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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 जून, 2018

यात्रा वृत्तांत:

'हर की दून’- नेचर्स बून

राजकुमार




हर की दून


इस बार दोस्तों के बीच तय हुआ – ‘हर की दून’ की ट्रेकिंग की जाय. एक तो अपनी व्यस्त जिंदगी से समय निकालना आसान नहीं होता दूजे सभी दोस्तों के लिए एक सर्वमान्य तारीख तय करना और भी मुश्किल होता है. कभी हाँ कभी ना के बीच  29 मई को यात्रा का मुहूर्त निकला.


     चूंकि टिकट पहले से ही बुक करा लिए थे अत: बस मिलने में असुविधा नहीं हुई. तय कार्यक्रम के अनुसार सभी साथी रात्रि 11 बजे दिल्ली के कश्मीरी गेट बस अड्डे पर थे. इससे पहले कि बस दिल्ली से देहरादून की ओर बढ़े टीम के परिचय की औपचारिकता पूरी कर ली जाय. एक बार फिर टीम का नेतृत्व कर रहे थे अनुभवी ट्रेकर साथी संजय कबीर और हिसाब-किताब की जिम्मेवारी इस बार संभाल रहे थे साथी राजकुमार. टीम के अन्य सदस्यों में शामिल रहीं साथी सविता, साथी कविता, साथी नीरा, साथी समीक्षा, साथी जनार्दन, साथी ललित, नौजवान रिशु और तीन लिटिल स्टार. 9 वर्षीय किस्सगो मास्टर पार्थ, 10 वर्षीय शैतान मास्टर दिगंत, और 8 वर्षीय चुलबुली बेबी अनुष्का.

इस बार की ट्रेकिंग टीम में कुछ नए चेहरे शामिल हुए जबकि कुछ पुराने चेहरे मज़बूरीवश शामिल ना हो सके. टीम पिछली साल की तुलना में ज्यादा उत्साहित थी, कारण ज्यादातर लोग पहली बार ट्रेकिंग पर जा रहे थे जिनमें बच्चे भी थे.

             बेस कैंप तालुका में ट्रेकिंग के लिए तैयार टीम

उत्तराखंड परिवहन ने अपने तय समयानुसार सुबह 5 बजे देहरादून पहुंचा दिया. फ्रेश होकर टीम ने चाय पी और साढ़े छ: बजे वाली बस पकड ली जो पुरोला के लिए जाती थी. बस मसूरी से होते हुए कैम्पटी फाल और डामटा ( डामटा से उत्तरकाशी जिले की सीमा प्रारंभ होती है ) व नौगांव होती हुई लगभग १२ बजे पुरोला पहुँची. पुरोला में चाय नाश्ता लेने के बाद टीम ने सांकरी के लिए टैक्सी हायर की. सांकरी फोरेस्ट रिजर्व रेंज है जो ‘गोविन्द वन्य जीव विहार’ के अंतर्गत आती है. गोविन्द वन्य जीव  विहार’ की स्थापना भारत सरकार ने 1955 में स्वतंत्रता सेनानी और गृह मंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त के नाम पर की. गोविन्द वन्य जीव विहार’ जिसका बाद में नाम गोविन्द नेशनल पार्क कर दिया गया, लगभग 958 वर्ग किमी में फैला हुआ है. ‘गोविन्द  नेशनल पार्क’  बियर्ड वल्चर और स्नो लिओपर्ड के लिए विशेष रूप से जाना जाता है. नटवाड से इस क्षेत्र में प्रवेश किया जाता है जिसके लिए पहचानपत्र की फोटोकॉपी के साथ अनुमति लेनी जरुरी होती है और जिसकी एक निश्चित फीस भी निर्धारित है.

