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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

24 जून, 2018

मैं क्यों लिखती हूँ

मधु कांकरिया 


भारत की लोकप्रिय कवयित्रियों में से एक अमृता प्रीतम ने एक बार लिखा था-  मैं सारी ज़िंदगी जो भी सोचती और लिखती रही, वो सब देवताओं को जगाने की कोशिश थी, उन देवताओं को जो इंसान के भीतर सो गए हैं.
काश मैं भी कुछ ऐसा कारण लिख पाती!



मधु कांकरिया 


बचपन में मैं लम्बी लम्बी चिट्ठियां लिखती थी ,मित्रों को ,माँसियों को ,मामाओं को ,जबाब में आती उनकी दो पंक्ति ,बड़ी कोफ़्त होती .लेकिन लिखने की आदत शायद तभी से लगी. सहानूभूति पाने के लिए झूठ भी खूब बोलती थी शायद आज की भाषा में उसे कल्पनाशीलता कह सकूं.जहाँ कीचड ना मिले ,वहां सरोवर का दावा करना क्या कम जिगरे का काम है?

लेकिन हाथ कच्चे थे इसलिए जो भी विचार आते वे बिन गड़ेरिये की भेड़ों की भांति बिखर जाते. धागे छूट जाते.अच्छी खासी मेहनत से लिखी कहानियां भी जब लौट आती और सिलसिला थमता नहीं नजर आता तो एक बार ऐसा भी हुआ कि मैंने कलम ही तोड़ दी-लिखने के भूत से खुद को मुक्त करने के लिए.तब सारा जमाना दुश्मन नज़र आता.सारे सम्पादक अधकचरे और भ्रष्ट नजर आते,जिन्हें जाने कितनी बार मैं अपनी कल्पना में सूली पर चढ़ा चुकी होती.लेकिन मेरी जिन्दगी में प्रतिभा से ज्यादा योगदान संयोग का रहा हर बार कुछ ऐसा हो जाता कि कलम फिर उठ जाती.
क्यों लिखती हूँ?

मैं शायद इसीलिए लिखती हूँ कि समय का अथाह समुद्र हरहरा रहा है ,उससे पार पाने के लिए लिखती हूँ.फर्ज कीजिये दिन भर समुद्र में जाला लिए खड़ी रहती ,या तसले में ईंट ,गारा ,पत्थर , ढोती रहती ,या खेत में कुदाल चलाती रहती या घरों में बर्तन धोती रहती तो पाल सकती थी क्या लिखने की विलासिता ?भूख को हर जगह रोटी दिखती .भूखे पेट से रचना नहीं निकलती.रचना तो तभी निकलती है ,जब पेट भरा हो पर रूह प्यासी हो ,जब अतृप्त मन खदबदा रहा हो चाहे चिंता से चाहे चिंतन से. चाहे स्मृतियों से ,चाहे कल्पना से चाहे अनुभूतियों से . जब भीतरी दबाब हो ,बेचैनियाँ हों .
सबसे उर्वर इलाका है मन और अवचेतन.प्रसिद्ध उपन्यासकार गार्सिया मार्खेज ने लिखा है कि हम जो लिखते हैं वह दरअसल हमारी स्मृतियों का ही आख्यान होता है जिससे हमारा सुदूर अतीत गहराई से जुदा होता है.शायद मैं भी इसीलिए लिखती हूँ कि अपने भीतर के स्मृतियों के जंगल में टहल सकूं , अपने में लौट सकूं . मन के उन दरिंदों से भेंट कर सकू जो कई बार जीना दुश्वार कर देते हैं ,लिखना अपने को पढ़ना और गहरे से देखना भी है ,अपने भीतरी अंधेरों को टटोलते रहना है .स्मृतियाँ भी अपनी काया में नहीं अपनी अनुगूंजों में जिन्दा रहती हैं ,मैं उन्ही जिन्दा अनुगूंजों को कागज पर उतारने के लिए लिखती हूँ.

कोई अतृप्ति,अतीत की बेचैन स्मृति,कोई अपराध बोध..कुछ भी मन –आत्मा को भटकाता रहता है और कोई रचना जन्म लेने को छटपटाती रहती है.कभी मन के अतल पर सालों से गुमसुम पड़ी कोई कहानी सतह पर आकर कुबुलाने लगती है और जन्म लेने लगती है.वैसे मेरा तो यह भी मानना है कि लेखक बनने के लिए थोडा गधापन भी चाहिए.बहुत चतुर,चालबाज ,हिसाबी किताबी बनिया चाहे और कुछ बन जाय पर लेखक नहीं बन सकता.लिखती हूँ कि जिन्दगी के बंद अध्याय खुले,बंद दरवाजों पर दस्तक हो.पर जनाब सच कहूं तो यह भी अर्द्ध सत्य ही है,पूरा सत्य तो यह कि बचपन में मैं पढती बहुत थी ,घर में किताबें बहुत थी, पढती तो लगता ऐसा तो मैं भी लिख सकती हूँ बल्कि इससे कहीं अच्छा लिख सकती हूँ.बस यही आत्ममुग्धता लिखाती चली गयी.

