स्मृति शेष: सुरेश सेन निशांत
आखिरी मुलाकात 31 जुलाई 6.30 बजे शाम
गणेश गनी
कवि जैसे तुम्हें पता था, तुम अब इस धरती पर अधिक दिन नहीं रहोगे, इसीलिए तुमने उलाहना दिया, प्रेम भरी धमकी दी पहली बार, जैसे कि तुम यह अवसर खोना नहीं चाहते थे। कवि उस दिन मैं तुम्हारे कस्बे में था और सब कवियों से मिलना चाहता था, कवि मैंने तुम्हें पूछा कि तुम आओगे! तुमने कहा कि अब नहीं आया जाएगा और कहा था, देखो अगर तुम कार्यक्रम के बाद मेरे घर नहीं आए तो मैं नाराज हो जाऊंगा, तुम्हें आना ही होगा दोस्त और मुझसे मिलकर जाओ। उस दिन मैं समझ नहीं पाया कि क्यों तुम मुझे अपने घर इतना आग्रह करके बुला रहे हो। जब कभी पहले हम तुम्हें मिलते थे तो उत्सुकता हमें होती थी, इस बार जो तुमने उत्सुकता दिखाई कवि, वो अजीब थी।
उस शाम कुछ अधिक बातें तो नहीं हुई लेकिन तुमने कविता पर भी अनमने मन से बात की। क्या मालूम कि जिस प्रेम से तुमने हमें बाहर तक छोड़ा आखिरी बार, वो विदा कहने का क्षण था। रात घिर आई थी कवि-
रात थी
घनघोर तम से भरी
रात थी
दुख था
अन्धेरे की चादर ओढ़े ।
एक काँटा था अकेलेपन का
चुभता था बहुत गहरे तक ।
दर्द से भरी
नींद से कोसों दूर
रात थी ।
जिस कविता के लिए तुम लड़ पड़ते थे, जिस कविता के लिए तुम भिड़ जाते थे किसी से भी, जिस कविता के ख़िलाफ़ तुम एक शब्द भी नहीं सुन पाते थे, तुम कविता के पक्ष में तर्कों से भरे तुणीर लिए डटे रहते थे हमेशा, कवि तुम जिन सीढ़ियों से नीचे उतर आए थे हमें विदा करने को, उन सीढ़ियों पर अंधेरा हो चुका था-
अन्धेरी सीढ़ियों पर
गमुसुम रोता था कोई ।
ईश्वर नहीं सुन पाता था
उसका रोना
घनी अन्धेरी रात थी ।
हत्यारों की मुट्ठी में
क़ैद था समय
उनकी बन आई थी ।
दिन में भी अन्धेरे का
आभास देती हुई
रात थी ।
कवि तुम्हारी रातें बड़ी भयानक थीं। तुम्हारे दिन कठिन थे। तुम्हारे आगे समय ने परीक्षा का बड़ा कठिन प्रश्न पत्र रख दिया था। उनकी रातों का ज़िक्र न करो। मेरा खून खौलता है-
रात थी उनकी
इतने कौशलों से भरी हुई
कि दिन हमारा बुद्धू दिखता था ।
रात थी उनकी
इतनी रौनकों से भरी
कि दिन हमारा बदरंग दिखता था ।
रात थी उनकी
इतनी चालाकियों से भरी
कि दिन हमारा भौच्चक बुद्धुओं-सा
घूमता था ।
रात थी उनकी
अपनी ताक़त के नशे में
चूर ।
पर हमारे दिन की थकान में ही
उगती थी वनस्पतियाँ
चहकते थे परिन्दे
जीवन सीखता था
ढंग से चलना ।
कवि इन रातों के खौफ़नाक स्न्नाटों में भी तुम्हारी नींद टूटना लाज़िमी था। इन स्न्नाटों को चीरने वाली हवा जब उधर पहाड़ के पार गई तो फिर लौटकर न आ सकी। किधर भटक गई होगी! हवा को किसने बांधा होगा! कौन चैन पा सकेगा स्न्नाटों में-
रात थी
पहाड़ के इस छोर से
उस छोर तक रात थी
सन्नाटा था
सन्नाटे में सुनाई देती थी
किसी चीज़ के टूटने की आवाज़ ।
जो टूटती थी
वह नींद थी
या पहाड़ की देह थी
या हमारी ही कोई उम्मीद
टूटती थी
टूटती थी
उसके टूटने की
सुनाई देती थी आवाज़ ।
कवि तुम पेड़ों का भय महसूस कर सकते थे, तुम नदी का रोना सुन सकते थे, कवि तुम हत्यारों के मंसूबे जानने से कैसे चूक गए, जबकि तुम जानते थे शब्दों पर पानी चढ़ा रहे हैं कुछ लोग ताकि शब्द और घातक बने रहें-
