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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

18 अक्तूबर, 2018

संस्मरण

टाइपराइटर की खट-खट से कौन-सी रचना जन्मेगी ! 

डॉ अनिल अविश्रांत


जब झाँसी ज्वाइन करने आ रहा था प्रिय कवि स्वपनिल श्रीवास्तव ने मुझे झाँसी के दो अदीबों से मिलने की सलाह दी थी। ओम शंकर खरे 'असर' और वल्लभ सिद्धार्थ। मैने झाँसी आने से पहले इन दोनों रचनाकारों के नाम भी नहीं सुने थे। खैर, इनसे मिलने की प्रबल इच्छा थी। दुर्भाग्य से झाँसी के लोग भी अपने इन साहित्यकारों को लगभग भुला बैठे हैं। मैने अपने विभागीय साथी डाॅ नीरज गुप्त से रिक्वेस्ट किया कि वे इन दोनों के बारे में पता करें ।चूंकि वह झाँसी के ही हैं अतः उन्हें बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी और हम लोग असर साहब से मिल सके।

वल्लभ सिद्धार्थ


अभी वल्लभ सिद्धार्थ जी से मिलना शेष था।इस बीच राजकुमारी 'प्रिन्सी' के काव्यसंग्रह के विमोचन के अवसर पर मैं मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित था।उसी कार्यक्रम में झाँसी के वरिष्ठ कथाकार बृजमोहन जी से मुलाकात हुई । वह बहुत सरल, सज्जन और निरभिमानी व्यक्ति लगे। उन्हें हिन्दी दिवस के अवसर पर महाविद्यालय में मुख्य अतिथि के रूम में आमंत्रित किया ।उनसे बातचीत के अवसर बढ़े तो मैने वल्लभ सिद्धार्थ जी का जिक्र किया और उनसे मिलने की इच्छा जताई। यह सुनकर बृजमोहन जी को बहुत प्रसन्नता हुई । उन्होंने वल्लभ सिद्धार्थ जी की कई किताबें उपलब्ध कराई ।यह सुखद संयोग है कि इसी समय बृजमोहन जी के द्वारा संपादित वल्लभ सिद्धार्थ जी की कहानियों की एक किताब भी छप कर आ गई। चूंकि वल्लभ जी 83साल के हैं  और पूर्णतयः स्वस्थ हैं लेकिन कहीं भी आने-जाने में असमर्थ हैं लिहाजा हम लोगों ने तय किया कि किताब का एक अनौपचारिक विमोचन वल्लभ जी के घर पर ही किया जाये।

रविवार का दिन तय हो गया।इस बीच वल्लभ जी से मिलने से पहले उन्हें जानने -समझने के लिए उनके साहित्य को पढना शुरु किया।पहली किताब #ताकि_सनद_रहे पढी जो उनके पत्रों का संग्रह है जो सही अर्थों में एक साहित्यकार के जद्दोजहद और अपने समकालीनों से हुए उसके संवादों, क्रिया-प्रतिक्रियाओं का संकलन है।यह अनौपचारिक रूप से हिन्दी का वह साहित्यिक इतिहास है जिसके केन्द्र में वल्लभ जी हैं । उनका एक मात्र उपन्यास 'कठघरे' भी पढ़ा जिसे लिखने में उन्होंने दस वर्ष लगाये। यह अपने कथ्य और शिल्प में हिन्दी का अनूठा उपन्यास है। शिल्प में बेहद संघनित और कथ्य में आत्मा के उतारे जा रहे  छिलकों सरीखा असरदार। एक लंबी कहानी 'जंगलतंत्र' भी पढ़ी गई ,जो जनतंत्र के जंगलतंत्र में बदलते जाने की कथा है।रात के अँधेरे में जंगल में जंजीर खींच कर खड़ी कर दी गई रेलगाड़ी और कुछ नहीं हमारा ठहरा हुआ लोकतंत्र है जिसमें हर आम आदमी संदिग्ध है।विद्रूप यह कि इसकी जांच जिनके हाथों में है वे -जांच दल के लोग-भयानक स्तर के असंवेदनशील, भ्रष्ट और मूर्ख हैं ।बहरहाल, यह पढ़ाई वल्लभ सिद्धार्थ जी से मिलने की पूर्व की तैयारी का हिस्सा थी। 

किताब का विमोचन


रविवार की सुबह बृजमोहन, साकेत सुमन और मैं मऊरानी पुर के लिए निकल पड़े ।वह कस्बा जिसकी पहचान वृंदावनलाल वर्मा और गीतकार इंदीवर से है और जहाँ वल्लभ सिद्धार्थ जी रहते हैं ।लगभग साढ़े नौ बजे मैं कस्बे की बाजार के ठीक बीच में एक घर के सामने था, बाहरी दीवार पर एक छोटी- सी प्रस्तर-पट्टिका लगी हुई थी जिसपर लिखा था-"पंचवटी" वल्लभ सिद्धार्थ, निर्माण वर्ष-1960-66"। एक पीले रंग का लोहे का चैनल जैसे हमारी प्रतीक्षा में ही था-अधखुला।हम लोग अंदर गये।बृजमोहन जी सबसे आगे थे।उन्होंने आवाज लगाई--"दादा" एक छोटे कमरे और लंबे बड़े बरोठे के आगे खुब बड़ा खुला-खुला सा आंगन है जहाँ से एक बूढ़ी काया आंखो में चमक लिए हमारी ओर आ रही थी।उत्सुकता के साथ मैं आगे बढ़ गया।बृजमोहन जी और साकेत सुमन तो पहले भी इस घर आ चुके थे और दादा से मिल चुके थे पर उनसे मिलने, उन्हें देखने का मेरा यह पहला अवसर था। सिर पर सफेद साफी बांधें, सफेद रंग का ही ढीला-ढाला कुर्ता-पायजामा पहने दादा हमारा स्वागत कर रहे थे।

