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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 अक्तूबर, 2017


मंटो से आसिकी' - एक प्रेमपत्र

पल्लवी प्रसाद

मेरा नाम साथ दिया है । बाक़ी परिचय इतना है कि सआदत हसन मंटो से अपनी आसिकी है । चुँकि मैं आशिक़ हुँ मेरा माशूक़ मुझे मुआफ़ करेगा ।
पल्लवी प्रसाद



मेरे प्यारे मंटो,

मैंने तुम्हें पहली बार तब पढ़ा जब मैं सातवीं कक्षा में थी । मैंने तब यह न जाना कि वह तुम थे जिसे मैंने पढ़ा । सातवीं कक्षा में ही एक रोज़ साईंस की टीचर ने ऐलान किया कि आज लेबोरेटरी में सिर्फ़ लड़कियों को फिल्म दिखाई जायेगी । इस बात से लड़के बहुत नाख़ुश हुये । उनके प्रतिवाद को अनसुना करते हुये टीचर साहिबा चली गयीं । अंतत: ठीक समय पर लड़कियाँ इठलाती हुयीं लेबोरेटरी को चलीं । वहाँ जो उन्होंने देखा वह एक रंगीन रील थी जिसमें स्त्री के प्रजनन अंगों के स्थिर चित्र थे । गर्भाशय, फैलोपियन ट्यूब, आदि अवयव दर्शाये गये थे और एक मनहूस आवाज़ मासिक धर्म की प्रक्रिया बता रही थी । इतना ही नहीं स्तनों से दूध के स्राव की प्रक्रिया भी समझायी गयी । हम सिर्फ़ लज्जित होते रहे, समझ कुछ भी न आया । क्योंकि प्रजनन की वास्तविक प्रक्रिया तो हमें समझाई ही न गयी थी ? हम से अधिक लज्जित हमारी टीचर रही होंगी चुँकि वे वहाँ मौजूद ही न थीं। - यह था स्कूल की तरफ से दिया गया हमें पहला सेक्स एजुकेशन । ख़ैर ! लड़कियाँ गुमसुम, सिर झुकाये, लाल मुँह लिये अपनी क्लास को लौटीं । वहाँ सदैव से पक्षपात के शिकार लड़के आक्रोश से भरे बैठे थे । लड़कियों के क्लास में घुसते ही लड़कों ने उन्हें घेर लिया और प्रश्नों की झड़ी लगा दी - "कौन सी फिल्म देखी तुमने?" ; "नाम क्यों नहीं बतातीं?" ; "कौन हीरो-हीरोईन थे?"; .... त्रस्त लड़कियाँ क्या बतातीं ? वे पहले टाल गईं, झेंपीं फिर झुँझलाईं ... उत्तर न पा कर लड़के अलग बौखलाये । उनकी आपस में झड़प हो गयी । इतना ही नहीं कई लड़कियों ने अपने बस्ते और बॉटल घुमा-घुमा कर कुछ लड़कों को पीट भी डाला । यह था पार्ट वन । पार्ट टू भी कम नहीं - रिसेस ख़त्म होते ही साईंस की टीचर फिर प्रकट हुयीं । इस बार वह कह गयीं कि लेबोरेटरी में लड़कों को फिल्म दिखाई जायेगी । लड़के मारे ख़ुशी से "हो...हो..." का शोर करते हुये लेबोरेटरी की ओर दौड़े । सयानी लड़कियाँ क्लास में ख़ामोश बैठी रहीं । पौन घंटे बाद लड़के लौटे । कुछ यूँ बने हुये थे मानो कुछ हुआ ही न हो, कई दूसरों को चोर निगाहों से देख कर अपनी हँसी दबा रहे थे । कई खुलेआम "खि-खि-खि..." कर रहे थे तो दो-चार ऐसे भी थे जो एक दूसरे को पुकार कर 'क्यू' देते और ठहाके मार कर हँसते । लड़कों ने क्या देखा यह उनका खुदा ही जानता है ।

