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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 जून, 2018


मैं क्यों लिखती हूं:


नींद की गोली है- ‘लिखना

सपना सिंह
 
होशमंद होने पर घर में सबसे कीमती समान के तौर पर किताबों से ही परिचय हुआ। पापा मम्मी, अपने फुरसतहे लम्हें किताबों के साथ ही बिताते। मैं तो भूत की तरह पढ़ी थी। छपे हुए शब्द आकर्षित करते थे। घर में खूब पत्रिकायें आती थीं - चपक, नदंन, पराग, मघुमुस्कान के साथ-धर्मयुग, ‘सा.हि,’ सारिका, दिनमान .... बच्चों की किताबों को पढ़ते हुए मैं कब बडा़े की किताबों तक पहुॅँची इसका ठीक -ठीक भान अब नहीं हैं। पढ़ना और कल्पना करना अच्छा लगता था .... और वो कच्ची कल्पनायें कहाँनियों का आकार लेने लगी थीं। अक्सर मैं सहेलियों के बीच बैठकर कहानी सुना रही होती .......... कई कई दिनों तक चलने वाली ये कहानी ...... अक्सर खाली पीरियड में सुनाई जाती। ........सहेलियों के चेहरे पर ‘फिर क्या हुआ? वाली उत्सुक्तता देख मजा आता। उन्हें तो यही पता होता , कि सपना ने कोई नया उपन्यास पढ़ा होगा ... और उसी की कहानी  कह रही है।

सपना सिंह


इस तरह कहानी कहते कहते - कहानी लिखना शुरू हो गया। स्कूल पीछे छूट चुका था, अब कॉलेज की दुनिया सामने थी ............ अपना नजरिया बनने लगा था। प्रश्न कुलबुलाने लगे थे, जिनके उत्तर और भी बेचैनी पैदा करते! उन्हीं दिनों, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान के किशोर पन्नों पर छपने लगी। जयंती जी उन दिनों ‘धर्मयुग’ में ही थीं और शायद ‘किशोर-कॉलम’ ही देखती थीं। उन्हें याद हो शायद कि उन्होंने लगभग हर महीने ............. मेरी पुर्जी टाइप रचनाओं को धर्मयुग में छापा। ‘सरिता’ मनोरमा में भी रचनायें छपने लगीं। उन महत्वहीन रचनाओं का महत्व इतना था कि मैं अपनी सराउडिंग में एकायक ‘खास’ हो गयी। आये दिन डाकिया 10-15 पत्र लेकर आता, मैं ही नहीं पापा-मम्मी भाई, बहन, पड़ोसी सभी पढ़ते।

उन्हीं दिनों लगभग सम्मोहन की हालत में कहानी लिख डाली ‘ उम्र जितना लम्बा प्यार .....’ एक ही बैठकी मे! सरिका बंद हो चुकी थी तब तक, धर्मयुग सा.हि. भी नहीं थे, ‘हंस’ के चर्चे थे, उसी में भेज दी ........ कहानी स्वीकृत हो गई। 1993 सितम्बर के अंक में प्रकाशित हुई और प्रशंसित भी। देशभर से मिले प्रशंसा और आलोचना के पत्रों को देख जहाँ। संतुष्टि महसूस हुई वहीं एक घबराहट भी तारी हुई।

‘94’ में विवाह हो गया! अब, भाई ससुराल तो ससुराल ही होती है, पति तो पति ही होता है। हम ठहरे महा बेशउर घर के कामों में निहायत बोगा। तमीज, सलीके में भी बरस यूॅ ही से दुनिदारी में तो बिल्कुल कुंद ....... तो हम जो सन् 94 में सनपाते तो फिर एक दो वर्ष नहीं पूरे सत्रह वर्ष सुन्न हुए पड़े रहे् पति, बच्चों, ससुराली प्रपंच ..... गले तक डूबे रहे इनमें ही। बड़ी बेचारगी से अपने आपको दुनियावी सुखों में लिपटी एक ठस्स औरत में रूपान्तरित होते देख रही थी। राहत सिर्फ ये थी कि पढ़ना नहीं छूटा था। पढ़ने की दीवानगी कायम थी और शायद इसी ने मुझे बचा लिया। पतिदेव की प्रोफेसरइ का फायदा ये हुआ कि शहर  के लगभग सभी कॉलेजों की लाइब्रेरी सहज ही पहुंच में हो गई। कई क्लासिक्स उसी दरम्यान पढे़। जब ‘सुवर्णलता’ पढ़ रही थी तो लग रहा था - ये मेरी अपनी ही कहानी है ...... वही मेरी भी नियति न हो। कभी कभी बिजली सी कौंचती - अरे, क्या होती जा रही हॅूँ मैं? उन सारे बीत रहे दिनों में ........... खूब खूब काम-काज में व्यस्त रहने के बावजूद - क्यों लगता कि बिल्कुल खाली हॅूँ .......... कुछ नहीं कर रही हूं। खुशी की सारी वजहें होते हुए भी भीतर कहीं गहरे बर्फ जैसी ठंडी उदासी क्यों पसरी रहती थी।

