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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 अप्रैल, 2020

शहंशाह आलम की कविताएँ



    


    

     क़ब्र बहुत गहरी
     खोदी गई है

क़ब्र बहुत गहरी खोदी गई है
उनकी देख-रेख में बड़ी सफ़ाई से
ताकि वे ज़िंदा रह सकें ज़िंदों को मारकर

मेरी जान, हम मुहब्बत ईजाद करते हैं
वे नफ़रत के बीज अपने कारख़ाने में बनवाते हैं
हम शहतूत के पेड़ लगाते हैं
वे अपने जानवरों को भेजकर
सारे पौधे ख़राब करवा देते हैं

जानेमन, वे तुमसे शहतूत का पेड़ छीन लेते हैं
मुझसे मेरा रेशम का कीड़ा ले भागते हैं

वे तुमसे तुम्हारा दरिया ले लेते हैं
मुझसे मेरा मछली पकड़ने का जाल

वे तुमसे तुम्हारी कश्ती हथिया लेते हैं
मुझसे मेरे घोड़े लेकर अपने रथ में बाँध लेते हैं

मेरी जान, हर लगने वाली कतार में हमें लगाया जाता है
फिर कतार से ख़ाली हाथ वापस लौटा दिया जाता
यह कहकर कि मुल्क में सामानों की क़िल्लत है

जानेमन, वे हर भूखे आदमी को हमारे भारत में
शरणार्थी मानते हैं और ख़ुद को भारत का भाग्यविधाता

मगर मेरी जान, ये कैसे भाग्यविधाता हैं
जीते तो वे हमारे ही कमाए पैसों पर हैं

हाँ मेरी जान, उन्हें जितनी ज़्यादा भूख लगती है
वे मुल्क में उतनी ही ज़्यादा महँगाई ला देते हैं

जानेमन, वे इसीलिए क़ब्रें ज़्यादा गहरी खुदवा रहे हैं
ताकि भूख से मरने वालों को दफ़नाए जाने में
किसी दिक़्क़त का सामना ना हो मारा-मारी ना हो

मेरी जान, हम सहिष्णु जनता हैं दुनिया भर की
आओ, 'जन-गण-मन' गा लेते हैं अपने ग़मों को भुलाते।
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     मैंने दरख़्त बनना
     चाहा

मैंने दरख़्त बनना चाहा
उन्होंने मुझे पेड़ की तरह
आरी से काट डाला

मैंने समुंदर बनना चाहा
मुझे नमक बनाने वालों के हाथों
बेरहमी से बेच डाला गया

जिस तरह वे औरतों को बेचते रहे
जिस तरह वे बाग़ीचों को बेचते रहे
जिस तरह वे नदियों को बेचते रहे
जिस तरह वे मुल्कों को बेचते रहे
वैसे ही वे मुझे भी बेचते रहे हैं
रियायतें दिलाने के नाम पर

मैंने नाव बनना चाहा
मुझमें छेद-दर-छेद किए गए
ताकि मैं हुए भटके मुसाफ़िर के
किसी काम न आ सकूँ

इसमें ग़लती मेरी थी
मुझे बहुत पहले जान लेना चाहिए था
कि बेचना उनकी फ़ितरत रही है
इस वास्ते कि उनके जिस्म में
किसी रहमदिल शायर का नहीं
सख़्तदिल कुत्ते का दिल धड़क रहा है

यही वजह है कि उन्हें आरामगाहें नहीं
क़त्लगाहें ज़्यादा पसंद आती रही हैं

यही वजह है कि उन्हें मुद्दतों से
जीते हुओं का जुलूस नहीं
हारे हुओं की भीड़ बेहद पसंद है

मैंने घोड़ा बनना चाहा मज़बूत काठी का
उन्होंने मुझ पर चाबुक बरसाए अनथक

आख़िर में मैं लोहार का घन बना
और उन पर इस क़दर गिरा
कि वे टूटकर यहाँ-वहाँ बिखर गए।
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     जब तक उनके आलीशान मकाँ
     बनकर तैयार होंगे

