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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 अक्टूबर, 2018

परख तेईस


पृथ्वी में छह सौ फुट भीतर बन रही कविता रोज़!

गणेश गनी



कवि अनवर सुहैल ने अपने काव्य संग्रह में एक जगह साफ़ कहा है कि कुछ भी नहीं बदला है। यह किताब अनवर जी ने अपने फेसबुक मित्रों को समर्पित की है । कवितायेँ आमजन से जुड़ी होने के साथ साथ वर्तमान की विसंगतियों को भी बेबाकी से उजागर करती हैं । कवि कहता है -

अनवर सुहैल


कि वह थकता नहीं
वह बेवजह हंसता नहीं
अकारण रोता नहीं
भरपेट कभी होता नहीं ।

आमजन के बारे कवि कहता है कि उसकी चमड़ी मर चुकी है या मर चुकी है हमारी सम्वेदना । यह अनवर सुहैल जैसा कवि ही लिख सकता है । अंतिम आदमी की पीड़ा समझने के लिए सम्वेदनशील हृदय चाहिए ।
राजनीति का खेल अब सब समझ रहे हैं मगर फिर भी धूर्त लोगों ने शरीफों का दिल गिरवी रख लिया है और उसे झूठे वादों से बहलाते रहते हैं ।
कवि अंतिम आदमी की ही पीड़ा को ऐसे व्यक्त करता है -

मैं जहाँ था भाई
वहां नहीं था वसंत ।

आगे देखें क्या कमाल की बात लिखी है -

थोड़ी सी धूप
थोड़ी सी चांदनी
थोड़ी सी नींद
थोड़ा सा ख्वाब
थोड़ा सा चैन
थोड़ा सुकून ।

इतना कम चाहा था मैंने
और तुमने कहा
कि रुको -
हम बना रहे हैं घोषणा - पत्र!

अनवर ने बहुत कवितायेँ ऐसी लिखी हैं जो साधारण भाषा और शिल्प में अंतिम आदमी की पीड़ा से सराबोर हैं । कवि को गाली और गोली से डर नहीं लगता क्योंकि उसके पास एक कलम , एक सोच , एक स्वप्न और एक उम्मीद है । कवि को दोस्तों से बहुत उम्मीद है -

क्या तुम उन
लिखकर मिटा दी गई पंक्तियों को
बांचोगे दोस्त ।

कवि का दोस्त पर अटूट विश्वास है जो वो जताना नहीं भूलता और यह जरुरी भी है । हमें यह बताना ही चाहिए कि एक मित्र की मित्रता का हमारे जीवन में कितना महत्व है -

हम नहीं हंडिया के दाने
और कच्चे भी नहीं हैं हंडिया में
हम पके हुए हैं पूरे
जितना कि तुम हो दोस्त ।



इस मुश्किल समय में एक संवेदनशील व्यक्ति का अपने मित्र पर यकीन करना बनता है । कवि धरती के अंदर गहरे जा कर भी अँधेरे में प्रेम की लौ जला लेता है -

तुम सारा सारा दिन
अपने हिस्से के
फटे - चीथड़े आकाश में
तुरपाई - सिलाई कर कर के
तैयार करना चाहती हो
मेरे वास्ते एक अदद कमीज।

और मैं कोयला खदान की
काली - अँधेरी सुरंगों में
तलाशता रहता हूँ
तुम्हारी याद के जुगनू ।

आज जहाँ बड़े कवि अपनी अपनी कविताओं को लेकर सीना ताने खड़े हैं वहां अनवर सुहैल जैसा सरल हृदय वाला कवि अपनी लेखनी से सबका ध्यान खींचता है । कवि बड़े सादगी से संकेत सबको दे रहा है कि कविता इधर भी है जो बोलेगी और दूर तलक अपनी टँकार से सबके कानों पर दस्तक देगी ।
कवि की कुछ कविताएं दरअसल प्रश्नों और विद्रोही स्वरों का भी दस्तावेज हैं। यहाँ औरत को भी  कमजोर नही दिखाया गया है -

स्त्री ने अपने लिए
रच लिए हैं नए ग्रन्थ
तराश लिए हैं नए खुदा

अब स्त्री सिरज रही है
एक नई पृथ्वी ।

यहां अनवर स्त्री के लिए पूरी पृथ्वी की बात कर रहे हैं । यह अनवर जैसा कवि ही कह सकता है ।  यहाँ यह बात भी गलत सिद्ध हो जाती है कि साहित्य आम आदमी के लिए नहीं लिखा जाता । बल्कि यही सिद्ध होता है कि साहित्य आम आदमी के लिए ही लिखा जाता है ।
००

गणेश गनी


परख बाइस नीचे लिंक पर पढ़िए
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नीरज नीर की कविताएं



नीरज नीर

गोड्डा की मछलियाँ 

रातें उदास और ठहरी हुई हैं /
विषण्ण सुबह,  सूरज उगता है
आधा डूबा हुआ /
हवाएँ शोक ग्रस्त हैं /
बलदेव बेसरा की थकी हुई आँखों में
छाया है अंधेरा/
दैत्याकार चिमनियों से निकलता
विषैला काला धुआँ/
जहर बनकर घुस रहा है
नथुनों में
पत्तियों पर फैली है
काली धूल/
वृक्ष हाँफ रहे हैं/
बलदेव बेसरा भर देना चाहता है
उस बरगद के पेड़ में
अपनी साँसे
जिसे लगाया था
उसके पुरखों में से किसी एक ने/
पर वह खुद बेदम है/
धान के खेतों में
पसरी हुई है
कोयले की छाई /
दावा है चारो तरफ
बिजली की चमकदार रौशनी
फैलाने का/
पर उसके जीवन में फ़ेल रहा है अंधेरा
बरगद की जड़े ताक रही हैं
आसमान को/
पंछी उड़ चुके हैं
किसी दूर देश को
नए ठौर की तलाश में /
पर तालाब की मछलियां
नहीं ले पा रही हैं साँसे
वे मर कर उपला गयी है
पानी की सतह पर
बलदेव बेसरा भी चाहता है
पंछियों की तरह चले जाना
लाल माटी से कहीं दूर
जहाँ वह ले सके
छाती भर कर साँस,
जहाँ गीत गाते हुये
उसकी औरते रोप सके धान,
जहाँ मेड़ों पर घूमते हुये
रोप सके
अपनी आत्मा में
हरियाली की जड़ें /
पर मछलियों के पंख नहीं होते/
वह साँस भी नहीं ले पा रहा/
उसकी आत्मा छटपटा रही है/
वह भी तालाब की मछलियों की तरह
मरकर उपला जाएगा/
और विस्मृत हो जाएगा
अस्तित्वहीन होकर/
मछलियाँ पानी के बाहर
पलायन नहीं कर सकती हैं/
अंधेरे में जूझती गोड्डा की मछलियों
का अंत निश्चित है
 (गोड्डा में एक बड़ी कंपनी के द्वारा किसानों की ज़मीनें छीनी जा रही है। किसान विरोध कर रहे है, छाती पीट रहे हैं, परंतु कंपनी ताकतवर है, वह जमीन छीन कर रहेगी।)






गोड्डा की मछलियाँ- 2 

जीवित रहने के लिए
मछलियों को सीखना होगा उड़ना।
उड़ना ऊँचा,  उड़कर बैठना
वृक्ष की सबसे ऊँची फुनगी पर। 
करना तैयारी
देशांतर गमन की ।
पोखरा, अहरा और तालाब
नदी, नालों के किनारों से दूर
पानी से बाहर निकलकर
पंछियों की तरह पंख फड़फड़ाना
जीना नए परिवेश में
अपने रूप, रंग और गंध से हीन।
अपनी आत्मा को पानी के भीतर मिट्टी में
गहरे दफन करके निकलना बाहर
और संवेदना से शून्य
आकाश में विचरना
गरम हवा में साँसे लेते हुये
संघर्ष करना
जीवन के लिए आमरण ।
मछलियों को बगुलों से शिकायत नहीं है।
वे सीख गयी हैं सहजीविता
उनके साथ
जैसे मुसलमानों के साथ हिन्दू
ब्राह्मणों के साथ अन्य जातियाँ 
रहते आए हैं इस देश में साथ साथ।
मछलियों को ख़तरा है
विशाल हाथियों से
जो उतर आए हैं पानी में
विकास और प्रगति के बड़े बड़े बैनर लिए।
गोड्डा की मछलियाँ बेचैन है।
उन्हें विकास में दिख रहा है अपना विनाश।








 अनकही सी बात

बात,
जो तुम कह नहीं पाये,
जो  रह गयी थी
दो  बातों के दरम्यां
अटक कर
तुम्हारे अधरों पर.
जिसे छुपा लिया
तुम्हारी नजरों ने
पलकें झुका कर.
उसे पढ़ लिया था मैंने
और वह शामिल हो गया है
मेरे होने में .
उसी को मैं लिखता हूँ आजकल,
अपनी कविताओं में.
बूँद बूँद
अपने वजूद में डूबोकर.
तुम्हारे लिए
जो थी
एक ज़रा
अनकही सी बात,
वह एक सिलसिला बन गया है
कभी नहीं खत्म होने वाला.
मेरे मन का आकाश
अभी भी ताकता है राह
और फाहे से बनाता है
तरह तरह की तस्वीरें
और फिर फूंक कर उड़ा देता है
इधर उधर
मुस्कुराते हुए.
कभी कभी बरस भी जाता है
आँखों से,
अगर कभी इधर आना
तो लेकर आना
एक नाव.
नदी जो तुम्हें दिखती है सूखी
है दरअसल लबालब भरी हुई.
जिस किनारे पर कभी तुमने लिखा था
अपना नाम,
उसे मैंने अब भी बचाकर रखा है
नदी की धारा से
अपनी देह की आड़ देकर
और तुम्हारी अँगुलियों की छुअन
महसूस करता हूँ
अपनी हथेली पर.
जब आओ तो अपने  पैरों के नीचे
रख लेना
एक फूल.






 तुम फिर आओगे 

तुम आओगे फिर
मुझे मालूम है
कि बारहा नहीं रह  सकती
मौसमे खिजां
कि फिर से लौट आएँगी
बहारे गुल.
फिर से आएगी रवानी
इस नदी में.
ख़त्म हो जायेगा
गर्म हवाओं का मौसम.
बहेगी फिर से बादे शबा.
तुम आओगे
तो फिर से दिखेगा
मैना का  जोड़ा
बरगद के दरख़्त पर.
गोरैया फिर से बनाएगी
घोसला
ऊँचे रौशन दान में.
नन्हीं चिड़ियों की चहचाहट के साथ
गूंजेगी मंदिर की घंटियाँ.
आसमान फिर से आज़ाद होगा
कफस ए अब्र से.
हम खोल कर खिड़कियाँ
फिर से निहारेंगे
साफ़ नीले आसमान को,
जहाँ उफ़क के पास
नज़र आती है
एक छोटी सी पहाड़ी
और नदी में
गाता सुनाई देता है
मांझी, अपनी छोटी डोंगी के साथ.
नदी के उस पार
जो ऊँची मीनार है,
मैं उस पर रोज रखूंगा
एक दीया
कि हर जाने वाले को दिखा सके
वापस लौटने की राह .
तुम आओगे फिर
मुझे मालूम है.









चिड़ियाँ और शिकारी 

चिड़ियों के शोर से शिकारी नहीं मरता
और न ही
उसकी तरफदारी करने से
छोड़ देता है
शिकार करना
तोप से नहीं बरसेंगे फूल
तोप के मुंह में  घोसला बना लेने से
तोप नहीं समझता है
प्रेम की भाषा
छूरियों की धार
चिड़ियों के  गर्दन के लिए है
चिड़ियों को बचना है तो
सीखना होगा ऊँचा उड़ना
और सतर्क रहना
शिकारी की चाल से
तोप की असलियत को पहचानना होगा
छूरियों को चोंच में दबाकर
उड़ना होगा दूर बहुत दूर





जंगल का विकास वाया सड़क 

जंगल....
जहाँ थे
ठिठोली करते पीपल, पाकड़, खैर,
सखुआ, महुआ, पलाश
अनेक किस्म के जीव जंतु
छाती भर के घास
जहाँ था ठंढे पानी का कुआँ
उठता था सुबह शाम धुआँ
जहां रहते थे
जीवन चक्र में
सबसे ऊपर रहने वाले लोग
मांदर बजाते लड़के
गीत गाती लडकियाँ
परिवार का हिस्सा थे
गाय, बैल, बकरियां
सहजीविता मूल साधन था
जीवन के साध्य का ......
फिर वहां आयी एक सड़क
और जंगल धीरे धीरे गायब हो गया
जैसे शहर से गायब हो गयी गोरैया
किसी ने नहीं देखा
जंगल के पैर, पंख उगते हुए
पर अब वहां जंगल नहीं है
न जाने किस अदृश्य दिशा की ओर
जंगल,  कर गया प्रस्थान
बिना किसी शोर शराबे
हिल हुज्जत के
जंगल के पीछे पीछे गायब हो गए
चुपचाप
जीव –जंतु, कुएं का पानी
गीत और मांदर भी
अब वहां उग आये हैं
पेड़ों से भी गहरी जड़े जमायें
कारखाने, खदान और बड़े बड़े भवन
बांसुरी और मांदर के मधुर संगीत के बदले
है डी जे का कानफाड़ू शोर
आनंद की जगह ले ली है आपाधापी ने
सुबह से शाम तक मची है चूहों की दौड़
पलाश की जगह खिल रहे हैं
बोगनवीलिया के फूल
घर से ज्यादा जरूरी हो गयी हैं चारदीवारियां
और जीवनचक्र में बहुत नीचे आ गए हैं
वहां रहने वाले लोग.
जंगल में इस तरह आया है विकास
सड़क के रास्ते ...





मच्छर 

जाड़ा कम होते ही बढ़ जाते हैं मच्छर
जैसे धन कटनी के बाद
दिल्ली के स्टेशन पर
झुण्ड के झुण्ड उतरते हैं
पूरब के बेरोजगार
मच्छरों  का उद्धेश्य
किसी का अहित
नहीं होता है
वे भी जीना चाहते हैं
पूरबिया बेरोजगारों की तरह
जो दो पैसे कमाकर भेजना चाहते हैं
अपने गाँव
ताकि बच्चों के बस्ते में आ सके किताबें
बाबूजी खा सके
गर्म भात के साथ आलू का चोखा
लेकिन लुटिएन्स ज़ोन को अखरती है
यमुना किनारे उग आयी बस्तियाँ
मच्छरों को मारने के तरह तरह के उपायों के बाबजूद
बढ़ती ही जा रही है उनकी संख्या
योजना बनायी जा रही है कि कैसे
मच्छरों के पनपने के पहले ही
उन्हें मार दिया जाये
दिल्ली में इस तरह मच्छरों का होना
दिल्ली की सुन्दरता पर बदनुमा दाग है





 दौड़ 

वह दौड़ रहा है
एक थके हुए धावक की तरह
जिसे मालूम है
वह जीत नहीं सकता
पर उसे पूरी करनी है
अपनी दौड़
क्योंकि दौड़ के
होते हैं
अपने कुछ कायदे,
कुछ नियम
जिंदगी की ट्रैक पर
दौड़ रहा किसान
अभिशप्त है
हारने के लिए
अपना पूरा दम लगाने के बाबजूद
फिर भी वह दौड़
पूरी करेगा
फाउल  दिए जाने तक





 आप क्या चाहते हैं 

आपको नफरत है मुसलमानों से
आप घिनाते हैं दलितों से
आपकी पसंद की परिधि में नहीं समाते हैं
यादव, कुर्मी, कोयरी......
आपको  सुहाते नहीं  हैं
राजपूत, कायस्थ, बनिया 
आप चिढ़ते हैं
कान्यकुब्ज,  सरयूपारिन और श्रोत्रिय से भी
आपकी पसंद की सूची 
सुई की छेद भर है
जिससे खुद सुई का भी निकलना
संभव नहीं
आपको चुभते हैं काँटो की तरह
आपके गोतिया और पड़ोसी
और दुश्मनी की अलगनी पर
आपने टांग रखे हैं
अपने सगे भाई और भतीजों को
ज़रा सोचिये खुद के सिवा
आप किससे करते हैं प्रेम

आप करते हैं घृणा
ब्राह्मणों से
गाली देने की प्रतियोगिता में
आप ठहरना चाहते हैं बीस
सामाजिक न्याय का लक्ष्य
तब तक आप पूरा नहीं मानेंगे
जब तक कि ब्राह्मण  नहीं देने लगे
अपनी बेटियां किसी दलित को
पर आप धोबी हैं और नहीं देना चाहते
अपनी बेटी किसी दुसाध को
आप दुसाध हैं और नहीं देना चाहते
अपनी बेटी किसी चमार को
आप चमार हैं और नहीं देना चाहते
अपनी बेटी किसी भंगी को
अजी बेटी छोडिये,
आप रोटी भी नहीं खाना चाहते किसी भंगी की
सूखी नदी में नाव चलाकर
आप पहुँचना चाहते हैं
उस पार
ज़रा सोचिये
कितनी संकरी है वह गली
जिसमें  आप समाना चाहते हैं
समानता और बंधुत्व
समस्त विश्व के कल्याण हेतू