रात थी
पेड़ चुप थे
लगता था जैसे
भय से भरे हुए हों वे
चुप थे विशालकाय पत्थर
लगता था जैसे
हलक में अटकी हुई हो
उनकी भी साँस ।
रात थी
नदी रोती थी ।
उसकी गोद में बैठी
रोती थी जैसे कोई औरत भी
ऊँची आवाज़ में ।
इतना ऊँचा क्यों था
उस औरत का विलाप
जिसे हम सुनते थे
और पेड़ और पत्थरों की तरह
भय से भरे चुप रहते थे
रात थी ।
रात के अपने रंग थे, काले घने रंग। कवि तुम ज़िंदादिली से जीने वाले व्यक्ति थे, तुम्हारे जीवन में अवसाद की ऐसी रात क्यों आई जिसकी कोई सुबह ही नहीं थी-
रात थी
जब राख हो गए थे
हमारे सभी पेड़ ।
कुछ लोगों ने कहा
वह आग नहीं
ईश्वर की कृपा है
जो रात भर आसमान से
झरती रही ।
शायद रात के रंग जैसा ही है
उनके ईश्वर का रंग
शायद राख के रंग जैसी ही है
उनके ईश्वर की भी कृपा ।
कुछ लोग थे जो राख नहीं
ईश्वर की कृपा का
कर रहे थे अपने जिस्मों पर लेप ।
रात थी
घने काले रंगों से भरी
रात थी ।
कवि जिस रात की तुम बात करते हो, दरअसल वो कहने को तो दिन था। एक ऐसा दिन जिसकी रोशनी पर ग्रहण लग चुका था। पानी के हिलने में भी रात थी-
रात थी
तो रात की ही बात थी
पत्तों के हिलने
पानी के टपकते तक में ।
कोई नहीं करता था
दिन की बात ।
दिन में भी
रात ही की बात थी
ऐसी लम्बी रात थी ।
कोई पूछता था
रहबर का पता
जिधर इशारा करते
उधर अन्धेरे की गोद में बैठी
रात थी ।
रात में जब कोई रोता है, तो उसे चुप कराने वाला भी साथ में रोता है। दोनों जब रोते हैं, तो फिर चुप करने कराने का किस्सा ही ख़त्म हो जाता। फिर कुछ नहीं बचता सिसकियों के सिवा-
रात थी
कोई रोता था
लोग कहते यह
भारल के रोने की आवाज़ है ।
कोई रोता था
लोग कहते यह
किसी प्यासी टिटहरी के
सिसकने की आवाज़ है ।
कोई रोता था
लोग कहते यह
ग्लेशियरों के सिकुड़ने की
आवाज़ है ।
कोई रोता था
लोग कहते यह
यह खेतों से नमी
उड़ने की आवाज़ है ।
रात थी
कोई था जो रोता था
लगातार
उसे चुप कराने वाली
उँगलियों में लग गया था
निस ।
इस रात के पैरों के निशान डरावने हैं। दिन में भी रात के निशान मिट नहीं पाए। दिन भर उजाला डर के साए में जीता है। ऐसे में उजाला सिसकता रहता है। यह रात इतनी मनहूसियत से भरी क्यों थी-
दिन उगने के बाद भी
उसके पाँव की छाप थी
ऐसी मनहूस रात थी ।
कौन था जिसने नींद के पथ पर कांटे बो दिए? कौन है जिसने बिस्तर पर अंगारे बिछा दिए? फफोले आत्मा पर भी साफ दिखने लगे! कवि क्या यह सत्य है कि उन्होंने इतना भय भर दिया कि नींद में भी सपनें लेने का साहस नहीं कर सके-
उन्होंने लोगों के मन में
भर दिया ढेर सारा भय
ढेर सारे काँटे बो दिए
नींद के पथ पर
जलते हुए अंगारों से भर दिया
शान्त नींद का बिस्तर
ताकि कोई सपना
न ले सके जन्म
लोगों की नींद में।
सपनों को कुचलना भयंकर पीड़ा देता है। इतना अत्याचार किया कि घायल सपने की चीत्कार तक सुनाई नहीं दी-
उन्होंने नींद में चहचहाने वाली
उस छोटी-सी रंग-बिरगी चिड़िया के
पंखों को काट दिया
ज़हरीले धुएँ से भर दिया
उसकी आँखों का सारा आकाश