मेरी जान, जब तक उनके आलीशान मकाँ बनकर तैयार होंगे
हुकूमत के कारिंदे आकर हमारा ख़स्ताहाल घर बेदर्दी से तोड़ चुकेंगे
हमारे तोड़े हुए घर होकर साहब लोगों के मकाँ तक पहुँचने के लिए
एक बेहद चौड़े रास्ते का नक़्शा नगरपालिका वाले पास कर चुकेंगे

जानेमन, हुकूमत के लोग हमारा ही घर हमसे क्यूँ छीन लेते हैं अकसर
इस वास्ते कि आलीशान मकानों के बीच मेरे-तुम्हारे घर का क्या काम

मेरी जान, अब तुम किस घर की किस खिड़की पर खड़ी रहकर
ख़ुद को सजाते-सँवारते हुए मेरे वापस लौटने का इंतज़ार करोगी

अब मैं तुम्हारा इंतज़ार कहाँ कर पाऊँगी चाँदनी में नहाई रात में
अपने टूटे हुए घर का मातम मनाऊँगी संसद की दीवार से लगकर

मेरी जान, तुम्हारा मातम क्या संसद में बैठे हुए लोग देख पाएँगे

नहीं, उन्हें जब भूख से तड़प-तड़पकर मरने वाले दिखाई नहीं देते
उन्हें जब ज़िंदगी से परेशान होकर ख़ुदकुशी करने वाले दिखाई नहीं देते
उन्हें जब पीने के पानी तक के लिए परेशान अवाम दिखाई नहीं देते
तो फिर छीन लिए घर की ख़ातिर मेरा मातम मनाना वे क्योंकर देखेंगे

मेरी जान, फिर तुम संसद की दीवार से लगकर मातम काहे लिए मनाती हो

वह इसलिए कि संसद में बैठकर हमारे वास्ते रोज़ छाती पीटने वालों का नाटक
दुनिया वाले देख सकें और मेरे दुःख के विष का इलाज ढूँढ़ सकें सचमुच में।
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     मेरी हैसियत एक क़ैदी की
     हैसियत है

मेरी जान, मेरी हैसियत एक क़ैदी की हैसियत है
मैं जहाँ जिस ईंटों के भट्ठे पर काम करता हूँ
अगर किसी रोज़ कुछ ईंटें कम बना पाया
तो मुझे खाने को कुछ चीज़ें कम दी जाती हैं
और माँ-बहन की गालियाँ थोड़ी ज़्यादा उस रोज़

तुम ऐसी कोई कोशिश काहे करते रहते हो
अभी पिछले दिनों तुमने सिर्फ़ एक अदद ईंट चुराई
ताकि तुम एक-एक ईंट चुराकर मेरे वास्ते एक घर बना सको
तुमको किस बेरहमी से पीटा गया भट्ठे के निगराँ के हाथों
फिर तुमसे कहा गया कि जो ईंटें बनाने का काम करते हैं
उनको कोई ईंट वाला घर बनाने का ख़्वाब नहीं देखना चाहिए

मेरी जान, मैं जिस मिट्टी की खान में काम करता हूँ
उस खान से थोड़ी मिट्टी चुरा ली अपने गिर रहे घर को
फिर से खड़ा करने के वास्ते तब भी मेरा यही हश्र हुआ था
बाद में मुझे मालिक के कुत्ते की देख-भाल में लगा दिया गया
यह कहते हुए कि मैं किसी कुत्ते से भी बदतर हूँ इस दुनिया में

मैं जिस काग़ज़ बनाने की मिल में काम करता हूँ
मैंने थोड़ा काग़ज़ चुरा लिया नज़्म लिखने के लिए
मेरे साथ बदतर बरताव किया गया नज़्म लिखने के एवज़

जानेमन, हम जिस मुल्क के रहने वाले हैं, हर मज़दूर की हालत
तुम्हारी ही वाली बुरी हालत है कमोबेश हर मालिक की निगाह में
गोया तुम एक नज़्म तक नहीं लिख सकते किसी क़ैदी की हैसियत से

मेरी जान, मुल्क के सियासतदानों को हर शायर से डर जो लगता रहता है
इसीलिए वे डरते हैं और हमको काग़ज़ की मीलों में काम नहीं करने देते।
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     मैं अपना दरिया बेचना
     चाहता हूँ

मेरी जान, मैं अपना दरिया बेचना चाहता हूँ
जिस तरह कोई अपना दरख़्त बेचना चाहता है
जिस तरह कोई अपना घोड़ा बेचना चाहता है