तो मैं यह कह रही थी कि जिस उम्र में सेक्स का ग्यान भेलपुरी भर होता है उस उम्र में मंटो मैंने तुम्हें पहली बार पढ़ा । मैंने तुम्हारी कहानी 'बू' पढ़ी थी । अब यह न कहना कि यह कहानी मुझे इत्ती सी उम्र में नहीं पढ़नी चाहिये थी । यदि तुमने ऐसा कहा तो मैं तुमसे पूछूँगी कि मुझे तुम्हारी कौन सी कहानी पढ़नी चाहिये थी और तुम चुप लगा जाओगे । 'बू' को तब मैं पूरी तरह नहीं समझ पायी परन्तु हमें पूरी तरह न समझ पाने की मानो आदत थी । साहित्य खुदा था । खुदा की तरह ही वह ग्यान अपनी मुट्ठी में बंद रखता लेकिन हमें उसका भान ज़रूर दे देता । उस वक़्त मैंने तुम्हारी कहानी बड़े ग़ैर-यकीन के साथ पढ़ी थी । तुम और तुम्हारी कहानी का शीर्षक मेरे दिमाग़ से गुम हो गये, तब मेरे लिये तुम्हारी बिसात ही क्या थी ! लेकिन तुम्हारी कहानी मेरे जीवन की पढ़ी सबसे अविस्मरणीय कहानी बन गयी । वह कहानी मुझे बार-बार याद आती, बेनाम प्रेत की तरह वह मुझे गाहे-बगाहे 'हॉन्ट' किया करती । आखिर बरसों-बरस बाद वह कहानी मुझे किसी संकलन में दुबारा हाथ लगी । मैं चिल्लाई - " अरे वह खोई कहानी मिल गयी ! उसके लेखक का नाम सआदत हसन मंटो है !" मैं इस तरह ख़ुश हुयी मानो किसी भूले हुये पूर्वज का नाम मिल गया हो । मैंने उस कहानी का नाम रटा, "बू-बू-बू !" ताकि मैं फिर उसे कभी न भूलूँ ।
चित्र: अवधेश वाजपेई

बहुत भला किया मियाँ कि तुम सही वक़्त पर इस धरा-धाम से कट लिये । मान भी लें कि तुम्हें अपनी अफसानानिगारी का ग़ुरूर न था, सुरूर तो था ही । वह तो हम यूँ उतार देते । तुम्हें दुबारा चढ़ती भी न ! इन दिनों यहाँ ठर्रा भी नहीं चढ़ा करता है । फिर तुम जी कर क्या करते ? तुम पर छ: मुक़दमे अश्लीलता के चले, तुम शहीद बने । तुम को पागल क़रार कर के पागलखाने भेज दिया गया, तुम 'बड़का' वाले शहीद हुये । माय लव, अब अपनी तरफ शहादत इतनी सस्ती नहीं मिलती जितनी तुम्हारे ज़माने में मिला करती थी । अब यहाँ कोर्ट में मुक़दमे नहीं चला करते, मीडिया ट्रायल होता है । पागलखाने की जगह फ़ेसबुक आबाद है । काश ! तुम्हारे सीनियर, लॉर्ड बुद्ध इस जमाने में पैदा हुये होते तो 'बोधि' के लिये उन्हें एड़ियाँ न रगड़नी पड़तीं । वे फ़ेसबुक पर खाता खोलते और दन्न से बुद्ध बन बैठते । लेकिन अपनी आसिकी तो तुम से है मंटो, बुद्ध से क्या लेना-देना । मैं तो तुम्हारी और अपनी बात करूँगी । जब समाज के ठेकेदार तुम्हारी कहानियों के लिये तुम्हें सलीब पर चढ़ा रहे थे तब तुमसे औरतें मुहब्बत कर रही थीं । तुम उनकी बात कह रहे थे । तुम जलालत की बात कर रहे थे । तुम जिस्म और जिन्स की बात करते थे । तुम जिस्मफरोशी की शिकार औरतों के महबूब लेखक थे, ग़लीच के मसीहा । लेकिन यह सब तुम्हारी कहानियों के भीतर था । कहानियों के बाहर क्या था मंटो ? क्या तुम वैसे इंसान थे जैसे तुम लेखक थे - आँखें मिलाओ मंटो ?

