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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 नवंबर, 2017

डॉ राजवंती मान की कविताएं


कविताएं

1.

हम वही  हैं 
        

 हम वही हैं
जिन्होंने बीड़ा उठाया है
संततियों का ,नस्लों का
और कुजाता बन रहे l

एक विराट तन्त्र
एक अन्धी किस्मत
कांट छांट कर
निर्मित कर दिया
ढांचा अस्तित्व का l

हम वही हैं
जो तिरस्कृत होते हैं
उन क्षणों में भी
जब बहुत उपयोगी होते हैं
भुला दिये जाते हैं
जब टूट कर गिरता है पहाड़
विपत्तियों का
जिन्हें भेज दिया जाता है
जहां कहीं
वहाँ जन्म लेता है
नया घर , नया शहर l

हम वही हैं
जिनकी पैदा की गयी चीजों पर
उनके नाम की तख्तियां नहीं होती
जो अपने घरोंदों में
अपना पता ढूंढते  हैं
हम वही हैं
जो कल्पना की उडान पर आयें
तो अम्बर की तरंगों पर
दस्तखत करते हैं
हम वही हैं !
००

2

ये कविताएँ
                                         
                   
ऐसे स्वप्न नहीं देखती
ये कविताएँ;
कि नशीली हवाओं में लहरायें
रेशमी पर्दों की तरह
रंगदार रोशनियाँ
 सांद्र होंठ चूमें
सभागार सीटियों की गुलाबी गूंज से भर जायें

ये कविताएँ                          
मिथ्याओं का स्वर्णाभिषेक नहीं करती
अनहद अकार्यों से
जल उठते हैं इनके भीगे होंठ 
रक्तिम ज्वाला से रची जाती हैं ताम्बई चुनरियां ।

ये कविताएँ
स्लेटी अंधेरों के शब्द हैं
इन्हें चादर फाड़ कर
रौशनी तक आना है
 कदमों को अग्रेषित करना है 
उत्तरी छोर तक ।

इनके खुरदरे हाथों की खरोंचें 
बांधती दो बूंद पानी
सूखी नदी का नीरव विलाप 

शहर की व्यापक सेज पर
कुर्बान  होते गाँव की कहानी हैं
ये कविताएँ
परे  हैं
फलहीन होने की यातना से !
००




शायद
                                               

अबके बहार आई तो ---
शायद
कपासी बादलों से
बूंदें गिरें
सूखे ठूंठों में
नई शाखें फूटें
परिंदों के चहकने से
कुछ पल अमरत्व पायें
शायद
आँखों में कुछ नमी उतरे
सांसों पर जमी धुन्ध छंटे
ठहरे समुन्द्रों में
मचलती लहरें उठें
शायद
बचपन की अठखेलियाँ
लड़कपन की शोखियाँ
अहसास दिलाएं
कि हवाओं में रंगीनियाँ हैं
उतरती चढती
सांसों में
कहीं जिंदगियां हैं !
००

सभी चित्र: अवधेश वाजपेई

तुम कहाँ थे ...

कहाँ थे तुम
जब दिल पर वज्रपात हुआ
और चीथड़े चीथड़े होकर
बिखरा पड़ा था
हर चिथड़ा 
हर पुर्जा
एक बूंद ठंडे पानी को
सिसक रहा था
तुम कहाँ थे...

कहाँ थे तुम
जब समुन्द्र आँखों में खुश्क हुआ
सिकुड़ी हुई  पलकों के
उभरे हुए डोरे
तलाश रहे थे
रगों में बर्फ
हो गये  लहू को
उष्ण उँगलियों के
सहलाने की दरकार थी
तुम कहाँ थे ...

कहाँ थे तुम
जब गला अवरुद्ध था
अनवरत रुदन से
चेहरे पर सूजी हुई
सुर्ख आकृतियाँ
डरा  रही थी
और सूखे होंठ
बोले बिना बन्द थे
तुम कहा थे ...

कहाँ थे तुम
जब बेजान हाथों ने
शिथिल अंगों को एक – एक कर
समेटा ,सम्भाला था
गहरी टीस ने
दिल को तसल्ली दी
सुनी दीवारों ने
टूटे जिस्म को खड़ा किया
तुम कहाँ थे...
मैं , अब
सुस्थिर , सशक्त कदमों से
स्वयं चल पड़ी हूँ
शुक्रिया !
००
     
एक दिन  
                                         
एक दिन 
जिस पत्थर से 
चोट खाकर
 पैर घायल हुआ था 
और कुछ पल वहीं बैठ कर 
आंसू समेट कर
 चल पड़ी थी 

