होती जा रही है तलवारों की धार
कविता की धार भी उतनी पैनी हो गई है
बंदूक की नोंक पर खडे कर जहां किया जा रहा हो प्रेम
वहां तुम्हारे लिए लिखी प्रेम कविता में
मैं शर्म से धंसा लेती हूं सिर
कि इस समय ने खारिज कर दिया है प्रेम कविता को

ऐसे समय में जहां जिंदा रहने के लिए
जरूरी हो जाएं प्रमाण पत्र वहां
बिना किसी प्रमाण पत्र के तुम्हारा प्रेम निवेदन
अप्रामाणिक ही तो है

अप्रामाणिक और अविश्वसनीय ही तो है
तुम्हारा मुझ पर सर्वस्व लुटा देना और
एक भी विज्ञापन न दिखना उसका शहर की दीवारों पर

इन दिनों विज्ञापनों से पटी है हवाएं इस क़दर
कि चाहकर भी नहीं रख सकती इन पर
मैं एक चुम्बन तुम्हारे लिए

इन दिनों खेतों में पनपने लगा है बारूद
कि मैं उनकी ओर बढ़ती हूं और ठिठक जाती हूं
फूलों से अधिक कांटे हैं डालियों पर इन दिनों
कि मैं बढ़ाती हूं हाथ और लहूलुहान हो जाती हूं

यह ज़मीन किसकी है, यह आसमान किसका है
किसका है यह पानी, यह आग किसकी है
चारों ओर फैले इस भयावह शोर में
घबरा जाती हूं मैं और
बटोरने लगती हूं इधर-उधर फैले स्पंदन
फूल, खुषबुएं
स्पर्ष के एहसास बटोरने लगती हूं मैं
बटोरने लगती हूं अपने प्रेमपत्र जो
लिखे थे मैंने तुम्हारे लिए।






पहचान

मेरी बेटी की शब्दों से पहचान इन दिनों
होती जा रही है घनी कि वह
‘र’ में लगाकर ा की मात्रा और जोडकर ‘त’
पढ लेती है ‘रात’
इसी तरह ‘ग’ में लगाकर ई की मात्रा और जोडकर ‘ता’
पढ लिया है उसने गीता भी
वह पढती जा रही है ‘म’ में लगाकर ए की मात्रा और जोडकर ला
मेला, भ में लगाकर ू की मात्रा और जोडकर खा
उसने सीख ली हैं पढनी आ, इ, ई, उ, ऊ,ए,ऐ, ओ, औ की मात्राएं
और वह पढती ही चली जा रही है शब्द दर शब्द दर शब्द
उसने पढ डाले हैं पनघट, मेहनत, किसान, दुख, किस्मत, लालटेन
गुडिया, खिलौना, लडकी, औरत, लाचार, कमज़ोर, लडका, जवान, पुरुष, ताकत
आदि न जाने कितने शब्द
हर शब्द पढने पर होती है वह एक नए शब्द से परिचित
और उत्साह से जोडती जाती है अपने ख़ज़ाने में एक नया टटका शब्द
वर्णों को जोडकर बनाती है शब्द और मुस्कुरा देती है
अपनी भरसक मुस्कान
वह खुष है कि दीवारों पर, मीनारों पर यहां तक कि हवाओं पर
लिख दिए गए शब्द अब नहीं हैं उसके लिए अनजान
कि वह पल भर ठहरकर पढ सकती है उन्हें

अपने पिता के साथ चलती गाडी में वह
सडकों-चौराहों पर लिखे शब्दों के वर्णों को जोडती चलती है
और गढती चलती है उनसे एक नया शब्द
जो कल तक उसके लिए सिर्फ एक उच्चरित शब्द भर था
वह इस एहसास से मचलने लगती है कि
अब वह खुद अपनी कलम से उकेर सकती है उन्हें अपनी किताबों पर
और हर उस जगह पर जो पसंद हो उसे बहुत