देहरादून से सांकरी की दूरी लगभग २०० किमी है जिसे बस या टैक्सी द्वारा तय किया जा सकता है. सांकरी से तालुका के लिए स्पेशल टैक्सी (केम्पर) चलती हैं. सांकरी से तालुका तक के 11 किमी मार्ग पर वन संरक्षित क्षेत्र होने के कारण सरकार ने सड़क नहीं बनाई है, सिर्फ पहाड़ काटकर छोड़ दिया है. हमने केम्पर हायर किया और चल पड़े तालुका की ओर. कुछ साथी अंदर बैठे तो कुछ साहसी साथियों ने केम्पर के ऊपर बैठकर सफारी का आनंद लिया. इस तरह हम सूर्यास्त से पहले अपनी पहली मंजिल तालुका में पहुँच चुके थे. चूंकि कमल ठाकुर को हमारे आने की पहले से सूचना थी अत: वे हमारा इंतजार कर रहे थे. कमल ठाकुर जो हमारे गाइड बनने वाले थे, ने हमारे खाने-पीने का बंदोबस्त किया और एक प्राइवेट लॉज हमें उपलब्ध करा दी. लॉज सामान्य ही थी किन्तु ‘गढ़वाल मंडल विकास निगम’ के गेस्ट हाउस से कहीं बेहतर थी. थकान के कारण और सुबह जल्दी उठने की चाह में टीम जल्दी सोने चली गयी. हालाँकि सोने जाने से पहले टीम अगले दिन की योजना को अंजाम दे चुकी थी.


                         हर की दून का रोडमेप

31 मई की सुबह उत्साहित टीम ने भरपूर नाश्ता किया, लंच पैक किया और चल पड़ी ‘हर की दून’ के 27 किमी प्रसिद्द ट्रेक पर. पहाड़ में एक खास बात का अनुभव हुआ कि हर सुबह आप बहुत तरोताजा होकर उठते हैं जबकि शहर में सुबह को उठने में आलस बना रहता है. तमोशा नदी के किनारे चलते हुए खूबसूरत पहाड़, झरने, रंगबिरंगे फूल, विविध वनस्पति, कलकल करती नदी ट्रेकर्स को लगातार आनंदित करती रही. विविध वनस्पति में स्नेक लिली, जंगली गुलाब और न जाने कितने मनमोहक फूल जिनके हम नाम भी नहीं जानते थे. वृक्षों में चीड़, मोरिंडा और भोज आदि की लम्बाई आश्चर्यचकित कर रही थी.  छोटे बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता था, विशेषकर नन्ही ट्रेकर अनुष्का (गुन्नू) ने चलने में सबका दिल जीत लिया. राह में मिलने वाले दूसरे ट्रेकर्स भी बच्चों की उम्र जानकर आश्चर्यचकित हो जाते थे.

     
            तीन नन्हे ट्रेकर्स – दिगंत, अनुष्का और पार्थ.                 

प्रकृति का अद्भुत सौंदर्य फोटो खींचने के हमारे मोह को कम ही नहीं होने दे रहा था. गाइड को बार बार याद दिलाना पड़ता कि चलिए मंजिल अभी दूर है. पहाड़ में एक बात ध्यान रखनी होती है – ‘आप अपनी यात्रा लगभग २ बजे तक समाप्त कर लें उसके बाद बारिश की कोई गारंटी नहीं होती. दूसरे यदि आप समय से पहुँच जाते हैं तो रात रुकने का स्थान आसानी से मिल जाता है, देर से पहुँचने पर या तो स्थान सुविधाहीन मिलेगा या हो सकता है मिले ही ना.

पहाड़ पर ट्रेकिंग (जिसे हाईकिंग भी कहा जाता है) उतना भी आसान नहीं है. यदि आपके अंदर पैदल चलने का जज्बा नहीं है, यदि आप प्रकृति प्रेमी नहीं हैं, यदि आपके भीतर प्रकृति के सौंदर्य को घंटों बैठकर निहारने का धैर्य नहीं है, यदि आप डर के आगे जीत में विश्वास नहीं करते तो फिर भूल जाइये ट्रेकिंग व्रेकिंग.

