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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 अप्रैल, 2020

हूबनाथ : लघुकथाएँ एवं कथन : भाग - 3


कथन-१
ज्वार
स्वार्थ का ज्वार उतरते ही रिश्तों के किनारे कीचड़, मरी मछलियां, घोंघे और सिवार ही बचते हैं। 



डॉ हूबनाथ पाण्डेय


कथन-२
हैरत
ज़िंदगी एक ऐसा रास्ता है जिसकी मंज़िल सिर्फ़ मौत है पर इस पर चलने वाले कितने ख़ुश नज़र आते हैं! 


कथन-३
दान
जब तक सारी कामनाएं समाप्त न हो जाएं तब तक किया गया दान सिर्फ़ एक सौदा होता है। 


कथन-४
सुभाषित
ज्ञान और दंभ एक साथ सिर्फ़ एक दुराचारी के भीतर ही हो सकते हैं। 


कथन-५
भ्रम
ज्ञान का भ्रम अज्ञान से ज़्यादा खतरनाक होता है।
  

कथन-६
पूर्णता
पाखंड तो पाप का खंड है उसका पूर्ण रूप तो अहंकार है।
   

कथन-७
दिया
दिये के साथ जलते तो बाती और तेल भी हैं पर कहते हैं कि दिया जल रहा है क्योंकि अकेला दिया ही बचता है आग से, जो बचता है वही सम्मानित होता है।


कथन-८
दर्द
दर्द जीवित होने का प्रमाण है क्योंकि मुर्दों को दर्द नहीं होता।


कथन-९
स्वर्गवासी
जिस कौम में सभी मरनेवाले स्वर्गवासी मान लिए जाते हैं उस कौम के सुधरने संभावना भी स्वर्गवासी हो जाती है।

    
कथन-१०
विडंबना
लगभग सारा देश जब भी घर से बाहर निकलता है,  पीने का पानी लेकर निकलता है क्योंकि उसे बिल्कुल उम्मीद नहीं कि सरकार को उसके प्यास तक  की फ़िक्र है फिर भी वह ऐसी सरकार के हवाले पूरा देश और देशवासियों का जीवन कर देती है और उम्मीद करती है कि सब ठीक हो जाएगा। 
        

कथन-११
बुद्धिमान
बुद्धिमान के पास अपने दोषों को न्यायोचित ठहराने के सौ तर्क होते हैं जबकि मूर्ख के पास अपने निर्दोष होने का कोई प्रमाण नहीं होता।

     
कथन-१२
भ्रम
प्रेम और ईश्वर एक ख़ूबसूरत भ्रम, जब तक बना रहे आनंद देता है।

      
कथन-१३
विकास
जीवित बांस जड़ से काटे जाते हैं सिर्फ़ अर्थी के लिए और जब विकास के लिए काटे जाते हैं जंगल तब मनुष्य बहुत करीब होता है श्मशान के।

     
कथन-१४
सत्य
ईश्वर सत्य हो तब भी वह सत्य से बड़ा नहीं होता।


कथन-१५
चुनाव
शुरुआत में शेर इसलिए राजा चुना गया कि एक तो वह सबसे ताकतवर था और दूजे वह कमज़ोरों और मासूमों की रक्षा करेगा ऐसी उम्मीद थी।
पर शेर ने सिर्फ़ शेरों की रक्षा की और सभी शेरों ने मिलकर बाकी जानवरों का बारी बारी से शिकार किया।
बचे हुए जानवरों ने बचे रहने के लिए हर बार राजा के रूप में शेर का ही चुनाव किया।

    
कथन-१६
सत्ता
सत्ता का एकमात्र धर्म है सत्ता। उसके अतिरिक्त सब कुछ है समिधा जो सत्ता प्राप्ति के यज्ञ में अंततः भस्म होनी है।

     
कथन-१७
असहमति
असहमति, दरअसल सहमत होने की शुरुआत है,शत्रुता की नहीं।कुछ तो है जो मेरी समझ में नहीं आ रहा,मुझे वह समझाइए या फिर समझने की कोशिश कीजिए कि क्यों वह मेरी समझ में नहीं आ रहा।
इस पांच मात्राओं के शब्द से सिर्फ़ अ  ही तो हटाना है। क्या एक अक्षर इतना ताक़तवर हो सकता है कि दो व्यक्ति मिलकर भी हटा न सकें?

