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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 अप्रैल, 2020

सिनेमा



‘रोमा’: वर्तमान की आँखों से अतीत को देखती फ़िल्म

अमेय कान्त



पिछले काफ़ी समय से कई ऑनलाइन वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म अपनी ओरिजिनल सीरीज़ और फ़िल्मों के माध्यम से हॉलीवुड के सामने नई चुनौतियाँ लेकर आ रहे हैं। लेकिन 2018 में नेटफ़्लिक्स पर रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘रोमा’ को गंभीर किस्म के सिनेमा में इस तरह के माध्यम की बड़ी कामयाबी के रूप में देखा जा सकता है। स्पेनिश भाषा की फ़िल्म ‘रोमा’ साल 2018 की सबसे ज़्यादा चर्चित और पुरस्कृत होने वाली फ़िल्मों में शामिल रही। इसे ऑस्कर की दस श्रेणियों में नामांकन मिला और तीन में पुरस्कृत किया गया जिसमें सर्वश्रेष्ठ निर्देशन, सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा की फ़िल्म और सर्वश्रेष्ठ सिनेमैटोग्राफ़ी के पुरस्कार शामिल थे।





  
यह फ़िल्म मैक्सिको के कोलोनिया रोमा नाम के इलाके में रहने वाले एक परिवार की कहानी कहती है। निर्देशक अल्फ़ान्सो कूरॉन की इस आत्मकथात्मक फ़िल्म में सत्तर के दशक के मैक्सिको शहर और उसके आसपास के इलाके के निम्न और उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों की जिंदगी का घटनाक्रम है जहाँ उनका बचपन बीता था। अगर इस फ़िल्म में कोई मुकम्मल कहानी या निष्कर्ष तलाश करने की कोशिश करें तो ऐसा कुछ यहाँ देखने को नहीं मिलेगा। यह फ़िल्म एकरेखीय ढंग से सीधे-सीधे आगे बढ़ती है लेकिन अतीत की स्मृतियों का कोलाज भी है। यहाँ प्रेम है, उम्मीदें हैं, उनका टूटना है, पीड़ा है, दुःख है, बिखराव है और अंततः फिर प्रेम ही है। निर्देशक इस सबको कहानी से ज़्यादा किसी कविता की तरह दर्शक के सामने रखता है।


निर्देशक अल्फ़ान्सो कूरॉन
 ‘रोमा’ एक ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म है और यही इस फ़िल्म की खूबसूरती भी है। ‘ग्रेविटी’ और ‘चिल्ड्रन ऑफ़ मैन’ जैसी फ़िल्मों के निर्देशक अल्फ़ान्सो कूरॉन ने इस फ़िल्म को लिखा भी, निर्देशित भी किया और इसकी सिनेमैटोग्राफ़ी भी खुद ही की। कूरॉन के साथ ‘ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स’ (1998), ‘चिल्ड्रन ऑफ़ मैन’ (2006), ‘ग्रेविटी’ (2013) के अलावा और भी कई फ़िल्मों में काम कर चुके इमानुएल लुबेज़्की एकमात्र ऐसे सिनेमैटोग्राफ़र हैं जिन्हें सिनेमैटोग्राफ़ी के लिए लगातार तीन साल तक ऑस्कर पुरस्कार मिला। 



लेकिन इस फ़िल्म की तैयारी के लिए कूरॉन को ज़्यादा समय चाहिए था और अपने व्यस्त कार्यक्रम के कारण लुबेज़्की इस फ़िल्म के लिए सिनेमैटोग्राफ़ी नहीं कर पाए, लिहाज़ा यह काम कूरॉन को खुद ही करना पड़ा।

इस फ़िल्म के रूप में जैसे कूरॉन ने अपनी कोई पुरानी डायरी दर्शकों के सामने खोलकर रख दी हो। सैंड्रा बुलक और जॉर्ज क्लूनी अभिनीत उनकी फ़िल्म ‘ग्रेविटी’ पूरी तरह अंतरिक्ष विज्ञान पर आधारित होने के बावजूद साइंस फिक्शन फ़िल्म नहीं थी बल्कि भावनात्मक गहराइयों की बात करती थी। इस फ़िल्म की सफलता के बाद कूरॉन के पास इसी तरह की कोई और बड़ी ब्लॉकबस्टर फ़िल्म बनाने का बहुत अच्छा अवसर था लेकिन उन्होंने इसी समय अपने बचपन की स्मृतियों में लौटकर ‘रोमा’ जैसी फ़िल्म बनाना तय किया। उन्हीं के शब्दों में कहें तो वे इस फ़िल्म को अपने परिवार के एक ‘स्पिरिचुअल एक्स-रे’ की तरह बनाना चाहते थे जिसमें अतीत के ज़ख्म भी दिखाई दें और उनके निशान भी।

