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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 जून, 2018

परख: दो

कवि! आपका दृष्टि दोष है मात्र !

गणेश गनी

असद ज़ैदी साहब के तीन कविता संग्रह आधार प्रकाशन से एक साथ यानि एक ही ज़िल्द में सरे- शाम शीर्षक से छपकर आए तो मैंने भी यह किताब खरीदी। मैं कई बार इस किताब को पढ़ता, फिर बीच मे ही छोड़ देता, फिर पढ़ता, फिर छोड़ देता। अंत में जैसे तैसे यह किताब ख़त्म की, करनी भी पड़ी 350 रुपए खर्चे थे वरना छोड़ देता।


गणेश गनी



 फिर एक दिन एक कवि मित्र से बात की कि ज़ैदी कैसे कवि हैं। उन्होंने कहा बड़े कवि हैं, बड़ा नाम है, पर क्यों पूछ रहे हो। मैंने साफ कहा कि मुझे एक भी कविता ने प्रभावित नहीं किया और कोई एक भी कविता जेहन में नहीं घूम रही। उन्होंने तुरंत कहा कि कवि को बहनें कविता के लिए याद किया जाता है। हां यह बात सच है कि कवि शुष्क और नीरस है। मैंने कहा परन्तु बहनें कविता भी मुझे याद नहीं आ रही। घर लौटा तो फिर किताब खोली और बहनें कविता पढ़ी। कविता ने बहुत प्रभावित किया परन्तु यह समझ आया कि अच्छी कविता भी बहुत के चक्कर में कहीं खो गई थी। काश! कवि ने तीन संग्रह एक साथ निकालने के बजाए कुछ चुनिंदा कविताओं को ही प्रकाशित किया होता। एक और बात जो समझ आती है वो यह कि कवि और प्रकाशक दोनों यह अच्छी तरह से जानते हैं कि एक ही कविता बेहतरीन है, तभी एक किताब का शीर्षक ही बहनें और अन्य कविताएं रखा गया।
असद ज़ैदी की कविता का एक अंश देखें-

मैं ही कल चप्पल सुधरवा रहा था
मेरा ही रूमाल खो गया था यहीं कहीं
कल कुछ क्षणों के लिए जीवन खेल हो गया था
मेरी इच्छाएं कल मुझे चकमा देती थीं
कल ही मैं तुम्हारे करीब आकर लौट गया था

दोपहर बाद मैं ही हँस रहा था लगातार
भूल जाना भी एक वरदान है
शाम को मैं ही उल्टी कर रहा था
एक आवाज़ आपने सुनी होगी।

कवि से कहता हूं , हमें उल्टी की आवाज नहीं सुननी है, हमें कविता सुननी है। आप यूँ ही उल्टी करेंगे तो हमारा कविता से विश्वास उठ जाएगा। कवि की एक और कविता देखें जो केवल सूचनापट्ट पर चिपकाई सूचना जैसी है-

नृतत्वशास्त्र! इस काम में दिक्कत यह है कि अक्सर लोग इसकी बारीकियों को समझते नहीं, छोटे मोटे सवाल पूछते हैं और खुलासा करते करते आदमी तंग आ जाता है। आख़िर क्यों नृतत्वशास्त्र? जवाब में एक रोज़ मैंने नाटकीय अंदाज़ में कहा: माट साहब, जब तक इस दुनिया में नर और नारी हैं, जब तक नृ और तत्व हैं, तब तक शास्त्र भी रहेगा और शास्त्री लोग भी। पास में खड़ी देहातिन बोली- तो शास्त्री जी, कछु शादी ब्याउ भी कराऔ ?

अब कवि अगर ऐसी बात लिखेगा तो सवाल तो लोग पूछेंगे ही और आप तंग न होना जी। कविता में बिम्ब, रूपक, मुहावरे, शिल्प, शैली आदि पर भी कुछ ध्यान देंगे तो कोई सवाल नहीं पूछेगा। कवि की अपनी भाषा हो और कहने का अलग अंदाज़, कवि का जन से जुड़ाव और मिट्टी से लगाव हो। किताब के ब्लर्ब पर तीन कविताएं लगाई गई हैं, उनमें से एक आपके लिये-

एक कविता जो पहले ही से ख़राब थी
होती जा रही है अब और ख़राब
कोई इंसानी कोशिश उसे सुधार नहीं सकती
मेहनत से और बिगाड़ होता है पैदा।

इस कविता का शीर्षक है अप्रकाशित कविता। असद साहब आप भी कमाल करते हैं, भला कविता भी कहीं मेहनत से सुधारी जा सकती है! मेहनत से सरकारी नौकर बन सकते हैं, मेहनत से बॉडी बिल्डर बन सकते हैं, मेहनत से पुरस्कार ले सकते हैं, मेहनत से मजदूरी कर सकते हैं, पर मेहनत से कविता नहीं बनेगी। कविता बनाने के लिए थोड़ी सी प्रतिभा भी चाहिए होती है। तो समझो कि कविता या तो बनेगी या फिर नहीं बनेगी। आपने सही बात की, पर देर हो गई शायद। कविता पर अधिक मेहनत से बिगाड़ ही पैदा होगा। मौलिकता की ऐसी की तैसी फिर जाएगी।
कवि ने अपनी कविताओं में भाषा और बिम्बों पर कतई काम नहीं किया। ऐसा नहीं है कि बिम्ब नहीं हैं, हैं भाई, बिम्ब हैं, पर ऐसे हैं-

