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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

06 अक्तूबर, 2024

कहानी एक स्त्री के कारनामे


सूर्यबाला


मैं एक औसत कद-काठी की, लगभग ख़ूबसूरत औरत हूं, बल्कि महिला कहना ज्यादा ठीक होगा। सुशिक्षित, शिष्ट और बुद्धिमती, बल्कि बौद्धिक कहना ज्यादा ठीक होगा। शादी भी हो चुकी है और एक अद्द लगभग गौरवर्ण, सुदर्शन, स्वस्थ, पूरे पांच फुट ग्यारह इंच की लंबाई वाले, मृदभाषी, मितभाषी पति की पत्नी हूं।
बच्चे? हैं न! बेटी भी, बेटे भी। सौभाग्य से, समय से और सुविधा से पैदा होने और भली भांति पल-पुस कर बड़े होने वाले।
आज्ञाकारी और कुशाग्रबुद्धि के साथ-साथ समय से होमवर्क करने वाले भी... संपन्नता और सुविधाएं इतनी तो हैं ही कि एक पति, दो कामवालियों, और तीन बच्चों वाला यह कारवां, कदम-कदम बढ़ाते हुए लगभग हर कदम पर खुशी के गीत गाता चल सकता है। अर्थात पढ़ाई, लिखाई ट्यूशन, टर्मिनल सब कुछ बहुत सुभीते  और सलीके से। पूरी ज़िंदगी ही।

जितने पैसे मांगती हूं, पति दे देते हैं। जहां जाना चाहती हूं, जाने देते हैं। कभी रोकते, टोकते नहीं। पूछते-पाछते भी नहीं।

कभी उन्हें भी साथ चलने को कहती हूं तो चले चलते हैं। कभी नहीं कहती तो नहीं चलते। खाना भी सदा सादा और स्वास्थ्यप्रद खाते हैं। कभी वे ही व्यंजन दुबारा-तिबारा बन गए तो मैं क्षमा मांगने के लहजे में ‘सॉरी’ कह देती हूं और वे बेहद धीमे से ‘इट्स ऑल राइट’ कहकर पारी समाप्ति की घोषणा कर देते हैं। वरना लोगों के घरों में, जरा से कम नमक, या जरा-सी ज्यादा मिर्च की बात पर बवाल मचाने वाले पति मैंने खूब देखे हैं। पहले बवाल मचता है फिर जलजला आता है और उसके बाद मान-मनौव्वल। घंटे-दो घंटे तो लग ही जाते हैं पूरा बारामासी कार्यक्रम निपटाने में। लेकिन मेरे घर में, कसम आज तक, ऐसा कभी हुआ ही नहीं। ....तभी तो लोग कहते हैं कि मेरे पति आदमी नहीं देवता हैं।

घर में तीन अख़बार आते हैं। दो फोन और एक रंगीन टीवी है ही। वह ऑफिस के घंटों के ऊपर-नीचे सारे अख़बार पढ़ते हैं। साथ-साथ टीवी भी चलता रहता है। जिस चैनल पर जो आता है, देखते हैं, जो चैनल लगा है, उसे लगा रहने देते हैं। जैसा कार्यक्रम आता है, आते रहने देते हैं। परेशान नहीं होते कभी। समय काटने की कोई समस्या ही नहीं उनके सामने। आपसे आप आराम से काटता जाता है... वरना कितने लोग तो ‘समय’ को लेकर ही तमाम उठापटक किए जाते हैं कि कैसे काटा जाए और कैसे बचाया जाए। मेरे पति को ऐसी कोई उधेड़बुन नहीं व्यापती। वह ऐसी हर समस्या के मूर्तिमान समाधान होते हैं। यही कारण है कि लोग उन्हें आदमी नहीं देवता कहते हैं।