ट्रेकिंग के पहले दिन टीम ने खूब एन्जॉय किया और लगभग आधी यात्रा समय से पूरी कर ली तथा बारिश आने से पहले सुरक्षित अपने गंतव्य ‘गढ़वाल मंडल विकास निगम’ के गेस्ट हाउस में पहुँच गयी. सीमा गांव में दो ही गेस्ट हाउस हैं एक ‘वन विभाग’ का दूसरा ‘गढ़वाल मंडल विकास निगम’ का. पहले वाला साफ सुथरा बिजली (सोलर) पानी युक्त था, दूसरे वाला काम चलाऊ रात कटाऊ. पहले वाला बुक हो चुका था अत: दूसरा एकमात्र विकल्प बचा था. मोमबती की रौशनी में पानी बाहर से लाना पड़ा. गेस्ट हाउस के केयर टेकर का व्यवहार बहुत निराशाजनक था. मोमबत्ती तक देने में उसे आपत्ति थी. केयरटेकर ने रामसे ब्रदर्स की फिल्मों की याद दिला दी जिसमें पुरानी हवेली का चौकीदार लालटेन लेकर आता है और बोलता है- ‘’मैं... पिछले तीन सौ सालों से यहाँ का चौकीदार हूँ.’’

गेस्ट हाउस के सामने एक अकेला ढाबा था जिसका खाना महंगा इसलिए लगा कि वह स्तरीय नहीं था. एकमात्र ढाबा होने के चलते ढाबा मालिक के नखरे स्वाभाविक थे. हमने भी झेले. टीम ने अगले दिन की योजना बनाई, गपशप मारी, दवादारू ली और सो गयी.

ट्रेकिंग के अगले दिन यानि 1 जून को हम सीमा गांव से हर की दून को रवाना हुए. रास्ते की  चढ़ाई पहले दिन के मुकाबले ज्यादा खड़ी और मुश्किल थी. लेकिन जल्दी ही बर्फ से ढके मनोहारी ग्लेसियर दिखाई देने लगे जिनकी सुंदरता ने थकान को शरीर पर हावी नहीं होने दिया. गाइड ने इनका नाम ‘कालानाग और बंदरपूँछ’ बताया, शायद इनकी आकृति के कारण इनका नामकरण हुआ होगा. रास्ते में जलधाराओं पर बने लकड़ी के पुल रोमांच में इजाफा कर रहे थे. इस ट्रेक पर एक अच्छी बात यह थी कि थोड़ी-थोड़ी दूरी पर स्थानीय लोगों ने दुकान लगायी हुई थीं जहां बच्चों के लिए मैगी - आमलेट मिल जाता था और बड़ों के लिए चाय या लस्सी. साथ में सुस्ताने का अवसर भी.


                             मनोहारी गिलेशियर

मैं शायद बताना भूल गया कि यात्रा के आरम्भ में ही हमने एक जोड़ी खच्चर हायर किये थे एक साथी नीरा के लिए दूसरा सामान के लिए. ऐसा बताते हैं कि खच्चर जोड़े में ही चलते हैं अकेले नहीं. पहाड़ पर सामान और कभी कभी आदमी ढोने का एकमात्र साधन खच्चर ही होते हैं. दूसरे दिन की यात्रा में साथी नीरा खच्चर की मदद से जल्दी ही ‘हर की दून’ पहुँच गयीं और वन विभाग का गेस्ट हाउस बुक करा दिया. गेस्ट हाउस बहुत पुराना बना हुआ था जिसका उद्घाटन 25 मई 1953 को तत्कालीन वन उप मंत्री श्री जगमोहन सिंह नेगी  के द्वारा हुआ था. बेफिक्र पूरी टीम फोटो खींचते-खिचाते, रुकते-रुकाते, मनोहारी दृश्यों का आनंद लेते हुए समय से अपनी मंजिल पर पहुँच गयी. टीम के लिए सबसे ज्यादा खुशी की बात ये थी कि तीनों बच्चे बिना परेशानी के मंजिल पर पहुँच गए थे. हमारी एक साथी के पहले पहुँचने का लाभ पूरी टीम को मिला. ‘हर की दून’ का सबसे अच्छा गेस्ट हाउस हमें रुकने को मिला. अब हम निश्चिन्त होकर गेस्ट हाउस में बैठे गर्मागर्म चाय का मजा ले रहे थे. केयरटेकर आतिशदानी में आग सुलगा रहा था, ठण्ड जो बढ़ गयी थी.
हर शाम की तरह सभी ने बैठकर गपशप की. अपनी जिंदगी के कारनामों का वर्णन करके एक दूसरे का मनोरंजन किया. इतने में खाना तैयार हो गया. सभी ने खाना खाया और सोने चले गए. रात में एक साथी की तबियत खराब हो गयी जिसके चलते कई साथी रातभर ठीक से सो नहीं पाए.