कहीं कोई ख़ून का छींटा नहीं गिरने दिया
नहीं गूँजने दी किसी घायल सपने की
हल्की-सी भी चीत्कार।
कवि तुम्हारी कविता, इस वृक्ष के पास से, एक अद्भुत कविता है। यह कविता जिस पल लिखी गई होगी, उस पल कवि तुम इस पृथ्वी पर तो कतई नहीं थे। पृथ्वी का अपनी धुरी पर घूमना और साथ ही सूरज का चक्कर काटना, यह सारा दृश्य कवि तुम अपनी आंखों से देख रहे थे-
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
प्रार्थना में रत है यहाँ एक औरत
उसे विश्वास है
इस वृक्ष में बसते हैं देवता
और वे सुन रहे हैं उसकी आवाज़ ।
एक औरत और ईश्वर
रत है बातचीत में
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
ऎसा कौतुक
एक औरत ही रच सकती है
जो ईश्वर को स्वर्ग से उतार कर
एक वृक्ष की आत्मा में बसा दे ।
चिड़ियों की चहचहाहट
हवाओं की सरसराहट
कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा है उसे
सिवाय अपने ह्रदय की धड़कनों के
सिवाय अपनी प्रार्थना के ।
वृक्ष के हरे पत्ते
तालियों की तरह बजते हुए
दे रहे हैं उसे आश्वासन
कि उठो माँ
सुन ली है ईश्वर ने तुम्हारी प्रार्थना ।
मंदिर और मस्ज़िद से दूर
उनकी घंटियों और अजानों
से बहुत दूर
प्रार्थना में रत है एक औरत
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से।
०००
गणेश गनी का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए
अँधेरे समय की उजली कविताएँ गणेश गनी
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/10/blog-post_47.html?m=1
आखिरी मुलाकात 31 जुलाई 6.30 बजे शाम
गणेश गनी
सुरेश सेन निशांत |
कवि जैसे तुम्हें पता था, तुम अब इस धरती पर अधिक दिन नहीं रहोगे, इसीलिए तुमने उलाहना दिया, प्रेम भरी धमकी दी पहली बार, जैसे कि तुम यह अवसर खोना नहीं चाहते थे। कवि उस दिन मैं तुम्हारे कस्बे में था और सब कवियों से मिलना चाहता था, कवि मैंने तुम्हें पूछा कि तुम आओगे! तुमने कहा कि अब नहीं आया जाएगा और कहा था, देखो अगर तुम कार्यक्रम के बाद मेरे घर नहीं आए तो मैं नाराज हो जाऊंगा, तुम्हें आना ही होगा दोस्त और मुझसे मिलकर जाओ। उस दिन मैं समझ नहीं पाया कि क्यों तुम मुझे अपने घर इतना आग्रह करके बुला रहे हो। जब कभी पहले हम तुम्हें मिलते थे तो उत्सुकता हमें होती थी, इस बार जो तुमने उत्सुकता दिखाई कवि, वो अजीब थी।
उस शाम कुछ अधिक बातें तो नहीं हुई लेकिन तुमने कविता पर भी अनमने मन से बात की। क्या मालूम कि जिस प्रेम से तुमने हमें बाहर तक छोड़ा आखिरी बार, वो विदा कहने का क्षण था। रात घिर आई थी कवि-
रात थी
घनघोर तम से भरी
रात थी
दुख था
अन्धेरे की चादर ओढ़े ।
एक काँटा था अकेलेपन का
चुभता था बहुत गहरे तक ।
दर्द से भरी
नींद से कोसों दूर
रात थी ।
जिस कविता के लिए तुम लड़ पड़ते थे, जिस कविता के लिए तुम भिड़ जाते थे किसी से भी, जिस कविता के ख़िलाफ़ तुम एक शब्द भी नहीं सुन पाते थे, तुम कविता के पक्ष में तर्कों से भरे तुणीर लिए डटे रहते थे हमेशा, कवि तुम जिन सीढ़ियों से नीचे उतर आए थे हमें विदा करने को, उन सीढ़ियों पर अंधेरा हो चुका था-