तुम एक 'सेक्सिस्ट' मर्द थे । मुझे नहीं पता तुम इस शब्द से परिचित हो या नहीं । माने तुम स्त्रियों के प्रति कुँठा रखने वाले पुरुष थे । तुमने कहानियों से इतर बहुत कुछ लिखा है जहाँ तुम अपनी यह असलियत हम पाठकों से न छुपा पाये । नूरजहाँ - वह तुम ही थे जिसने अपने दोस्त शौक़त को नूरजहाँ से निकाह करने के लिये मना किया था । यह तुम्हारी सोच थी कि वह उसके साथ रह ही रही थी, दोस्त का काम चल ही रहा है, तब उससे शादी करने की क्या ज़रूरत है । यह बात बड़ी दिलचस्प रही कि तुम्हारे जिगरी दोस्त ने अपने घर जा कर निकाह के लिये अपने घरवालों तक को राज़ी कर लिया और उनके आशीर्वाद से अपनी प्रेमिका से शादी कर ली लेकिन तुम्हें यह बताना ज़रूरी भी नहीं समझा । यह कैसा विरोध था तुम्हारा ? तुम ठहरे सत्यन्वेषी - प्रेम गफ़लत है और सेक्स हक़ीक़त टाईप! प्रेम तुम्हारे साहित्य में शायद ही मिले चुँकि तुम हक़ीक़त लिखते थे। लेकिन हकीकत यह भी है कि हर साल कई जोड़े प्रेम के वास्ते अपनी जान गँवाते हैं जबकि सेक्स तो उन्हें मिल ही जाता? यदि तुमने भी जरा सी 'गफ़लत' पाल ली होती तो यूँ बेज़ार न जीते। रशीद जहाँ - वे तुम्हारी समकालीन थीं । वे इस उपमहाद्वीप की पहली मुस्लिम महिला डॉक्टर थीं - गायनोकोलॉजिस्ट। यानी स्त्री रोग एवं प्रसूति विशेषज्ञ। वे छोटे बाल रखतीं और पैंट-शर्ट भी पहना करतीं । उनके लेखन व विचार क्राँतिकारी रहे, वे मुस्लिम समाज की रूढ़ियों पर चोट किया करती थीं। स्त्री के सम्मान, अधिकार तथा स्वास्थ्य की बातें करती थीं। तुम और क्या कह सकते थे उनकी शान में सिवाय इसके - "रशीद जहान का फ़न आज कहाँ है? कुछ तो गेसुओं के साथ कट कर अलाहिदा हो गया और कुछ पतलून की जेबों में ठस हो कर रह गया। फ़्रांसीसी में 'जार्जसाँ' से निस्वानियत का हसीन मलबूस उतार कर तसन्नों की ज़िंदगी इख़्तियार की। पालिस्तानी मौसीकार शो पीस से लहु थुकवा-थुकवा कर उसने लाल ओ गुहर ज़रूर पैदा कराये। लेकिन उसका अपना जौहर उसके वतन में दम घुट के रह गया।" तुम एक गंभीर प्रगतिशील क्रांतिकारी कम्युनिस्ट डॉक्टर लेखक के गेसुओं को नापते रहे, उनकी पतलून की जेब का अंदाज़ा लगाते रहे क्योंकि वे महिला थीं। तुम्हारे लिये यह ज़्यादा ज़रूरी था कि वह अपना स्त्रीत्व पुरुषों को रीझाने में लगाये रहे या वह पुरूषों के पौरुष को तवज्जो नहीं देती थीं यह बात तुम्हें चुभ गयी ? जब भी इस देश में तीन तलाक़ का मुद्दा उठता है या मुस्लिम महिला अधिकारों की चर्चा होती है तो हिंदी-उर्दू के प्रखरतम् बुद्धिजीवी और विद्वान नींद की गोली फांक, पंखों में अपनी चोंच दबा कर सो जाते हैं। जब तक वे अपने बच्चों को विदेशों में तालीम दिला पा रहे हैं तथा उनकी बेटियाँ बिना बाँह के, टखनों तक के लिबास पहनने को आज़ाद हैं, क्या ज़रूरत है कि वे ग़रीब-कमनसीबों की बेहतरी के वास्ते फ़तवे मोल लें? यार मंटो, यह वतन आज भी रशीद जहान का इंतजार कर रहा है। उन से जौहर को मुहताज हैं हम। सितारा देवी - सितारा देवी पर तुमने ज़ुल्म ही ढाया समझो । वह अपने जमाने की आला दर्जे की कत्थक नृत्यांगना थीं । वह छोटी अदाकारा थीं लेकिन नृत्य के फ़न में एक महान कलाकार । वे स्वतंत्र थीं ।  