अब 
वह पत्थर 
वहाँ नहीं है 
बस चोट का
 निशान है 
और
 रास्ता है 
००
         

कतरा 

एक कतरा 
मुक्तक सा 
शीतल 
छुआ तो 
अन्तर्मन तक जल गया 
प्रेयसी की 
विरह अगन  सा
ये आंसू
शबनम है
या अनल  !
००

अवधेश वाजपेई


तो सवाल उठता है 

तो सवाल उठता है
जब मातहत कहलाने वाला
एक अदना आदमी
कोई उम्मीद न रखे
धत्ता बता कर निकल जाए
और तुम …
उसके बदबूदार कुर्ते के कोमल सपने
कुन्द जबान की भाषा
आँखों में उतरे भित्तिचित्र
न देख पाओ ,न पढ पाओ
तो सवाल उठता है
मेहनत से घिसे उँगलियों के पोर
हथेलियों में उगे काठ के आटण
धरती चाटती ऐड़ियाँ
कीर्तन करती हड्डियाँ
कुछ भी दिखता सुनता न हो
तो बहुत छोटा है तुम्हारा कद !

आवाज की नमी
आँखों का सूखापन 
दरांती के दांतों सी नुकीली मूंछें
होठों की पिटारी
खुलती न हो विराट  तन्त्र पर
तो सवाल उठता है
सवाल उठता है
क्यों बैठती हैं जाकर
सडकों पर
पटड़ियों पर
ये शिव –मूर्तियाँ !
००



प्रिय नीम

नहीं जानती !
किस योद्धा ने तुझे जन्म दिया
धरा के गर्भ में उतारा
प्रस्फुटित किया 
क्योंकि जब मैंने देखा
तू भरपूर यौवन में
और मैं चंचला सी

अनेक परिन्दों का आश्रय
गहरी जड़ों के साथ
चबूतरे पर सीना ताने
शाखों की गोद में
मुझको छिपाए
खड़ा था ।

सावन की फुहारों में
हिलारंे लेती कौपलों को
झूलों में झूलती
कमनियों ने छुआ था
 नवयौवनाओं की उमंगे
बजुर्गों की बैठकें
सजी संवरी पनिहारनें
तूने कनखियों से निहारी थी ।

बरसों निरोगी छांव में
 रसीली निमौरियां चूंघी         
रगड़ कर तेरी  छाल
मां ने फुन्सियों पर लगाई 
तुझ से सौ औषधियां पाई 1 

फिर
कौन से आसमानों से हुक्म हुआ
किन सितारों के उल्का गिराई
या धरा ने कुरेद दी
जड़े
कि
अधोमुख है
टहनी टहनी डाल डाल
का मोलभाव हुआ
बोलियां लगीं, बिक गया

मगर मुझे विश्वास है
गहरे
और गहरे
मिटटी में दबी जड़ें
प्रस्फुटन को आतुर हैं

क्योंकि
परिन्दों की रूह में संगीत हैं
ईश्वर का आदर्श अनुराग
और अभी मैं जिन्दा हूं 
मेरे प्रिय नीम!
००

  

दादी का चरखा 

ऐ दादी के चरखे
गर्र गर्र गर्र गर्र

कितना धीमे चलते हो तुम
सारी दोपहरी घिंघिआते हो
बन गए हो अब तुम
पुरातात्विक अवशेष
रह गए हो बनकर
गांधी का स्मृति चिन्ह ।

पर कौन भूला है तुम्हारे यौवन को
परराज की आंखों का कांटा थे
विष भरा पाठ
बड़ी से बड़ी सैनिकों की फौज पर भारी
मूक वक्ता
निर्जीव तलवार
गहरा वार
तुम्हारा मंत्र सार था
दादी के चरखे

समेट कर गृह कार्य
घर बाहर की सब पड़ौसिनें
बतियाती थी तुम्हारे इर्द गिर्द
और तू गवाह था सबका
बूढ़े चरखे
क्या क्या न सुना तुमने
चुपके चुपके
नववधुओं की रंगीन कहानियां
नवयौवनाओं के सुनहरी सपने
मां, चाची की गृह पीड़ाएं
जिरहें, गिरहें
खुलती थी तुम पर
दादी के चरखे

शैतान के पहिए थे उनके लिए
सुई सा मुंह  लिए
बड़े बड़े साम्राज्य भेद डाले
कितनों की जड़ें कुरेद दीं
पुरानी घिसी पिटी माल
गले की फांस बन गई
बुलन्द और सयानों की

लेकिन
दादी के बूढ़े
झुरियों भरे हाथों की उंगलियां
तुम्हें दिन भर नचाती थी
नरम कपास की पूणियां खाकर
सूत उगलते थे
तार तार अम्बार
सूर्यास्त पर ही मिलती थी
तुमको विदाई और फिर
सोते थे दीवार से सटकर
दादी के चरखे