अभी वह उत्साहित है बेहद शब्दों को गढ़ने के इस जादू में
वह जानना चाहती है हर शब्द का ठीक-ठीक अर्थ लेकिन
अभी नहीं पूछा है उसने मुझसे इन शब्दों का आपस में सम्बन्ध
मैं डरती हूं कि जिस दिन जानने लगेगी शब्दों का शब्दों से सम्बन्ध
और उनकी तह में छिपे उनके निहितार्थ
जब जानने लगेगी पुरुष-अधिकार, सरकार-ताकत, औरत-आंसू, और
इंसान और भूख के बीच का सम्बन्ध
तब कहीं उसकी जानने और समझने की ललक
फीकी न पड़ जाए।





वह दस साल की नन्ही बच्ची थी

अपनी देह के गणित से अनजान वह
ज़ोर ज़ोर से दोहरा रही थी तेरह का पहाड़ा
और पहाड की ऊंची नीची गड्मड्उ राहों को फलांगती जा रही थी
भूलकर बीच बीच में सारा गणित वह
गुनगुनाने लगती थी कोई गीत ऐसा
जो ठीक पहाड़ों के बीच से उठता था और
पत्थर से जड़ दिखते पहाड़ उसके उत्साह का देते थे जवाब
दोगुने उत्साह से

वह दस साल की नन्हीं बच्ची थी जो
नहीं जानती थी कि उसकी देह पर उगेगा ऐसा कुछ
जिससे आकर्षित होता आया है आदिम पुरुष
तेरह का पहाड़ा दोहराती और बीच बीच में पहाड़ी गीत गुनगुनाती
जाकर बताएगी बाबा को
उसने आज फिर बादल को रंग बदलते देखा हे
बाबा उत्सुकता से पूछेंगे, कहां और वह खोलकर रख देगी
अपनी कॉपी जिसमें उसने रंगा है बादलों को आज
गहरे गुलाबी रंग से
बाबा हंसेंगे और बाबा की लाडली खिलखिलाएगी
और बाहर मौसम और इंद्रधनुषी हो जाएगा

उसने बांध रखी है बाबा की बात गांठ से
कि उसके हंसने से ही पहाड़ होते हैं इतने खूबसूरत
कि वह जितना हंसेगी ये पहाड़, ये बादल
उतने ही रंगों से होंगे सराबोर
वह जानती है कि वह हंसती है तो खिलता है इंद्रधनुष
नही ंतो सोचो कि
जहां वह नहीं होती वहां इंद्रधनुष भी क्यों नहीं होता

वह हंसती है खूब खिलकर कि
उसके हंसने से ही उर्वर है यह पृथ्वी

तेरह का जटिल पहाड़ा भी उसके उत्साह को नहीं कर पाता कम
और वह स्कूल से घर तक की दूरी को नापती है
पहाड़े को रटने की क्रिया में

उसे नहीं पता कि उसकी हंसी से उत्तेजित हो रहा है कोई कहीं
कि उसकी देह जिस पर अभी उभरा ही नहीं वह
आदिम सौंदर्य
विचलित कर रहा है किसी को
वह खींच ली गई है पहाड़ों के गड्डमड्ड खोहों में
उसकी चीख का जवाब नहीं दिया पहाड़ों ने भी
कि जैसे सहम गए हैं वे कहीं भीतर तक
उसकी देह जिस पर अभी बाकी था उभरना आदिम सौंदर्य
नोंचकर फेंक दी गई है
और पहाड़ खड़े हैं चुपचाप दम साधे

तेरह के पहाड़े से भी जटिल गणित उभरा है उसकी देह पर
जिसे गिना नहीं जा सकता किसी जतन से

बाबा सच कहते थे कि उसके हंसने से ही होते हैं पहाड़ खूबसूरत
उसके होने से ही खिलता है इंद्रधनुष आसमान को चीरकर
आज नहीं है पहाड़ों में गूंजती उसकी हंसी
देह तो है लेकिन नहीं है उसमें उसका होना