तुम भी तो कलाकार थे । लेकिन तुम से दूसरे कलाकार की ईज्जत न की गयी ? तुमने अपनी क़लम से उनकी तस्वीर का यूँ ख़ाका खींचा है मानो वे कोई आदमखोर चुड़ैल हों । तुमने उनके फ़न, श्रम, संघर्ष पर एक शब्द न लिखा । तुमने पाठकों को गिनती गिनायी कि वे कितने मर्दों के साथ रहा करती थीं । कैसे वे उन्हें दूसरी औरतों के लिये नकारा बना देती थीं । तुम औरतों के बेडरूम की जासूसी किया करते थे क्या मंटो ? तुम औरतों के पर्स-हैंडबैग के भीतर चुपके-चुपके झाँकते थे यह तो तुम ख़ुद ही कुबूलते हो । तुम लिखते हो नज़ीर सितारा को मारा-पीटा भी करता था । "ऐसी औरतें ज़द-ओ-कूब से एक ख़ास क़िस्म की जिन्सी लज्जत महसूस करती हैं मगर उनसे मुंसलिका मर्द कब तक हाथा-पाई करता रहे ।" वाह ! दुनिया में जो तमाम औरतें रोज़ाना पिटती हैं वह जिन्सी लज्जत पाने के वास्ते पिटती हैं और उन्हें पीटने वाले मर्द उनकी गुजारिश पर उन्हें पीटते हैं । ऐसे मेहरबान-दिल मर्दों को जेल की लज्जत दिलाने के लिये हिन्दुस्तान में आजकल पूरे क़ानूनी इंतज़ामात हैं । सितारा देवी के प्रेमियों ने उन से प्रेम किया । लेकिन तुम थे कि अनुसंधान करते रहे ! तुम अपने समय की इतनी बड़ी शास्त्रीय नर्तकी के रियाज़ के लिये कहते हो "यह भी हैरतनाक चीज़ थी कि सुबह उठते ही दो घण्टे वहशियों के मानिन्द नाचती रहे ।" डार्लिंग मंटो तुमने जिस तरह ख़ुद को शराब में गर्क किया उस से बड़ी हैरतनाक चीज़ कोई नहीं, विश्वास करो । सितारा देवी से तुम्हें क्या प्रॉब्लम थी ? फ़िल्मों की तिजारती दुनिया में वह किसी मम्मी की बेबी नहीं थीं, उनका कोई दलाल नहीं था, वह अपनी मर्ज़ी की मालिक थीं । क्या यह नागवार था तुम्हें ? या तुम्हारी पितृसत्तात्मक सोच को यह मंज़ूर नहीं था कि कोई औरत अपनी मर्ज़ी से सेक्स का लुत्फ़ उठाये, एक नहीं अनेक के साथ रहे ? जब कि पुरुषों के लिये यह बातें आम हैं तथा वे इनकी डींगें भी मारते हैं। तुम ख़ुद सघन से सघन पतित पुरूष मित्रों के प्रति अपने जीवन और लेखनी में बेहद उदार रहे हो । क्या मुश्किल तुम्हारे अहं की भी थी कि तुम जैसे अफ़सानानिगार को वह तवज्जो नहीं देती थीं और तुम्हें चाय नौकर के हाथों भिजवाती थीं ? अंकल सैम - तुमने अंकल सैम (अमरीका) के नाम कई पत्र लिखे । उनमें से कुछ पत्रों में तुमने औरतों का घोर अपमान किया है, कि वे विदेशी औरतें हैं इस से तुम्हारा गुनाह कम नहीं होता । पॉलिटिकल कमेंट्री व तंज हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी गाली नहीं जो औरत के अंगों से रगड़ खाये बग़ैर मुकम्मल न हो । तुम पाकिस्तानियों को अमरीकी औरतें मुहैय्या करवाने की बात करते हो । तुम जादुई पाउडर खाने की बात करते हो जिससे महिलाओं के शरीर उनके कपड़ों से बाहर दिखाई देंगे, वग़ैरह-वग़ैरह। तुम्हारी इन बातों में जिन्हें हास्य या व्यंग्य का बोध हुआ, तुम्हारे साथ ही, मुझे उन पर भी तरस आता है । मालूम पड़ता है कि तुम्हें औरतें हीरा मंडी में ही सुहाती थीं । तुम्हारी संवेदना और सहानुभूति उनके लिये हैं जिन पर तुम मानवीयता का रौब गाँठ सकते हो । वे जो तुम्हारे सामने रोबीली हैं उनके वास्ते तुम्हारी क़लम कुटनी बुढ़िया की तरह चलती है ।
चित्र:अवधेश वाजपेई