      
कथन-१८
पराजय
अमरीका ने जपान पर दो अणुबमों से विजय हासिल की जिसके लिए न सिर्फ़ समझदार अमरीकी बल्कि संपूर्ण संवेदनशील दुनिया आज तक शर्मिंदा है।
विजय की शर्मिंदगी पराजय की शर्मिंदगी से अधिक भयावह होती है।

      
कथन-१९
क्लॉड इथरली
हिरोशिमा पर बम गिराने के बाद जब इथरली को अहसास हुआ कि वह कितने भयावह नरसंहार की वजह बना तब उसे अपने आप से घृणा हो गई और दो बार आत्महत्या की असफल कोशिश की उसके बाद हिरोशिमा के बच्चों के लिए पैसे जुटाने लगा जिससे प्रायश्चित हो सके पर यहाँ भी असफल रहा और अंततः पागलखाने में अपने अपराधबोध के तले सिसक सिसक कर मरा पर अमरीका के राष्ट्रपति को कोई अपराधबोध नहीं हुआ और वह शानदार जीवन जीता हुआ अपनी मौत मरा।
ऐसा क्यों हुआ विक्रम ? यदि सही उत्तर नहीं दोगे तो तुम्हारा सिर टुकड़े टुकड़े हो जाएगा।
राजा विक्रमादित्य का जवाब था-
उन्मत्त राष्ट्राध्यक्ष की आत्मा नहीं होती इसलिए उसे अपने पापों का, दुष्कर्मों का अहसास नहीं होता है इसीलिए वह शानदार पर झूठा जीवन जीता है और  जहाँ झूठ हो वहाँ संवेदना नहीं होती।
इतना सुनते ही बेताल ठठाकर हंसा और फिर से उसी डाल पर जा बैठा।

       
कथन-२०
पापी
कंधे पर पड़े बेताल ने पूछा कि महाराज सिर्फ़ इतना बताओ कि सबसे बड़ा पापी कौन?
आरे के जंगल काटनेवाले मज़दूर या उन्हें आदेश करनेवाले अधिकारी या राज्य का मुखिया जिसे वह जंगल ही नज़र नहीं आया या वे बुद्धिजीवी जो सुरक्षित स्थानों से सोशल मीडिया पर जंगल बचाने में जुटे थे या वे जो डर के मारे चुप थे या जिन्होंने कोशिश तो की पर बचा न पाए या जिन्होंने बेशर्मी से इस वृक्षसंहार का समर्थन किया?
यदि तुम सही जवाब नहीं दोगे तो तुम्हारा सिर टुकड़े टुकड़े हो जाएगा।
विक्रमादित्य ने जवाब दिया कि सबसे बड़ा पापी मैं ख़ुद हूँ क्योंकि जब आरे में वृक्षों की हत्या हो रही थी तब मैं तुझ जैसे नालायक बेताल के क़िस्सों में उलझा हुआ था।
इसके बाद से बेताल ने राजा से कोई प्रश्न नहीं किया।

    
कथन-२१
विनाश
जब आप अपने से बाहर किसी शुभ का विनाश कर रहे होते हैं तो आपको पता भी नहीं चलता और आपके भीतर का थोड़ा सा शुभ अपने आप विनष्ट हो जाता है।
संतुलन प्रकृति का बुनियादी गुणधर्म है।
       

कथन-२२
अग्नि तुम जागते रहना!
जब हवाओं में ज़हर घुला हो,पानी में कीड़े पड़े हों,मिट्टी सड़ रही हो और आकाश में घृणा के बादल घिरे हों तब एक अग्नि ही उद्धार कर सकती है इन सबका।
अग्नि, जो मेरे भीतर,तुम्हारे भीतर,हम सबके भीतर सुप्त पड़ी है उसे जगाने की घड़ी आ गई है।
यदि अग्नि बची रही तो बचा रहेगा सब कुछ वरना बचेगी सिर्फ़ राख अग्नि रहित।

       
कथन-२३
दंभ
मैं जिसे नितांत अपना कह सकूं ऐसा कुछ भी तो नहीं है पास मेरे। जो भी है किसी न किसी का दिया है और जिसने दिया है उसने भी तो किसी न किसी से लिया है। ऐसे में किसी भी चीज़ को नितांत अपना कहना कितनी बड़ी निर्लज्जता है और उससे भी बड़ा दुस्साहस है दाता होने का दंभ!