अब समझ पाती हूं कि , अपने आपकों झुठलाना ...... वो होने की कोशिश करना जो मैं थी ही नहीं .......। माहौल बेशक मेरे हिसाब से नहीं था (किसी का नहीं होता) पर मुझे अपने लिए स्पेस क्रियेक करना था। पर मैं अकबकाई हुई अपने को खर्च किये जा रही थी। ऐसा नहीं था, कि लिखने की कोशिश नहीं की। पर जब कलम कागज़ थामती ........ विचार पकड़ में ही नहीं आते। कभी खाना बनाते, यात्रा करते, या वाशरूम में ही लगता पूरी कहानी तैयार है ...... लिखने बैढूगी तो एक बार में लिख लूंगी, बस्स, हाथ का काम खत्म हुआ और लिखने बैठी।

पर क्या हाथ का काम कभी खत्म होता है, हम औरतों का ........... अजी, खत्म करना पड़ता है। हॅूँ ... सिर्फ अपने आप को कोसती हॅूँ बाप रे कितना वक्त जाया हुआ न लिख पाने का एक कारण शायद ये भी रहा हो कि जो देख रही थी, जो महसूस रही थी उसे जस का तस लिख लेने पर गलत समझ लिए जाने का खतरा था। लगता अला फलां या फिर घर में सब कैसे रियेक्ट करेंगे ........। बहरहाल इस सोच से भी उबरी ... अतंत - अप्रैल 2010 के हंस में जिन्होंने मुझे बिगाड़ा’ स्तभ में ‘हम तो बिगड़े हैं सनम’ ... नाम से आलेख छपा 2010 में ही कथाक्रम में कहानी ‘बहुत से कुछ ज्यादा’ से मेरी जड़ता खत्म हुई। 2011 अप्रैल, 2012 मार्च में हंस में क्रमशः ‘डर और जायेगी कहाँ। .... छपी। इन कहानियों पर आये फोन कॉल्स ने मुझमें फिर से अपना भरोसा वापस दिला दिया। ‘परिकथा, कथादेश, समरलोक, अक्षर पर्व, ‘हमारा भारत’ युद्धरत आम आदमी, जागरण सखी, लगभग सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं ने, कहानियां छापकर इस भरोसे को और पुख्ता कर दिया .....। अब गाड़ी चली है तो खरामा खरामा ही सही, कहीं पहुंचेगी ही। 

बहुत आलसी हॅूँ ........... लगातार बैठकर लिखना होता नहीं। सबसे  सुविधाजनक शाम का समय लगता है, जब बच्चे पढ़ रहे हों, पतिदवे टी.वी. का चैनल बदल रहे हों, और मैं डायनिंग चेयर पर पैर ऊपर उठाकर घुटनों पर कागज़ कलम लेकर लिख रही होऊॅ ... सारी घरेलू आवा़जे अपने खरेपन में मौजूद हो वो चाहे कुकर की सीटी हो, बच्चों की चिल्लमचिल्ली, या पतिदेव की ‘जरा चाय तो पिलाना’ की चिढ़ पैदा करती हुई मनुहार! क्हानी का रफ ड्राफ्ट ऐसे ही लिखा जाता है। हॉँ फेयर के लिए मुझे अपनी टेबल-चेयर की दरकार रहती है। मेरी ज्यादातर कहानियॉँ, टुकड़ों में लिखी गई हैं। कभी फ्रिज के ऊपर रक्खे पैड पर, कभी सिरहावे रक्खी डायरी में, कभी बच्चों की कॉपी से निकले पन्ने पर। कभी-कभी तो किसी टुकड़े को ढूढ़ने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है, ज्यादातर दूसरा ड्राफ्ट ही फेयर ड्राफ्ट होता है। भाषा की कलाबाजियां मुझे आती नहीं .... मेरे लिए कथ्य ही महत्वपूर्ण होता है...... कहानी जो कहना चाहती है भाषा उसे अच्छी तरह बयां कर दे इतनी ही कोशिश रहती है। जिस परिवेश के पात्र हैं उसी परिवेश की भाषा उनके मुंह से बोली जाये।
यूॅँ भी लिखना मेरे लिए न अपनी बौद्धिकता जताने का जरिया है न कोई नारेबाजी ........ लिखना मेरे लिए मजबूरी है, हीलींग थेरेपी, जिदंगी की सारी टूट-फूट, चोट, दर्द ............. की दवा! जिस दिन कुछ लिख लेती हॅूँ ......... गहरी पुरसूकूनं नींद सोती हॅूँ .............. कह सकते हैं ................ मैं बेहद स्वार्थी लेखिका हॅूँ ... ईश्वर करें मैं यूॅँ ही  स्वार्थी बनी रहॅूँ, सिर्फ अपना नहीं दूसरों का दर्द भी मुझे यूं ही बेचैन बनाये रक्खे और चैन पाने के लिए मैं कागज काले करती रहॅूँ। आमीन
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सपना सिंह की एक और रचना नीचे लिंक पर पढ़िए


http://bizooka2009.blogspot.com/2018/04/blog-post_15.html

सपना  सिंह
द्वारा - प्रो - संजय सिंह परिहार,
म.नं. 10/1485  आलाप के बगल में
अरूण नगर रीवा 486001
जिला रीवा म.प्र.
मो. 9425833407

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