‘हर की दून’ की सुबह बेहद खूबसूरत थी. सामने बर्फ से ढकी स्वर्गरोहिणी चोटी, हजारों मीटर में फैला मखमली बुग्याल ( बुग्याल मतलब घास का मैदान जिसे कश्मीर में मर्ग कहते हैं मसलन – गुलमर्ग और सोनमर्ग ) और बुग्याल से बहती ‘हर की दून नदी’ पीछे से कलकल करती रुनसारा नदी. कुदरत ने मानों सारे जहाँ की ख़ूबसूरती इस घाटी में बखेर दीं हों. ‘हर की दून’ को ‘वैले ऑफ गोड’ भी कहा जाता है. यह समुद्र तल से लगभग 3500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. एक पौराणिक कथानुसार युधिष्ठर स्वर्गरोहिणी चोटी से होकर ही स्वर्ग गए थे शायद इसीलिए इस चोटी का नाम स्वर्गरोहिणी पड़ा. पहाड़ में नदियों के नाम थोड़ी थोड़ी दूरी पर बदलते रहते हैं. मसलन ‘हर की दून’ में रुनसारा नदी और ‘हरकीदून नदी’ मिलकर टोंस नदी बनाती हैं जो ओसला गांव से लेकर तालुका तक ‘तमोशा नदी’ कहलाती है. सांकरी से जखाल तक इसे सूपिन कहते हैं तो नटवाड में रुपिन और सुपिन मिलकर टोंस बनाती हैं.



पूरा दिन साथियों ने घूमने फिरने फोटो खींचने और खिंचवाने में बिताया. कुछ साथियों ने गेस्ट हाउस में थकान दूर की और अपने को तरोताजा किया. शाम 5 बजे सभी साथी पास में लगे टेंट पर गए जिसका नाम था ‘दून कैफे’. वहाँ बच्चों ने अपना पसंदीदा बोर्नविटा दूध पिया और बड़ों ने ट्रेकिंग की अब तक की सबसे अच्छी चाय पी. मौसम बड़ा सुहावना हो गया था. काले काले बादल घिर आये थे. ऐसे मौसम में अगर पकोड़ी मिल जाएँ तो क्या कहने. कैफे वाले ने हमारी बात सुन ली. और झटपट आलू की पकोड़ी छान दीं. आह क्या स्वाद था पकोड़ी में. दुनिया जहान की चिंताओं से बेफिक्र 3500 मीटर की ऊंचाई पर पकोड़ी खाने का आनंद ही कुछ और है.  इसका क्रेडिट जाता है साथी नीरा को. उन्होंने ही इस चाय पार्टी को स्पोंसर किया था. नीरा जी की पकोड़ी पार्टी ने सबका मूड फ्रेश कर दिया. साथी ललित ने बड़ी म्हणत और कुशलता से भोज की शाखाओं से भोजपत्र उतारे जिन्हें सबने सहेजकर रखा. कागज की खोज होने से पहले इन्ही भोजपत्रों पर लिखा जाता था. रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य इन्हीं पर लिखे गए.  उसके बाद नदी किनारे बच्चों का एक वीडियो शूट करके  हम लौट आये अपने घोंसले में. रोज की तरह डिनर से पहले गपशप और फिर अपने अपने बिस्तर में पसर गए.