छोटे छोटे दुखों से गले तक भरा
एक दुःखी मक्खी की तरह
तुम्हें पता है मैं आऊंगा।

इतने दुःखी आप ख़ुद ही हैं तो क्या ख़ाक जाएंगे जनता के पास, उसके दुःख दर्द बांटने, उसकी पीड़ा को शासन के मेज़ पर क्या रख पाओगे! लोक की बात कब करोगे, व्यवस्था के विरुद्ध कब उठोगे? अभी तो आप यही सोच रहे हो -

क्या मैं कभी बालों में तेल डालूंगा
क्या मैं कभी बांग्ला सीख पाऊंगा।

प्रेम जैसे बेहद नाजुक चीज़ को भी कवि कोमलता से उठा नहीं पाया। बिम्ब खोजे ही नहीं गए और भाषा विकसित ही नहीं की गई। प्रेम सत्य है और सुंदर है लेकिन आप कहते हो-

हम मिलते थे जैसे दो कोढ़ी मिलते हैं

प्यार लूलों लंगड़ों का कभी न मिटने वाला
प्यार जिसके बग़ैर हम मर नहीं जाते

हम दोनों एक दूसरे के अंदर
कुछ पकाते रहते थे

फिर क्या होता है?
आयशा फिर जैसे अण्डा फूटता है।

या तो कवि ने प्रेम नहीं किया या फिर किया तो प्रेम को समझा ही नहीं। प्रेम और खूबसूरती पर नाज़ुक शब्द चाहिए लिखने को। इधर तो पढ़ते ही ऐसा लगता है जैसे सर पर सैंकड़ों अण्डे फूटे हैं।
प्रेम के साथ नदी का बहुत गहरा जुड़ाव है। हिंदी में कुछेक कवियों ने बहुत खूबसूरत लिखा है नदी पर। असद ज़ैदी की एक कविता नदी पर है जिसे पढ़ते हुए ताज्जुब होता है-

इसी काली भैंस ने खा लिया था मेरा तहमद
बनियान तो ख़ैर मैंने इसके हलक से खींच लिया था
कभी कभी यह डकराती और पूंछ मारती थी
जिससे कछुए निकल भागते थे
मेरा बहुत सा साबुन इसके पेट में चला गया।

पाठक ने आपके कच्छे बनियान से क्या लेना ? हमारे इधर पहाड़ों में फलों को पेटियों में पैक किया जाता है ताकि सुरक्षित बाज़ार तक पहुंच पाएं। कभी कभी व्यापारी लोग पैकिंग करती बार ऊपर और नीचे की तहों में तो बढ़िया फल डालते हैं और बीच बीच में खराब और छोटे फल भी भर देते हैं चुपके से ताकि ग्राहक को पता न चले। अधिकतर ग्राहक तो बिना पड़ताल के ही पेटी उठा लेते हैं परंतु कुछ ग्राहक पेटी खुलवाकर पूरी पड़ताल के बाद फल लेते हैं, तब ये व्यापारी पकड़े जाते हैं।
एक और कविता देखें जो कविताओं की इस पेटी में पैकिंग के लिए डाली गई है ताकि पेटी भरी भरी लगे-

उस लड़के को स्वप्न में दिखते रहते हैं स्तन
उसके होंठ हिलते रहते हैं नींद में
जीभ कुछ चाटती रहती है
उसकी माँ समझती है
उसकी शादी हो ही जानी चाहिए।

असद ज़ैदी


अब कवि महोदय आप तो अंतर्यामी निकले कि दूसरों के स्वप्न भी जान लेते हैं। यह कमाल का गुण है। काश आपने उस लड़के के उन स्वप्नों को भी देखा होता जिनमें उसे रोटी दिखती है, एक छोटा सा घर दिखता है, घर के बाहर एक सुंदर आँगन और आँगन में उसकी पत्नी बच्चे के साथ खेल रही होती है। काश आप उसके हिलते होंठों की सच्चाई पढ़ पाते कि वो कैसे एक अदद नौकरी के लिए गिड़गिड़ा रहा है। यह सब आप नहीं समझोगे क्योंकि आपकी दृष्टि का दोष है, आपका कोई दोष नहीं है।

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परख: एक नीचे लिंक पर पढ़िए 


                 कविता की नेमप्लेट

     ( देश के दो बड़े कवि के नाम खुला पत्र )

http://bizooka2009.blogspot.com/2018/05/91-91-70-103-100-103-108-103-100.html

3 टिप्‍पणियां:

  1. गणेश भाई, आपको कविता की समझ नहीं है इसलिए इसकी समीक्षा न करें तो कृपा होगी.

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  2. दिनेश जी से कविता की अच्छी समझ के साथ आलेख आमंत्रित है। कविताएं आप स्वयं चुनिए मित्र और अपनी समझ के साथ उनकी व्याख्या करें। अपनी बात रखें ताकि कविता के पाठक अपनी समझ विकसित करें। स्वागत है दिनेश जी।

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  3. यह सच है कि किसी कवि की लिखी कुछेक कविताएँ ही पठनीय होती है जैसा कि असद जैदी की कुछेक कविताओं (बहनें...इत्यादि)को लेकर यह बात कही जा सकती है । अन्य कविताओं को लेकर गणेश गनी जी ने जो सवाल उठाए हैं उनके साथ उन्होंने अपना तर्क भी रख दिया है । यह कहना कि कविताओं की समझ गणेश जी को नहीं है यह एक किस्म का अतिरेक है । किसी नाम के पीछे हो लेने की वृत्ति भी आज की साहित्यिक विवशता है इसे भी हमें समझना होगा । बहरहाल गणेश जी अपनी बेबाकी बनाए रखें तो आगे बात बने ।

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