आपको उनकी  हर बात में
दिखता है कुफ्र
आपको लगते हैं
उनके विचार, उनकी आस्था
उपहास योग्य,
ध्वस्त किये जाने एवं
बदल दिए जाने लायक
आपको होती है चिढ़
शियायों के शोक मनाने से
आप करते हैं परहेज़
दूसरे फिकरे की इबादतगाहों से
अँधेरे कमरे में बंद करके आप
रोते हैं रौशनी को
आपने अपने इर्द गिर्द गढ़ लिया है
भय का एक छद्म किला
जिससे बाहर आप
कभी निकलना नहीं चाहते
आप प्रेम को बनाना चाहते हैं
वन वे ट्रैफिक
जिसमें आना तो हो पर
जाना नहीं हो मुमकिन
आप हँसने की आज़ादी चाहते हैं
पर कोई आप पर नहीं हँसे
इस शर्त के साथ
इस तरह आप कायम करना चाहते हैं
अम्नो अमान की अपनी दुनिया
जो स्वीकार्य हो सभी को
ज़रा सोचिये आप क्या चाहते हैं





 गाँव, मसान और गुड़गांव 

अब गाँव की फिजाओं में
नहीं गूंजते
बैलों के घूँघरू ,
रहट की आवाज.
नहीं दिखते मक्के के खेत
और  ऊँचे मचान.
सूना परिवेश
उल्लास हीन गलियां
दृश्य मानो उजड़ा मसान.
नहीं गूंजती
ढोलक की थाप पर
चैता की तान.
गाँव में नहीं रहते अब,
पहले से बांके जवान.
गाँव के युवा
गए सूरत, दिल्ली और गुडगांव .
पीछे हैं पड़े
बच्चे, स्त्रियाँ, बेवा व बूढ़े .
गाँव के स्कूलों में शिक्षा की जगह
बटती है खिचड़ी.
मास्टर साहब का ध्यान,
अब पढ़ाने में नहीं रहता.
देखतें हैं, गिर ना जाये
खाने में छिपकली.
गाँव वाले कहते हैं,
स्साला मास्टर चोर है.
खाता है बच्चों का अनाज
साहब से साला बने मास्टर जी
सोचते हैं,
किस किस को दूँ अब
खर्चे का हिसाब.
चढ़ावा ऊपर तक चढ़ता है
तब जाकर कहीं
स्कूल का मिलता है अनाज ..
इन स्कूलों में पढ़कर,
नहीं बनेगा कोई डॉक्टर और इंजीनियर
बच्चे बड़े होकर बनेगें मजदूर
जायेंगे कमाने
सूरत, दिल्ली , गुडगाँव
या तलाशेंगे कोई और नया ठाँव.
००

नीरज नीर की कविताओं पर गणेश गनी का लेख नीचे लिंक पर पढ़िए


औरतें कवि होती हैं 
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परिचय : 

नीरज नीर 
जन्म तिथि : 14.02.1973 
Mob 8797777598 
Email – neerajcex@gmail.com 
पता :
“आशीर्वाद”
बुद्ध विहार, पो ऑ – अशोक नगर 
राँची –  834002, झारखण्ड 
राँची विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक 
हंस, वागर्थ, परिकथा, अक्षरपर्व, कथाक्रम, युद्धरत आम आदमी, इन्द्रप्रस्थ भारती, आजकल आधुनिक साहित्य, सरस्वती सुमन, साहित्यअमृत , प्राची, वीणा, नंदन, ककसाड़, परिंदे, दोआबा, समहुत , निकट, यथावत, बिजूका, अट्ठास, सोच विचार, जनसत्ता, प्रभातखबर, दैनिक भास्कर,  आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में  निरंतर कवितायें एवं कहानियाँ प्रकाशित.  
एक एकल काव्यसंग्रह "जंगल में पागल हाथी और ढोल" प्रकाशित, जिसके लिए प्रथम महेंद्र स्वर्ण साहित्य सम्मान प्राप्त. 
इसके अतिरिक्त छह साझा काव्यसंग्रह प्रकाशित एवं एक साझा कथा संग्रह भी  प्रकाशित 
आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से नियमित कहानियों  एवं कविताओं का प्रसारण . 
सम्प्रति केन्द्रीय वस्तु एवं सेवा कर में अधीक्षक के रूप में एवं झारखण्ड के रामगढ़ में पदस्थापित
कहानी

भागी हुई लड़कियां
दिनेश कर्नाटक 


दिनेश कर्नाटक 



दोनों लड़कियों के लिए अपने घरों से देवी के थान तक पहुंचना किसी यातना जैसा रहा। दोनों किसी से मिले तथा कुछ कहे बगैर चले जाना चाहती थी। मगर गांव के सुनसान घरों की महिलाओं ने न जाने कहां से उनको जाते हुये देख लिया था और ‘कहां जा रहे हो ? कब आओगे ?’ जरूर पूछा था।गोया किसी का कहीं जाना भी कोई घटना हो !

‘लोहाघाट वाली मौसी के वहां जा रहे हैं.....कई दिनों से बुला रही थी !’ उमा रटा-रटाया सा जवाब दे देती। कमला को कुछ न सूझता तो वह अपने को उसकी ओट में छुपा लेती।
खीझकर उमा ने कहा था, ‘कोई काम नहीं है, इन लोगों को। रास्ते पर नजरें गढ़ाये रहते हैं।’

बदले में हंस दी थी कमला ‘और दिनों तू भी तो सब पर नजर रखती थी !’

किसी और मौके की बात होती तो दोनों को औरतों का इस तरह से कुरेद-कुरेद कर पूछना अच्छा लगता। कोई नहीं पूछता तो उस पर गुस्सा भी आता, पर आज उनका इस तरह स्नेह दिखाते हुए पूछना उन्हें बुरा लग रहा था। उनको लग रहा था, पूछने के बहाने गांव की औरतें उनका भेद लेना चाह रही हैं।
देवी के थान पर आकर कमला खुद को रोक न सकी और रो पड़ी। घर से निकलने के बाद से ही वह गुमसुम थी। दिमाग में कई सवाल थे, जिनके उत्तर उसे मिल नहीं पा रहे थे। हर प्रश्न  के साथ उसका हौंसला बैठता जाता था। हारकर वह उमा की ओर देखने लगती थी।

‘लोगों से तो जैसे-तैसे आंख मिला ली......अब देवी के सामने किस मुंह से जायें ?’ कमला ने उमा से कहा।

‘हम कुछ गलत नहीं कर रहे हैं। तू अपने मां-बाप की बीमारी का इलाज कराने और उनका सहारा बनने के लिए घर छोड़ रही है। मैं उसके पास जा रही हूं, जिसने इसी देवी के सामने मुझे अपना मान लिया है।’

‘हम दोनों सही हैं फिर भी इस तरह चोरी-छिपे गांव छोड़कर जा रहे हैं। कल को लोग हमीं को नाम रखेंगे। बदनाम करेंगे। तेरा तो ठीक है। मैं क्या जवाब दूंगी ? मेरी बात कौन मानेगा ?’
‘तू किनकी चिन्ता कर रही है.......कौन जानता है इन लोगों को..........क्या हो जाएगा उनके नाम रखने से ? पता नहीं कैसे लोग अपनी सारी उम्र यहां बिता देते हैं ? इस गड्डे से बाहर निकलकर तुझे पता चलेगा, लोग कहां से कहां पहुंच चुके हैं ! वहां पहुंचकर तेरी समझ में आएगा कि इस छोटे से गांव और यहां के लोगों का उस बड़े शहर के लिए कोई मतलब नही है ! यहां भी तो तू लोगों के घरों और खेतों में काम कर के जैसे-तैसे अपना घर चला रही है। कल को नौकरी करेगी। ताऊजी और ताईजी को अपने पास बुला लेगी।’ उमा ने हमेशा  की तरह उसे समझाते हुए उसके सामने भविष्य  की सुनहरी तस्वीर खींची।

‘डर लगता है। ऐसे ही एक दिन ददा भी घर से गया था। दो साल से उसका कहीं पता नहीं है !’ कमला ने कहा, जिसे अनसुना कर उमा आगे बढ़ गयी।

सड़क गांव के ठीक ऊपर, पहाड़ की चोटी पर थी। गांव नदी के बगल में दूर तक फैले हुए तप्पड़ से हटकर ऊंचाई पर बसा हुआ था। तप्पड़ में खेत और ऊंचाई में लोगों के कच्चे-पक्के मकान थे। पानी की कोई कमी नहीं थी। साल भर के लिए खाने-पीने की खेती आराम से हो जाती थी। कुछ वर्षो से  गांव के पढ़े-लिखे लड़कों के गांव छोड़कर जाने में तेजी आ गयी थी। गांव से गये लोगों में से अधिकांश ने शहरों में जमीन और मकान जोड़ लिया था। जाते हुए लोग पीछे छूट गए लोगों के लिए, असफलता बोध और लगातार बढ़ता हुआ सन्नाटा छोड़ जाते थे। छूटे हुए लोगों के बीच उन्हें कामयाब माना जाता और सम्मान की नजर से देखा जाता था। वे प्रायः उनकी सफलता की कहानी एक-दूसरे को सुनाते और खुश होते थे, जैसे यह उनकी अपनी सफलता हो !

गांव के लड़के देश के तमाम बड़े शहरों में जाकर धीरे-धीरे वहीं के हो जाते। गांव उन्हें सरपट दौड़ते जीवन में अचानक सामने से उभर आई बाधा की तरह लगता था। मौका मिलते ही वे लोग अपने घर-परिवार को भी वहीं पहुंचा दिया करते थे। कभी पुरानी मान्यताओं और रीति-रिवाजों को निभाने के लिए मजबूरी में गांव आना पड़ता तो वे छूट गये लोगों से कहते, ‘सोचा, घर-गांव और देवताओं के दर्शन कर आते हैं !’ गांव वाले सब समझते और मन ही मन उनसे कहते, ‘तुम तब भी अपने मतलब के लिए गये थे और अब भी अपने मतलब के लिये आ रहे हो ?’ गांव में रह गए लोग भय और उत्सुकता के साथ शहरों के बारे में बात करते थे। भय वहां होने वाले दंगे-फसाद, लूट एवं हत्याओं का और उत्सुकता लोगों के बेहतर जीवन की। मगर उनके हालात उन्हें वहां से निकलने नहीं देते थे और वे लोग वहां की जमीन, जंगल, पानी, जानवर, रीति-रिवाज और आपसी रिश्तेदारी  को अपना सब कुछ मानकर जिये चले जाते थे।

गांव के ऊपरी हिस्से पर, जहां से रास्ता शुरू होता था, बांज के विशाल पेड़ के नीचे गांव की कुल देवी का मंदिर था। मान्यता थी कि देवी के थान में प्रार्थना करने से चढ़ाई आसान हो जाती है। इस विश्वास  के सहारे सदियों से गांव के लोग इस चढ़ाई को चढ़ते आ रहे थे। पहले जीवन में इतनी गति नहीं थी। कभी-कभी ही कहीं को जाना होता था। जीपों और मोबाइल के आने के बाद लोगों के जीवन में एक बेचैन किस्म की तेजी आ चुकी थी। बगैर आए-जाए गुजारा नहीं था। हर बार चढ़ाई को देखकर हिम्मत जवाब देती हुई लगती। लेकिन सड़क पर पहुंचकर कुछ देर सुस्ताने के बाद जब थकान गायब हो जाती तो उन्हें यह देवी की कृपा लगती। हालांकि गांव के पढ़े-लिखे युवक-युवतियां अब ऐसा नहीं मानते थे। यही वजह थी कि वे स्थानीय विधायक और जनप्रतिनिधियों से जोर-शो र से सड़क की मांग करते थे। गांव की आबादी को देखते हुए क्षेत्रीय विधायक ने वहां तक रोड पहुंचाने के प्रस्ताव को प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत पास करवा लिया था, लेकिन रोड के लिए भी उस चढ़ाई से पार पाना किसी चुनौती से कम नहीं था। हर बार रोड सड़क से कुछ नीचे की ओर जाती, और बरसात के मौसम में सब कुछ पहले जैसा हो जाता।

उमा ने मंदिर के अंदर जाकर देवी को प्रणाम किया। लौटते हुए पेड़ के तने पर जगह-जगह बंधी हुई घंटियां पर हाथ मारा। घंटियों की आवाज से कुछ देर के लिए आस-पास पसरा हुआ सन्नाटा गुम सा हो गया। कमला अंदर जाने का साहस नहीं जुटा पायी। उसने बाहर से हाथ जोड़कर मन ही मन देवी से क्षमा मांगी और भविष्य  में सब कुछ ठीक करने की प्रार्थना की। फिर दोनों चढ़ाई चढ़ने लगे। दोनों चुप थे। बीच-बीच में उमा कमला को खुश करने या हौंसला बढ़ाने वाली कोई बात कहती, जिसे सुनकर वह हंस देती। लेकिन उसकी हंसी उसकी बेचैनी को छुपा नहीं पाती थी।

कमला ज्यों-ज्यों आगे को कदम रखती जाती, उसे लगता वह अनिष्चितता की एक अंधी सुरंग की ओर बढ़ती जा रही है। उसके भीतर तूफान मचा था। ‘दुनिया में कितने ही पढ़े-लिखे लोग हैं, मेरी जैसी मामूली लड़की को वहां कौन काम देगा ? वहां जीने के तौर-तरीके भी मुझे मालूम नहीं ! सब मुझे बेवकूफ समझेंगे !’

फिर उम्मीद की लहर उठती, ‘रमेश ऐसे ही थोड़ा बुला रहा होगा, उसने कहीं बात कर रखी होगी ! हो सकता है, सब ठीक हो जाए। कोई अच्छा मालिक मिल जाए। मैं अपनी ओर से खूब मेहनत करूंगी। हालात बदलने में क्या समय लगता है ? यहां भाभी तो है, ईजा-बाबू को देखने के लिए। काम जमने के बाद अपने पास लिवा ले जाऊंगी।’

गांव के लोगों के बीच उमा के लच्छन अच्छे नहीं माने जाते थे। उसके बेधड़क तरीके से बोलने और तपाक से जवाब देने की आदत से उन्हें लगता, पढ़ाई ने उसका दिमाग खराब कर दिया है ! वे कहते, इसीलिये बुढ़े-बुजुर्ग लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने से मना करते हैं। जबकि रमेश का नजरिया कुछ और था। वह उसकी तारीफ करते हुए कहता, ‘तेरा खुलकर बात करना मुझे अच्छा लगता है.........तेरी जैसी लड़की मैंने आज तक नहीं देखी।’

‘जब तुमको भी ऐसे ही जवाब दूंगी क्या तब भी मेरी तारीफ करोगे ?’ उमा ने कहा तो रमेश को एकाएक कोई जवाब नही सूझा था।

उमा प्राइवेट इंटर पास कर चुकी थी और बीटीसी, आंगनबाड़ी या साक्षरता कार्यकत्री बनकर अपने पैरों पर खड़े होने की फिराक में रहती थी। मगर इसी बीच रमेश ने उसे दिल्ली में बढ़िया काम दिलवाने और घर-गृहस्थी जमाने की बात कही थी। गांव के लोग उसे कितना ही होशियार समझते हों, मगर खुद उसे शहरों की दुनिया भयभीत करती थी। हत्या, बलात्कार, लूट, आतंक, दंगे, जालसाजी और दुर्घटनाओं की बुरी खबरें वहीं से आती थी। इसलिए शहर एक ओर जहां उसे आजादी और तरक्की का प्रतीक लगता था, वहीं डराता भी कम नहीं था।

दिन चढ़ने के साथ यह टनकपुर मंडी के शबाब में आने का समय था। सभी व्यापारियों, ड्राइवरों को ट्रकों पर अपना-अपना माल लदवाकर हर हाल में शाम तक वापसी करनी थी ताकि घर पहुंचकर दिनभर की थकान मिटाकर अगले दिन फिर पहाड़ से उतरा जा सके। सब तत्परता से अपने-अपने कामों में लगे हुए थे। किसी ने सीमेंट तो किसी ने ईंट वाले के वहां ट्रक लगा दिया था। कोई ट्रांसपोर्ट के ऑफिस में मुनीम को पकड़कर बिल्टियों का हिसाब समझने में लगा था तो कोई गोदाम में राशन के बोरों और तेल के कनस्तरों की गिनती में लगा हुआ था। कोई भाड़े के माल के लिए दुकानों में भटक रहा था तो कोई गाड़ी की खिंचाई से परेशान होकर मैकेनिक को मर्ज समझाने तथा समय और खर्चे का पता करने में लगा था।