‘हर की दून’ के प्रसिद्द ट्रेक पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया है. बेस कैंप तालुका में दो ढाई साल से बिजली संयंत्र ( टरबाईन ) मरम्मत के इंतजार में सरकार की बाट जोह रहा है. तालुका, सीमा और ‘हर की दून’ में दस करोड की लगत से बना सोलर सिस्टम युक्त गेस्ट हाउस सरकारी तंत्र की गैर- जिम्मेदारी के चलते कभी चालू ही नहीं हो पाया और बर्बादी की ओर अग्रसर है. नटवाड से आगे आपको न तो नेटवर्क मिलेगा और न ही बिजली. गांव में स्कूल जरुर बने हुए हैं जो शिक्षक कम शिक्षामित्रों के सहारे ज्यादा टिके हुए हैं. चिकित्सा सुविधा के नाम पर एक कोठरी है जिसमें कुछ दवाइयों के साथ एक कम्पोन्डर या अटेंडेंट ही दिखाई देता है. यहाँ के निवासियों के लिए डॉक्टर के दर्शन हो जाना किसी देवता के दर्शन से कम नहीं होते. पहाड़ जितने खूबसूरत होतें हैं उतनी ही कठिन होती है यहाँ की जिंदगी. जीविकोपार्जन के लिए थोड़ी बहुत मौसम आधारित खेती और पशुपालन ही एक मात्र विकल्प हैं. रोजगार के लिए यहाँ के लोग महानगरों की ओर पलायन को मजबूर हैं. एक अध्ययन के अनुसार उत्तराखंड की जनसँख्या का आधे से अधिक भाग दिल्ली-एनसीआर में रहने को विवश है. यहाँ छोटी से छोटी सुविधाएँ उपलब्ध कराना भी सरकार जरुरी नहीं समझती. पिछले विधानसभा चुनावों में यहाँ के चार-पांच गांव ने मिलकर चुनाव का बहिष्कार किया और मतपेटियां इस उम्मीद में खाली भेज दीं कि शायद कोई नेता उनकी सुध लेगा. किन्तु दुर्भाग्य है इस देश की जनता का कि वर्तमान राजनीति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता नतीजतन आज तक वहाँ किसी ने जाकर नहीं देखा. सरकार यदि चाहे तो यहाँ के लोगों की बुनियादी समस्याएं आसानी से हल हो सकती हैं. उचित प्रबंधन द्वारा पहाड़ों की ख़ूबसूरती को ना सिर्फ सरंक्षित किया जा सकता है बल्कि पर्यटन को बढ़ावा देकर रोजगार के अवसर पैदा किये जा सकते हैं.