एक एक तार बनता था
बुनकर की जीविका का आधार
रंगरेज की छपाई
रंगभरी गुलकरी अंगियाई
गर्म रजाई
देती थी नव जीवन को उष्णता
जननी को दुकनियां
लाल, नीला अम्बर
उस पर कढे बेल बूटे
सौन्दर्य की धुरी थे
निस्संदेह श्रद्धेय हो तुम
काठ के उष्ठ
दादी के चरखे !
००

1789 में अंग्रेज अधिकारी आर्किब्ल्ड ब्लेयर भू-रचना व हवा पानी का जायजा लेने 
अंडेमान निकोबार पहुंचा और वहाँ  पोर्ट बनाने की सिफारिश की l  1857 के गदर के बाद हजारों क्रांतिकारियों को कालेपानी की सजाएं देकर वहाँ भेजा गया,क्रूर यातनाएं दी गईं  और अनगिनत मारे गये l उन्हीं अकीर्तित नायकों को समर्पित मेरी लम्बी कविता के कुछ अंश  :-


अवधेश वाजपेई


"काला पानी से सैल्यूलर जेल तक

                                              
काला नहीं था तब यह पानी
बंदूक की गोलियों की राख़
नहीं घुली थी इसमें
अस्थियों का कोयला भी नहीं
अंडेमान निकोबार
अनछुआ , अन शोषित सा
नहीं पहुंचा था वहाँ कोई आर्किबल्ड ब्लेयर
नील मछलियों पर गुलामत लादने ! 

दूर से देखी  अंडेमान ने
गुलामी के विरोध में घूमती रोटियां
बैरकों में उठता धुंआ / जलते शस्त्रागार
बेचैन डाक बंगले
छावनियों तक सिमित न था अट्ठारह सौ सत्तावन
गली,चोराहे ,नुक्कड़ों ने सुनें
इसके जयकारे / उद्घोष
देखे दमनचक्र भी दूर से 
खून से रंगी सडक
आज भी कही जाती है लाल सड़क !

 प्रतिशोध की खातिर 
फ्रेड्रिक  मौवत  और प्लेफेयर को  तलाश थी
एक  जगह की /अंतहीन रात सी
जहां बुझा सकें वो सूरज  
जला सकें चांदनी / भेज सकें बहिष्कृत कर 
विद्रोह करने  वालों को  !

सुबकती लहरें / ढोती गईं  बोझ कश्तियों का
निरंतर/ उतरते वतनपरस्तों  के टोले  
कलकत्ता से मद्रास,कराची से सिंगापुर ,बर्मा तक से
कष्ट यात्रा में टूटती  गयीं  / सांसों की डोर / बहुतेरों की ! 

छोड़ते गये  हाथ पांवों में बेड़ियाँ डाल
चेथम ,रास और हेवलॉक के जंगलों में
 ‘दण्डी बस्ती’  कहा गया  उन्हें !
जलावतनी , वर्षावनों का वास
जिस्मों पर जमता समुन्द्र का खारापन
और  पेट की आग
‘खा  सकते हो मार कर एक दूसरे को ‘
कहा मिलिट्री डाक्टर  वाकर ने !

दो कटोरी पानी/कीड़े-मकोड़ों और भूसे की रोटी
जंगली घास का  लावण
कोल्हू में जुत  कर तेल निकलना 
बांध दे गाठें  पेट में अंतड़ियों की 
प्यास और पेशाब गिने जाएँ अपराध
सुबह ,दोपहर ,साँझ के  बाद
घुटनों पर आना पड़े  जमादार के
शौच की खातिर
बदतमीज फिकरे ,गाली गलौच
नृशंस कोड़ों की मार
छिले बदन पर टाट  के कपड़े
सूइयों से चुभते
ना पहनो, तो खेंच लें प्राण हाड़ों में घुसकर
समुन्द्र की नमकीन हवाएं !

उदासी और निराशाएं भी छुपाये रखती हैं
अपने भीतर आशा
 जोश, आक्रोश ,प्रतिकार में
डूबती रही सांसें/खपती रही आस्थियाँ
घुलते रहे आंसू/ गहरा काला होता रहा समुन्द्र !

 नाम तक  नहीं जानते हम
गिनती भी  मालूम नहीं  उनकी
जो काल कलवित हो गये 
मियादी नहीं थी उनकी सजाएं
कि तारीखें  गिनी जातीं / रंगे जाते कलैंडर/ कि बाट  जोहते !

चस्के लेकर पढ़ते रहे फिरंगी / पोर्ट ब्लेयर न्यूज
मासिक पैथोलोजी रिटर्नस
मई :बीस इंच बारिस एब्रडीन पर/ सोलह मरे डायरिया से
जून :बरसात तेरह इंच/ अल्सर पीड़ित कन्विक्ट ने
लगाईं फांसी परसेवरेन्स पॉइंट पर
जुलाई : बम्बू फ्लैट पर भूख से हुए कंकाल /मर गये पैंतीस  !

