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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 जून, 2018


साहित्य में राजनीति और राजनीतिक साहित्य: एक नज़र


अरुणांशु बनर्जी


साहित्य मनुष्य की जीवन इतिहास का सिर्फ दर्पण ही नहीं बल्कि दिशा निर्देशक भी है. जीवन के विभिन्न आयामों का विवरण सहित्य में देखने को मिलता है, साथ ही जीवनबोध के उद्धर्वगामी व निम्नगामी होने का कारक भी साहित्य में ही निहीत होता है. इसके साथ ही यह सत्य है कि चूंकि राजनीति से हमारे जिंदगी का हर पहलू किसी न किसी रूप से जुडा होता है इसलिए राजनीतिक विचारों का प्रतिबिम्ब साहित्य में परिलक्षित होना अनिवार्य हो जाता है. साहित्य की विभिन्न विधा, जैसे कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक, निबंध इत्यादि से अन्ततः विचार ही प्रकट होते हैं. कोई विचार मूलतः या यों कहें अपने-आप में शत-प्रतिशत मौलिक नहीं होता. हर एक विचार का आधार या उनके तत्व के स्रोत कहीं और उपजे हुए मिलेंगे. यानी कोई भी विचार शाश्वत नहीं बल्कि परिवर्तनशील बौद्धिकता का एक सापेक्ष अभिव्यक्ति होता है. यहां तक कि मानवीय संवेदना भी शाश्वत नहीं बल्कि सामाजिक मान्यताओं पर आधारित है. सामाजिक मान्यता फिर समाज की आर्थिक तथा राजनीतिक संरचना से निर्धारित होती है. राहुल सांकृत्यायन  की रचना भोल्गा से गंगा एक कहानी संग्रह जरूर है लेकिन उस रचना का उद्देश्य या कहें आशय इस बात की पुष्टि के लिए है कि समाज का विकास या यूं कहे परिवर्तन के साथ सामाजिक मान्यताएं भी परिवर्तित होती रहती हैं या होती रही हैं. मानवीय संवेदना जैसे प्रेम, दया, करूणा, मान-अभिमान, गर्व, द्वेष, घृणा, लोभ इत्यादि कोई शाश्वत अनुभूति नहीं बल्कि इनके स्वरूप समाज की आर्थिक-सामाजिक संरचना पर आधारित होती है.


अरुणांशु बनर्जी


मानव समाज का इतिहास वर्ग विभाजित समाज का इतिहास है और समाज का विकास हमेशा वर्गों के आपसी टकराव के नतीजे हैं. इसकारण मानवीय संवेदना भी वर्गीय चेतना के अनुरूप विरोधात्मक होते हैं. एक वर्ग की खुशी की वजह विपरीत या दूसरे विरोधी वर्ग के लिए दुःख का कारण बन सकता है. यह भी कहा जा सकता है कि सुख या दुःख की अनुभूति वर्ग के आधार पर अलग-अलग कारणों से होती है. रूसी साहित्यकार चेखव की एक कहानी इस विषय को स्पष्ट कर देती है.-कहानी की मुख्य किरदार राजकुमारी ऑपेरा हाउस के अंदर चल रहे नाटक की नायिका की विरह वेदना से द्रवित होकर आंसू बहा रही थी उस वक्त उनका कोचवान बाहर ठंड के प्रकोप से मर रहा था. यहां कहानीकार पाठकों मेंं वर्गीय चेतना जागृत कर उसकी संवेदना को झकझोरने का काम किया है. लेखक का दृष्टिकोण उसकी राजनीतिक दृष्टिकोण को उजागर करते हुए राजनीतिक संदेश भी देता है.
बांगला साहित्यकार विभाष सरकार की ‘उदर कथा’ शीर्षक एक लघुकथा का जिक्र करना चाहूंगा. कहानी बांगलादेश के सीमावर्ती प्रदेश पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में अवैध रूप से बस गये एक बेहद गरीब परिवार की जिंदगी पर आधारित है. कहानी का एक पात्र छोटा बच्चा प्रति दिन की प्रताड़ना और दुत्कार से तंग आकर अपनी मां से पूछता है कि आखिर क्यों वे इतने दुत्कार सहन कर इस देश में पडे हैं? क्या इससे अपने बांगला देश में रहना अच्छा नहीं होता? मां इसका जवाब देती है- प्रताडना अपने देश में भी कम नहीं था, अंतर सिर्फ इतना है कि यहां दो हाथ को काम मिल जाता है, जिससे पेट कम से कम भर जाता है. वहां वह भी मयस्सर नहीं होता था. भुखों का कोई देश नहीं होता. कहानी का विश्लेषण दो भिन्न  दृष्टिकोण से किया जा सकता है. एक तो सर्कीण तथाकथित राष्ट्रवादी विचार के आधार पर ऐसे घुसपैठियों के प्रति नफरत ही पैदा होगा. दूसरी ओर लेखक के द्वारा गरीबी का मार्मिक चित्रण से पाठक की गरीबों के प्रति संवदेना जागृत कर समाज के सबसे नीचले पायदान पर जीवन वसर करने वाले लोगों की अनुभूति से एकाकार करा देती है. इस कहानी में प्रत्यक्ष राजनीति की बात न रहते हुए भी दुनिया भर के आमजन में एकरूपता का संदेश अवश्य ही संप्रेषित करती है.