यह फ़िल्म कोलोनिया रोमा में रहने वाले एक उच्च मध्यम वर्गीय परिवार की महिला सोफ़िया और उसके घर पर काम करने वाली लड़की क्लियो के इर्द-गिर्द घूमती है। इसमें उनकी निजी ज़िंदगियों की उथल-पुथल है। अपने-अपने स्तर पर दोनों का संघर्ष है। इसमें उस दौर के मैक्सिको के राजनीतिक हालात भी हैं। इस तरह यह फ़िल्म एक परिवार के बारे में तो है ही, एक शहर के बारे में भी है और एक देश के बारे में भी। शुरू के एक घंटे में यह फ़िल्म इस परिवार की रोज़मर्रा की ज़िंदगी के बारे में बताती है जिसमें क्लियो बच्चों के लिए नाश्ता तैयार करती है, उन्हें स्कूल भेजती है, घर की साफ़-सफ़ाई करती है, रात होने पर बच्चों को सुलाती है। शुरुआत में कहानी बहुत धीमे आगे बढ़ती है लेकिन कुछ बेहद खूबसूरत शॉट हमें यहीं देखने को मिलते हैं। फ़िल्म की शुरुआत में नामावली के दौरान पृष्ठभूमि में फ़र्श है जिसे लगातार पानी डालकर साफ़ किया जा रहा है। फ़र्श पर दरवाज़े का उजाला पड़ रहा है जिस पर से साबुन के झाग वाला पानी बह रहा है। अंत में जैसे ही फ़र्श साफ़ होता है, इस दरवाज़े की फ़्रेम के भीतर आसमान से गुज़रते एक हवाईजहाज़ की परछाई दिखाई देती है।

फ़िल्म में कैमरा किसी हड़बड़ी में नहीं है। वह पात्रों के बीच ज़्यादा घुसपैठ नहीं करता, कई दृश्यों में बस दूर से देखता है। कई जगहों पर कैमरे की पेनिंग लाजवाब है। एक दृश्य में कैमरा कमरे के बीच में है। वह घर की सीढ़ियों से उतरकर नीचे आते पात्र के साथ बस घूमता है और दृश्य जहाँ शुरू हुआ था, एक पूरा चक्कर लगाकर उस जगह से थोड़ा आगे आकर थम जाता है। ज़्यादातर दृश्यों में ‘हाई डेप्थ ऑफ़ फ़ील्ड’ तकनीक का प्रयोग किया गया है। इसमें दृश्य में दिखाई दे रही सभी चीज़ें पूरी तरह फ़ोकस में होती हैं और हर चीज़ को पूरा महत्त्व दिया जाता है। कई दृश्य ऑर्सन वेल्स की ‘सिटिज़न केन’ फ़िल्म की याद दिलाते हैं जिसमें उन्होंने इस ‘डीप फ़ोकस’ तकनीक का बेहद प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल किया था।





फ़िल्म को मैक्सिको के आसपास की उन्हीं जगहों पर जाकर फ़िल्माया गया जहाँ का घटनाक्रम इसमें दिखाया गया है। एक दृश्य के लिए तो कूरॉन को मैक्सिको की लगातार पाँच गलियों को सत्तर के दशक वाले रूप में ढालना पड़ा।

वह चाहते थे कि इस फ़िल्म में कैमरे की भूमिका वर्तमान से अतीत में गए किसी प्रेत की तरह हो जो उस समय में चल रहे घटनाक्रम को बस देखता रहे। इसलिए उन्होंने इसे लुबेज़्की के कहने पर अधिक चौड़ाई की 65एमएम फ़िल्म पर फ़िल्माया। इस तरह यह एक फ़िल्म का अपनी आधुनिकता के साथ अतीत में झाँकना था। यहाँ घटनाओं को एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण के साथ देखा जा रहा था, किसी तरह का कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा रहा था। कूरॉन अपनी इस फ़िल्म के पात्रों को शूटिंग के दौरान पूरी स्क्रिप्ट नहीं बताते थे, शायद इसलिए कि इससे पात्रों के अभिनय में आगे की कहानी के प्रति वही अनजानापन बना रहे जो आम ज़िंदगी में हमारे भीतर होता है। इस फ़िल्म के कई पात्र तो पहली बार अभिनय कर रहे थे। क्लियो का किरदार कूरॉन के बचपन में उनके घर काम करने वाली उसी महिला लीबो का है जिससे वे भावनात्मक रूप से काफ़ी जुड़े हुए थे।  

यह फ़िल्म अपनी तरफ़ से कुछ भी कहने की कोशिश नहीं करती। बस हमें चुपचाप एक गुज़रे हुए समय को दिखाती रहती है। यहाँ निर्देशक किसी समय-यात्री की तरह अपने अतीत में से होकर गुज़र रहा है। साथ में दर्शक भी है जो पाता है कि हमारा अस्तित्व अंततः हमारे एकाकीपन का साझा अनुभव है।

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4 टिप्‍पणियां:

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  2. वाह अमेय। बहुत ही खूबसूरती के साथ तुमने फ़िल्म की समीक्षा लिखी है, अति सुंदर। लगता है पूरी गहराई में जाकर जैसा निर्देशक ने फिल्माया है, वैसा ही तुमने उसे शब्दों में उतारा है।
    Manish Dabi

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  3. समीक्षा काफी सधी हुई है। तुम्हारे लिखने का ढंग और भाषा का सावधानी के साथ किया गया बर्ताव सहज ही अपने में बांध लेता है।

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