पुराने और खांटी उस्तादों ने कलैंडरों को काम में लगा रखा था और खुद किसी ढाबे में टांगें पसारकर दाल फ्राई की महक में खोये हुए थे। कुछ चाय सुड़क रहे थे। लिपटिस, भोनिया, कैसिट और राजू उस्ताद जैसे रौनकिया ड्राइवर नजर आ रहे थे। सभी बातों में मशगूल थे। सुबह के बोनी-बट्टा से लेकर सफर के अनुभव को एक-दूसरे को बता रहे थे।






उस्ताद लोग नये लौंडों को मुंह लगाना कम ही पसंद करते थे। उनसे बात करने लगो तो साले सिर में मूतने को तैयार हो जाते थे। आखिरकार उम्र और तजुर्बा भी कोई चीज होती है। लिपटिस हमेशा  कुछ नया कहकर उनके व्यूह में घुसपैठ की फिराक में लगा रहता था। मौका मिलते ही एक सांस में अपनी बात कह गया-‘अरे सारी बात छोड़ो......तुम लोगों ने देखा नहीं.......वो साला धौलिया आज बड़े मजे में था। बगल में दो बिठाई हुई थी।’

‘अबे, उसकी किस्मत में तो लड़कियां ही लड़कियां हैं !’ कैसट ने आह भरते हुए कहा।

‘तो तुझे क्यों जलन हो रही है !’ राजू उस्ताद ने कैसट को हड़काया तो बाकी सब हंसने लगे।

‘कहीं ये घाट से पहले मोड़ पर खड़ी लड़कियां तो नहीं थी ?’ भोनिया उस्ताद भी बातचीत में कूद गए।

‘हां, मैंने भी उनको वहां पर देखा था !’ कैसट ने फिर से बातचीत में सेंधमारी शुरू की।


‘‘उस्ताद, अपनी तो सूरत देखकर ही लड़कियां की मां-बहन एक हो जाती है। आज तक समझ में नहीं आया, अपने में ऐसी क्या बुराई है ?’ अपनी बात के असर से उत्साहित हो चुके लिपटिस ने राजू उस्ताद से कोई मार्के की बात सुनने की उम्मीद में कहा।

‘अबे, यहां भी यही हाल है। पता नहीं ऊपर वाले ने किस जन्म के कर्मों का बदला लिया। बनाते समय थोड़ा हाथ संभालकर चला देता तो उसका क्या बिगड़ता  ?’ राजू उस्ताद बोले।

‘उस्ताद, मैंने भी उनके लिए हॉर्न बजाया था। सालियों ने ऐसे सूरत फेर ली जैसे मैं कोई तड़ी पार हूंगा !’ लिपटिस फिर से मूल विषय की ओर लौट आया।

‘मुझे भी मुंह नहीं लगाया। खुशामद की अपनी आदत है नहीं ! यहां कौन सा सूखा पड़ा है। चार पैसे फैकेंगे हो जाएगा अपना काम !’ कैसट ने कहा।

‘धौलिया साला, चिकना भी तो ठैरा ! लड़कियां उसकी ओर फिसलते हुए जाती हैं। जब मेरे साथ था तो साले ने कितनी बार मूड खराब किया। साला, सोचने से पहले ही गोल हो जाता था।’ राजू उस्ताद ने पुराने दिन याद करते हुए आह भरी।

‘छोड़ो यार राजू उस्ताद, चूतिया मत बनाओ। तुमने साले को खूब रगड़ा होगा !’ लिपटिस राजू उस्ताद के काफी करीब पहुंच चुका था।

राजू उस्ताद प्रतिक्रिया में कुछ कहने के बजाय सीमा लांघते हुए लिपटिस को उसकी औकात याद दिलाने की गरज से चुप रहे।

‘मैंने तो सुना वो लड़कियों को अपने साथ खाना खिला रहा था !’ कैसट किस्से की महक में खो चुका था और उसका सारा रस लेना चाहता था।

‘पता नहीं साले का उनके साथ कब से चक्कर चल रहा होगा। अब उनको बैठाकर घुमाने भी लगा है। अकेले तो मैं भी नहीं तरने दूंगा। छै महीने उस्तादी सिखायी है। आज भी, कहीं पर देख लेता है तो झुककर नमस्कार करना नहीं भूलता। कहता है, उस्ताद तुम्हारी मार और गालियों की बदौलत आज अपना घर चल रहा है।’ राजू उस्ताद ने अपने उम्र और अनुभव के सिक्के को उछाला तो सब की बोलती बंद हो गयी।

‘ऐसे लोगों की वजह से ही हमारी इमेज खराब होती है !’ भोनिया उस्ताद ने बातचीत का सार-संक्षेप करते हुए कहा।
सभी उस्ताद लोग अपने ट्रकों की ओर चल दिये और कलैंडरों को टाईट करने की गरज से, कोई न कोई कमी निकालकर गालियां बकने लगे। धौलिया उस्ताद और लड़कियों की बात सब के दिमागों में जोर-शोर से घूम रही थी। कोई भी मिलता, नमक-मिर्च लगाकर उसे किस्सा सुना देते। सुनने वाले को मजा आ जाता और वह अतीत में घटे किसी यादगार प्रसंग को सुनाकर माहौल को रोमांचक बना देता।


दोनों सड़क पर पहुंची, तो उन्हें लगा जैसे उन्होंने गांव की सीमा को पार कर लिया है। मुंडेर पर बैठकर उन्होंने सुनसान सड़क पर नजर डाली। थोड़ी-थोड़ी देर में जीप, बस और कारें हॉर्न से सन्नाटा तोड़ते हुए उनके सामने से गुजर जाते थे। वहां पहुंचकर उनके खून के प्रवाह तथा धड़कनों में बदलाव आ गया था। घाट के पार अल्मोड़ा को जाने वाली सड़क दूर तक दिखायी दे रही थी। कुछ देर तक मुंडेर पर बैठकर सुस्ताने, स्रोत का पानी पीने और मुंह-हाथ धोने के बाद धीरे-धीरे शरीर में स्फूर्ति लौटने लगी। इस बीच कुछ जीपों तथा ट्रकों के ड्राइवरों ने उनसे चलने के लिए पूछा तो उन्होंने मना कर दिया। जब वे चलने को तैयार हुई तो धौलिया अपने ट्रक के साथ वहां पहुंच गया। संयोग से आज उसके केबिन में कोई सवारी भी नहीं थी।

दोनों को देखकर वह सवारी के लालच में पड़ गया।
‘चलो बैंड़ियो, आ जाओ ! सीटें खाली हैं। अरे, सोच क्या रही हो ? बस के किराये से दस रूपये कम दे देना !’
दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा। उमा बोली-‘हम तो रोडवेज की बस से जायेंगे !’

‘बैंड़ियो, अब कौन सी रोडवेज की बस से जाओगे ! अब कोई बस नहीं आती। देर हो गयी है। घबराने की कोई बात नहीं। धौलिया, इसी रोड पर चलने वाला ठैरा ! मेरे होते हुए कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अपना भाई जैसा समझो....कोई परदेशी, थोडा हूं।’ अपने तरकश से एक के बाद एक भरोसेमंद तीर निकालकर वह उनके ऊपर छोड़ता चला गया।

दोनों पर उसकी बातों का असर हुआ। उसकी आत्मीयता से भरी बातों को सुनकर, कुछ ही पलों में वह उन्हें अपना सा लगने लगा। उधर कलैंडर को हमेशा की तरह उस्ताद की बातों को सुनकर शर्म आ रही थी। ‘सवारी को पटाने के लिए उस्ताद, क्या-क्या नहीं कह देता है। इतनी खुशामद लाईन में और कोई नहीं करता।’

‘चलो-चलो आ जाओ। रोडवेज से एक घंटा पहले पहुंचाऊंगा। चल भाई कलैंडर, बैड़ियों का सामान रखवा दे ! अब, रूकने का समय नहीं है......पहले ही बौत देर हो चुकी है !’

दोनों मंत्रमुग्ध से केबिन की ओर बढ़ चले।







‘हां भाई कलैंडर, अपना कोटा पूरा हो गया !’ उसने क्लीनर से कहा तथा ‘ओ चन्दू डरैवर, गाड़ी चलाछैं बागेष्वर लैना...’ गुनगुनाते हुए कुछ ही पलों में गेयर लीवर दूसरे से होते हुए चौंथे पर पहुंच कर ठहर गया।

कुछ समय तक वह अपने गीतों में मग्न रहा। फिर लड़कियों से मुखातिब हुआ-‘बैंड़ियो, एक बार जो अपने साथ चल देता है, सड़क पर दूसरी गाड़ी की ओर देखता तक नहीं। बहुत मेहनत से लाईन में अपनी रैपुटेशन बनायी है। यकीन न आ रहा हो तो मेरा नाम किसी भी गाड़ी वाले से पूछ लेना। कमाते तो सभी हैं, अपनी सोच दूसरे के दर्द को समझने की हुई। इसलिए लाईन में अपने दुश्मन  भी कम नहीं हुए.....करें दुश्मनी .......करते रहें.......हम तो अपनी मेहनत की खाते हैं। लोग साले अपना जैसा समझते हैं !’

उस्ताद की बातें सुनकर कलैंडर ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढक लिया।
‘कहां तक जा रहे हो ?’
‘मौसी के वहां........नहीं......दिल्ली !’
‘दिल्ली मौसी है तुम्हारी ?’
‘नहीं......वो........हां.....’
‘अरे, धौलिया उस्ताद को बताने से क्यों घबरा रहे हो ? घर का आदमी समझो........कभी धोखा नहीं होगा !’
‘नहीं, ऐसी बात नहीं है।’
‘मैंने तो कई लोगों को फ्री में उनके घर पहुंचाया ठैरा ! इसी साल की बात है, एक लड़की घर वालों से नाराज होकर टनकपुर आ गयी। वहां जिसे देखो साले उसे बुरी नजर से देखने वाले हुए। मैं उसे अपने साथ बैठाकर लाया। सब साले मुझसे चिढ़ गये। अपना जैसा समझने वाले हुए। अपनी बहन को भी बहन नहीं समझने वाले लोग यहां हर ओर भरे हुए ठैरे ! टनकपुर से नीचे को गए तो जिसे देखो वो ही ताक में लगा रहता है। धंधा है सालों का। दिल्ली और बौम्बे में नेपाल की मजबूर लड़कियां यहीं से जाती हैं। सीधी-सादी और अकेली औरतों पर इन लोगों की नजर लगी रहने वाली हुई।’
‘टनकपुर तक जायेंगे !’
‘वहां से दिल्ली की शाम की बस पकड़ोगे ?’
‘हां !’
‘मौसी के वहां पहले भी गये हो ?’
‘नहीं, पहली बार जा रहे हैं !’
‘मुझे तो बता दिया। रास्ते में कोई कुछ पूछे तो मत बताना। उससे कहना, अपने काम से मतलब रख। समय बहुत बुरा है, बैड़ियो !’

धौलिया की बकबक अब उन्हें बोझिल करने लगी थी। उससे किनारा करने के लिए दोनों कलैंडर की ओर मुड़कर बाहर की ओर देखने लगे। चौदह-पन्द्रह साल का कलैंडर जिसकी मुस्कान रीत सी गयी थी। ट्रक में लड़कियों को देखकर खुश था। अब स्त्रियां उसे अपनी ओर आकर्शित करने लगी थी। उनकी ओर देखना उसे, हवा के ताजे झोंके की तरह सुकून का एहसास करा रहा था। खिड़की से सिर बाहर निकालकर वह रोड पर आ-जा रही लड़कियों का चेहरा देख लिया करता था, हालांकि दूसरे ड्राइवर-कंडक्टरों की तरह उनकी ओर बेहयाई से देखना या कोई अश्लील बात कह देना उसे पसंद नहीं था। वह उनको कुछ इस तरह देखता की उनको भी पता नहीं चल पाता था कि कब उसने उनके रूप का पान कर लिया। यहां भी वह क्षण भर के लिए बाहर देखता और मौका मिलते ही गौर से उनका चेहरा देख लेता। पहली बार सुंदरता उसके इतने करीब थी कि उसका उनके चेहरों से नजरें हटाने का मन नहीं कर रहा था। कुछ देर में जब उमा को उसके इस खेल का पता चला तो उसने अपनी नजरें उस पर गड़ाना शुरू कर दिया। उसकी सतर्कता देखकर लड़के ने इस खेल में हार मान ली।

उमा को कलैंडर के मनोभावों को पढ़ने के बाद इस खेल में मजा आने लगा। उसने कमला के कान में कुछ कहा। लड़के को लगा, कहीं उसी के बारे में बात तो नहीं हो रही है। वह घबरा गया। अगर उन्होंने उस्ताद से कुछ कह दिया तो ! उस्ताद पिटाई लगाने के साथ कई दिनों तक किस्म-किस्म की बातें सुनाते रहेंगे। वह घबरा गया और लड़कियों की ओर देखने से तौबाकर बाहर की ओर देखने लगा। इसी बीच अनायास वह भावुक हो गया और उसके भीतर उथल-पुथल मच गयी।

उसे अपनी मां की याद आ गयी। बचपन के दिन कितने कष्ट  थे, लेकिन मां अपनी शीतल छांव उसके ऊपर फैलाकर उसे उन कष्टों  का एहसास नहीं होने देती थी। उसके कोमल स्पर्श  प्रेम का ध्यान आते ही उसकी आंखें भर आयी। उसे पता था, लाईन के कलैंडर कभी उसके दिल की बात नहीं समझ सकेंगे। उन्हें क्या पता कि उसका स्त्रियों के बारे में क्या नजरिया है ? जब भी मां की याद आती, उसे खूब रोना आता था। मां के अंतिम दिन कितने दुःखदायी थे। चाहकर भी वह उसके लिए कुछ नहीं कर पाया था। बस, पल-पल मां को मरते हुए देखता रहा। कौन समझेगा उसके साथ कैसी बीती है ? कोई नहीं समझता। सब अपने को दुनिया का सबसे बड़ा पीड़ित समझते हैं !

कई बार सोचता, वह कैसे पत्थर लोगों के बीच आ गया है, जो सिर्फ दूसरों को नोचना जानते हैं। लेकिन कभी कोई अपनी कहानी सुनाने लगता तो उसे सुनकर उसका दिल दहल जाता। अकेला वही नहीं है। सभी ने झेला है। लेकिन वे लोग अपने पुराने दिनों को भूलकर वर्तमान में जीने लगे हैं। उसे लगता, एक वही है जो अभी भी अतीत से चिपका हुआ है।

वह फिर से वर्तमान में लौट आया। उसकी इच्छा हुई उमा उसे अपने सीने से लगा लेती तो अब तक की सारी थकान, कई दिनों की नींद, सारे दुःख, उस्ताद की गालियां, लोगों की उपेक्षा, दुत्कारती हुई नजरें सब कुछ धुल जाता और ठूंठ में बदलते जा रहे जीवन में नई कोंपले फूट पड़ती।

उमा ने लड़के की आंखों में भर आये आंसुओं और मासूम सी आदिम इच्छा को पढ़ लिया । वह उसके दुःख से दुःखी हो गयी और सोचने लगी-‘कितना प्यारा लड़का है। इसकी उम्र अभी घर में रहकर खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने की है। पता नहीं किस मजबूरी के कारण यह इस ट्रक में जुता हुआ है।’ उसका जी हुआ लड़के को अपनी छाती में भींचकर, उसके बालों को सहलाए और उसके कोमल चेहरे पर चुम्बनों की बौछार कर दे।

उधर धौलिया उस्ताद टेप में बज रहे गानों के साथ सुर मिलाता जाता और पारखी नजरों से लड़कियों तथा कलैंडर के बीच चल रहे खेल को देख लेता। उसे लगने लगा, मामला अब कुछ सीरियस होने लगा है। लड़के का ध्यान हटाने के लिए वह उसे उसकी ड्यूटी याद दिलाने लगा-
‘हां भई कलैंडर, टायरों की हवा चेक की थी ?
बोल्ट टाइट करने के बाद व्हील-पाना संभाल कर रखा था ?
गाड़ी का तेल-पानी तो ठीक है ना ?
मालिक साहब से एजेंट वाली चिट्ठी संभालकर रखी है ना ?’