पहाड़ उदास हैं
आसमान में नहीं खिला है इंद्रधनुष
पहाड़ों ने बंद कर दिया है लौटाना गीतों के बोल
अब वहां पसरी है खामोषी और
बादल उसकी कॉपी के रंगों से उलट
हो गए हैं सुर्ख लाल।









कथक सीखते हुए

जानती हो मेरी बच्ची जब तुमने अपने
घुंघरू वाले पांवों से पहली बार मारी थी
थई ज़मीन पर तो वे घुंघरू उस कमरे में नहीं
मेरे अंतस में ही कहीं बजे थे
तुम उत्साहित थी बहुत अधिक और
ज़ोर ज़ोर से रख रही थी पांव धरती पर
ता थई थई तत आ थई थई तत
तो उन घुंघरुओं ने पूरी लय छेड दी थी मेरे भीतर कहीं
शायद तुम नहीं जानती कि जितनी खुश थी तुम उस पल
उससे कहीं ज्यादा खुश थी मैं कि
अब तुम्हारे पांव थिरकेंगे अपनी ही लय पर
कि तुम अर्जित करोगी एक नई भाषा इन घुंघरुओं से
कुछ खास क्षणों में जब कम पड़ने लगेंगे
शब्द अभिव्यक्ति के
तुम्हारे पास होंगे घुंघरू जिनसे
कहोगी तुम बहुत कुछ अनकहा

मेरी बच्ची ये घुंघरू सिर्फ घुंघरू नहीं
आंखें हैं तुम्हारी , होंठ हैं तुम्हारे
तुम्हारे भीतर बहते संवेदनों का समुद्र हैं ये घुंघरू
अब तुम्हारे पैरों की थिरकन से पढ़ सकूंगीं मैं तुम्हें
और बेहतर और बेहतर



2

आज जब तुम हर दिन निखर रही हो और ज़्यादा
सीख रही हो नए नए भाव, नई थिरकनें
टुकड़ा, आमद, ठाठ, लड़ी और न जाने क्या कुछ
तुमसे समृद्ध हो रही हूं मैं
यह कि
तुमने समृद्ध ही किया है मुझे हमेशा

3

तुम मुस्कुराती हो तो मुस्कुराते हैं
तुम्हारे नन्हे नन्हे पांवों में बंधे घुंघरू
घुंघरू छनछनाते हैं तो मुस्कुराती हो तुम
घुंघरू और तुम्हारा यह कैसा नाता है कि
समझ नहीं पाती मैं
यह तुम हो जो मुस्कुरा रही हो या घुंघरू हैं।

4

आज जब उदास थी तुम
तो उदास थे तुम्हारे घुंघरू भी
तुम रख तो रही थी पांव ज़मीन पर
लेकिन उनसे आवाज़ गायब थी
आज जाना मैंने कि तुम मुस्कुराती हो तो
मुस्कुराते हैं घुंघरू
तुम्हारे घुंघरू तुम्हारे मुस्कुराने का इंतज़ार करते हैं।

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परिचय

ज्योति चावला

युवा लेखिका। कविता और कहानी में समान रूप से लेखन। दो कविता संग्रह - ‘मां का जवान चेहरा’(आधार प्रकाशन, पंचकूला), ‘जैसे कोई उदास लौट जाए दरवाजे से’ (वाणी प्रकाशन, दिल्ली) और एक कहानी संग्रह ‘अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती’ (आधार प्रकाशन, पंचकूला)प्रकाशित। कविताएं और कहानियां विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुदित। कहानी महत्वपूर्ण कहानी संकलनों में संकलित। कविता के लिए शीला सिद्धांतकर स्मृति सम्मान। सृजनात्मक साहित्य के अलावा अनुवाद के उत्तर आधुनिक विमर्श में खास रुचि। इन दिनों कविताओं, कहानियों के अतिरिक्त इस विषय पर सक्रियता से लेखन।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली में अध्यापन।



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