image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

06 सितंबर, 2018

मैं क्यों लिखता हूं: 
लिखना अपने को बार बार जीना है

 ज्योतिष जोशी


ज्योतिष जोशी

यह बेहद कठिन प्रश्न है कि मैं क्यों लिखता हूँ। लिखना एक शगल है या जीवन की एक तरह से खोज, यह देखना या जान पाना हमेशा कठिन रहा है। लिखना शुरू किया तो यह पता न था, बस यह था कि लिखना अपने को व्यक्त करने का एक माध्यम है जिसमें हम अपनी बात कह सकते हैं और अपने से संवाद भी कर सकते हैं। जब कुछ लिखने का सिलसिला शुरू हुआ तो उम्र छोटी थी और इतनी समझ न थी कि लिखना होता क्या है। तब बिहार के एक कॉलेज में इंटर का छात्र था। रेडियो सुनने का शौक था। शुरुआत ग़ज़ल लिखने से की और आश्चर्य हुआ कि वह एक स्थानीय अखबार में छपी। अखबार का नाम था- सारण संदेश। मुझे छपी ग़ज़ल की शुरुआती पंक्ति आज भी याद है- ऐ ज़माने के सितमगर मुझे यूं न सताओ ' पर आगे की पंक्तियां बनी थीं। उसके बाद जो बन पाया लिखता रहा। उसी आसपास कुछ साहित्यिक टिप्पणियां भी लिखीं जो पटना के अभिनव बिहार नाम की पत्रिका में प्रकाशित हुईं। बात 1985 की है जब स्नातक में गया था। उस समय मैंने पहली बार सारण सन्देश के विशेष प्रतिनिधि के तौर पर एक बड़ी साहसिक खबर लिखी थी जिसकी स्मृति आज भी हमें रोमांचित करती है। उनदिनों बिहार में चकबंदी के आरंभिक चरण का काम चल रहा था और हर जिले के प्रखंड और पंचायत स्तर पर जगह जगह शिविर लगे थे। चकबंदी कर्मी लोगों से पैसे लेकर खेतों के कागज पर दूसरे लोगों के नाम लिख  देते थे और नए नए बखेड़े शुरू करते। स्थानीय मुखिया तथा सरपंच इस कुकृत्य में शामिल थे और उन्हें भी रिश्वत का हिस्सा मिला करता था। हालत यह थी कि जिनके पास पैसे थे वे रिश्वत देकर उल्टे सीधे काम करा रहे थे और जिनके हाथ तंग थे वे मन मसोसकर अपने सामने ही यह दुराचार होते देख रहे थे। वे शिकायत करें भी तो किससे करें जब सब इस गोरखधंधे में शामिल थे। मैंने जब यह हालत देखी तो चकबंदी कर्मियों को समझाने की  भरसक कोशिश की, पर मेरी बात सुनता कौन। जब मैंने इस हालत पर अखबार में लिखने की बात की तो कर्मियों का अधीक्षक मेरे पिताजी को बुलाकर कहा कि आपके सभी खेतों के कागज हम बिना पैसे लिए दुरुस्त कर देंगे पर अपने बेटे को समझाइये कि वे अखबार में खबर न लिखें। पिताजी ने हमें समझाया और दुनियादार होने की सीख दी। पर हम तैयार न हुए । अंततः हमने एक बड़ी खबर बनाई- ' चकबंदी बनाम नोटबन्दी के धंधे से जनता परेशान ' । इस खबर को सारण संदेश के सम्पादक लक्ष्मण पाठक ' प्रदीप ' ने अखबार के मुख्य पृष्ठ पर छापा था। विदित हो कि लक्ष्मण पाठक ' प्रदीप ' भोजपुरी के बड़े कवि थे और व्याकरण के प्रसिद्ध आचार्य भी। वे एक स्थानीय उच्च विद्यालय सेवा निवृत्त हिंदी अध्यापक थे जो आज के हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय के गुरु रहे थे जिन्होंने दसवीं तक उनको हिंदी पढ़ाया था। खबर छपी तो तहलका मच गया। तब अखबारों में छपी खबरों की अहमियत होती थी। चकबंदी का काम रुक गया  क्योंकि बात हमारे जिले गोपालगंज के कलेक्टर तक पहुंच चुकी थी। हर तरफ अफरा तफरी की हालत थी। गरीब गरबा खुश थे कि चकबंदी के नाम पर लूट का काम बंद हो गया था। पर इलाके के सम्पन्न लोग मेरे खिलाफ आग उगल रहे थे। खुद मेरे पिता गुस्से से आगबबूला हो रहे थे। उनके गुस्से की वजह साफ थी , वह यह कि उनकी जमीन का काम मुफ्त में हुआ जा रहा था जो इस फसाद के बाद लटक गया। शिविर पर फौरी कारवाई हुई और चकबंदी कर्मी भागकर अपने अपने घर चले गए। कलेक्टर की सख्ती से काम जितना हुआ था वह भी रद्द हो गया। यह स्थिति लगभग पूरे बिहार की थी। उस घटना के बाद पिताजी से मेरी स्थायी अनबन हो गयी। घर में दो दिन तक मेरा खाना भी बंद रहा और मैं मामा के घर में शरण लेने को अभिशप्त हुआ था। इस घटना से निर्धन और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों में बड़ी खुशी थी। अब उनकी जमीन के साथ छेड़छाड़ की आशंका खत्म हो गयी थी। यह पहला अवसर था जब मुझे अपने कुछ लिखे पर बहुत खुशी हुई थी और लगा था कि सच को व्यक्त करने और उस पर कायम रहने जैसी प्रसन्नता किसी भी चीज को पाने से बड़ी होती है। इक्कीस बाईस वर्ष की उम्र में यह महसूस कर आगे के लिए हौसला पाना मामूली बात नहीं थी।