इसी तरह सभी कहानी, कविता, नाटक, प्रहसन कोई न कोई संदेश जरूर देता है, जिसे पाठक जाने-अनजाने आत्मसात करते हैं. साहित्य विचारों के फैलाव का एक सशक्त माध्यम है. सशक्त इसलिए क्योंकि यह एक कला है. शिल्प-कला मानव के मानसपटल को काफी हद तक प्रभावित कर उसे आलोकित करता है. साहित्य के असली सौन्दर्य बोधं को त्याग कर सफल साहित्य का सृजन नहीं हो सकता है. .प्रेमचंद, मुक्तिबोध, या निराला की बात करें तो मानव पीडा से उपजे असंतोष को कलात्मकता के साथ इन साहित्यकारों ने परोसा है. इन साहित्यकारों के साहित्य के पीछे अगर वर्गीय चेतना से लैस राजनीतिक सोच क्रियाशील न होता तो इनके साहित्य उतने सशक्त नहीं होते, जो वास्तव में हैं.

अब सवाल यह है कि इन साहित्यकारों की रचनाओं के वैचारिक पहलू चूंकि खास राजनीतिक सोच से ओतप्रोत हैं, इस कारण इनकी कृतियों को क्या राजनीतिक साहित्य के रूप में वर्गीकृत करना चाहिए? फिर तो विचारशील सभी रचनाओं को राजनीतिक साहितय का दर्जा देना होगा. मेरे विचार  से साहित्य के लिए ऐसी कोई सीमा रेखा निर्धारित करना असंभव है, जिसे लांघने पर उसे राजनीतिक साहित्य का दर्जा दिया जायेगा. साहित्य के लिए सौन्दर्य बोध अपरिहार्य है, और विचार अवश्य ही वर्गीय स्वार्थ का द्योतक. हलांकि राजनीतिक विचारों पर लेख, निबंध, दस्तावेजों को राजनीतिक साहित्य कहा जाता है. यह वर्गीकरण पूर्णतः राजनीतिक विचारों को चिन्हित करने का एक माध्यम है. इसके अलावे किसी भी रचना को राजनीतिक साहित्य का दर्जा देने का कोई औचित्य नहीं है.
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संक्षिप्त परिचय:

राँची में रहता हूँ।उम्र 61वर्ष है।बांगला में लघु कथा, निबंध,कहानीयां नियमित रूप से लिखता हूँ। हिन्दी तथा अंग्रेजी में टिप्पनी तथा आलेख समय समय पर लिख लेता हूं। राँँची से प्रकाशित होने वाली बांगला साहित्य पत्रिका 'माहुत' के संपादक मंडली का सदस्य हूं। साथही जमशेदपुर से प्रकाशित सामाजिक सरोकार की पत्रिका 'समकालीन चिंतन' के भी संपादक मंडली में हूं।

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