जब वह कलैंडर था तो उसका उस्ताद भी उससे ऐसे ही सवाल पूछता था। धौलिया ने उन दिनों गौर किया था, जब ट्रक में कोई खास सवारी हेती तो उस्ताद के सवाल बढ़ जाते थे। तब वह मन ही मन उस्ताद से कहता था, ‘दिखा लो उस्ताद तुम भी अपनी उस्तादी.....कभी हमारा समय भी आएगा !’ आज वैसे ही उसके सवाल बढ़ गये थे। लड़का इस बात पर गौर कर रहा था और वही बात मन ही मन कह रहा था, जो कभी धौलिया कहा करता था।

उमा को नींद सी आने लगी थी। पलकें मूंदी तो देखा, भीतर भारी उथल-पुथल मची हुई है। एक-एक कर माता-पिता, गांव के लोगों और रिश्तेंदारों के  चेहरें आंखों के आगे आते जा रहे थे। सब उसकी ओर हिकारत भरी नजरों से देख रहे थे। उसे लगा, जमाने का सच जो भी हो मगर अपने तो यही लोग हैं। इनकी नजरों में गिरने के बाद क्या कभी इस कालिख से पीछा छुड़ाना संभव हो पाएगा ? वियोग तो सहा जा सकता है, लेकिन जिंदगीभर का अपमान और लांछन नहीं ! उसने पलकें खोलकर कमला की ओर देखा तो उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे।

‘क्या हुआ ?’ उमा ने धीरे से उसके कान में पूछा।
वह चुप रही।
‘बोल तो सही.......कर लिया ऐसे तूने दिल्ली में काम !’ उमा ने फिर से कहा।
‘चल लौट जाते हैं। मुझे बहुत डर लग रहा है। पता नहीं हमारा क्या होगा ? आस-पास कितनी बदनामी होगी। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा !’
‘उसका पता तो है हमारे पास। उसने कहां तो है वो तेरे लिए नौकरी का इंतजाम कर देगा !’
‘अगर वो वहां नहीं हुआ तो ! उसने तुझसे जोश  में कहा और हम उसकी बातों में आकर चल पड़े। कहां से करेगा वो दो-दो लड़कियों के लिए नौकरी और रहने का इंतजाम ! लड़के तो बढ़ा-चढ़ाकर बोलते ही हैं। वहां जाकर अगर कुछ नहीं हुआ, तब क्या होगा ?’

‘नहीं, वो ऐसा नहीं है.........उसने मुझसे कहा है कि वो मेरे लिए कुछ भी कर सकता है !’ उमा ने दृढ़ता से कहा।
‘वो अच्छा आदमी है। मैं जानती हूं, लेकिन वहां उसके बस में कितना है ? ये हमें पता थोड़ा है ? तेरा तो ठीक है तू उससे षादी कर लेगी। मेरा क्या होगा ? कहीं मैं तुम दोनों के लिए समस्या बन गयी तो ? कुछ समय की हो तो बात है तुम दोनों की शादी को कौन रोक सकता है ? इतनी जल्दबाजी से क्या फायदा ?’ कमला ने अब तक उपजे सवालों को दबाने के बजाय कह देने में ही भलाई समझी।

‘जल्दबाजी....तू आजकल के लड़कों को नहीं जानती......मैं उसे खोना नहीं चाहती.......घर वाले मेरी शादी की बातें करने लगे हैं.......कब तक मना करती रहूंगी.......ऐसे ही किसी गांव में शादी कर देंगे..........मैं एक गड्डे से निकलकर दूसरे में फंसना नहीं चाहती ! फिर भी तू लौटना चाहती है तो ठीक है !’ उसने कमला की बात में हामी भर दी थी।

उनकी फुसफुसाहट से धौलिया उस्ताद ने भी अंदाजा लगा लिया था कि मामला उतना सीधा नहीं है, जितना दिख रहा है।

‘दाज्यू, टनकपुर में आपका कितनी देर का काम है। टनकपुर से हम आप के साथ वापस लौट जायेंगे। एक कागज में मौसी का पता लिखा था। कहीं मिल नहीं रहा है। शायद हम उसे जल्दीबाजी में घर ही भूल आए !’ उमा ने धौलिया से कहा।
‘बैड़ियो, इतनी बड़ी गलती.........देख लो यहीं, कहीं होगा, किसी थैले-थूले में !’

‘हमने अच्छे से देख लिया......कहीं नहीं मिल रहा !’
‘ठीक है, अपनी जिन्दगी को मुसीबत में डालना ठीक नहीं.......मेरा एक-दो घंटे का काम है। तब तक खाना-खुना खा लेते हैं.....जल्दी है तो किसी गाड़ी में निकल लो !’
‘दाज्यू तुम्हारे साथ ही जायेंगे !’

टनकपुर पहुंचकर उसने कैंटर को ईंटों के ठेकेदार के आगे खड़ा कर दिया। उसका लड़कियों वाला किस्सा सुन चुके ड्राइवर उनकी हर एक गतिविधि पर नजर रखे हुए थे। कुछ ने आगे बढ़कर धौलिया से मामले के बारे में पूछा तो उसने ‘लड़कियों का दिल्ली का पता खोने वाली बात दोहरा दी, जिस पर किसी को यकीन नहीं हुआ।

दोनों लड़कियां अब काफी खुश थी। उन्होंने घर तथा रास्ते पर मिलने वाले गांव के लोगों को बताने के लिए बहाना सोच लिया था। ‘मौसी के घर में कोई नहीं था......क्या करते........कहां रहते.......इसलिये लौट आए !’

अब तो वे समय से घाट पहुंचकर घर का रास्ता पकड़ने का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। दोनों मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रहे थे, ‘हे भगवान, आज सकुशल घर पहुंचा दो। आगे से जो करेंगे, खूब सोच समझकर होशो -हवास में करेंगे !’

अब इसे धौलिया का लड़कियों के प्रति सम्मानजनक नजरिया माना जाए या साथ के ड्राइवरों द्वारा खुद को निशाने पर लेने की प्रतिक्रिया समझा जाए या दो जवान और खूबसूरत लड़कियों के सान्निध्य का सुख मान लिया जाए या इसे उसकी बेवकूफी कहा जाए कि उसने लौटते समय जगह होते हुए भी किसी और को नहीं बैठाया। जिसने लाईन के लोगां के शक को पुख्ता कर दिया और सवारियों के लिए मरने वाला धौलिया, इस चूक की वजह से और भी संदेह के घेरे में आ गया।

लड़कियों से किराये में मिले चार सौ रूपये उसने चोर जेब में खोंस दिए। टनकपुर में एक घंटे रूकने के दौरान लड़कियां पसीने से तरबर हो चुकी थी। कैंटर के चलने से उन्हें राहत महसूस हो रही थी। इस दौरान धौलिया ने उनसे उनके घर-बार के बारे में पता कर लिया था। उनके न पूछने पर भी अपने बारे में वह उन्हें काफी कुछ बता चुका था। उनकी नजरें देखकर अनुमान लगा चुका था कि लड़कियां गलत नहीं हैं। ‘होगी इनकी कोई बात.........मुझे क्या मतलब। सड़क पर रोज नए-नए लोग मिलते रहते हैं। सब के बारे में सोचने लगूं तो हो गया अपना काम !’

जैसे ही वह लोहाघाट से पहले पुलिया पर पहुंचा। उसे आगे के चैक पोस्ट पर दरोगा तथा कुछ सिपाही मुस्तैदी से खड़े दिखायी दिए। ‘कोई खास मामला होगा। कोई मुखबिरी हुई होगी। अभी पूछता हूं दरोगाजी से !’ लड़कियों पर रौब डालने के लिए उसने कहा।

चैक पोस्ट के करीब पहुंचते ही उसका दांया हाथ सलाम की मुद्रा में उठ गया। पुलिस वालों के हाव-भाव बदले हुए थे। उनमें रोज की जान-पहचान के संकेत नहीं थे। उन्होंने उसे रूकने का इशारा किया। एक सिपाही उसके दरवाजे की ओर लपका।

‘चल उतर.......गाड़ी को साइड लगा !’ डंडा घुमाते हुए सिपाही ने उससे कहा।
‘कोई बड़ा कांड हुआ होगा......तभी ऐसा कर रहे होंगे !’ धौलिया ने सोचा।

किसी प्रकार की आफत के अपनी ओर आने का उसे कोई अंदेशा नहीं था। ऐसे कोई संकेत भी उसे नहीं मिले थे। वैसे भी इंसान अपनी ओर आती हुई मुसीबत के बारे में आश्वस्त रहता  है कि वह ऐन वक्त पर किसी और दिशा  को मुड़ जाएगी।
लेकिन धौलिया का आशावाद धरा का धरा रह गया। उसका कैंटर रोड के किनारे खड़ा था। दो जोरदार डंडे उसके पिछवाड़े पर पड़ चुके थे। लोगों का मजमा लग चुका था।
‘साला, लड़कियों का धंधा करता है। सुबह से ट्रक में घूमा रहा है।’

‘अच्छा.......!’ लोग सुनते और आश्चर्य  से एक-दूसरे की ओर देखते हुए कहते।
‘कहां की रहने वाली हो ? अपने मां-बाप का नाम बताओ ?’
लड़कियां डर के मारे चुप रही।
‘बोलो, नही तो अंदर बंद कर दूंगा। किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगी !’
दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा। उमा बोली, ‘हम लोहाघाट मौसी के वहां जा रहे थे.......’
‘और ये साला तुमको जबरदस्ती बहला-फुसलाकर टनकपुर ले गया, क्यों ?’
वे समझ गयी सच कहना उन्हें बहुत भारी पड़ेगा।
‘तुम लोग अपनी इच्छा से इसके साथ गये......या कोई बहाना बनाकर ये तुमको अपने साथ ले गया !’
पहले ‘ना’ फिर ‘हां’ कहकर उन्होंने दरोगा की बात की पुष्टि  कर दी।
‘चलो, यहां पर साइन करो। इस साले को तो हम देख लेंगे !’ उसने एक सादा कागज उनकी ओर बढ़ाया था।

‘साहब, आप तो मुझे अच्छे से जानते हो। रोज मुलाकात होती है। कभी कोई गलत काम नहीं किया ठैरा साहब ! लड़कियां दिल्ली जा रही थी, फिर कहने लगी पता कहीं खो गया। मेरे साथ वापस लौट आई। बस, इतनी सी बात है!’
‘बातें मत बना............हमें सब पता है। उन्होंने तेरे खिलाफ बयान दिया है।’
‘मैंने कुछ नहीं किया साहब ! मैं निर्दोष हूं। घर में छोटे-छोटे बच्चे हैं !’
‘साले, लड़कियों का धंधा करते समय तुझे बच्चों का ख्याल नहीं आया। लड़कियों को लेकर सड़क पर घूमता है।’ कहकर दरोगा वहां से चला गया।

धौलिया की समझ में आ रहा था कि वह मुसीबत में फंस चुका है। उसका आत्मविश्वास  डगमगा चुका था। ‘क्या जरूरत थी, टनकपुर से दुबारा लड़कियों को अपने साथ लेकर आने की। जब मैं जानता हूं, सब मुझसे जलते हैं। क्या जरूरत थी, उनकी खुशामद करने की ? अपनी मार्केट बनाने में लगा रहता हूं। कौन पूछता है किसी को ? कौन किस को याद रखता है ? लड़कियां दूसरों को भी तो मिलती हैं। कोई उनकी इतनी खुशामद नहीं करता। वो समझते हैं औरतों का मामला !’

तभी उसे अपनी जान-पहचान का एक सिपाही दिखायी दिया। उसे देखते ही धौलिया ने सलाम ठोका।
‘क्यों भाई, कैसे फंस गया इस चक्कर में ?’ सिपाही के तेवर बदले हुए थे।
‘दीवानजी, अब क्या बताऊं ? मैं तो सिर्फ सवारी ले जा रहा था। मेरी खुद समझ में नहीं आ रहा है। मेरे ऊपर ऐसे आरोप क्यों लग रहे हैं ? आप तो मुझे अच्छे से जानते हो !’ उसने अपने को दयनीय बनाते हुए कहा।

‘चल, जो हुआ सो हुआ ! अब यहां से निकलने की सोच। तेरे ऊपर अपहरण का मामला बन रहा है। इसमें जमानत भी नहीं मिलती। अभी मामला दरोगाजी के हाथ में है। किसी जिम्मेदार आदमी के जरिये बात करा ले !’ फिर वह फुसफुसाने लगा ‘हमारी तेरी तो रोज की दुआ-सलाम हुई। देख ले, बात आगे नहीं बढ़नी चाहिए !’

‘दीवान जी, अब तक मालिक के पास खबर पहुंच गयी होगी। कोई न कोई आता होगा ! तुम दरोगाजी से कह दो, सुबह तक इंतजाम हो जाएगा !’







‘चिन्ता मत कर, काम करवा दूंगा ! मेरा ख्याल रखना !’ सिपाही ने मुस्कराते हुए कहा।

वह इसी माहौल में पला-बढ़ा था। जानता था, सिपाही के जरिए बात आगे बढ़ाकर वह बाहर हो सकता है। पर अभी मामला गर्म था। दाम ऊंचे लगते। लेकिन रूपये खर्च होना अब तय था। दिन-रात मेहनत करके कुछ रूपये जोड़े थे। सोचा था, इस बार छत पर नई चादरें बिछवा दूंगा। लेकिन सोचने से ही तो सब काम नहीं हो जाते ! पता नहीं, किसकी नजर लगी ?’

ट्रक का मालिक रात को अपने साथ एक ड्राइवर लेकर आया और दरोगाजी की जेब गरम कर के ट्रक को लेकर चलता बना। अगले दिन सुबह-सुबह उसके पिता इधर-उधर से रूपयों का इंतजाम कर पिछले चुनाव में विधायकी के लिए खड़े क्षेत्र के समाज सेवक अमर सिंह के साथ थाने में हाजिर हो गये। मुलाकात के समय धौलिया ने पिता से कह दिया था कि ‘किसी को भी अपने पास दस हजार से ज्यादा रूपयों की खबर मत होने देना !’
उसके कंधे पर हाथ रखकर अमर सिंह ने कहा, ‘चिन्ता मत कर मैं हूं न ! सब ठीक हो जाएगा !............‘पुलिस वाले अपहरण का मामला बता रहे हैं। पन्द्रह-बीस से कम में तो क्या मानेंगे !’

‘इतना तो नहीं है। शायद बाबू आठ-दस लाये हैं !’
‘चल देखता हूं, क्या होता है। आज बीडीसी की जरूरी मीटिंग में जाना था। खैर कोई बात नहीं, अपने लोगों के लिए सब छोड़ना पड़ता है !’ उसने एहसान जताते हुए कहा था।
अमर सिंह दरोगा के कमरे में पहुंच गया। दोनों ने जोशो -खरोश  से हाथ मिलाए।

अमर सिंह ने मजाकिया लहजे में पुलिस के द्वारा सीधे-सादे स्थानीय लोगों का उत्पीड़न बढ़ने की बात कही। थानेदार ने लड़कियों की शिकायत दिखायी। अमर सिंह ने मंत्रीजी तथा राज्य के आला अधिकारियों से हाल में हुई अपनी मुलाकात का जिक्र किया तथा लड़कियों के बयानों की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। उसने धौलिया के अब तक के अच्छे रिकार्ड का जिक्र किया। मामले को जबरदस्ती का तूल दिया हुआ बताया।

दरोगा नियम-कायदे की बात करने लगा। अमर सिंह ने पांच हजार की गड्डी उसकी मेज पर रखी और झटके से बाहर निकल गया। माहौल को शांत होता हुआ देखकर अगले दिन धौलिया को छोड़ दिया गया।

और जैसे कि हर बार अपने जीवन में घटने वाली प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना के बाद धौलिया उसका विष्लेशण करते हुए आगे के लिए सबक लिया करता था, इस बार उसने निष्कर्ष निकाला कि ‘अब से अकेली लड़कियों को गाड़ी में नहीं बैठाना है। सालियों ने न सिर्फ खू-पसीने की कमाई को मिट्टी में मिला दिया, बल्कि वर्षों की  मेहनत से बनी मार्केट भी खतम कर दी। अब, किस-किस को समझाऊंगा........किस-किस का मुंह बंद करूंगा !’