जब स्नातक करने के बाद दिल्ली आया तो यहाँ आने का उद्देश्य आगे की पढ़ाई करनी थी। स्नातकोत्तर में प्रवेश के बाद छिटपुट रूप से समीक्षाएं लिखनी शुरू कीं। पहले किताबों की, फिर नाट्य प्रस्तुतियों की। कहानियों और कविताओं को भी लिखने का सिलसिला बना। बाद में एक उपन्यास भी लिखा- सोनबरसा, जो बिहार की जातीय और साम्प्रदायिक पृष्ठभूमि को लेकर लिखा था और उसमें जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति को एक उम्मीद की तरह देखा था। सृजन में भले गति रही हो पर मन में आलोचना को लेकर एक विशेष आकर्षण था और यही कारण रहा कि कहानी, कविता और उपन्यास की ठोस जमीन बन जाने के बावजूद हमने आलोचना को ही अपने लेखन का ध्येय बनाया। हम आलोचना में व्याप्त भेदभाव और उपेक्षा की नीति से अक्सर परेशान होते थे। लगता था कि अपने लेखन से इस क्षेत्र में ज़रा भी सार्थक काम कर सका तो बड़ी बात होगी। जैनेंद्र पर शोध के दौरान यह बात बहुत संजीदगी से महसूस की थी। इसके बाद हमने आलोचना को कई स्तरों पर देखने समझने की चेष्टा की। नाटक और दृश्य कला की आलोचना में भी काम करके हिंदी में व्याप्त एकरसता को तोड़ने की भरसक कोशिश की। जैनेन्द्र, शमशेर, निर्मल, केदारनाथ सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, कुंवर नारायण, नेमिचन्द्र जैन सहित साहित्यिकों और रवींद्रनाथ ठाकुर, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बोस जैसे कलाकारों के साथ साथ हबीब तनवीर, के एन पणिक्कर, शम्भू मित्र आदि रंग निर्देशकों पर भी लिखा और नाटक को समकालीन परिदृश्य के भीतर रखकर देखने की पहल की। यह सिर्फ एक संकेत है, अपने काम को देख पाने की एक आंशिक कोशिश, मूल्यांकन तो पढ़नेवाले करेंगे कि उसमें क्या है जो उल्लेख्य है। उस पर बात करना हमारा काम है भी नहीं।
एक रचनाकार के मुकाबले आलोचक का काम जितना कठिन होता है उतना ही वह कम बोलनेवाला भी होता है। आलोचक सीधे और स्पष्ट तौर पर किसी कार्यसूची पर काम नहीं करता। किसी लक्ष्य कार्यसूची पर काम करना रचनाकार के लिए यथेष्ट नहीं होता क्योंकि रचना प्रथमतः और अंततः  चेतना का व्यापार है जो हमारे विवेक को तैयार करता है। उसे हथियार की तरह इस्तेमाल करना उसकी शक्ति और सामर्थ्य को कम करना है। पर रचना और आलोचना, दोनों स्तरों पर लेखन हमारे होने को सिद्ध करता है। लिखना अपने को बार बार जीना है क्योंकि हम हर बार लिखते हुए अपने को मारते हैं तब जी पाते हैं। अपने समय और समाज के सच को, गैरबराबरी के खिलाफ जूझ  रही जनता के संघर्ष और आकांक्षाओं को, उसके सपनों और उम्मीदों को जब तक हम अपने लेखन का विषय नहीं बनाते तब तक कई बार लिखना बेमानी सा हो जाता है। पर लेखन, जैसा कि मैंने कहा, किसी प्रचलन या सोची गढ़ी गयी कार्यसूची का हिस्सा नहीं होता और न उसे ऐसा होना चाहिए। लेखक की ईमानदारी इसमें है कि वह अपने जिये, अनुभूत किये सच को व्यक्त करे, किसी फौरी चलन में बहकर नहीं। कारण स्पष्ट है, लेखन का पैमाना बहुधा एक सा नहीं होता, न ही होना चाहिए। संसार हर तरह के मनुष्यों से बना है जिसमें सबके अपने दुख सुख हैं। साहित्य कभी भी एकहरा नहीं होता। वह सबके साथ होता है, सबके लिए होता है। जीवन में अभाव, दुख और बेबसी का साहित्य में व्यक्त होना सामान्य सी बात है पर साहित्य केवल इतना ही नहीं है और साहित्य को इतने ही तक सीमित मानकर कुछ लोग अक्सर साहित्य को संकुचित करते हैं। साहित्य जीवन में प्रेम की जगह की खोज भी है तो अकेलेपन की त्रासदी से जूझती मनुष्यता की पैरोकार भी। वह हर तरह के अभाव, अव्यवस्था और असमानता के विरुद्ध एक संघर्ष है पर वह इसके साथ साथ अकेलेपन के विरुद्ध एक आवाज़ भी है। 