लेकिन अपनी क्या कहूं? कहते भी शर्म आती है। उनके देवत्व को संभाल पाने का शऊर ही नहीं है मुझे। वह जितने देवता होते जाते हैं, मैं उतनी-उतनी बेशऊर, बेढंगी। हंसती हूं तो खिलखिलाकर हंसती चली जाती हूं और रोती हूं तो बेतहाशा सावन-भादों की झड़ी लगा देती हूं। और गुस्सा... तो मेरी नाक पर रहता है। वह भी बेवजह। बात-बेबात भभक पड़ती हूं। अक्सर बिना बात। अपने देवता समान पति पर भी। अच्छी तरह जानती हूं, गलती सरासर मेरी ही होती है। फिर भी वह शांत भाव से (बिना यह जाने, सुने और समझे कि मैं किस बात पर भभकी हूं) कभी ‘इट्स ओ.के.’ कह देते हैं, कभी ‘सो सॉरी...’। पड़ोसियों का कहना है कि आज तक कभी उनकी आवाज तक नहीं सुनाई दी। बात सच है। जब घर की घर में नहीं सुनाई दी तो बाहर तक कैसे सुनाई देगी।

मान लीजिए, छुट्टी के दिन वह बाहर निकलते दिखें तो मुझसे रहा नहीं जाता। बरबस पूछ बैछती हूं, ‘कहीं जा रहे हैं क्या?
‘हांऽऽ।’
‘कहां?’
‘बाहर।’
‘बाहर, कहां?’
‘एक किसी से मिलने...।’
‘किससे?’
‘तुम उन्हें नहीं जानतीं...।’
‘अच्छा, कब तक लौटेंगे?’
‘जल्दी भी आ सकता हूं, देर भी लग सकती है।’

वही तो, मैंने पहले ही बताया न, मृदुभाषी, मितभाषी। बताइए, इसमें जरा भी कोई बौखलाने वाली बात हो सकती है? नहीं न! तो भी मैं तकरार पर उतारू हो जाती हूं। उनकी सारी सदाशयता ताक पर रखकर रार ठान लेती हूं। एक बार तो मैं सीधे शिकायत पर उतर आई, ‘आप तो मुझसे कभी बात ही नहीं करते, सारा समय अख़बार, टी.वी., कंप्यूटर, फोन।....

उन्होंने अख़बार, टी.वी. बंद कर समझदारी-भरे स्वर में कहा, ओ. सॉरी... ठीक है, बताओ, क्या बात करूं?’

अब यह अनुकूलता की चरम सीमा ही हुई न, जो वह खुद मुझसे पूछ रहे थे कि बताओ क्या बातें करें मुझसे।

लेकिन ऐन वक्त पर मेरी अक्ल पर पत्थर जो पड़ जाते हैं। हड़बड़ा कर सोचने लगी कि इनको क्या विषय दूं, मुझसे बात करने के लिए। घबराहट यह भी है कि वह इंतजार कर रहे हैं और मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा।

हकलाकर कहती हूं, ‘अरे, और कुछ नहीं तो यही कि आज पूरा दिन ऑफिस में कैसा बीता। दिन-भर कितनी बड़ी-बड़ी चीजें घटी होंगी। वही कुछ।’...

‘ओऽऽयस,’... उन्होंने याद करने की कोशिश की और स्थिर भाव से बताने लगे। मैं मन लगाकर सुनने लगी - जब वह सुबह ऑफिस पहुंचे तो उनका चपरासी प्यारेलाल, हमेशा की तरह दूसरे चपरासी कामता के पास खैनी मांगने गया हुआ था। ऑपरेटर भी देर से आई। पैकिंग में साढ़े दस से ‘गो-स्लो’ शुरू हो गया। इसलिए कायदे से माल की जो लोड़िंग साढ़े तीन तक हो जानी चाहिए थी, वह साढ़े पांच बल्कि पांच पैतालीस तक चली। बाहर खड़ी ट्रकों को ज्यादा इंतजार करना पड़ा।.. पैकिंग डिपार्टमेंट और लोडिंग वालों के बीच इस सबको लेकर तनातनी रही।.. कैशियर बरूआ ने छुट्टी बढ़ा ली। बहुत से बिलों का भुगतान रुक गया। केमिकल लैब का असिस्टेंट मखीजा आज फिर वैक्सीन का कल्चर चुराते पकड़ा गया।.. बीच में डेढ़ घंटे बिजली गायब रही।... रहमतगंज वाले टैंकर का ब्रेक-डाउन हो गया। साढ़े तीन बजे से बजट की मीटिंग थी। और - अचानक मेरी तंद्रा टूटी। पति पूछ रहें थे... और बातें करूं? कि बस?