उधर, जीप के अंदर से बाहर घिर आए अंधेरे को देख रही लड़कियां, डरी हुई अपने-अपने ख्यालों में खोयी थी। दोनों को लग रहा था ‘जब तक घर नहीं पहुंचते, अपने को सुरक्षित नहीं समझ सकते !’ उमा सोच रही थी, ‘जब नदी में छलांग लगा दी थी तो पार भी हो ही जाना चाहिए था। देखा जाता। कमला कमजोर निकली। कमला ही क्यों ? वह भी तो ढीली पड़ गयी थी। ज्यों-ज्यों वह घर के करीब पहुंचती जा रही थी, एक गहरी खिन्नता उसके ऊपर हावी होती जा रही थी। मगर कमला के चेहरे में ऐसे भाव थे, जैसे वह किसी मुसीबत से निकल आयी है और अब कम से कम ऐसा कदम नहीं उठायेगी। जब दोनों रोड पर उतरी तो उनका सामना एक बिल्कुल नयी और अपरिचित सी जगह से हुआ। सड़क में कीड़ों के कुलबुलाने, नीम अंधेरे और मौन के अलावा कुछ नहीं था। यह सन्नाटा दूर तक तना हुआ था और माहौल को भयानक बना रहा था। दोनों को अकेले, सुनसान जगहों में आने-जाने का अनुभव नहीं था। लग रहा था जैसे आधी रात हो चुकी है। दोनों भयभीत थी। अंधेरे में ढलान वाले रास्ते पर कैसे उतरेंगे ?
तभी कमला ने पहाड़ों के काले-काले सायों के बीच कुछ बल्बों के सहारे रोशनी से टिमटिमाते हुए अपने गांव को पहचाना तो वह अपनी खुशी छिपा नहीं पायी-‘देख, यहां से हमारा गांव कितना अच्छा लग रहा है ?’

‘हां, बहुत अच्छा है तेरा ये गांव ! कल से लोगों के वहां जाकर भीख मांगना शु रू कर देना ! अपने मां-बाप की तरह तू भी रोते-कलपते हुए ऐसे ही गाड़-गधेरों  में अपनी जिन्दगी बिता देना ! किसी दिन पहाड़ से गिरकर........नदी में डूबकर मर जाना !’ उमा ने गुस्से में कहा।

एकाएक गुस्से में कही उमा की बातें कमला की समझ में नहीं आई। वह चौंककर उसकी ओर देखने लगी। वह कुछ कहना चाह रही थी, लेकिन उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था।         ०००



 दिनेश  कर्नाटक
  

जन्म           13 जुलाई 1972, रानीबाग (नैनीताल) 

शिक्षा               एम.ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी साहित्य) बी.एड., पीएचडी  

रचनाएं    
पहली कहानी ‘एक छोटी सी यात्रा’ 1991 में ‘उत्तर प्रदेश’ में प्रकाषित हुई।   कहानी-संग्रह ‘पहाड़ में सन्नाटा’, ‘आते रहना’ तथा ‘मैकाले का जिन्न’ क्रमशः ‘बोधि प्रकाशन, जयपुर, ’अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद तथा लेखक मंच प्रकाषन, गाजियाबाद से प्रकाशित  उपन्यास ‘फिर वही सवाल’ भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से प्रकाशित।  ऽ यात्रा-संस्मरण ‘दक्षिण भारत में सोलह दिन’ लेखक मंच प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाषित।   हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में  कहानियां तथा अन्य रचनाएं प्रकाशित। 

पुरस्कार तथा अन्य  प्रताप नारायण मिश्र स्मृति युवा साहित्यकार सम्मान’10 से सम्मानित।  उपन्यास ‘फिर वही सवाल’ भारतीय ज्ञानपीठ की नवलेखन प्रतियोगिता-2009 में पुरस्कृत।  विद्यालयी षिक्षा, उत्तराखंड की कक्षा 4, 5, 7 तथा 8 की हिन्दी पाठ्यपुस्तकों ‘हंसी-खुशी’ तथा ‘बुरांश’ का लेखन तथा संपादन।  शिक्षा के मुद्दों पर केन्द्रित पत्रिका‘क्षिक दखल’ का संपादन।

संप्रति        राजकीय इंटर कालेज, गहना (नैनीताल) में प्रवक्ता (हिन्दी) के पद पर कार्यरत।

संपर्क        ग्राम व पो.आ.-रानीबाग
                        जिला-नैनीताल (उत्तराखंड) पिन-26 31 26

मोबाइल-094117 93190

25 अक्टूबर, 2018

झूठ की फैक्टरी का सामना झूठ की फैक्टरी खड़ी करके जीत हासिल की जा सकती है?

उदय चे


          आम आदमी अपनी सही और गलत की समझ मीडिया को सुन, पढ़ या देख कर बनाता है। एक समय था जब टेलीविजन पर रात को 9:20 पर खबर आती थी। सुबह अखबार आता था। देश-विदेश या किसी जगह हुई घटना की जानकारी का माध्यम सिर्फ ये ही था। यहाँ से मिली जानकारी को एकदम सच माना जाता था। लेकिन आज के दौर का मीडिया 24 घण्टे हमको खबरे दिखाता है। खबरे न हो तो भी खबरें बनाई जाती है। घण्टो-घण्टो झूठी खबरों पर रिपोर्टिंग होती रहती है। पल-पल हमको झूठ दिखा कर हमारे दिमाक में वो सब भरा जा रहा है जो पूंजीवादी सत्ता के फायदे के लिए जरूरी है। बहुमत आवाम आज भी अखबार, टेलीविजन या इंटरनेट पर आई खबर को सच मानता है। गांव में तो कहावत है कि "ये खबर अखबार में आ गयी इसलिए झूठ हो ही नही सकती।"
उदय चे

           अब जहां अखबार या न्यूज चैनल पर इतना ज्यादा विश्वास हो। वहाँ आसानी से मीडिया अपने मालिक पूंजी और सत्ता के फायदे के लिए हमको झूठ परोस सकता है। सत्ता की नीति "फुट डालो और राज करो" पर काम करते हुए मीडिया 24 घण्टे मुश्लिमो, दलितों, आदिवासियों, किसानों, मजदूरों, कश्मीरियों और महिलाओं के खिलाफ झूठ उगलता रहता है। हम उस झूठ पर आंखे बन्द कर विश्वास कर लेते है। इस झूठ के कारण ही हम आज भीड़ का हिस्सा बन एक दूसरे का गला काट रहे है।

          मीडिया जिसको हम सिर्फ न्यूज चैनलों और न्यूज पेपरों तक सीमित करके देखते है। जबकि मीडिया का दायरा बहुत ही व्यापक है। वर्तमान में फ़िल्म, सीरियल, गाने सब पूंजी और सत्ता के फायदे को ध्यान में रख कर बनाये जाते है।
मीडिया जिस पर कार्पोरेट पूंजी का कब्जा है और इसी पूंजी का सत्ता पर भी कब्जा है। जो हमारी पकड़ और जद से मीलों दूर है। लेकिन जब शोशल मीडिया आया तो बहुतों को लगा कि अब आम आदमी को अपनी आवाज व अपने शब्दो को एक-दूसरे के पास ले जाने का प्लेटफार्म मिल गया। एक ऐसा हथियार मिल गया जो कार्पोरेट मीडिया को ध्वस्त कर देगा। बहुतों को तो यहाँ तक लगने लगा और आज तक भी लगता है कि शोशल मीडिया के प्लेटफार्म को इस्तेमाल करके क्रांति की जा सकती है। लेकिन वो भूल गए थे कि शोशल मीडिया को किसने और क्यो पैदा किया। शोशल मीडिया किसका औजार है।

          आज शोशल मीडिया पर दिन-रात झूठी और नफरत भरी पोस्ट घूमती रहती है। इन्ही झूठी पोस्टो के कारण ही कितनी ही जगह दलितों-मुश्लिमो पर हमले हुए है। कितनो को मौत के घाट उतार दिया गया। सत्ता की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लड़ने वालों के खिलाफ झूठा प्रचार तो आम बात है। सभी पार्टियों ने अपने-अपने आई टी सेल स्थापित किये हुए है जिनका काम ही दिन रात झूठ फैलाना है।
ये आई टी सेल इतिहास की घटनाओं को इतिहासिक पात्रों को अपनी पार्टी व उसकी विचारधारा के अनुसार तोड़-मरोड़ कर, झूठ का लेप लगा कर आपके सामने पेश करते हैं। हम भी उस झूठ की चमकदार परत को ही सच मान लेते है।
अक्सर आपके सामने ऐसी झूठी पोस्ट आती है कि -
एक गायों से भरा ट्रक फैलानी जगह से चलकर फैलानी जगह के लिए निकला है इसका ये नम्बर है। इस ट्रक ने इतने गऊ भक्तों को कुचल दिया या इतनो को गोली मार दी।
फैलानी जगह मुश्लिमो ने हिन्दू लड़की से बलात्कार कर दिया।
मुस्लिम झंडे को पाकिस्तान का झंडा बताना तो आम बात है। इसी अफवाह के कारण पिछले दिनों हरियाणा के गुड़गांव में एक बस को रोक कर सवारियों और ड्राइवर से मारपीट की गई क्योकि बस पर मुस्लिम झंडा लगा था जो मुस्लिम धर्म स्थल पर श्रदालुओं को लेकर जा रही थी।
शहीद भगत सिंह आजादी की लड़ाई में वीर सावरकर से राय लेता था। भगत सिंह वीर सावरकर को अपना आदर्श मानता था।
भगत सिंह के खिलाफ फैलाने ने गवाही दी। किसी का भी नाम डाल कर परोस देते है।
गांधी और नेहरू ने भगत सिंह को फांसी दिलाई।
गांधी महिलाओं के साथ नंगे सोते थे। नेहरू अय्यास थे। नेहरू को एड्स थी। जिसके कारण उसकी मौत हुई। फोटोशॉप से दोनो के हजारो फोटो बनाये हुए है।
सोनिया बार डांसर थी, वेटर थी।
भगत सिंह ने कहा था कि अगर जिंदा रहूंगा तो पूरी उम्र डॉ अम्बेडकर के मिशन के लिए काम करूंगा।
डॉ अम्बेडकर ने अपने जीवन मे 2 लाख बुक्स पढ़ी।
साइमन कमीशन का विरोध करने वाले दलित विरोधी और डॉ अम्बेडकर विरोधी थे।
वेद के फैलाने पेज पर लिखा है कि हिन्दू गाय खाते थे या कुरान के उस जगह लिखा है कि ये होता था।

          पोस्ट इस प्रकार बनाई जाती है कि उस पर शक न किया जा सके। ये बड़े ही प्रोफेसनल तरीके से किया जाता है। इसके पीछे सिर्फ एक ही मकसद है वो है पूंजी की रक्षा, जिसमें वो कामयाब होते भी जा रहे है।
झूठ को अगर हजारो मुँह से बोला जाए तो वो सच लगने लगता है। यहाँ तो लाखों मुँह से बोला जा रहा है।
राहुल गांधी पप्पू है?, जवाहरलाल नेहरू के पूर्वज मुस्लिम थे? या प्रशांत भूषण, रवीश कुमार, अरविंद केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश, योगेंद्र यादव या दूसरे बुद्विजीवी देश द्रोही है?
बहुमत लोगो से बात करोगे तो बोलेगें हा है। क्यों बोल रहे है ऐसा लोग
क्योकि इनके खिलाफ व्यापक झूठा प्रचार बार-बार किया गया है।
इन झूठ फैलाने वाले आई टी सेल के हजारो फेंक अकाउंट होते है। जिनकी कोई जवाबदेही भी नही होती।

          उन झूठी पोस्ट्स के खिलाफ प्रगतिशिल बुद्धिजीवी लड़ रहे है। इन झूठी पोस्ट्स से कितना नुकशान हो रहा है ये जनता के सामने ला रहे है। इनके पीछे कौनसी ताकत काम कर रही है ये सामने ला रहे है।
लेकिन पीड़ित आवाम की हक की बात करने वाले तबके भी ऐसी झूठी पोस्ट्स  बना रहे है ये बहुत ज्यादा खतरनाक है।

झूठ का सामना झूठ पेश करके कभी नही किया जा सकता है।

          पिछले कुछ दिनों से एक पोस्ट शोशल मीडिया पर घूम रही है।
पोस्ट के अनुसार इंडिया गेट पर  95300 नाम स्वतंत्त्रा सेनानियों के लिखे हुए है जिनमे 61395 नाम मुश्लिमो के है और अच्छी बात ये है की एक नाम भी संघियो का नही है।
अब जो संघ विरोधी है। संघ के खिलाफ और उसकी झूठ की फैक्टरी के खिलाफ लड़ने की बात करते है। उनको ऐसी पोस्ट दिखते ही वो उसकी सत्यता जांचे बिना उसको शेयर, फारवर्ड या लाइक कर देते है। ऐसा करना बहुत ही खतरनाक है क्योंकि इसके पीछे भी पूंजी और उसकी विचारधारा काम कर रही होती है।
अब इस पोस्ट की सच्चाई क्या है इसको भी जान लेना चाहिए। इंडिया गेट का निर्माण अंग्रेज सरकार ने अपने उन हजारों भारतीय सैनिकों के लिए करवाया था जिन सैनिकों ने अंग्रेज सरकार के लिए पहले विश्व युद्ध व अफगान युद्ध में जान दी।


यूनाइटेड किंगडम के कुछ सैनिकों और अधिकारियों सहित 13300 सैनिकों के नाम, गेट पर लिखे हुए है।
          ये झूठी पोस्ट अंग्रेजो के लिए लड़ने वाले उन हजारो लोगो को जिन्होंने अंग्रेज सरकार का भारत पर कब्जा बनाये रखने में मजबूती से साथ दिया। उन सैनिकों को क्रांतिकारी साबित कर रही है। क्या वो क्रांतिकारी थे?
          लेकिन ऐसे ही धीरे-धीरे झूठे इतिहास को सच बनाकर लोगो के दिमाक में बैठाया जाता है।
इन झूठी पोस्ट्स को देख कर लग रहा है कि झूठ की फैक्टरी सिर्फ संघी ही नही लगाए हुए है। झूठ की फैक्टरी का निर्माण संघ के खिलाफ लड़ने की बात करने वाले भी लगाए हुए है। जैसे संघ या मोदी के अंधभक्त झूठी पोस्ट्स को आगे से आगे बिना सच्चाई सरकाते रहते है वैसे ही दूसरे प्रगतिशील, कलाकार, वामपंथी, अम्बेडकरवादी भी झूठी पोस्ट्स को आगे से आगे सरका रहे है। बस पोस्ट उनके मतलब की होनी चाहिए, वो चाहे झूठी ही क्यो न हो।
          लेकिन क्या ये सही होगा। क्या पीड़ितों की लड़ाई झूठ के सहारे लड़ी जाएगी। क्या आप इतने कमजोर हो कि झूठ का सहारा ले रहे हो।
अगर आप ऐसा कर रहे हो तो आपकी हार निश्चित है।
०००


उदय चे का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए

भारत में तालिबानी भीड़
उदय चे

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/10/1.html?m=1
मलयालम सिनेमा का उत्कर्ष काल

विजय शर्मा


विजय शर्मा


भारतीय फ़िल्म उद्योग दुनिया में सबसे बड़ा है। यहाँ २५ भाषाओं में प्रति वर्ष करीब २००० फ़िल्में बनती हैं। प्रत्येक क्षेत्रीय फ़िल्म एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न है। फ़िल्में जन-संवाद का एक बड़ा माध्यम है साथ ही ये देश के लिए रेवेन्यू भी उत्पन्न करती हैं। भारतीय फ़िल्म इतिहास का प्रारंभ ७ जुलाई १८९६ को ही हो गया था जब लूमियर भाइयों ने बंबई के वाट्सन होटल में अपनी शॉर्ट फ़िल्मों का प्रदर्शन किया था। टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने इसे ‘मैजिक ऑफ़ द सेंचुरी’ कहा था और यह कथन सत्य साबित हुआ। आज सिनेमा सौ साल से ऊपर का हो चुका है और लोगों में इसका पागलपन बढता ही जा रहा है। इन सौ सालों में सिनेमा का निर्माण, इसके कथानक की प्रस्तुति, इसकी तकनीकि, इसके चरित्र, इसके विज्ञापन का तरीका, इसके प्रदर्शन की विधि सब कुछ परिवर्तित हो चुकी है, लेकिन सिनेमा बना हुआ है। दशकों में बाँट कर सिनेमा के इतिहास का अध्ययन एक रोचक विषय है। मगर हम यहाँ बात करने वाले हैं मात्र इक्कीसवीं सदी के सिनेमा की वह भी केवल मलयालम सिनेमा की। बॉलीवुड की भाँति ही मलयालम फ़िल्म उद्योग अब बहुत अधिक संगठित है। इससे जुड़े लोग आज पहले की अपेक्षा ज्यादा प्रोफ़ेशनल हैं। आज फ़िल्म निर्माण तकनीकि से जुड़ कर बहुत विशिष्ट हो गया है। आज फ़िल्म के पास विज्ञापन, वितरण और प्रदर्शन के बेहतर तरीके उपलब्ध हैं। दर्शकों की रूचि भी बदल गई है। एक समय था जब फ़िल्म देखना बुरी बात मानी जाती थी और लोग इसे चोरी-छिपे देखा करते थे लेकिन इक्कीसवीं सदी में फ़िल्में लोगों की मुट्ठी में हैं और वे खुलेआम फ़िल्म देखते हैं और उस पर चर्चा करते हैं। आज फ़िल्में लोगों की रूचि का निर्माण करती हैं, उन्हें प्रेरित करती हैं।