सिनकोना एल्कलायड का परीक्षण करें
एक हजार कैदियों पर /आदेश था  सचिव शिमला का
पोर्ट ब्लयेर के डाक्टर रीड को
रोज खिलाएं तीन दानें / बीमार पड़ने तक
एक हफ्ते में देश भक्त सेनानी
होते गये खून रहित / डायरिया और दो दिन में मौत
पेरू से किया था ये जहर आयात 
इन हरित द्वीपों ने नहीं देखा था
ऐसा भयावह अतिक्रमण /उनकी देह पर
 गढ़ी साम्राज्यवाद की/ भेदक नजर !

दस साल लगे बनाने में /एक जेल सेल्यूलर
ओक्टोपस सी ,तिमंजिला
एक जोड़ी लहू लुहान हाथ तोड़ते पत्थर
एक जोड़ी पांव बींधते जमीन 
अपने वास्ते बनाते एक जेल / एकाकी !

सरंचना ऐसी कि मिला न सकें नजर एक दूसरे से
ना सुनाई दे कोई आवाज
हां , दिखते रहें फांसी के फंदे
और उन पर झूलते उनके साथी /धुर एकल  कोठडियों  से 
काले कपड़े से चेहरा ढकना /अंतिम इच्छा जानना 
यहाँ की योजनाओं में नहीं 
बस , डूब जाती हुई आँखों के ‘ब्लैक होल’ में
ज्ञात अज्ञात स्मृतियां , रोशनी  के कण
 रंगो के सतरंगी खोल !

दण्डी बस्तियों के हजारों देश भक्त कैदी 
लेखक , कवि ,जमींदार/ चेतस में आज़ादी बोये
बन्द तेरह बाई सात की /इन काल कोठड़ियों में
कसैली यातनाओं में
निस्वार्थ इच्छाओं की पूंजी समेटे
आज़ादी का बीज वाक्य धारे !

जेलर के जूतों का निर्लज्ज  टक्कारा /जंजीरों का लोहा
यातनाओं की नंग तस्वीरें
तोड़ ना पाई हौसले उनके /और ना भूख हडताल
जबरदस्ती की जद्दोजहद में
बुझ गये आंखो के भभूके
भाई महावीर ,मोहन किशोर ,मोहित  मित्रा  के
मृत जिस्मों को  पत्थर से  बाँध
फिंकवा दिया  समुन्द्र में / रात के घुप अन्धेरे में !

दहाड़ मार कर रोया सागर
मूक न रह सके वो  पत्थर
दुनिया के नियामक कहलाने वालों को 
खत्म करनी पड़ी  सजाएं कालेपानी की

सुन्न पड़ी ये सेल्यूलर जेल / एक सौ दस वर्षों  से
चश्मदीद गवाह है /पत्थरों में ज़ज्ब लहू की
आती है गन्ध इस इलाके से
साँसों की ,नमक की, यातनाओं की
मौन पत्थरों के सन्नाटों में
कसकर गूँजती हैं  बलिदान गाथाएं
हमारी आज़ादी की खातिर / मर मिटने वाले
दण्डी बस्तियों के बाशिंदों की
कालापानी से सैल्यूलर जेल  तक !!
००


डॉ राजवंती मान


डॉ राजवंती मान 
98146 76936
[31/10, 3:51 PM] राजवंती मान कवि रोहतक: - - - -    ---      ---      परिचय 
डॉ राजवंती मान, कवयित्री, लेखिका और शोधकर्ता। हिंदी, उर्दू व अंग्रेजी में लेखन 
 किसान व  सैन्य पृष्ठभूमि ।
हरियाणा सरकार के अभिलेखागार विभाग में उप निदेशक के पद पर कार्यरत ।
इतिहास और साहित्य में रुचि।
मुख्य पुस्तकें:
1)चंद्रशेखर आजाद :विवेकशील क्रान्तिकारी
2)राजा जा नाहर सिंह और 1857 की जनक्रांति 
3 )भगतसिंह को फाँसी ट्रिब्यूनल प्रोसिडिग्स -दो खण्डों में 
4)सोशल रैडिकलिज्म इन उर्दू लिटरेचल :ए स्टडी आॅफ जैन्डर ईश्यूज एण्ड प्राब्लमस 1930-1960
5)   बबूल की छांव (गजल संग्रह)
6) परिन्दे की आरजू  (काव्य संग्रह )
7)सर छोटूराम :शख्सियत और मिशन (उर्दू )

हरियाणा उर्दू अकादमी का तर्जुमा नगार पुरस्कार 
हरियाणा साहित्य अकादमी का श्रेष्ठ कृति पुरस्कार

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