उफ्! मैं तो भूल ही गई थी कि मैंने ही उन्हें बातें करने के लिए कहा था। और वह इतनी देर से मेरा कहा मानकर दिन-भर चले कार्यकलापों का विवरण दे रहे थे।

जबकि मैं शायद बीच में झपक जाने या कुछ और सोचने लग जाने की वजह से कुल एक-दो वाक्यों से ज्यादा कुछ ठीक से सुन-समझ ही नहीं पाई थी। अब यह तो मेरी ही बेअदबी की हद हुई न कि खुद ही पूछे सवालों के जवाब सुनने की जगह उबासियां लेती, कुछ और सोचती-झपकती रही.... लेकिन वे अब भी पूछ रहे थे कि क्या कुछ और बातें की जाएं...!

हारकर एक रास्ता निकाला, ‘जाने दीजिए, आप थक गए होंगे। मैं चाय बनाती हूं। बनाऊं?’

वह मेरे मना कर देने पर, निशि्ंचत भाव से टी.वी. देखने लगे थे। मेरा कहा सुन नहीं पाए। मैंने रुककर थोड़ा इंतजार किया। फिर पूछा, ‘चाय बनाऊं? पीएंगे?’ तब उन्होंने शांत भाव से कहा...’ हां, पी लूंगा।’

मैं अच्छी-ख़ासी समझदार पत्नी की तरह किचेन में गई। पतीला गैस पर चढ़ाया। इतने ही में बस, पता नहीं क्या हुआ कि मेरे अंदर झल्लाहट का भभका-सा आ गया। एकदम पागलपन के दौरे की तरह। दिल-दिमाग की सारी समझदारियां धड़ाधड़ ध्वस्त-पस्त होने लगीं। जैसे कोई तोड़क दस्ता, विध्वंसक बुलडोजर अचानक कतार से खड़ी, सलीके-वार इमारतों को तोड़ने, ध्वस्त करने में उतारू हो जाए। इस तोड़क दस्ते का आक्रामक संचालन भी मैं ही कर रही हूं.... और इसे रोकने की घबराहट भरी चीख-पुकार भी मैं ही मचा रही हूं। शोर शराबे के बीच, जो कुछ थोड़ा बहुत सुन-समझ पड़ रहा है, उसका आशय है-

‘पी लूंगा?... क्या मतलब! कोई अहसान करोगे क्या मुझ पर?... कायदे से यह नहीं कर सकते थे कि ‘हां-हां, बनाओ!... मेरा भी दिल कर रहा है चाय पीने का।’
‘या फिर यही कह देते कि... ‘ऐसा करो, ज़रा अदरक, काली मिर्च डालकर तड़कदार चाय बनाओ... ठीक?’
इस क़िस्म की सारी इबारतें नाजायज, सारे निर्माण अवैध... सब गिरे, ढहे, ध्वस्त-पस्त। मलबे पर सिर्फ एक मनहूस-सा शब्द टंगा है- ‘पी लूंगा।’...

लेकिन यह सब मेरे अंदर वाले लोक की माया है। बाहर तो गैस पर चाय का पानी खौल रहा है और ट्रे में बदस्तूर शुगर पॉट और मिल्क पॉट के साथ चाय की प्यालियां सजी हैं।

अचानक फिर से मुझे जाने क्या होने लगता है। चाय का पानी मेरे अंदर खौलने लगता है। बर्नर की लपटें तेज और लपलपाने लगती हैं। यहां-वहां, सब-कुछ दहकने, तपने लगता है। दिल-दिमाग बेकाबू, एक वहशी उत्तेजना की चपेट में। और... अचानक मैं खुद को रोकते, न रोकते चाय की पत्ती और कुटी अदरक के संग पूरे चम्मच भर काली मिर्च की बुकनी खौलते पानी में डाल देती हूं।
और, अब मैं सांस रोक, धड़कने समेटकर, उन्हें चाय का पहला घूंट लेते देख रही हूं। अब बोले... बस अब...., उफ मैं ज्यादा इंतजार नहीं कर पाती।

‘क्यों? क्या हुआ...’ मैं लगभग बेसब्र होकर पूछ बैठती हूं, ‘काली मिर्च खूब ज्यादा पड़ गई है न!... बोलो, बोलो, बोलो न!’
‘हां।’
‘तो?’ मैं धड़कनें रोककर पूछती हूं।
‘इट्स आल राइट।’....