यह एक सार्वजनिक सत्य है कि सिनेमा समाज को प्रतिबिंबित करता है, साथ ही समाज को प्रभावित भी करता है। यह समाज के परिवर्तन को दिखाता है और समाज में परिवर्तन लाता है। एक समय फ़िल्म को सामाजिक बुराई माना जाता था और आज यह ‘एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट’ है। यह बदलाव एकाएक नहीं हुआ है। पूरे देश में पिछली सदी के आठवें-नौंवे दशक से परिवर्तन प्रारंभ हुआ। इसी समय आर्थिक उदारीकरण, भूमंडलीकरण, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आगाज हुआ और इसी समय से फ़िल्मों में भी बदलाव आया। अब फ़िल्में बेहतर तकनीकि, बेहतर प्रोजेक्शन, बेहतर लोकेशन्स, बेहतर ड्रेस, सेट, संगीत से लैस हैं। देश के साथ केरल भी बदला। देश के अन्य हिस्सों की तरह केरल में भी मल्टीप्लेक्स संस्कृति का प्रारंभ हुआ। आज केरल जैसे छोटे-से राज्य में ५० से ऊपर मल्टीप्लेक्स हैं। छोटे-छोटे शहरों में इसकी उपस्थिति देखी जा सकती है। इस पद्धति ने एकल स्क्रीन वाले सिनेमा हाल की छुट्टी कर दी है। अब ये हाल शादी के लिए प्रयोग होते हैं।

यह संभव हुआ मध्यवर्ग की खरीदारी क्षमता में इजाफ़ा होने से। आधा केरल खाडी के देशों में काम करता है, इन लोगों की आ-मद-नी खास है और इससे केरल में खूब आय होती है। मल्टीप्लेक्स में फ़िल्म देखना सामाजिक हैसियत को प्रदर्शित करता है। इसने फ़िल्मों का आर्थिक स्वरूप परिवर्तित कर दिया है। आज का दर्शक आर्थिक रूप से मजबूत है साथ ही वह प्रौढ़ भी हो चुका है। वह फ़िल्म में एक साथ विभिन्न मुद्दे चाहता है, कथानक की प्रस्तुति में नवीनता उसकी पसंद है। मलयालम सिनेमा दर्शक की इन जरूरतों को समझता है और आज मलयालम में इन्हीं जरूरतों को ध्यान में रख कर फ़िल्में बनाई जा रही हैं। दर्शक एक ही फ़िल्म में अच्छी पटकथा, मनोरंजन दोनों की माँग करता है। उसे रोमांस भी चाहिए और सामाजिक संदेश भी। आज मलयालम फ़िल्म केवल मलयाली दर्शक को ध्यान में रख कर नहीं बनाई जाती हैं। डबिंग की सुविधा और रिमेकिंग चलन के कारण मलयालम फ़िल्में वैश्विक दर्शक को ध्यान में रख कर बनाई जा रही हैं। मलयालम सिनेमा न केवल डोमेस्टिक मार्केट को ध्यान में रख रहा है वरन उसकी दृष्टि ओवरसीज मार्केट पर भी है। मलयालम सिनेमा की बाउंड्री का विस्तार हुआ है। युवा वर्ग फ़िल्म का सबसे बड़ा दर्शक वर्ग होता है, फ़िल्म बनाते समय इसका भी ध्यान रखा जाता है। आज यह एक ग्लोबल एंटरटेनमेंट है। इसे खूब मीदिया कवरेज भी मिल रहा है। मलयालम फ़िल्म अवार्ड्स नाइट का समारोह शिकागो में होता है, दुबई में होता है। इसमें केवल मलयालम फ़िल्म से जुड़े लोग ही भाग नहीं लेते हैं बल्कि बॉलीवुड के लोगो भी वहाँ आमंत्रित होते हैं, समारोह में बढ़-चढ कर हिस्सा लेते हैं। अभी हाल में इसमें अक्षय कुमार, सोनम कपूर को परफ़ॉर्म करते देखा गया है। सिनेमा का प्रभाव टीवी पर देखा जा सकता है। तकरीबन सारे टीवी चेनल फ़िल्म और फ़िल्म आधारित प्रोग्राम दिखाते हैं। अभिनेताओं को बराबर तरह-तरह के टीवी प्रोग्राम में आमंत्रित किया जाता है।

यूँ तो मलयालम में हर साल ढ़ेरों फ़िल्म बनती हैं, कुछ बहुत अच्छी, कुछ सामान्य और कुछ बहुत बुरी। २००० से अब तक ‘उस्ताद होटल’, ‘सॉल्ट एंड पेपर’, ‘क्षण मात्र’, ‘मुंबई पुलिस’, ‘क्लासमेट्स’, ‘दृश्यम्’, ‘लेफ़्ट राइट लेफ़्ट’, ‘ट्वंटी २०’, ‘केरल वर्मा पड़षी राजा’, ‘ओटाल’, ‘प्रेमम्’, ‘बैंग्लोर डेज’, ’२२ फ़ीमेल कोटयं’, ‘उरमी’, ‘नेरम’, ‘मीसा माधवन’, ‘पलेरी मानकम्’, ‘बिजनेस मैन’, ‘एक्शन हीरो बीजू’, ‘नॉर्थ २४ कथं’, ‘नंदनम्’, ‘रामलीला’, ‘राजमानिक्यम्’, ‘तीरा’, ‘ओपम्’, ‘टेक ऑफ़’ आदि बहुत सारी तरह-तरह की फ़िल्में बनी हैं। शैली के अनुसार भी मलयालम में इस दौरान प्रेम कहानी, एक्शन फ़िल्म, रहस्य-रोमांच सब तरह की फ़िल्में बन रही हैं। मलयालम में समय के साथ चलते हुए समलैंगिक संबंधों (‘संचारम्’, ‘ऋतु’, सूफ़ी प्रान्कथा’, ‘मुंबई पुलिस’) तथा ट्रान्स जेंडर (‘अर्धनारी’) पर भी फ़िल्म बनी हैं। वास्तबिक ट्रांस जेंडर अंजली अमीर एक फ़िल्म में काम कर रही है जिसमें मम्मूटी प्रमुख भूमिका में है। एक फ़िल्म ‘ मेरीकुट्टी’ में मलयालम फ़िल्म का प्रसिद्ध अभिनेता जयसूर्या ट्रांस जेंडर की भूमिका कर रहा है। यहाँ ‘शटर’, ‘डायमंड नेकलेस’, ‘ओम शांति ओशाना’, ‘बुक ऑफ़ जॉब’ तथा ‘चार्ली’ कुल उन पाँच फ़िल्मों की चर्चा हो रही है जिन्होंने इक्कीसवीं सदी में दर्शकों और आलोचकों का ध्यान खींचा है। आज के मलयालम फ़िल्म निर्देशक ऐसी अनोखी पटकथा ले कर आते हैं कि आप उनकी फ़िल्म के प्रेम में पड़े बिना नहीं रह सकते हैं। सबसे पहले बात करते हैं २०१२ में बनी फ़िल्म ‘शटर’ की।
शटर: तनाव की पराकाष्ठा जिंदगी में कब क्या कुछ हो जाए कहा नहीं जा सकता है। एक छोटी-सी भूल जिंदगी बरबाद कर सकती है या फ़िर एक अनुभव आदमी को पूरी तौर पर बदल कर रख दे सकता है। ऐसा होता हुआ देखना है तो मलयालम फ़िल्म ‘शटर’ (इंग्लिश सबटाइट्ल्स के साथ उपलब्ध) देखनी चाहिए। समाप्त होने के बाद भी यह फ़िल्म काफ़ी समय तक दिल-दिमाग में अटकी रहती है। नाटकों में चर्चित नाम जॉय मैथ्यू का फ़िल्म निर्देशन का यह पहला प्रयास है, मगर फ़िल्म की प्रौढ़ता फ़िल्म निर्देशक में दर्शकों तथा समीक्षकों की आस्था बढ़ा देती है।

शराब हानिकारक है मगर इसका चलन सब जगह है, सब तबके में है। शराब पी कर गाड़ी चलाना मना है मगर लोग शराब पी कर गाड़ी चलाते हैं। ‘शटर’ फ़िल्म में शराब बस एक बहाना है, कई चरित्रों को करीब लाने का। अनपढ़ रशीद खाड़ी से कुछ दिनों के लिए अपने घर काजीकोड लौटा है। जल्द ही अपनी बेटी निला (रिया सायरा) की सगाई कर के फ़िर से खाड़ी की तपती जमीन पर लौट जाएगा। बेटी लड़कों के संग मोटरसाइकिल पर जाती है, मोबाइल पर लड़कों से बात करती है अत: उसने बेटी की स्कूली शिक्षा बंद कर दी है।
कहानी में कहन का तरीका उसकी जान होता है, जॉय मैथ्यू कहानी कहना बखूबी जानते हैं। उन्हें सिनेमा की भाषा पता है। बड़े आत्मविश्वास के साथ दो-चार पात्रों की सहायता से ‘शटर’ की कहानी बुनी गई है। अलग-अलग जीवन के पात्र अचानक मिलते हैं और दो रातों तथा एक दिन के भीतर जाने-अनजाने में एक-दूसरे का जीवन सदा के लिए बदल डालते हैं। अभिनय में कौन उन्नीस है, कौन बीस बता पाना कठिन है। रसीद का अभिनय कर रहा लाल मलयालम सिनेमा का मंजा हुआ कलाकार है, फ़िल्म निर्देशक की भूमिका करने वाला श्रीनिवासन भी ख्यातिप्राप्त अभिनेता है मगर बाजी मार ले जाता है ऑटो ड्राइवर सूरा (विनय फ़ोर्ट)। सूरा के रूप में विनय फ़ोर्ट ने मासूमियत, शर्म, बेचैनी, लाचारी, घबराहट-परेशानी-चिंता, रियरव्यू मिरर में अपने ऑटो में बैठी औरत सवारी को निहारना सब भावनाओं-संवेदनाओं को पूरी तन्मयता से अभिव्यक्त किया है।

रसीद अपनी एक दुकान का शटर गिरा कर शाम को रसरंजन की महफ़िल सजाता है। सूरा का एक काम रशीद के लिए शाम की बोतल का इंतजाम करना है। इस दुर्भाग्य-सौभाग्यशाली दिन सूरा के ऑटो में एक फ़िल्म निर्देशक मनोहरन (श्रीनिवासन) बैठता है और गलती से अपनी फ़िल्म स्क्रिप्ट ऑटो में छोड़ कर उतर जाता है। शाम को जब सूरा रशीद के लिए बोतल ले कर आता है तब उसे इसका पता चलता है। रशीद सबको ट्रीट देना चाहता है लेकिन काम और फ़ोन आने के कारण सब चले जाते हैं। रशीद सूरा के ऑटो में बैठ शराब लाने चल देता है। बस स्टॉप पर उसकी निगाह एक स्त्री पर पड़ती है और उसके मन में शराब के अलावा एक और इच्छा जाग उठती है।

वह स्त्री और रशीद, रशीद के अड्ड़े पर आते हैं जहाँ उन्हें मौज-मस्ती के लिए छोड़ कर सूरा खाने का प्रबंध करने चला जाता है। जाते-जाते वह शटर में ताला लगा जाता है। फ़िल्म में यहाँ से तनाव शुरु होता है। स्त्री शुरु में सड़क छाप व्यवहार करती है। रशीद को भय है कहीं वह परिवार और पड़ौसियों के सामने नंगा न हो जाए। इस मुसीबत में उसे अपने दोस्तों की असलियत पता चलती है, सूरा के अलावा उसका कोई दोस्त नहीं है। अजनबी औरत की आँख रशीद के फ़ूले हुए पर्स और घड़ी-अँगूठी पर है। लाचारी-बदनामी के भय से पसीने से तरबतर  रशीद उसे अपना सब कुछ थमा देता है, हताशा-निराशा में रोता है।

यह औरत जब देखती है कि यह आदमी उसमें दिलचस्पी नहीं रखता है तो आराम से सो जाना चाहती है। धीरे-धीरे औरत का व्यवहार रशीद के प्रति सहानुभूतिपूर्ण हो जाता है। वह अपना नाम तंकम (विशुद्ध सोना) बताती है। ज्यों-ज्यों रशीद की घबराहट बढ़ती जाती है त्यों-त्यों उसके साथ की स्त्री सेटल होती जाती है। रशीद उसे स्पर्श नहीं करता है मगर वह शोर न करे इसके लिए क्रूरता की हद तक जाता है। दोनों दो रात और एक दिन शटर के भीतर की घुटन-अनिश्चय भरी जिंदगी जीते हुए कई जिंदगियाँ जी लेते हैं। तनाव क्या होता है, यह देखने और अनुभव करने के लिए फ़िल्म ‘शटर’ देखनी होगी। छोटे बजट की, थोड़े से पात्रों को ले कर बनाई गई फ़िल्म ‘शटर’ मानवीय संवेदना के चरम को प्रस्तुत करती है। एक के बाद एक अप्रत्याशित घटनाएँ होती जाती हैं। अपराध बोध से भरा, बेवफ़ाई के विचार से काँपता, पूरी तरह से हारा हुआ, बरबाद और लाचार रशीद तप कर खरा सोना बन निकलता है। वह अपनी बेटी को पहले से बेहतर जानता-समझता है, पिता-पुत्री में एक नया रिश्ता बनता है।
शटर के बाहर और भीतर की दुनिया को जाने-माने कैमरामैन हरि नायर ने बड़ी सूक्ष्मता से पकड़ा है। सिनेमा की भाषा में देखें तो श्वेत-श्याम और विभिन्न रंगों का प्रयोग फ़िल्म की गुणवत्ता में इजाफ़ा करता है। कैमरा कई बार क्लोजअप से केवल आँखों पर केंद्रित हो कर भावों को दर्शकों के लिए सुलभ कराता है। फ़िल्म की शुरुआत में तीव्र गति से घूमता हुआ कैमरा शहर के दिन-रात को कवर करता है। बंद शटर के भीतर पल-पल परिवर्तित होती जिंदगी को बखूबी पकड़ता है। फ़िल्म में कुल तीन गीत हैं, पाब्लो नेरुदा के गीत ‘आज की रात मैं...’ का उपयोग बखूबी किया गया है। इस गीत को मलयालम में संगीत से सजा कर शाहबाज़ अमान ने गाया है। बिबी शाम तथा जैकब पणिकर ने फ़िल्म का पार्श्व संगीत तैयार किया है। साउंड डिजाइनिंग रंगनाथ रवि की है। यह सस्पेंस थ्रिलर निर्देशक के शब्दों में ‘पोयटिकल वायलेंस ऑन सेल्यूलाइड’ है। फ़िल्म चटपटे, हास्य, तीक्ष्ण, कटु, हृदयविदारक, तनाव, जीत का बड़ा सुंदर मिश्रण है। शटर के बाहर दुनिया अपनी रफ़्तार से चल रही है। जब-तब रशीद अपने घर-परिवार को रोशनदान से देखता है और परेशान होता जाता है।

सूरा और रशीद की कल्पना से फ़िल्म को एक अलग रंग मिलता है। कल्पना में वे बुरी-से-बुरी स्थिति सोचते हैं और उस स्थिति की संवेदनाओं से परिचालित होते हैं। फ़िल्म का अंत भी अप्रत्याशित है। फ़िल्म बनाने के लिए रकम कहाँ से और कैसे-कैसे आती है इस विषय को भी फ़िल्म स्पर्श करती है। मार्टिन स्कॉरसिसे फ़िल्म ‘ह्यूगो’ में भुला दिए गए फ़िल्म निर्देशक को खोज निकाल कर सिनेमा का उत्सव मनाते हैं, जॉय मैथ्यू ‘शटर’ में फ़िल्म बनाने वालों की दीवानगी दिखाते हैं। मनोहरन को हिचकिचाहट के बावजूद प्रड्यूसर मिल जाता है, वह निश्चिंत हो कर फ़िल्म बना सकता है। उसे अपनी खोई हुई स्क्रिप्ट मिल जाती है मगर अब वह उस स्क्रिप्ट पर फ़िल्म नहीं बनाना चाहता है क्योंकि अब उसे एक नई कहानी ‘शटर’ मिल गई है।