अन्धेरी सीढ़ियों पर
गमुसुम रोता था कोई ।
ईश्वर नहीं सुन पाता था
उसका रोना
घनी अन्धेरी रात थी ।
हत्यारों की मुट्ठी में
क़ैद था समय
उनकी बन आई थी ।
दिन में भी अन्धेरे का
आभास देती हुई
रात थी ।
कवि तुम्हारी रातें बड़ी भयानक थीं। तुम्हारे दिन कठिन थे। तुम्हारे आगे समय ने परीक्षा का बड़ा कठिन प्रश्न पत्र रख दिया था। उनकी रातों का ज़िक्र न करो। मेरा खून खौलता है-
रात थी उनकी
इतने कौशलों से भरी हुई
कि दिन हमारा बुद्धू दिखता था ।
रात थी उनकी
इतनी रौनकों से भरी
कि दिन हमारा बदरंग दिखता था ।
रात थी उनकी
इतनी चालाकियों से भरी
कि दिन हमारा भौच्चक बुद्धुओं-सा
घूमता था ।
रात थी उनकी
अपनी ताक़त के नशे में
चूर ।
पर हमारे दिन की थकान में ही
उगती थी वनस्पतियाँ
चहकते थे परिन्दे
जीवन सीखता था
ढंग से चलना ।
कवि इन रातों के खौफ़नाक स्न्नाटों में भी तुम्हारी नींद टूटना लाज़िमी था। इन स्न्नाटों को चीरने वाली हवा जब उधर पहाड़ के पार गई तो फिर लौटकर न आ सकी। किधर भटक गई होगी! हवा को किसने बांधा होगा! कौन चैन पा सकेगा स्न्नाटों में-
रात थी
पहाड़ के इस छोर से
उस छोर तक रात थी
सन्नाटा था
सन्नाटे में सुनाई देती थी
किसी चीज़ के टूटने की आवाज़ ।
जो टूटती थी
वह नींद थी
या पहाड़ की देह थी
या हमारी ही कोई उम्मीद
टूटती थी
टूटती थी
उसके टूटने की
सुनाई देती थी आवाज़ ।
कवि तुम पेड़ों का भय महसूस कर सकते थे, तुम नदी का रोना सुन सकते थे, कवि तुम हत्यारों के मंसूबे जानने से कैसे चूक गए, जबकि तुम जानते थे शब्दों पर पानी चढ़ा रहे हैं कुछ लोग ताकि शब्द और घातक बने रहें-
रात थी
पेड़ चुप थे
लगता था जैसे
भय से भरे हुए हों वे
चुप थे विशालकाय पत्थर
लगता था जैसे
हलक में अटकी हुई हो
उनकी भी साँस ।
रात थी
नदी रोती थी ।
उसकी गोद में बैठी
रोती थी जैसे कोई औरत भी
ऊँची आवाज़ में ।
इतना ऊँचा क्यों था
उस औरत का विलाप
जिसे हम सुनते थे
और पेड़ और पत्थरों की तरह
भय से भरे चुप रहते थे
रात थी ।
रात के अपने रंग थे, काले घने रंग। कवि तुम ज़िंदादिली से जीने वाले व्यक्ति थे, तुम्हारे जीवन में अवसाद की ऐसी रात क्यों आई जिसकी कोई सुबह ही नहीं थी-
रात थी
जब राख हो गए थे
हमारे सभी पेड़ ।
कुछ लोगों ने कहा
वह आग नहीं
ईश्वर की कृपा है
जो रात भर आसमान से
झरती रही ।
शायद रात के रंग जैसा ही है
उनके ईश्वर का रंग
शायद राख के रंग जैसी ही है
उनके ईश्वर की भी कृपा ।
कुछ लोग थे जो राख नहीं
ईश्वर की कृपा का
कर रहे थे अपने जिस्मों पर लेप ।
रात थी
घने काले रंगों से भरी
रात थी ।
कवि जिस रात की तुम बात करते हो, दरअसल वो कहने को तो दिन था। एक ऐसा दिन जिसकी रोशनी पर ग्रहण लग चुका था। पानी के हिलने में भी रात थी-
रात थी
तो रात की ही बात थी
पत्तों के हिलने
पानी के टपकते तक में ।
कोई नहीं करता था
दिन की बात ।
दिन में भी
रात ही की बात थी
ऐसी लम्बी रात थी ।
कोई पूछता था
रहबर का पता
जिधर इशारा करते
उधर अन्धेरे की गोद में बैठी
रात थी ।