एक आलोचक के नाते हम ऐसी रचनाओं को लेखन का विषय बनाते हैं जिसमें ईमानदारी से अपने को जीने की कोशिश दिखाई देती है। ऐसी रचना उपन्यास, कहानी या कविता भी हो सकती है तो नाटक भी। कोई कलाकृति भी ऐसी हो सकती है तो कोई अन्य कलारूप भी। एक आलोचक अपने समय के विचार का प्रतिनिधित्व भी करता है तो अपने समय के जाग्रत विवेक का उसे पहरूवा भी होना पड़ता है। यही कारण है कि आज उसे पब्लिक क्रिटिक यानी सार्वजनिक बौद्धिक कहा जाता है। एक रचनाकार के मुकाबले एक सजग आलोचक को अपने समय के साथ अधिक संजीदगी के साथ खड़ा होने का जोखिम उठाना पड़ता है क्योंकि वह अपने विचारों से समझौता करने को स्वतंत्र नहीं होता। हमें जितना प्रेमचंद चाहिए , उससे कम जैनेन्द्र, अज्ञेय भी नहीं चाहिए। हम मुक्तिबोध, नागार्जुन को चुनें तो शमशेर को कहां छोड़ आएं। यशपाल, रेणु ही प्रिय हों तो भगवतीचरण वर्मा का हम क्या करेंगे ? साहित्य समग्रता में देखने की एक समुचित दृष्टि भी है। दुर्भाग्य से सहज स्वाभाविक पथ से उसे भटकाकर जब हम उससे राजनीति या तात्कालिक बहस मुबाहिसों का काम लेते हैं तो उसे क्षति पहुंचाते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपने समय से आंख मूंदे रहें और अपने समय की अव्यवस्था, अनीति और बर्बरता के विरुद्ध चुप्पी साध लें। साहित्य अगर हमारे जीने का माध्यम है तो वह इसकी अनुमति नहीं देता। जैसा कि यूगोस्लाविया के नोबेल पुरस्कार प्राप्त उपन्यासकार, ( जिन्हें द ब्रिज ऑन द ड्रिन नामक उपन्यास पर नोबेल पुरस्कार मिला था) इवो आन्द्रिच ने  कहा था- ''लेखक का गरीब होना, अभाव में जीना या अकेले पड़ जाना उसके दुख का कारण नहीं होता, उसके दुर्भाग्य का सबसे बड़ा कारण अपने समय की वास्तविकताओं से आंख चुराना होता है। उसे अपने समय में होना ही उसके लिखने को चरितार्थ करता है क्योंकि लिखना अपनी भूमिका में ईमानदारी से होना भी है।''
 रचना हो या आलोचना हो, लेखक से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने समय में हो और अपने समय की ज्वलंत वास्तविकताओं से जूझते हुए अपने पक्ष को प्रस्तुत करे। एक लेखक के नाते हम कोशिश करते हैं कि ऐसा कर सकें। लिखना अपने समाज को जीने लायक बनाना भी होता है। पर सबसे पहले वह हमें एक ऐसा मनुष्य बनाने का उपक्रम है जो हममें दया, माया, करुणा जगाए और हमें संवेदनशील बनाये। हम अगर लिखते हुए या लेखक होते हुए अच्छे मनुष्य न हो पाए तो लिखना व्यर्थ है। हम स्वयं इस प्रयास में लिखते हैं कि मनुष्य बने रह सकें। आलोचना के माध्यम से अपने विचारों में अपने समय के साथ होना और हर तरह की अव्यवस्था के विरुद्ध खड़े होना, लेखन की प्राथमिक शर्त है। हम लिखते हैं या हमने लेखन को चुना है तो इसलिए कि हम मनुष्य होने, बने रहने के साथ साथ दुनिया को रहने लायक बनाये रखने में योग दे सकें। लिखना हमारे लिए सबसे पहले अपने को परिष्कृत करना है, इस लायक बनाना है कि हम दुनियावी पातकों से बच सकें। 
 जाहिर है, ऐसा लेखन आपको बार बार मरने को विवश करता है ताकि आप आप बार बार जी भी सकें। लिखना इसीलिए अनवरत अपने से युद्ध है और अपने जीवन को सार्थक बना पाने का एक महत उद्यम भी। हम लिखते हैं इसलिए कि हम जीना चाहते हैं और लिखना अपने समग्र विवेक और नैतिकता के साथ अपने समय में होना है।