डायमंड नेकलेस : जिन्दगी में क्या चाहिए

इकबाल कुट्टीपुरमर लिखित, लाल जोस द्वारा निर्देशित २०१२ की मलयालम फ़िल्म ‘डायमंड नेकलेस’ कुछ ऐसा महत्वपूर्ण संदेश देती है जो काल के परे जाता है और यह फ़िल्म समयातीत बन जाती है। युवा डॉक्टर अरुण (फ़हद फ़ाज़िल) खाड़ी के देश में हाई-फ़ाई जिंदगी बिताता है, उसे भविष्य की कोई चिंता नहीं है। अस्पताल में नई आई नर्स लक्ष्मी (गौतमी नायार) से वह प्रेम करने लगता है। नर्स जो अपनी माँ का सपना पूरा करने के लिए विदेश में रह रही है। अरुण के पर्स में तमाम क्रेडिट कार्ड हैं लेकिन उसके बैंक में पैसा नहीं है। जल्द ही कर्ज देने वाले उसकी कार उठा ले जाते हैं। उसका पासपोर्ट जब्त हो जाता है और वह अपनी बीमार माँ को देखने देश नहीं जा सकता है। अस्पताल में उसकी सीनियर डॉक्टर सावित्री अक्का (रोहिणी) उसकी समस्याओं को सुलझाती है। कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब माँ अरुण की शादी राजश्री (अनुश्री) से करवा देती है। राजश्री एक सीधी-सादी लड़की है जो अपने पति को बहुत प्यार करती है। अरुण के जीवन में तीन स्त्रियाँ आती हैं और तीनों उसे परिवर्तित कर जाती हैं। अरुण कैसे बदलता है यही इस फ़िल्म का निचोड़ है। अरुण के जीवन में तीसरी स्त्री माया (संवृता सुनिल) आती है। माया सावित्री अक्का की रिश्तेदार है और कैंसर से पीड़ित है। बीमारी के कारण माया का मंगेतर उसे छोड़ गया है। अरुण को मरती हुई माया का सात लाख का डायमंड नेकलस अपनी समस्याओं का हल नजर आता है। वह असली नेकलेस चुरा कर उसके स्थान पर नकली नेकलेस रख देता है। वही नेकलेस चंगी हो कर हिमालय जाती हुई माया उसे उसकी पत्नी के लिए उपहार स्वरूप दे जाती है।



अब माया भविष्य की चिंता से मुक्त जीवन की ओर बढ़ रही है। अपराधबोध से भरा अरुण असली नेकलेस का क्या करता है, नकली नेकलेस का क्या होता है, यह बता कर फ़िल्म का मजा किरकिरा करना मेरा उद्देश्य नहीं है। फ़िल्म के अंत में राजश्री का निश्छल प्रेम अरुण की आँखें खोल देता है। दुबई के बुर्ज खलीफ़ा में रहने वाला अरुण अपनी करनी से कामगरों के साथ रहने को मजबूर होता है। अरुण की आरामदायक जिंदगी के बरक्स वहाँ शारीरिक श्रम करने वाले, बड़े दिल वाले किस स्थिति में रहते हैं यह सच्चाई फ़िल्म दिखाती है।
फ़िल्म को देखा जाना चाहिए इसके अभिनय के लिए। चरित्रों का निर्वाह बड़ी सहजता और स्वाभाविकता के साथ हुआ है क्योंकि अभिनेताओं का चुनाव बहुत सावधानी के साथ किया गया है। जयश्री का भोलापन, उसकी जीवंतता, लक्ष्मी का शुरु में शरारत भरा और बाद में दर्द से रिसता व्यक्तित्व एवं माया का चमकता ऊष्मा भरा चेहरा फ़िल्म को एक ऊँचाई प्रदान करता है। कैमरामैन समीर ताहिर का कैमरा खाड़ी देश की चकाचौंध, चरित्रों के चेहरे के उतार-चढ़ाव, उनकी बेबसी को खूबसूरती के साथ पकड़ता है। एक सरल-सी कहानी को विशिष्ट तरीके से प्रस्तुत करना कोई लाल जोस से सीखे। ‘डायमंड नेकलेस’ के गीत रफ़ीक अहमद ने लिखे हैं। जिंदगी के उतार-चढ़ाव वाली इस फ़िल्म का खूबसूरत संगीत पक्ष इसमें इजाफ़ा करता है, इसके लिए विद्यासागर को फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। गौतमी नायर और फ़हद फ़ाज़िल को भी इस फ़िल्म के लिए फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार प्राप्त हुए। इस फ़िल्म को ‘कमिंग ऑफ़ एज’ फ़िल्म भी कहा जा सकता है।

ओम शांति ओशाना : विशुद्ध प्रेम

होने को तो यह भी ‘कमिंग ऑफ़ एज’ मूवी है। लेकिन ‘डायमंड नेकलेस’ और ‘ओम शांति ओशाना’ का ट्रीटमेंट बिल्कुल भिन्न है। यह केवल टीनएज रोमांस भी नहीं है। किशोरी पूजा मैथ्यू (नज़रिया) को अपने से बड़ी उम्र के गिरि (निविन पौली) से प्रेम हो जाता है। इसमें कोई नई बात नहीं है। नई बात कहन की विधि है। मिथुन मैनुअल थॉमस के साथ मिल कर निर्देशक ज्यूड एंथॉनी ने स्क्रिप्ट तैयार की है। जॉय मैथ्यू की भाँति ज्यूड एंथॉनी की यह पहली फ़िल्म है। पूरी कहानी नायिका के नजरिए से कही गई है। यहाँ हल्का-फ़ुल्का मजाक है, गरिमा है और अश्लीलता का नामो-निशान नहीं है। कैसे होगी अश्लीलता जब नायक कुंग फ़ू टीचर और किसान है। नवीन बड़ी सहजता से चरित्र में प्रवेश कर जाता है। अक्सर हम देखते हैं कि लड़का लड़की के पीछे पड़ता है लेकिन इस फ़िल्म में लड़की लड़के के पीछे पड़ी है। इसी तरह व्याज ओवर के लिए अक्सर पुरुष स्वर का प्रयोग किया जाता है मगर यहाँ स्त्री स्वर का प्रयोग हुआ है।



डॉक्टर मैथ्यू (रेन्जी पणीकर) की बेटी पूजा बेफ़िक्र किशोरी है। फ़िल्म उसके जन्म से प्रारंभ होती है। पूजा की माँ कॉलेज लेक्चरर है और अपनी बेटी को सामान्य माओं की भाँति ये मत करो, वो मत करो कहती रहती है, जिसे पूजा नहीं सुनती है, कौन युवा सुनता है माता-पिता की हिदायत? पूजा अपने पिता के अधिक करीब है। मोटरसाइकिल चलाती पूजा गिरि का प्रेम पाने के लिए तमाम झूठे-सच्चे उपाय करती है। नीतू (अक्षया प्रेमनाथ) और डोना (ओशीन मेर्टिल) उसके दो और दोस्त हैं। वह वाइन बनाने में कुशल अपनी ऑन्टी रेचल (विनया  प्रसाद) के भी बहुत करीब है, पूजा उसकी वाइन टेस्टर है। एक बार गिरि के बाइसवें जन्म दिन पर (यह पॉम संडे भी है) पंद्रह साल की पूजा उसे एक लॉकेट दे कर प्रपोज करना चाहती है पर गिरि कहता है कि वह बच्ची है और अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दे। गिरि बूर्जुआ लोगों का दुश्मन है और पूजा का परिवार बूर्जुआ है इसमें कोई शक नही है। साथ ही एक हिन्दू है, तो दूसरा क्रिश्चियन।
पूजा मेडिकल कॉलेज में पढ़ने चली जाती है। इस बीच वीरअप्पन मारा जा चुका है, सुनामी आ चुकी है लेकिन पूजा के पास गिरि नहीं आता है। कैसे आता है पूजा की जिंदगी में गिरि और इस बीच क्या-क्या होता है इसे तो स्वयं देखना होगा। इस फ़िल्म को देखा जाना चाहिए इसके अभिनय, संगीत, एडीटिंग और फ़ोटोग्राफ़ी के लिए। सर्वोत्तम एडीटिंग के लिए लीजो पॉल को केरला राज्य पुरस्कार मिला है। सर्वोत्तम नायिका का राज्य पुरस्कार नजरिया को मिला। कर्णप्रिय संगीत शान रहमान ने दिया है। इस फ़िल्म को देखा जाना चाहिए पूजा की मासूम कल्पनाओं के लिए। इसे देखा जाना चाहिए विनोद इलमपल्ली की फ़ोटोग्राफ़ी के लिए जिसने अपने कैमरे से केरल की ग्रामीण प्राकृतिक खूबसूरती को पकड़ा है। और इसे देखा जाना चाहिए एक सीधी-सादी रोमांटिक कॉमेडी के गैरपरम्परागत संचालन के लिए।


बुक ऑफ़ जॉब : मुन्नार की महागाथा


शुरु से जर, जमीन और जोरू के लिए भाई-भाई आपस में लड़ मरते हैं। भाई भाई के लिए जान दे सकता है तो भाई भाई की जान ले भी सकता है। लालच आदमी को भेड़िया बना देती है। यही प्रतिपाद्य है मलयालम फ़िल्म निर्देशक अमल नीरद की फ़िल्म ‘इयोबिंटे पुस्तकं’ (बुक ऑफ़ जॉब) का। इस फ़िल्म ने सिनेमा की परिभाषा बदल दी है। भाइयों के बीच की दुश्मनाई, हत्या, प्रेम, घृणा, कामुकता, अस्मिता बचाने और प्रतिकार के कथानक वाली यह फ़िल्म ब्रिटिश इंडिया के युग में प्रारंभ हो कर इमर्जेंसी तक चलती है तथा रूसी उपन्यास ‘ब्रदर कारमज़ोव’ की याद दिलाती है।

निर्देशक और सिनेमाटोग्राफ़र अमल नीरद का कैमरा केरल, पश्चिमी घाट के मुन्नार के पहाड़ों, लोगों, विशाल पीली रेत, नीले सागर और हरे-भरे जंगल की खूबसूरती को कैद करने में पूरी तरह सफ़ल रहा है। इस फ़िल्म की शूटिंग इडुकी जिले में हुई है। यह गाथात्मक फ़िल्म फ़हद फ़ाज़िल, लाल, जयसूर्या, ईशा श्रावणी, पद्मप्रिया, जीनू जोसेफ़ आदि के अभिनय और तापस नायक के पार्श्व संगीत डिजाइनिंग के लिए सराही जानी चाहिए। ग्रैंड स्केल पर बनने वाली हॉलीवुड या बॉलीवुड की किसी भी फ़िल्म के सामने यह बीस ठहरेगी। भव्य सेट्स के साथ आउटडोर शूटिंग मनमोहक है। अमल नीरद की तकनीकि क्षमता-कुशलता और कलाकारों का अभिनय इस फ़िल्म को एक ऊँचाई प्रदान करता है। अमल नीरद के साथ इसके प्रड्यूसर हैं, फ़हद फ़ाज़िल। गोपाल चिदंबरन तथा श्याम पुष्करन ने मिल कर इसकी कहानी लिखी है। खून-खराबे से भरी यह फ़िल्म हमें जीवन के विषय में गंभीरता से सोचने-विचारने के लिए प्रेरित करती है। फ़िल्म की पूरी कहानी कम्युनिस्ट लीडर वर्णित कर रहा है। इस लीडर की प्रौढ़ भूमिका टी जी रवि ने की है। जबकि युवा कम्युनिस्ट लीडर के रूप में श्रीजित रवि है।

सन १९०० में ब्रिटिश काल में एक ब्रिटिश व्यापारी हैरीसन चाय बागान चलाने के लिए मुन्नार आता है। ताचो का काम चाय बागान में कोड़ा बरसा कर बहुत सारे देसी लोहों से काम करवाना है। मजबूत कद-काठी और मजबूत इरादों वाले एक युवक को हैरीसन अपना गुलाम बना लेता है, ईसाई बना उसका नाम जॉब (हीब्रू में योब) रखता है, उसकी शादी अन्नमा से करवाता है। हैरीसन उपन्यास ‘द ब्रदर्स कारामाज़ोव’ की तर्ज पर जॉब के तीनों बेटों का नाम दिमित्री, इवान तथा अलोसी रखता है। दिमित्री और इवान अपने पिता की तरह बहुत क्रूर हैं, माँ अन्नमा द्वारा पालित होने के कारण अलोसी बहुत नरम दिल तथा विवेकपूर्ण है। हैरीसन पत्नी (रीता मेथन) के वापस अपने देश चली जाने के बाद खूबसूरत तोडा आदिवासी स्त्री काजली (गाँव वाले उसे काला जादू करने वाली मानते हैं) को अपनी रखैल बना लेता है।

जॉब की भूमिका में लाल का अभिनय दृष्टव्य है। कोचीन जाते समय वह एक गुलाम की मुद्रा में है, लेकिन हैरीसन के मरते ही वह मुन्नार से लौटता है तो उसकी चाल बदल चुकी है। आते ही वह काजली को घर से निकाल फ़ेंकता है। काजली जाते-जाते जॉब और उसके पूरे परिवार को शाप दे जाती है। काजली के रूप में लेना अभिलाष को देखना एक अलग अनुभव है। जिस तरह वह मुट्ठी में मिट्टी उठा कर शाप देती है दर्शक दहल जाता है। उन्मादी घोड़े को काबू कर सकने वाली काजली को निकाल फ़ेंक जॉब हैरीसन का घर और उसकी सारी सम्पत्ति हड़प लेता है। उसने हैरीसन की ड्रेस धारण कर ली है। काजली की बेटी मार्था (ईषा श्रावणी) और अलोसी बचपन से दोस्त बन जाते हैं। शांत, एकाकी अलोसी (बालक : सेबिन तथा नेबिस बेनसन, वयस्क : फ़हद फ़ासिल) का एक आदिवासी मित्र चैंबन (विनायकन) है। अलोसी द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लेता है लेकिन कम्युनिस्टों के संपर्क में आ कर १९४६ में नौसेना विद्रोह में शामिल होता है और नौसेना से निकाल दिया जाता है।

आधी ब्रिटिश, आधी तोडा मार्था की शांत, सुंदर सूरत देख कर लगता है हम किसी इंग्लिश फ़िल्म को देख रहे हैं। वह अपनी माँ का शव बैलगाड़ी पर रख, बेलचा ले माँ को दफ़नाने अकेली निकल पड़ती है। कंधे तक झूलते उसके बाल, सीधी-सतर देहयष्टि, सौंदर्य की मूर्ति। फ़िल्म की खासियत है मार्था बिना बोले बहुत कुछ संप्रेषित करती है। अलोसी भी मूक रह कर आँखों से बहुत कुछ कहता है। फ़िल्म की शुरुआत में कैमरा पैन करता हुआ मुन्नार के सौंदर्य को पकड़ता है। भारतीय फ़िल्मों में एक्ट्रीम क्लोजअप का प्रयोग न के बराबर होता है। इस फ़िल्म में इसका खूब प्रयोग हुआ है। कैमरा अंगूर रावुतर (जयसूर्या) की भंगिमा को एक्ट्रीम क्लोजअप में कई बार पकड़ता है। फ़हद फ़ाज़िल और जयसूर्या की इंटेंस और कंट्रोल एक्टिंग फ़िल्म को एक नई ऊँचाई देती है। लाल तो लाल है, उसके अभिनय के विषय में क्या कहने। पहले उसे हम ‘शटर’ में देख आए हैं। अभिनय की बात करें तो थोड़ा झुक कर चलते, मालिक के सामने दुम हिलाते, हाथ बाँध कर खड़े लाज़ेर (सुरजित गोपीनाथ) को देखना होगा। मालिक बदलते हैं लेकिन लाज़ेर का एक ही सिद्धांत है जिधर शक्ति-सत्ता है उसे उसी के साथ खड़े होना है। इंस्पैक्टर बना अनिल मुरली कहीं से अभिनय करता नहीं लगता है। अभिनय के लिए पाउली वल्सन को देखना होगा। कुछ मिनटों के लिए चाय खरीदने वह परदे पर आती है मगर इन्हीं कुछ मिनटों में उसकी आवाज, उसकी मुद्रा इतने रंग दिखाती है कि दंग रह जाना पड़ता है। इतना सहज-स्वाभाविक उसका अभिनय है कि दाँतों तले अँगुली दबानी पड़ती है। ठेठ गँवारूँ स्त्री का अभिनय उसने बड़ी कुशलता से किया है।

दिमित्री पत्नी राहेल (पद्मप्रिया) परिवार का सब हड़पना चाहती है। राहेल और सोने के पिजड़े में कैद पंछी का प्रतीक बहुत सोच-समझ कर प्रयोग किया गया है। होंठों में दबी मुस्कान लिए राहेल खिड़की में बैठ कर बाइनाकुलर से बाहर के दृश्य देखती रहती है। संगीत सुनती, रसदार स्ट्रॉबेरी चूसती, रंगीन पत्रिकाएँ उलटती-पलटती, अपनी सुंदरता को अपना हथियार बनाती राहेल जादूगरनी अंत में आत्यहत्या करती है। जॉब की उम्र बढ़ रही है, जल्द ही उसके हाथ से व्यापार की बागडोर निकल जाती है। जान बचाने के लिए छटपटाता हुआ जॉब और शिकंजे (ट्रैप) में सूअर का प्रतीक बहुत मानीखेज है। ‘बुक ऑफ़ जॉब’ फ़िल्म में जॉब, दिमित्री, इवान, अंगूर, राहेल सब धन पर कुंडली मार कर बैठना चाहते हैं। अंत में सारी संपत्ति का क्या होता है, यह देखना होगा।