मैं वही लिखती हूँ ,जिसे मैं गहराई से महसूस करती हूँ,जो सुदीर्घ समय तक मेरी सोच और संवेदना का हिस्सा रहते हैं. कोलकाता में मैं जहाँ रहती थी उस घर के सामने ही स्लम,झुग्गी -झोपडिया ,बस्तिया,और हाथ -रिक्शेवालो की रहस्मयी दुनिया थी .रोज आते-जाते मैं इन गृहस्तियों को देखती,इनके परिवार का हर सदस्य श्रमिक ,कोई हाथ रिक्शावाला ,कोई बोझा ढोनेवाला,कोई ठेला चलानेवालातो कोई सड़क पर झाड़ू मारनेवाला.मुझे लगता की देश की प्रगति और अर्थ व्यवस्था के यही वास्विक सेंसेक्स हैं.ये ही बने मेरे विचारों और चिंतन के लेबर रूम.पिछले ३० सालों में देश  की जी.डी.पी ने कितनी उछाल मारी,देश में करोड़ पतिओं की बाढ़ आ गयी ,पर यह तबका आज भी जहाँ का तहां खड़ा है.धरती को ओढ़ता ,आसमान को बिछाता.एक लेखक के रूप में असंतुलित विकास की यह गति ,यह अराजक भूमडलीकरण ,यह आवारा विदेशी पूँजी और सरकार की जन विरोधी नीतियां मेरी सोच,लेखन और चिंताओं में शामिल है.पहले हम निर्धन थे अब हम दरिद्र हैं.

मेरी कहानियों में भी मेरी वही बेकाबू वेचैनिया ,सामाजिक विसंगतियों से उपजे आन्तरिक दबाब   और जीवन की सघन अनुभूतिया हैं. एक दो कहानियों का जिक्र करना चाहूंगी.मैं २००७ में कश्मीर गयी थी. वहां मैंने देखा की किस प्रकार कश्मीर की बेबस और गरीब अवाम आतंकवाद और आर्मी के शिंकजे में फँसी है. युद्ध और बुद्ध, काला चश्मा, बस दो चम्मच औरत जैसी कहानिया कोख उजड़ी माओं और आतंकवाद से सिसकते परिवारों ,और सिआसत के खेल में वेजरूरत शहीद होते हमारे फौजिओं की कहानिया हैं. चिड़िया ऐसे मरती है,एक ऐसी लड़की की कहानी है जो एक समय सिर्फ कविता,ग़ज़ल ,प्रेम,सौन्दर्य और स्वप्न में ही जीती थी,कुछ सालों बाद जब उसका प्रेमी उससे मिलाता है तो पाताहै कि इस टुच्चे समय ने उसे सिर्फ दाल - रोटी का ही बनाकर रख दिया है.उसे लगता है कि उसने अपनी प्रेमिका को तब नहीं खोया था जब उसकी शादी हो गयी थी वरन अब खोया जब वह उससे दूसरी बार मिला.अब बात उपन्यासों की . उपन्यास जीवन की महा गाथा है .वह जीवन ,मनुष्य और सत्य की खोज है जिसके लिए कई बार लेखक को नरक की यात्रा करनी पड़ती है .

अभी तक जितने भी उपन्यास लिखें हैं मैंने ,यदि एक वाक्य में कहूं तो मेरे सारे उपन्यासों में सत्य ज्यादा और सुन्दर कम रहा है  क्योंकि ये सारे उपन्यासों के कथानक लेखन के प्रवाह में खुद ब खुद चलकर मेरे पास आ गए थे .क्योंकि हाल फिलहाल तक जीवन हमेशा से ही उबड़ खाबड़ रहा.हर दो तीन साल बाद नौकरियां बदलती रही .तो स्वभाविक रूप से अनुभव संपदा भी बढती गयी .रही सही कसर घुमक्कड़ी ने पूरी कर दी .शिल्प विल्प मैं जानती नहीं हूँ .हाँ भाषा अवश्य पात्रों के अनुरूप बदलती रही है.मुझे नहीं लगता मेरे पहले के और अभी के उपन्यासों में विषयों के अलावा विशेष अंतर आया है .भविष्य में उपन्यासों का जो भी स्वरूप रहे टिकेगा वही जो संवेदनाओं के तल से फूटेगा ,जहाँ निजता सार्वभौमिकता का स्पर्श करेगी .जिसकी किस्सागोई में आम जन अपने दुःख – सुख ,स्वप्न और संघर्ष को देख सकेंगे .
दक्षिण भारत में मैं सिर्फ दो सालों के लिए थी , यहाँ मैने लोगों को  अतिरेक पर जीते देखा.जितने आधुनिक, उच्च शिक्षित उतने ही अन्धविश्वासी,धर्मांध,परंपरागत .जितना समय घर में नहीं बिताते उससे कहीं अधिक समय मंदिर में बिताते. लोगों के इस प्रकार के विरोधाभासों ने निश्चित रूप से मेरे अनुभवों को समृद्ध किया है जिसका प्रभाव मेरी कहानी ‘वे दस मिनट ‘ में कुछ कुछ मिलेगा आपको .
००



परिचय 
मधु कांकरिया 
जन्म : 23 मार्च 1957
भाषा : हिंदी
विधाएँ : उपन्यास, कहानी, विमर्श, यात्रा-वृत्तांत

मुख्य कृतियाँ
उपन्यास :  खुले गगन के लाल सितारे, सलाम आखरी, पत्ताखोर, सेज पर संस्कृत, सूखते चिनार
कहानी संग्रह : बीतते हुए, और अंत में ईसु, चिड़िया ऐसे मरती है, भरी दोपहरी के अँधेरे (प्रतिनिधि कहानियाँ), दस प्रतिनिधि कहानियाँ, युद्ध और बुद्ध
विमर्श : अपनी धरती अपने लोग
यात्रा-वृत्तांत : बादलों में बारूद 

सम्मान
कथा क्रम पुरस्कार, हेमचंद्र स्मृति साहित्य सम्मान, समाज गौरव सम्मान, विजय वर्मा कथा सम्मान, शिवकुमार मिश्र स्मृति कथा सम्मान, विंध्य साहित्य सम्मान  
संपर्क
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