‘क्या ऽऽऽ....? मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं होता। मेरा मौन वहशियाना हो उठता है- ‘बात? बात कैसे नहीं? साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि काली मिर्च झुंकी हुई है चाय में। चाय चरपरी नहीं, बल्कि मिर्च का शोरबा है..... और, यह शोरबा मैंने बनाया है.... जानबूझकर- जिससे इस घर में बिछी बर्फ की सिल्लियां चकनाचूर हो, बर्फ पिघले तो पानी बहे... पानी बहे और हवा हलकोरे, तूफ़ानी ही सही। हवा, पानी, बर्फ और तूफान.. बादल और बिजली.. सब कुछ एक साथ.... बहुत हो गई देवताई। थोड़ा ही सही, हैवानियत पर भी उतरा जाए। यह अष्टधातु के सांचों में ढली, जड़ मूरत चिटके और हाड़-मांस के एक साबुत आदमी से साबका तो पड़े।.....‘

लेकिन मैं इंतजार करती रही। कोई तूफान नहीं आया। कोई बिजली नहीं कड़की, न बादल, न बारिश ही।
ग्लानि से भरी मैं चुपचाप उठी। मैंने अपने आपको कहते हुए सुना- ‘सॉरी, मुझसे काली मिर्च की बुकनी ज्यादा पड़ गई, दूसरी बनाकर लाती हूं... और ट्रे उठाकर चल दी।

आपको अपनी आंखों पर विश्वास नहीं आता न!.. मैं खुद हकबकी, हैरान-सी देखती हूं- ‘मेरे देवता समान’ पति और मैं, शांति से, साथ-साथ चाय पी रहे हैं।.....
०००