    
कथन-२४
प्यार
प्यार हर मर्ज़ की दवा है और इसका साइड इफ़ेक्ट भी सिर्फ़ प्यार ही है फिर भी लोग पता नहीं इसे लेकर इतने दुराग्रही क्यों हैं।

      
कथन-२५
आक्रामकता
नैतिक सामर्थ्य से हीन व्यक्ति ही बहुधा आक्रामक होता है।


कथन-२६
विस्तार
प्रेम, सबसे पहले ख़ुद से किया जाता है।
जब अंतर्मन प्रेम से लबालब हो छलकने लगे तब वह अपने आप दूसरों तक और अंततः पूरी कायनात में फैल जाता है।इसके लिए किसी प्रयास की ज़रूरत नहीं होती। सब कुछ अनायास होता है। करना सिर्फ इतना है कि अपने भीतर जो प्रेम के लायक है बस उसे ढूंढना भर है। बाकी सब अपने-आप हो जाता है।

       
कथन-२७
मैत्री
मैत्री के अमूमन तीन आधार हो सकते हैं - सोच,संस्कार और स्वार्थ।
आधार जितना ठोस, मैत्री उतनी टिकाऊं और यह संबंध हमेशा दुतरफ़ा होता है।

      
कथन-२८
सार्थक
प्रत्येक ज्ञानी को अपने ज्ञान की सीमा और अज्ञान  की असीमता का सार्थक अहसास रहता है।

      
कथन-२९
ऊंचाइयां
जब भी मुझे अहसास होता है कि मेरी ऊंचाइयां किसी और के रहमो-करम से हासिल हुईं हैं तो मैं ख़ुद को दुनिया के सबसे गहरे गर्त में पाता हूं।

        
कथन-३०
शिखर
राजमहल के कंगूरे पर बैठने से कौआ गरुड़ नहीं हो जाता भले उसे आजीवन गरुड़ होने का भ्रम रहे।

      
कथन-३१
शिक्षक
जब शिक्षक का नैतिक सामर्थ्य घटता है तो उसी अनुपात में समाज में उसकी प्रतिष्ठा भी घटती है।

       
कथन-३२
दृष्टि
भोर के सूरज के प्रति कृतज्ञ भय का भाव होता है। कृतज्ञता प्रकाश के प्रति और भय ताप के प्रति।
डूबते सूरज के प्रति एक प्रकार का आनंद होता है इस बात का कि हर तपनेवाले को एक समय निस्तेज होकर डूबना ही पड़ता है।

      
कथन-३३
ब्रह्मानंद सहोदर
सबसे बड़ा आनंद मूर्खता का होता है जहां एकमेव सत्ता शुद्ध मूर्ख की होती है। यदि सौभाग्य से इसके साथ प्रतिष्ठा भी जुड़ जाए तो सोने पर सुहागा।

     
कथन-३४
फ़िक्र
मई की चिलचिलाती धूप में चिल्ड एसी कार की पिछली सीट पर औंधे पड़े व्यक्ति को धूप में झुलसते मज़दूर की पीड़ा की फ़िक्र नहीं होती क्योंकि वह भी जानता है कि कार के बाहर की गर्मी में सूरज के साथ उसकी कार का भी सार्थक योगदान है। ऐसे में वह गरीबी हटाने की ख़ूबसूरत कल्पना में डूबता उतराता भोजनोपरान्त के आलस में ऊंघने लगता है।

    
कथन-३५
लोकतंत्र
राजनीतिक रूप से अशिक्षित जनता लोकतंत्र को तानाशाही में बदल देती है।

    
कथन-३६
ईश्वर
किसी पाश्चात्य दार्शनिक ने कहा था कि हम जैसे होते हैं वैसे ही ईश्वर की कल्पना करते हैं- मनुष्य अपना ईश्वर मनुष्य जैसा रचता है तो मुर्ग़ा अपना ईश्वर बनाता तो मुर्ग़े जैसा ही बनाता क्योंकि उसके आगे उसकी सोच पहुंच ही नहीं पाती।
उसी तरह व्यक्ति या समूह अपना आदर्श भी अपनी योग्यता के मुताबिक ही तै करते हैं।
प्रत्येक ईश्वर अपने भक्तों की सीमाओं का प्रतिबिंब होता है।

      
कथन-३७
आचरण
हम जितनी अच्छी बातें सार्वजनिक जीवन में करते हैं यदि उसका दसवां अंश भी आचरण में लाते तो दुनिया कितनी ख़ूबसूरत होती !

   
कथन-३८
व्यापार
धर्म या अध्यात्म साधना  के क्षेत्र में जब धन-संपत्ति का प्रवेश होता है तब वह शुद्ध व्यापार हो जाता है क्योंकि लौकिक संपत्ति से अलौकिक संपत्ति की प्राप्ति असंभव है।

  
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हूबनाथ पाण्डेय की लघुकथाओं की दूसरी कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए

http://bizooka2009.blogspot.com/2020/04/2_27.html?m=1

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