००


परिचय:


6 अप्रैल, 1965 को ग्राम -धर्मगता, जिला -गोपालगंज , बिहार में जन्में डॉ.ज्योतिष जोशी ने प्राथमिक से लेकर स्नातक तक की शिक्षा स्थानीय स्तर पर ली। उसके बाद स्नातकोत्तर की उपाधि दिल्ली विश्वविद्यालय से लेकर एम फिल. तथा पीएचडी की उपाधि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली से ग्रहण की।
1995 में इन्होंने ललित कला अकादमी, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी संपादक पद पर सेवा आरम्भ की। बीच के कुछ समय तक ये दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी में प्रतिनियुक्ति पर सचिव भी रहे।

साहित्य, नाटक-रंगमंच, कला के साथ साथ संस्कृति के सर्वमान्य आलोचक के रूप में अखिल भारतीय प्रतिष्ठा अर्जित करनेवाले डॉ. जोशी ने आलोचना को सर्वग्राह्य विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया है और अपनी भाषा को संस्कृति के विभिन्न उपादानों से समृद्ध किया है। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से साहित्य सेवा सम्मान, हिंदी अकादमी, दिल्ली से साहित्यिक कृति सम्मान, बिहार सरकार के संस्कृति विभाग से दिनकर सम्मान, आलोचना में उल्लेखनीय योगदान के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान, स्पंदन आलोचना सम्मान, प्रमोद वर्मा आलोचना सम्मान आदि सम्मानों से अलंकृत डॉ. जोशी की मौलिक और संपादित लगभग 30 पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें मुख्य हैं- आलोचना की छवियां, विमर्श और विवेचना,संस्कृति विचार, पुरुखों का पक्ष, उपन्यास की समकालीनता, साहित्यिक पत्रकारिता, जैनेन्द्र और नैतिकता, शमशेर का अर्थ, कृति आकृति, रूपंकर, आधुनिक भारतीय कला,रंग विमर्श, भारतीय  कला के हस्ताक्षर, नेमिचन्द्र जैन, दृश्यांतर, समय और साहित्य आदि।
डॉ. जोशी वर्तमान में ललित कला अकादमी, नयी दिल्ली के हिंदी संपादक पद से ऐच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर कई योजनाओं पर काम कर रहे हैं।

2 टिप्‍पणियां:

  1. लेखक का गरीब होना, अभाव में जीना या अकेले पड़ जाना उसके दुख का कारण नहीं होता, उसके दुर्भाग्य का सबसे बड़ा कारण अपने समय की वास्तविकताओं से आंख चुराना होता है। उसे अपने समय में होना ही उसके लिखने को चरितार्थ करता है क्योंकि लिखना अपनी भूमिका में ईमानदारी से होना भी है।... ओह्ह! गजब
    हमें आप पर गर्व है.

    जवाब देंहटाएं
  2. Behtrin Sir..likhna sach mei akelepan ke viruddh awaaz hai..manawata ko bachaana hai..samakalin Hindi Alochna mei aapka yogdan aprtim hai..shukriya.shubhkamanaye.

    जवाब देंहटाएं