सभी चित्र फेसबुक से साभार 

परिचय


25 अक्टूबर, 1943 वाराणसी में जन्मीं और काशी विश्वविद्यालय में पी.एच.डी. तक की शिक्षा पूर्ण करने वाली सूर्यबाला समकालीन कथा-लेखन में एक विशिष्ट और अलग अंदाज के साथ उपस्थित हैं। यह अंदाज मर्मज्ञ पाठकों के साथ उनकी आत्मीयता का है। जो दशक दर दशकर निरंतर प्रगाढ़ होती गई हैं।
धर्मयुग में धारावाहिक प्रकाशित होने वाला उनका पहला उपन्यास ‘मेरे संधिपत्र’ आज भी पाठकों की चहेती कृति है तथा अब तक का अंतिम उपन्यास ‘कौन देस को वासी.... वेणु की डायरी’ अनवरत पाठकों की सराहना अर्जित कर रहा है।
अपने छः उपन्यास, ग्यारह कथा-संग्रह, चार व्यंग्य-संग्रह, तथा ‘अलविदा अन्ना’ जैसी स्मृति कथा और ‘झगड़ा निपटारक दफ्तर’ शीर्षक बालहास्य उपन्यास की लेखिका सूर्यबाला, तमाम साहित्यिक उठापटकों, विमर्शी घमासानों और बाजार की मांगों से निर्लिप्त रहकर चुपचाप लिखने वाली रचनाकार हैं।
वैचारिक गहनता के बीचोंबीच सहज संवेदना की पगडंडी बना ले जाने में सूर्यबाला की कहानियां बेजोड़ हैं। जीवन के जटिल और बौद्धिक पक्षों को भी नितांत खिलंदड़े अंदाज में बयान करती उनकी  कहानियां अपनी मार्मिकता पर भी आंच नहीं आने देतीं।
उपन्यासः ‘मेरे संधिपत्र’, ‘सुबह के इंतजार तक’, ‘अग्निपंखी’, ‘दीक्षांत’, ‘यामिनी कथा’ तथा ‘कौन देस को वासी.... वेणु की डायरी’।
कहानियां: एक इंद्रधनुष जुबेदा के नाम, दिशाहीन, थाली भर चाँद, मुंडेर पर, गृहप्रवेश, सांझवाती, कात्यायनी संवाद, इक्कीस कहानियां, पांच लंबी कहानियां, मानुष-गंध, गौरा गुनवंती, इक्कीस श्रेष्ठ कहानियाँ, यादगारी कहांनियां, सूर्यबाला-संकलित कहानियां, दस प्रतिनिधि कहानियां, गैर हाजिरी के बावजूद (स्त्री केंद्रित कहानियां), एक टुकड़ा कस्तूरी (प्रेम कहानियां), सूर्यबाला की लोकप्रिय कहानियां, सूर्यबालाः चुनी हूई कहानियां, सूर्यबाला एक शिनाख्त, सूर्यबाला की 12 श्रेष्ठ कहानियां, बहनों का जलसा (राजकमल प्रकाशन), प्रतिनिधि कहानियां (राजकमल)।
अब तक छः दशकों में आयी सारी कहानियां ‘सूर्यबालाः कहानी समग्र’ (अमन प्रकाशन) शीर्षक से तीन खंडों में प्रकाशित।
व्यंग्यः अजगर करे न चाकरी, धृतराष्ट्र टाइम्स, देश सेवा के अखाड़े में, ‘भगवान ने कहा था‘, पत्नी और पुरस्कार, मेरी प्रिय व्यंग्य रचनाएं, यह व्यंग्य कौ पंथ, श्रेष्ठ व्यंग्यः सूर्यबाला, मेरी प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाए, इस हमाम में, सूर्यबाला की श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं।
संस्मरणः अलविदा अन्ना (स्मृति कथा), झगड़ा निपटारक दफ्तर (बाल हास्य उपन्यास)।
अंग्रेजी में अनुदित कथा संग्रहः द गर्ल विद् अनशेड टियर्स।
अनेक कहानियों एवं व्यंग्य रचनाओं का रूपांतर टी.वी धारावाहिकों के माध्यम से प्रस्तुत।
एक वर्ष तक जनसत्ता के साप्ताहिक परिशिष्ठ में ‘वामा’ शीर्षक पाक्षिक स्तंभ का लेखन।
इंडियन क्लासिक श्रृंखला (प्रसार भारती) के अंतर्गत 2007 में ‘सजायाफ्ता’ कहानी पर बनी टेलीफिल्म को दो पुरूस्कार (सर्वश्रेष्ठ टेलीफिल्म एवं निर्देशन)
जीवंती फाउंडेशन (मुंबई), सूत्रधार (इंदौर) तथा राइटर्स एसोसिएशन मुंबई द्वारा लेखिका सूर्यबाला के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित संपूर्ण कार्यक्रम एवं साक्षात्कार।
सम्मान पुरस्कारः महाराष्ट्र साहित्य अकादमी का छत्रपति शिवाजी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, भारती प्रसार-परिषद का भारती-गौरव सम्मान, महाराष्ट्र साहित्य हिंदी अकादमी का सर्वोच्च जीवन-गौरव पुरस्कार, हरिवंश राय बच्चन साहित्य रत्न पुरस्कार, राष्ट्रीय शरद जोशी प्रतिष्ठा पुरस्कार, रवींद्रनाथ त्यागी शीर्ष सम्मान, अभियान संस्था द्वारा स्त्री शक्ति सम्मान एवं महाराष्ट्र दिवस पर राज्यपाल द्वारा राजभवन में सम्मानित, जे सी जोशी, शब्द साधक शिखर सम्मान, नई धारा का उदयराज सिंह स्मृति शीर्ष सम्मान तथा उत्तर प्रदेश संस्थान का सर्वोच्च भारत-भारती पुरस्कार आदि से सम्मानित।
डॉ. सूर्यबाला
बी-504, रूनवाल सेंटर, गोवंडी स्टेशन रोड, देवनार,
चेम्बूर, मुंबई – 400088
ईमेलः suryabala.lal@gmail.com

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