तुम अपना दरिया काहे बेचना चाहते हो

मेरी जान, कइयों के घर की रोटी ख़त्म हो गई है
कइयों के घर का चावल ख़त्म हो चुका है
कइयों के घर से घर का साया छीन चुका है

जानेमन, तुम क्या-क्या बकते जाते हो अनाप-शनाप
अभी कल ही तो अपने वज़ीरे आज़म का बयाँ था
कि अपने मुल्क में बहार ही बहार है बेकार कोई नहीं है
उन्होंने करोड़ों ग़रीबों को मुफ़्त गैस सिलेंडर दिए हैं अब्बा के घर से
करोड़ों ग़रीबों के जनधन खातों में रुपए दिए हैं अपने जेब ख़र्च से

मेरी जान, हमको मुफ़्त गैस सिलेंडर नहीं रोटी चाहिए भात चाहिए

मगर तुम बे-दरिया होकर अपने प्यासे पेड़ों को अपने प्यासे घोड़ों को
पानी कहाँ से पिलाओगे कहाँ से नहलाओगे मुझे बहते पानी में

मेरी जान, बे-दरिया होकर बादलों से पानी माँग लूँगा
मगर किसी किसान से मैं अनाज नहीं माँग सकता
वे ख़ुद पैसे-पैसे को मोहताज होकर ख़ुदकुशी कर रहे हैं

जानेमन, तुम ठीक कहते हो कि हमारा वज़ीरे आज़म कैसा वज़ीरे आज़म है
जो ख़ुद देश-देश घूमता रहता है फिर लौटकर अपने मुल्क में रोड शो करता है
दुनिया भर के हुक्मराँ को यह जताने के लिए कि अवाम इनको कितना चाहते हैं

मेरी जान, वे अवाम कहाँ होते हैं वे तो उन्हीं के ग़ुलाम होते हैं भीड़ लगाने वाले

चलो तब मैं भी रस्ते-रस्ते मोहल्ले-मोहल्ले यह बात फैलाती हूँ पुरज़ोर
कि हमारा वज़ीरे आज़म जब जो कहता है झूठ ही कहता है दुनिया के सामने।
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     वे झूठ को अपनी आदत क्यों
     बना लेते हैं

मेरी जान, वे झूठ को अपनी आदत क्यों बना लेते हैं
इस वास्ते कि बेघरबार लोग उनके झूठ को झूठ न समझ लें
सच समझते रहें उनकी इस झूठ बोलने वाली आदत को
ताकि मैं और तुम अपनी मर्ज़ी का कुछ कर न सकें

मेरी जान, मैं अपनी मर्ज़ी का एक घर बनाना चाहता हूँ
अपनी मर्ज़ी का एक दालान एक बाग़ीचा एक बस्ती
अपनी मर्ज़ी का एक किनारा एक मछली पकड़ने का जाल

जानेमन, वे तुमको तुम्हारी मर्ज़ी का एक काम नहीं करने देंगे
इस वास्ते कि एक दिन तुम अपना घर बना लोगे एक बारामदा
फिर झूठ बोलने वालों से सामान की क़ीमतें कम करने के लिए कहोगे
रोटी की भात की गैस की पेट्रोल की क़ीमतें कम करने के लिए कहोगे

ऐसा करके मैं कोई ग़लत काम क्या करूँगा उनके ख़िलाफ़ क्या जाऊँगा

जानेमन, ऐसा करके ग़लत ही तो करोगे उनके ख़िलाफ़ ही तो जाओगे
जब वे खाने-पीने की क़ीमतें कम कर देंगे गैस और पेट्रोल के दाम घटा देंगे
तो वे जो ख़ुद उम्दा खाते हैं उम्दा पहनते हैं उम्दा रोड शो करते हैं
किस तरह कर पाएँगे किस तरह हमको मारकर ख़ुद को ज़िंदा रख पाएँगे

मेरी जान, मैं अपनी मर्ज़ी का एक सच बोलने वाला तोता रखना चाहता हूँ
अपनी मर्ज़ी की क़लम अपनी मर्ज़ी का तूफ़ान अपनी मर्ज़ी का ख़ंजर भी

तुम उन झूठ बोलते रहने वालों के रहते अपनी मर्ज़ी का कहाँ कुछ कर पाओगे
वे तुम्हारी मर्ज़ी की क़लम छीन लेंगे सच बोलने वाले तोतों को क़त्ल कर देंगे

मेरी जान, तब भी मैं अपनी मर्ज़ी का एक काग़ज़ उनकी निगाहों से बचा लूँगा
फिर अपने ख़ून की स्याही बनाकर एक तवील नज़्म लिखूँगा उनके झूठ के ख़िलाफ़।
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     मैंने ज़िले के हाकिम
     से पूछा

मैंने ज़िले के हाकिम से पूछा
क्या मैं अपनी पसंद का नाम रख सकता हूँ
ज़िले के हाकिम का जवाब नहीं में था

पसंद की लड़की से मुहब्बत कर सकता हूँ
ज़िले के हाकिम का जवाब अब भी वही था

अपनी पसंद का खाना खा सकता हूँ
ज़िले के हाकिम का बड़ा-सा सिर
अब भी पहले जैसा हिल-डुल रहा था

अपनी पसंद के दरिया में नहा सकता हूँ
अपनी पसंद के कुरते-कमीज़ पहन सकता हूँ
अपनी पसंद के बीज बो सकता हूँ

ज़िले का हाकिम अब तमतमा गया था
नहीं, पहले तुम अपनी पसंद का नाम रखोगे
फिर पसंद की लड़की से मुहब्बत करोगे
फिर पसंद का खाना खाओगे
फिर पसंद का दरिया चुनोगे
फिर पसंद का कुरता-कमीज़ पहनोगे
फिर पसंद का बीज डालोगे
फिर खदान से मिट्टी चुराकर अपना एक घर बना लोगे
और सीना ताने कहोगे तुम इसी ज़िले से हो

हाँ साहब, मैं इसी ज़िले इसी राज्य इसी मुल्क से तो हूँ

यही भारी कमी है तुम शायर लोगों में
तुम हम हाकिमों के ख़िलाफ़ शायरी करोगे
फिर कहोगे तुम इसी ज़िले इसी राज्य इसी मुल्क से हो

यह सही कह रहा है जनाबे शहंशाह आलम
ज़िले का हाकिम कभी झूठ नहीं बोलता
राज्य का हाकिम कभी झूठ नहीं बोलता
मुल्क का हाकिम कभी झूठ नहीं बोलता

अजनबी, तुम हाकिम की हाँ में हाँ काहे मिलाते हो
हाँ में हाँ नहीं मिलाएँगे तो वह हमें मिट्टी में मिला देगा
इसीलिए उसकी हाँ में हाँ मिलाते रहना होता है

अजनबी, तुमको यहाँ का हाकिम मिट्टी में काहे से मिला देगा
हमारा राशन बंद करवाकर हमसे नमक-रोटी छीनकर

अजनबी, तुम काम क्या करते हो
हम तुम जैसों बाग़ी शायरों की मुखबिरी करते हैं
इससे ज़िले का राज्य का मुल्क का हाकिम ख़ुश रहता है

अजनबी, मैं बाग़ी कैसे हुए
मेरे सीने में धड़कने वाला दिल है
मेरे पास भी भूख लगने वाला पेट है
मेरे बाप के पास भी माँ के पास भी
भाई के पास भी बीवी-बच्चों के पास भी
मेरे दोस्तों के पास भी यह सबकुछ है

जनाबे शहंशाह आलम, तुम्हारा पेट काटकर
हाकिम लोग अपना पेट भरता आया है
यह तुमको नहीं मालूम

अजनबी, मुझको सब मालूम है
तभी तो ज़िले का हाकिम नाराज़ रहता है
तभी तो वह मुझको ज़िले से बाहर का कहता है।
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     ठेकेदार ने दरख़्तों पर निशान
     लगा दिए हैं

मेरी जान, ठेकेदार ने दरख़्तों पर निशान लगा दिए हैं
सारे निशान लगे दरख़्त ठेकेदार के आदमी काट ले जाएँगे
जिस रोज़ दरख़्त काट लिए जा रहे होंगे हुकूमत के ज़ालिम लोग
तुमको-मुझको इन निशान लगे दरख़्तों के साथ बाँध देंगे
यह सोचकर कि इस तरह तुमको-मुझको भी काट डाला जाएगा
इस तरह जनगणना पंजी से तुम्हारा-मेरा नाम हमेशा के लिए वे हटा सकेंगे
इस तरह हुकूमत तुम्हारी-मेरी कचपच से हमेशा के लिए बच जा सकेगी

मगर तुम्हारी नज़्मों में दर्ज मेरे नाम को हुकूमत कैसे हटा पाएगी
मेरी छातियों पर तुम्हारे बेहिसाब चुंबनों की छाप कैसे मिटा पाएगी
हमने-तुमने मिलकर आज़ादी के जो नग़मे गाए उन नग़मोँ को कैसे जला पाएगी

मेरी जान, हुकूमतें हमारे नग़मोँ की वजह से ही हमारे इरादे भाँप लेती है
हमारे मुख़ालिफ़ इरादों की वजह से ही हुकूमत में बैठे हुए भेड़िए
हमारे दुश्मन बन जाते हैं और काट डाले जाने वाले दरख़्तों के साथ
हमारी नीलामी भी ठेकेदारों के बीच करवा देते हैं एकदम ऊँचे दामों पर
फिर ठेकेदार मुझको काट डाले गए दरख़्तों की रखवाली के काम में
और तुमको बेपरवाही से बेरहमी से ख़ौफ़नाक जंगल में हाँक देते हैं
ताकि तुम और मैं किसी दरिया के किनारे फिर कभी मिल न सकें

मगर जानेमन, शिकस्त तो हुकूमत की ही होती है हमेशा की तरह
दरिया तुमसे-मुझसे मिलने ख़ुद चला आता है तड़पता हुआ
हुकूमत के सारे लोग सारे ठेकेदार दरिया के ग़ुस्से से ख़ौफ़ज़दा
ख़ुदको बचाने की ख़ातिर भाग जाते हैं टूटी हुई कश्ती में बैठकर।
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     छिद्र

अब रास्ते में भेंट होती है तो सबके छिद्र से होती है

एक कथा यह भी है कि आदमी अब कोई
चौपाई नहीं गाता अपने छिद्र को ही गाता है
छिद्र को ही छूता है हाथ बढ़ाकर भयमुक्त

तभी एक हाकिमे वक़्त छिद्र को अपने जीवन की
सबसे पुरानी और संभवतः सबसे दीर्घ कथा मानते हुए
कइयों को मारता-मरवाता है कइयों से थूक चटवाता है
और उसके ऐसा करने से लोगबाग की पैनी नज़र में
उसकी इज़्ज़त पहले से कुछ ज़्यादा बढ़ी दिखाई देती है

हम छिद्र को गढ़ने में निपुण जो होते हैं चतुर भी दक्ष भी
इसका प्रमाण भी है कि आज उसने मेरे भीतर के छिद्र
बाहर निकालकर दिखाए पूरे मजमे पूरी भीड़ के सामने
किसी गामा पहलवान के माफ़िक जाँघों पर हाथ मारते

और मैं उस गामा पहलवान का कुछ बिगाड़ नहीं सकता था
अपने छिद्र के भय से घर में छिपकर बैठ ज़रूर सकता था

युद्ध भी तो अपने छेदों को छुपाने के लिए ही किए जाते रहे हैं
छायाओं को बिगाड़ने का प्रयास भी इसी वजह से किया जाता रहा है

बंधु लोग, सच है, अब छिद्र ही गढ़ रहा है हमको भी तुमको भी
पंचतत्व के मिथक को अपने दस्ताने वाले हाथ से परे हटाता

तभी मैं एकदम बेआवाज़ बत्तियाँ बुझा देता हूँ कमरे की
तब भी छिद्र ही छटपटाता दिखाई देता है रोशनी के बदले।
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     थियेटर

पर्दा उठा और मेरी नींद खुल गई धूप की आवाज़ पर
सामने ढेर सारे दर्शक थे चिनिया बादाम हाथों में लिए
मेरे हाथ लेकिन तुम्हारी कमर से लिपटे थे मुहब्बत से
तुम थीं कि रिश्ता तोड़ लेने का फ़ैसला सुना रही थीं