अगली सुबह न चाहते हुए भी हम ‘हर की दून’ को बाय-बाय कह रहे थे. वापिस उसी ट्रेक से नीचे उतरना शुरू किया. टीम ने तय किया कि आज रात ओसला गांव में स्थानीय लोगों के घरों में रुकेंगे, उन्ही के साथ भोजन करेंगे, उनके बारे में जानेंगे. ओसला गांव में दो मंदिर हैं- एक है सोमेश्वर देव मंदिर जिसमें भगवान शिव की आराधना होती है. दूसरा मंदिर है दुर्योधन का. कितना आश्चर्यजनक लगता है यह सुनना कि दुर्योधन का भी कहीं मंदिर हो सकता है. हमें भी लगा. घर से बाहर निकलने पर कई सारी चीजें आश्चर्यजनक लगती हैं. बहुत सी सच्चाइयों को हम घर बैठे नहीं जान सकते. एक पंजाबी कहावत है –‘चल उठ ढूढन चलिए घर बैठे यार नी मिलदे’. लेकिन ओसला गांव जाकर रुकने और वहाँ के बारे में जानने की हमारी अभिलाषा पूरी न हो सकी. पहाड़ उतरने के साथ साथ उत्साह भी उतर रहा था. अत: तय हुआ कि ओसला से 4 किमी आगे वाले गांव ‘गंगाड’ में रुका जाय ताकि एक दिन का समय बचाया जा सके. नतीजतन साढ़े तीन बजे हम गंगाड गांव के ‘यस होटल’ में थे. वुडन क्राफ्ट का खूबसूरत नमूना- ‘यस होटल’. लेकिन शौचालय का डिजाइन कुछ इस तरह था कि बिना योग अभ्यास के आप निवृत नहीं हो सकते. होटल पहुंचकर साथियों के मध्य कुछ मतभेद उभरकर सामने आये. मतभेदों को यदि समय रहते सुलझा नहीं लिया जाता तो गलतफहमियां जन्म लेने लगती हैं और मतभेद मनभेद बन जाते हैं. लिहाजा कुछ बिंदुओं पर बात हुई और कुछ बिंदुओं को पोस्टपोंड कर दिया गया.
अगली सुबह पूरी टीम साढ़े छ: बजे रवाना होने के लिए मुस्तैद थी. आज रास्ते में तालुका से ठीक पहले सिर्फ एक दुकान ही खुली मिली जिसका लाभ यह हुआ कि हमारा समय बचा और हम ११ बजे तालुका में पहुँच. तालुका पहुंचकर पता चला कि सांकरी से पहले लैंडस्लाइड हुआ है. हमने झटपट लंच किया, गाइड और खच्चर वाले का हिसाब किया और सांकरी के लिए केम्पर पकड़ लिया. लैंडस्लाइड से स्थानीय टैक्सी वालों को बहुत फायदा हुआ. पहले वे सांकरी तक का 800 रुपए ले  रहे थे अब 1200 लेने लगे. केम्पर जैसे ही चला एक खूबसूरत भेड़ का बच्चा उसके नीचे आ गया, उसकी मौत हमें अपशकुन का संकेत दे गयी. हम आश्वस्त थे कि सांकरी से देहरादून के लिए टैक्सी आसानी से मिल जायेगी किन्तु सांकरी पहुँचने पर पता चला कि टैक्सी तो है पर ड्राईवर नहीं है. हमने एक टेम्पो ट्रेवलर से बात की जिसने साढ़े नौ हजार रुपए की मांग की. इतने में एक अन्य टेम्पो ट्रेवलर आ गया. हमने उससे चलने के लिए पूछा और नौ हजार में बात पक्की हो गयी. दूसरे वाला ट्रेवलर पहले वाले से जा मिला और हमसे चलने के लिए मना कर दिया इस पर कुछ साथियों की उससे तीखी नोंक झोंक हो गयी. अब पहले वाले ट्रेवलर से बात की गयी. चोर-चोर मौसेरे भाई की तर्ज पर उसने अब पैसे बढ़ा दिए और दस हजार रुपए मांगने लगा वो भी एडवांस. हमने एडवांस के बदले पक्की रसीद मांगी तो उसने मना कर दिया. लिहाजा बात नहीं बनी. अब हमारे सामने एक ही विकल्प था कि वहीँ रुका जाए और सुबह सरकारी बस से देहरादून का सफर तय किया जाय. लेकिन ट्रेवलर्स के दुर्व्यवहार और घर लौटने की बेचैनी ने वहाँ रुकने के विचार को परास्त कर दिया.



पहाड़ के लोगों के बारे में आमराय है कि ये लोग बड़े भले होते हैं और अब तक हम भी ऐसा ही मानते रहे हैं. लेकिन आज हमारी इस राय पर तुषारापात हो गया. जब हम इस बदलाव का कारण समझने की कोशिश करते हैं तो एक ही बात समझ में आती है कि जहाँ जहाँ बाजार (पूंजीवाद) पहुंच रहा है अपने चरित्र के अनुरूप वह लोगों को स्वार्थी, लालची, चालाक, अवसरवादी और संवेदनहीन बनाता जा रहा है. उसी का परिणाम है कि पहाड़ जैसे रिमोट एरिया में भी लोग इसके दुष्प्रभावों से बचने के बजाय तेजी से इसकी गिरफ्त में आते जा रहे हैं.