रात में जब कोई रोता है, तो उसे चुप कराने वाला भी साथ में रोता है। दोनों जब रोते हैं, तो फिर चुप करने कराने का किस्सा ही ख़त्म हो जाता। फिर कुछ नहीं बचता सिसकियों के सिवा-
रात थी
कोई रोता था
लोग कहते यह
भारल के रोने की आवाज़ है ।
कोई रोता था
लोग कहते यह
किसी प्यासी टिटहरी के
सिसकने की आवाज़ है ।
कोई रोता था
लोग कहते यह
ग्लेशियरों के सिकुड़ने की
आवाज़ है ।
कोई रोता था
लोग कहते यह
यह खेतों से नमी
उड़ने की आवाज़ है ।
रात थी
कोई था जो रोता था
लगातार
उसे चुप कराने वाली
उँगलियों में लग गया था
निस ।
इस रात के पैरों के निशान डरावने हैं। दिन में भी रात के निशान मिट नहीं पाए। दिन भर उजाला डर के साए में जीता है। ऐसे में उजाला सिसकता रहता है। यह रात इतनी मनहूसियत से भरी क्यों थी-
दिन उगने के बाद भी
उसके पाँव की छाप थी
ऐसी मनहूस रात थी ।
कौन था जिसने नींद के पथ पर कांटे बो दिए? कौन है जिसने बिस्तर पर अंगारे बिछा दिए? फफोले आत्मा पर भी साफ दिखने लगे! कवि क्या यह सत्य है कि उन्होंने इतना भय भर दिया कि नींद में भी सपनें लेने का साहस नहीं कर सके-
उन्होंने लोगों के मन में
भर दिया ढेर सारा भय
ढेर सारे काँटे बो दिए
नींद के पथ पर
जलते हुए अंगारों से भर दिया
शान्त नींद का बिस्तर
ताकि कोई सपना
न ले सके जन्म
लोगों की नींद में।
सपनों को कुचलना भयंकर पीड़ा देता है। इतना अत्याचार किया कि घायल सपने की चीत्कार तक सुनाई नहीं दी-
उन्होंने नींद में चहचहाने वाली
उस छोटी-सी रंग-बिरगी चिड़िया के
पंखों को काट दिया
ज़हरीले धुएँ से भर दिया
उसकी आँखों का सारा आकाश
कहीं कोई ख़ून का छींटा नहीं गिरने दिया
नहीं गूँजने दी किसी घायल सपने की
हल्की-सी भी चीत्कार।
कवि तुम्हारी कविता, इस वृक्ष के पास से, एक अद्भुत कविता है। यह कविता जिस पल लिखी गई होगी, उस पल कवि तुम इस पृथ्वी पर तो कतई नहीं थे। पृथ्वी का अपनी धुरी पर घूमना और साथ ही सूरज का चक्कर काटना, यह सारा दृश्य कवि तुम अपनी आंखों से देख रहे थे-
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
प्रार्थना में रत है यहाँ एक औरत
उसे विश्वास है
इस वृक्ष में बसते हैं देवता
और वे सुन रहे हैं उसकी आवाज़ ।
एक औरत और ईश्वर
रत है बातचीत में
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
ऎसा कौतुक
एक औरत ही रच सकती है
जो ईश्वर को स्वर्ग से उतार कर
एक वृक्ष की आत्मा में बसा दे ।
चिड़ियों की चहचहाहट
हवाओं की सरसराहट
कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा है उसे
सिवाय अपने ह्रदय की धड़कनों के
सिवाय अपनी प्रार्थना के ।
वृक्ष के हरे पत्ते
तालियों की तरह बजते हुए
दे रहे हैं उसे आश्वासन
कि उठो माँ
सुन ली है ईश्वर ने तुम्हारी प्रार्थना ।
मंदिर और मस्ज़िद से दूर
उनकी घंटियों और अजानों
से बहुत दूर
प्रार्थना में रत है एक औरत
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से।
०००
गणेश गनी |
अँधेरे समय की उजली कविताएँ गणेश गनी
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/10/blog-post_47.html?m=1
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें