जवाहर चौधरी
खिड़की से धूप और प्रकाश आ रहा है । प्रकाश मुझे अच्छा लगता है । प्राकृतिक हो तो और भी ज्यादा । मन मुदित हुआ तो आँखें बंद हो गईं । अभी कुछ पल ही गुजरे थे कि आवाज आई – आँखें खोलो भक्त । मैं भगवान हूँ ।
चौंक कर देखा । सामने एक आकृति थी, पाषाण प्रतिमा सी । मुझे डर लगा । प्रायः डर के समय भगवान को याद करता हूँ । अब भगवान सामने हैं तो समझ में नहीं आ रहा है कि किसका स्मरण करूँ !
“डरो मत । मैं तुम्हें कुछ देने आया हूँ ।“ वे बोले ।
“क्या दोगे ?!” डर कम नहीं हुआ, भगवान हैं, पता नहीं क्या दे दें ।
“एक आइडिया दूंगा जिससे तुम काम के आदमी समझे जाओगे ।”
“काम !! ... काम तो चाहिए मुझे भगवान । बेरोजगार बैठा हूँ । महंगाई कितनी है ! हाथ हमेशा तंग रहता है । स्कूल वाले बोरी भर भर के फीस मांगते हैं । खाना कपड़ा दवाई सब मेरे बस के बाहर है ।“
“रुको रुको, शिकायत पुराण मत खोलो भक्त । मैं तुम्हें काम नहीं आइडिया देना चाहता हूँ ।“
“आइडिया का क्या करूंगा भगवान ! देने वाले ने बहुत दिए हैं । पूरा शहर चाय बनाने वालों से अंटा पड़ा है । मुट्ठी भर पीने वाले और गाड़ी भर पिलाने वाले ! आइडिया तो रहने ही दो, काम की बात हो तो कहो ।"
“काम, नौकरी, रोजगार ये सब दकियानूसी विचार हैं भक्त । तुम्हें इन सब बातों से परे रहते हुए आत्मनिर्भर हो जाना चाहिए ।“
“आत्मनिर्भर क्या होता है भगवान ?”
“जब तुम्हारे आसपास कि सारी निर्भरताएं बेमानी हो जाएं । संगी साथी असहयोग की मुद्रा मे आ जाएं । समाज मे तुम्हारी विश्वसनीयता खत्म हो जाए । तुम हंसी और उपेक्षा के पात्र होने लगो । चौतरफ निराशा घिरने लगे तो एक ही उपाय बचता है ... “
“मेरे साथ यही सब हो रहा है । कौन सा रास्ता बचता है प्रभु ?!”
“तुम अपने को भगवान का अवतार घोषित कर दो ।“
“मजाक मत करों भगवान । मेरे अवतार होने की बात कौन मानेगा !!”
“ये तुम्हारी नहीं लोगों की समस्या
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जवाहर चौधरी, इन्दौर
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