ईस्मत चुगताई - ...और तुम्हारी दोस्त ईस्मत ? वे बाद में तुम्हारी दोस्त बनीं । पहली ही मुलाक़ात के पहले ही वाक्य में तुमने उनकी कहानी 'लिहाफ़' के अंत की तफ्तीश करनी चाही थी । क्या सोचा था तुमने कि यह बड़ा खुल कर लिखती है, देखुँ किसी पुरुष से कितना खुल कर बात कर पाती है ? उनके झेंपने पर तुमने बेगम से कहा था, "यह तो कमबख़्त बिल्कुल औरत निकली । सारा मज़ा किरकिरा कर दिया ।" तुमने बाद में वह वाक्या याद करते हुये ईस्मत के लिये कहे अपने वे शब्द वापस लिये हैं । तुम्हारी कहानियों से इतर मैं तुम्हें जब भी पढ़ती हुँ कई बार दिल में आता है कि तुम्हें अपने सामने बिठाऊँ और तुमसे कहूँ - "तुम तो कमबख़्त बिल्कुल मर्द निकले ! सारा मज़ा ही किरकिरा कर दिया ? " और स्वीटहार्ट, मैं ये शब्द कभी वापिस नहीं लूँगी । तुम बताते हो कि तुम जब भी कोर्ट केस में हाज़िर होने के लिये लाहौर जाया करते, वहाँ के करनाल शू हाउस से कई जोड़े जूते ख़रीद लाते । वे जूते तुम्हें बहुत प्रिय थे । मेरे मंटो, तुम आज यहाँ होते तो तुम्हें यह ज़हमत नहीं उठानी पड़ती । तुम्हें वे जूतियाँ 'होम डिलीवर' की जातीं, बिल्कुल मुफ़्त ! कहा तो जानूँ, इधर इन दिनों हवा पलट गयी है, अपनी पतंग बचा लो! उदाहरण और हैं किन्तु जानेमन आखिर यह प्रेम-पत्र है, ग़ज़ट तो नहीं?

"A writer picks up his pen when his sensibilities are hurt." - यह तुमने कोर्ट में जज से कहा था, अर्थात, एक लेखक अपनी क़लम तब उठाता है जब उसकी संवेदनाएँ आहत होती हैं । मियाँ कम लिखा, ज़्यादा समझना । मेरा यह लव लेटर सफिया बेगम को ज़रूर पढ़ाना । वे ख़ुश होंगी । बेगम को मेरा सलाम कहना, बच्चों को प्यार । तुम्हें - उड़न बोसा !

तुम्हारी,
आशिक।

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पल्लवी प्रसाद
मो. 8221048752
ऊना, हिमाचल प्रदेश।

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