नेपथ्य के वादक थोड़ा झिझक रहे थे पतझर से
पृथ्वी सो रही थी पहाड़ से चिपक कर भय में
तुमने कहा कि मेरा वादक पहले सोई पृथ्वी को जगाए
ताकि तुम हरे वृक्षों से घिरे जलकुंड में नहा सको

इन अभागे दिनों में कलाकार के कपड़े फटे हों जब
मैं कैसे जगा दूँ सोई हुई पृथ्वी को सपने देखते पहाड़ को
और यह भी कि मेरा समय रेत से घिरा है पानी से नहीं

मंच का दृश्य बदलता है जोकर की बदरंग हँसी पर
इस हँसी का अनुवादक रोता है अपनी ही भाषा में

देश का प्रथम नागरिक निश्चिंत है कि दुःख उससे दूर है
दुःख में तो नायक हैं नायिका हैं जोकर हैं अनुवादक हैं

पर्दा गिरता है तो तालियाँ नहीं बजतीं अब किसी थियेटर में।
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शहंशाह आलम
         

जन्म : 15 जुलाई, 1966, मुंगेर, बिहार

शिक्षा : एम. ए. (हिन्दी)

प्रकाशन : 'गर दादी की कोई ख़बर आए', 'अभी शेष है पृथ्वी-राग', 'अच्छे दिनों में ऊँटनियों का कोरस', 'वितान', 'इस समय की पटकथा', 'थिरक रहा देह का पानी', ‘आग मुझमें कहाँ नहीं पाई जाती’ सात कविता-संग्रह तथा आलोचना की पहली किताब 'कवि का आलोचक' प्रकाशित। ‘ख़ानाबदोशी’ ( कविता-संग्रह ) तथाकविता का धागा’ ( आलोचना ) शीघ्र प्रकाश्य। 'गर दादी की कोई ख़बर आए' कविता-संग्रह बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत। 'स्वर-एकादश' कविता-संकलन में कविताएँ संकलित। 'वितान' (कविता-संग्रह) पर पंजाबी विश्वविद्यालय की छात्रा जसलीन कौर द्वारा शोध-कार्य। दूरदर्शन और आकाशवाणी से कविताओं का नियमित प्रसारण। हिन्दी की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। बातचीत, आलेख, अनुवाद, लघुकथा, चित्रांकन, समीक्षा भी प्रकाशित। पटना दूरदर्शन के लिए आलोचक खगेंद्र ठाकुर, उपन्यासकार अब्दुस्समद, कथाकार शौकत हयात, साहित्यकार उद्भ्रांत, कवि प्रभात सरसिज, कवि मुकेश प्रत्यूष कवि विमलेश त्रिपाठी आदि से बातचीत।

पुरस्कार/सम्मान : बिहार सरकार का राजभाषा विभाग, राष्ट्रभाषा परिषद पुरस्कार के अतिरिक्त 'कवि कन्हैया स्मृति सम्मान', ‘सव्यसाची सम्मान’, ‘हिंदी सेवी सम्मान’ सहित दर्जन भर से अधिक महत्वपूर्ण पुरस्कार/सम्मान मिले हैं।

संप्रति, बिहार विधान परिषद् के प्रकाशन विभाग में कार्यरत।

संपर्क : हुसैन कॉलोनी, नोहसा बाग़ीचा, नोहसा रोड, पूरब वाले पेट्रोल पाइप लेन के नज़दीक, फुलवारीशरीफ़, पटना-801505, बिहार।
मोबाइल :  09835417537
ई-मेल : shahanshahalam01@gmail.com

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3 टिप्‍पणियां:

  1. प्रतिरोध की बेहतरीन कविताए

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  2. We are urgently in need of Kidney donors with the sum of $500,000.00,
    Email: customercareunitplc@gmail.com


    हमें तत्काल $ 500,000.00 की राशि वाले किडनी दाताओं की आवश्यकता है,
    ईमेल: customercareunitplc@gmail.com

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  3. गुर्दा दान के लिए वित्तीय इनाम
    We are currently in need of kidney donors for urgent transplant, to help patients who face lifetime dialysis problems unless they undergo kidney transplant. Here we offer financial reward to interested donors. kindly contact us at: kidneytrspctr@gmail.com

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