आंगन हरा-भरा है कुछ बड़े पौधे जमीन में और कुछ छोटे पौधे गमलों में लगे हैं। एक बड़े पुराने हंडे में पानी भरा है।आंगन के एक छोर पर एक बिछी हुई छोटी चौकी है और तीन कुर्सियाँ और एक स्टूल पड़ा हुआ है।यकीनन यह बैठक व्यवस्था हमारे आने को ध्यान में रखकर की गई है। चाय-पानी की औपचारिकताओं के साथ ही हमारी बातचीत का सिलसिला शुरु हुआ। वल्लभ जी की कहानियों पर विस्तृत बात हुई ।उन्होंने अपनी चर्चित कहानी'ब्लैक आउट' की विस्तार से चर्चा की।उन्होंने आपातकाल के दौरान अपनी गिरफ्तारी और जेल में बिताये अनुभवों को साझा किया। उनकी बातचीत में इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जहाँ दादा ने दर्शन शास्त्र में स्वर्ण पदक जीता था और बैडमिंटन और चेस के चैम्पियन खिलाड़ी बने थे, बार-बार आया।कृष्णानंद गुप्त, मैथिलीशरण गुप्त, जय शंकर प्रसाद, अपने वरिष्ठों  समकालीनों और कनिष्ठों  में धर्मवीर भारती,मार्कण्डेय, ज्ञानरंजन,शैलेष मटियानी,नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, शानी, दूधनाथ सिंह, मुद्रा राक्षस,नवीन सागर ,प्रकाश मनु, विभूति नारायण राय,गोविन्द मिश्र  आदि आये।(लिखते हुए कुछ नाम छूट रहे हैं) और यकीन मानिये हिन्दी के इन प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों के बारे में सुनते हुए भरोसा हुआ कि ये वैसे ही हैं जैसे हमारा हिन्दी समाज है।पढ़े-लिखे ज़हीन, छल-छद्म में आकंठ निमग्न ,उदात्त और हीन।बिल्कुल विरुद्धों के सामंजस्य सरीखे। 

वल्लभ सिद्धार्थ और अनिल अविश्रांत


दादा ने हम तीनों आगन्तुकों को अपनी एक-एक किताब भेंट की।बृजमोहन जी को अलवेयर कामू का  'द आउटसाइडर' का हिन्दी अनुवाद, साकेत सुमन जी को ज्यां पाल सार्त्र का नाटक 'मक्खियां' और मुझे उनका कहानी संग्रह 'शेष प्रश्न' (1976 में प्रकाशित) भेंट स्वरूप प्राप्त हुए। एक अदीब के पास इससे बड़ी और मूल्यवान संपत्ति और क्या हो सकती है जो वह अपने चाहने वालों को दे। दादा के हाथों वहीं  बृजमोहन जी द्वारा संपादित 'वल्लभ सिद्धार्थ की पारिवारिक कहानियाँ ' किताब का अनौपचारिक विमोचन हुआ जिसके हम सब साक्षी बने।मैंने उनकी स्टडी और विशेषकर उस टाइप राइटर को देखने की इच्छा जताई जिसपर दादा तिरासी साल की उम्र में काम करते हैं ।उन्होंने बड़े चाव से अपना अध्ययन कक्ष दिखाया। उन्होंने 'प्रिया' जी की फोटो भी दिखाई जो उनके लिए प्रेम का साक्षात प्रतिरूप हैं। अपनी चिट्ठियों में जिन्हें वह बार-बार याद करते हैं घनानंद की सुजान की तरह। यह प्लेटोनिक लव प्रसाद की नायिका देवसेना की याद दिला गया।जब दादा ने कहा-'मेरे इस जीवन की देवी और उस जीवन की प्राप्य'। यह कहते हुए दादा की आवाज थोड़ी काँपी थी।उम्र के लिहाज से अब वह थोड़ा-थोड़ा भूलने भी लगे हैं फिर भी उनकी याददाश्त हमारी- आप की याददाश्त  से बहुत अच्छी है।उन्हें अभी भी हिन्दी -संसार का बहुत कुछ याद है पर हिन्दी वालों ने तो उन्हें कब का भुला दिया है। हिन्दी का एक जीनियस रचनाकार जिसका टाइपराइटर अभी भी चालू हालत में है।उसकी खट-खट में  कौन सी रचना जन्म ले रही है,कौन जाने!

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