वस्तुओं को महंगा बेचना समझ में आता है क्योकि सामान को इतनी ऊंचाई पर ले जाना मुश्किल होता है किन्तु मुंहमांगे पैसे लेकर घटिया और कम खाना देना आपकी भलमनसाहत पर सवाल खड़े करता है. पूरी टैक्सी हायर करने पर भी ड्राईवर उसमें सवारी घुसाने की कोशिश करता है. टैक्सी का एक निश्चित रेट होता है किन्तु ट्रेवलर मौके का फायदा उठाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते. पूरे पैसे लेकर आधी अधूरी सेवाएं देना ये सब मौकापरस्ती और मक्कारी नहीं तो क्या है ? खैर पहाड़ के लोगों के बारे में राय बदलना लाजमी है. लेकिन पहाड़ में एक जीव ऐसा भी है जो आपका हमसफ़र बनता है. वो है वहाँ पाया जाने वाला कुत्ता. हमें भी एक प्यारा सा भूटिया नस्ल का हमसफ़र मिला और ट्रेकिंग में पूरे समय पूरी शिद्दत के साथ हमारे साथ रहा.

   
                        ट्रेक का साथी भूटानी कुत्ता     

                               गाइड कमल ठाकुर

इतने में एक प्राइवेट बस आकार रुकी. उम्मीद की एक किरण दिखाई दी. लपक कर साथियों ने उसके ड्राईवर से बात की. असल में बस को सुबह जाना था किन्तु पैसे के लालच ने उसे चलने के लिए तैयार कर दिया. बड़ी गाड़ी होने के कारण उसने 12 हजार रुपए की डिमांड की, बारगेनिंग होते-होते साढ़े दस हजार में बात बन गयी. मानो अंधे के हाथ बटेर लग गयी हो, पूरी टीम खुश हो गयी बावजूद इसके कि बजट ओवर हो रहा था. लगभग ढाई बजे हम देहरादून के लिए रवाना हुए. ट्रेकिंग की खुमारी उतर चुकी थी. इतना हम आज के चलने से नहीं थके थे जितना ट्रेवलर्स ने थका दिया था. देहरादून पहुँचते-पहुँचते साढ़े दस बज गए थे. हमने बस वाले को आभार के साथ भुगतान किया और दिल्ली की बस पकड़ने के बारे में सोचने लगे. ओवरबजट के कारण साथियों का कैश खत्म हो चुका था, अत: हमने ATM तलाशने शुरू किये. ज्यादातर ATM पर या तो शटर पड़े थे या वे कैशलेस थे  जो डिजिटल इंडिया का मजाक उड़ा रहे थे. बड़ी मुश्किल से एक ATM से पैसे मिले किन्तु इस प्रक्रिया में हम एक घंटा बर्बाद कर चुके थे और रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे. दिल्ली जाने वाली बसें या तो भरी खडीं थीं या पहले से रिजर्व थीं और उसके बाद कोई बस सर्विस नहीं थी. कैसा ट्रांसपोर्ट सिस्टम है हमारा ? सवारी हैं बस भी हैं चलाएंगे नहीं. प्राइवेट ट्रांसपोर्ट को बढ़ावा देने का भी ये एक तरीका है. सुबह तक हम इंतजार नहीं कर सकते थे अत: अब टैक्सी लेने के आलावा हमारे पास दूसरा विकल्प नहीं था.
अंत भला तो सब भला. अगली सुबह सभी साथी सकुशल अपने अपने घर पहुँच चुके थे.



राजकुमार
परिचय

डॉ राजकुमार
शिक्षक एवं सामाजिक कार्यकर्ता
4/38, सेक्टर-  5, राजेंद्र नगर, गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)
फोन- 7838380628
Email- dr.rajkumargzb@gmail.com





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