सेट डिजाइनिंग में प्रमुख है, हैरिसन का विशाल घर। घर के सामने बनी बालकनी वह ऊँचा स्थान है जहाँ कुर्सी पर बैठ कर मालिक अपनी सत्ता स्थापित करता है। अंगेज के बाद सत्ता के इसी स्थान पर जॉब बैठता है, लेकिन दिमित्री और इवान यहाँ नहीं बैठ पाते हैं। उनके स्थान पर अंगूर इस कुर्सी पर बैठता है और राहेल उसे सर्व करती है। अलोसी कभी भी वहाँ बैठने की इच्छा नहीं रखता है। फ़िल्म का लोकेशन मुन्नार है समुद्र का विस्तार कैमरे की जद में है। मुन्नार प्राकृतिक रूप से अत्यंत खूबसूरत है। महाभारत की झलक लिए ‘द बुक ऑफ़ जॉब’ फ़िल्म की सिनेमाटोग्राफ़ी सारे समय दर्शक को धरती, आकाश, पहाड़, आसमान, जंगल के सौंदर्य से परिचित कराती चलती है। नीला आकाश, नीला समुद्र, मुन्नार की नारंगी-पीली धरती, जंगल की हरियाली, मार्था की सफ़ेद ड्रेस, राहेल की रंगीन साड़ियाँ, सफ़ेद घोड़ा और भयंकर काली रातें, सब निगलने वाला अंधकार। कितने रंग और उनकी छटा है इस फ़िल्म में। एक्शन दृश्य भी बहुत कुशलता के साथ खुद अमल नीरद ने अपने कैमरे से पकड़े हैं। और फ़िल्म की थीम से कदम-ताल करता बैकग्राउंड म्युजिक तो है ही। अलोसी और मार्था पर फ़िल्माया गया गीत-संगीत इस क्रूर फ़िल्म में कोमलता की सृष्टि करता है। सफ़ेद घोड़ा, समुद्र का नीला विस्तार, विशाल बालुका राशि, पियानो, बाथटब, पाल वाली नाव, खूबसूरत छतरी, सब किसी इंग्लिश फ़िल्म की याद दिलाते हैं। विनायक शशिकुमार का गीत-संगीत कर्णप्रिय है। साउंड डिजाइनिंग तापस नायक की है। अलोसी, अंगूर, चेंबन, मार्था तथा बुक ऑफ़ जॉब का थीम म्युजिक नेहा एस नायर ने बनाया जबकि राहेल का थीम म्युजिक उषा उत्थुप का है। ड्रेस डिजाइनिंग का पक्ष कुशलता से समीरा सनीश ने संभाला है।
गोपाल चिदंबरम तथा श्याम पुष्करन की स्क्रिप्ट तथा साबू मोहन के आर्ट डायरेक्शन में बनी यह पूरी फ़िल्म एपिक स्केल पर चित्रित है। नि:संदेह इसे ‘बेनहर’, ‘स्पार्टकस’, ‘मुगल ए आजम’ की श्रेणी में रखा जा सकता है। विंटेज कार, विशाल सजा-धजा घर, कमरों की सजावट, झोपड़ी सब इसे ऐतिहासिक यथार्थ के निकट ले जाते हैं। २ घंटे ३० मिनट की ऐतिहासिक, तकनीकि दृष्टि से सर्वोत्तम इस फ़िल्म को घर में बैठ कर भी बड़े परदे पर ही देखा जाना चाहिए, तभी इसका पूरा प्रभाव पड़ता है और इसका पूरा आनंद आता है।
मस्तमौला चार्ली अब हम अपनी अंतिम मगर इक्कीसवीं सदी की सबसे खूबसूरत मलयालम फ़िल्म ‘चार्ली’ पर आते हैं। इस जादूई फ़िल्म की शैली भी जादूई है। इसका नायक भी जादूई है। चार्ली कहते जिस त्रासद हास्य का बोध होता है उससे यह कोसो दूर है। यह जीवन का उल्लास मनाती फ़िल्म है। फ़िल्म देखते हुए आप ट्रान्स में चले जाते हैं। इस फ़िल्म में नायक के रूप में दुल्खर सुल्तान को देखना आँखों के लिए एक खास ट्रीट है। दुल्खर ने न केवल इस फ़िल्म में अभिनय किया है वरन इसका ट्रेक गीत, ‘सुंदरी पेने, सुंदरी पेने’ भी गाया है। टेसा (पार्वती) के आते ही परदे पर उजास छा जाती है। इसे देखा जाना चाहिए दुल्खर और पार्वती की अदाकारी के लिए। ऐसे लचीले और इतनी रेंज वाले कलाकार कभी-कभी ही नजर आते हैं। रॉयल एनफ़ील्ड पर सवार केनी के रूप में अपर्णा गोपीनाथ बहुत थोड़ी देर के लिए फ़िल्म में आती है मगर उसका अभिनय स्मरणीय बन जाता है। कुंजप्पन (नेदुमुड़ी वेणु) दर्शक के दिल्म में स्थान बना लेता है। हम सबके मन में एक यायावर बैठा है, हम सब बेफ़िक्र हो कर जीने की आकांक्षा रखते हैं, जिसे यह फ़िल्म साकार करती है। चाक्षुष उत्सव मनाती इस फ़िल्म का संगीत जितना मोहित करता है इसकी फ़ोटोग्राफ़ी भी उतनी ही लुभावनी है। शक नहीं कि इसे केरल राज्य के ४६ वें समारोह में फ़िल्म के सर्वोत्तम नायक (दुल्खर सल्मान), सर्वोत्तम नायिका (पार्वती), सर्वोत्तम निर्देशन (मार्टिन प्रकाट) और सर्वोत्तम फ़ोटोग्राफ़ी (जोमोन टी जॉन) सहित कुल आठ पुरस्कार मिले।
घर वालों की तय की शादी से बचने के लिए ग्राफ़िक आर्टिस्ट टेसा घर छोड़ कर जिस घर में रहने आती है वहाँ पहले कोई और रह रहा था। कमरा बहुत बेतरतीबी से भरा हुआ था। सफ़ाई के दौरान उसे वहाँ रहने वाले यायावर की झलक मिलती है और इसके बाद की पूरी कहानी उस यायावार की खोज है। उसे इस व्यक्ति की आर्टबुक मिलती है जिसमें उसने अधूरी कहानी कही है। कहानी के बाकी हिस्से को पूरा करने का बीड़ा टेसा उठाती है। यह व्यक्ति बेफ़िक्र जीवन बिताता है मगर दूसरों की फ़िक्र करता है। टेसा इस खोज में जितने लोगों से मिलती है सब उसे इस व्यक्ति के एक नए अनोखे रूप से परिचित कराते हैं। दर्शाक इस व्यक्ति को ज्यादा-से-ज्यादा जानना चाहता है। फ़िल्म उसकी झलक दिखाती चलती है। रंगीन छींटदार शर्ट और थोड़ी-सी बेतरतीब दाढ़ी वाले इस प्यारे चमत्कारिक इंसान को प्यार किए बिना आप नहीं रह सकते हैं। वह लोगों की जिंदगी में अचानक अवतरित हो कर उनकी समस्या सुलझाता है और फ़िर गायब हो जाता है।
जोमोन टी जॉन की फ़ोटोग्राफ़ी छोटी-से-छोटी बात अपने कैमरे से पकड़ती है। गोपी सुंदर का कर्णप्रिय संगीत के साथ ‘बुक ऑफ़ जॉब’ फ़ेम की समीरा सनीश का कोस्ट्यूम डिजाइन फ़िल्म के मूड और सौंदर्य दोनों में इजाफ़ा करता है। चरित्रानुकूल ड्रेस फ़िल्म में जान डाल देती है। यायावरी के अनुकूल दुल्खर की ड्रेस और उसकी एक्ससरीज केरल के युवाओं की क्रेज बन गई। बैकपैक लिए यायावर चमकीली टेसा की ड्रेस भी बहुत आकर्षक है। जयश्री लक्ष्मी नारायणन की सृजनात्मक प्रतिभा सेट डिजाइन में नजर आती है।
इक्कीसवीं सदी की मलयालम फ़िल्मों ने वैश्विक पहचान बनाई है और ये दर्शकों तथा समीक्षकों दोनों को लुभा रही हैं। आज मलयालम सिनेमा अपने उत्कर्ष दौर में है।
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विजय शर्मा का एक लेख और नीचे लिंक पर पढ़िए

कादम्बरी: जीवन का सच
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/08/dr.html?m=1

सुमन शर्मा की कविताएं



सुमन शर्मा 



"धूप में छाँव"

हर कोई चाहता है
धूप में छाया
और ठंढी बयार
चाहता है सफ़र की थकान के बाद
विश्राम के लिए शीतल ठौर

लेकिन इसके लिए रोपना होता है एक पौधा
बचाना होता है उसे
हर विपरीत मौसम के दुष्प्रभाव से
उन कीट-पतंगों से
और खर-पतवार से
जो प्रभावित कर सकते हैं उसके समुचित विकास को

पौधे के लिए
ज़रूरी है
धरती और माली भी
ताकि पौधा बने हरा-भरा
घना छायादार वृक्ष...
छांव में जिसकी बैठे रहें
माली और व्याकुल बटोही भी।





"नियंता"

मैंने तो बस चाहा तुम्हें
तुमसे हृदयातल से प्रेम किया
जैसे प्रत्येक साधारण स्त्री
करती है अपने स्वप्न पुरूष से ..
जैसे करती रही
मुझ से पहले  एक  औरत
मां बन कर
उसी ने सौंपी थी यह विरासत मुझे...
तुमने तो कुछ क्षण के लिए
सिर्फ मेरी कामना ही की
कभी नही  चाहा
न प्रेम किया कभी
मेरे प्रेमी तो नहीं बन पाए
हाँ बन गए नियंता
मेरी समस्त भावनाओं के..
नियंत्रित करने लगे मेरे मन को
मेरा सुख-दुःख, खुशी-ग़म
हँसना-रोना है सब कुछ
तुम्हारे रहमो-करम पर
मेरे आंसुओं पर तुम्हारा  आधिपत्य है
और मुस्कान जी रही है
तुम्हारी ही इच्छा पर!!!










" तुम्हारी हँसी...।"

सांझ ढलने लगी है
आकाश में वापस लौटते पक्षियों की आवाज़ सुन
याद आ गई तुम्हारी हँसी
हर तरफ खिल आये हों जैसे मोंगरे के फूल
और मैं धीरे-धीरे डूब रही हूँ
मोंगरे की महक में।

सुनी है कभी हँसी अपनी?
सुनी तो कितनो ने होगी
लेकिन तुम्हारे चेहरे की चमक के आगे
गौण हो गई इसकी आवाज़
क्योंकि प्रकाश की गति ध्वनि से तीव्र होती है न?
तभी तो बिजली की चमक के बाद ही सुनाई देती है बादलों की गड़गड़ाहट..!

मैं भी तो सुनी कितने दफ़ा
लेकिन आज ध्वनि की गति तीव्र थी शायद
और तुम्हारी हँसी काबिज हो गई
मन मन्दिर में बजते स्वर्ण घण्टियों के पवित्र स्वर की तरह

तुम्हारी हँसी बच्चों जैसी मासूम है
सक्षम नहीं  इस पर कभी उम्र
अपनी सीमा निर्धारण करने में
पवित्र है प्रार्थना जैसी
कोमल है एहसासों की तरह...!

बेलौस बहती दरिया सी हँसी तुम्हारी
समाहित कर लेती है सारी उदासी
ग़म पिघलने लगते हैं
दर्द सारे तब्दील हो जाते मुस्कराहटों में

तुम्हारी हँसी तरंगों की तरह छूकर
झंकृत कर देती है देह के तार-तार
और बजने लगता है मदिर संगीत

तुम्हारी हँसी की गहराई में डूब जाते हैं आँसुओ के समंदर
सघनता से गुज़र भी न पाता दुःखों का आभास
जी उठे ख्वाब सारे
सजीव हो जाएं मुरझाई उम्मीदें

तुम्हारी हँसी सुन गाते हैं खगदल
चाँद मुस्कराता है
किलकता है सूरज
खुशी की लालिमा फैल जाती है दसों दिशाओं
और होता है जीवन का नया सवेरा...!!






मेरी प्रत्येक उत्सुकता सिर्फ तुमसे तुम तक!

न सूर्य की आग्नेयता में
न चन्द्र की शीतलता में
न पुष्पों की कोमलता में
न प्रकृति की रमणीयता में
मेरी प्रत्येक उत्सुकता,सिर्फ तुमसे तुम तक!

न दिन के निकलने में
न रात के ढलने में
न पवन के चलने में
न नदियों के बहने में
मेरी प्रत्येक उत्सुकता,सिर्फ तुमसे तुम तक!

न पक्षियों के चहकने में
न कलियों के चटखने में
न बादल के गरजने में
न सागर के छलकने में
मेरी प्रत्येक उत्सुकता,सिर्फ तुमसे तुम तक!

न श्वासों की अनवर्तता में
न अश्रु की क्षारकता में
न समय की क्षणभंगुरता में
न जीवन की नश्वरता में
मेरी प्रत्येक उत्सुकता,सिर्फ तुमसे तुम तक!!










"फिर कभी नहीं...…..।"
     
तुम्हें एक नज़र देखने के लिए
तरसती हैं आँखें
काश ! तुम समझ पाते
जिन्दगी  के  कितने हसीन पल
मैं तुम्हें सौंपती हूँ l
जानती हूँ
तुम्हारा हर पल कीमती है
पर मेरा क्या
मैं  तुम्हारे खाली वक्त के लिए
खाली वक़्त भर हूँ
अर्थहीन ...

बहुत बार चाहा
चली जाऊँ तुमसे बहुत दूर
जहाँ से मेरी सदा भी आये न तुम तक
लेकिन....
कुछ पगडंडियों के मुहानों पर
नागफणियाँ है
कुछ रास्तों पर
आगे ना बढ़ने की चेतावनी
तुमने कहां छोड़ी कोई राह...
कहीं से भी चलूँ, तुम तक पहुँच ही जाती हूँ।

लेकिन....
अगर कभी मिल गईं जो कोई राह
तुम तक लौटकर फिर नहीं आउंगी
फिर कभी नहीं...





"हर मौसम की तासीर में तुम हो"

कई दिनों के उमस  के बाद
आज शाम ठंढी हवा के झोकों ने
बदल दिया हो जैसे
शहर के मौसम का मिज़ाज

जल्दी से ऑन करती हूँ टीवी
और देखती हूँ मौसम का हाल
क्या तुम्हारे शहर से होकर
आ रही है ये हवा?

भागती हूँ सीढ़ियों पर
हाँफती हुई पहुँच जाती हूँ छत पर
पूर्णिमा का चाँद
अपनी समूर्ण कलाओं से पूर्ण
खिला है आसमान पर

ठंढी हवा के झोंके मेरे बालों को बिखेर देते हैं
चेहरे पर मेरे
उन्हें कानों के पीछे करते जल्दी से
अपने दोनों बाहें फैलाकर
आँखों को बंद कर
भरती हूँ गहरी-गहरी सांसें

शीतलता की तासीर लिए
एक भीनी सुगंध भर आती है
मेरे भीतर
पहचानती हूँ  जिसे जन्मों से
मेरा अंतर्मन तक महक उठता है
और रोम-रोम शीतल हो जाती हूँ मैं.....





तुम्हारा एहसास

तुम्हारे एहसास भर से ही
महक उठता है रोम-रोम
सप्त-रंगी इन्द्र धनुष से
निखर उठते हैं सूखे होंठ ।

मेरी हंसी में
गूँजने लगती है
नदियों की कलकल
मिलन की आस में आतुर
झूम उठती हूं लहर -लहर ।

समूचे जंगल की मदमस्त लताएं
लिपट जाती हैं
तुम्हारे आगोश की तरह
और  मैं समेट लेती हूं
खेतों की सारी हरियाली
अपने दुपट्टे में।

काली स्याह रात
काज़ल की तरह
उतर आती है
आंखों में।

गुलाबी रंगत से
सुर्ख हो जाते हैं
गाल मेरे।

मेरे ख्यालों के उपवन में
खिलते हैं ख्वाब तुम्हारे
और
बन जाता है गुलशन
यह निर्जन सा जीवन ।






" जीना है तुम्हारे प्रेम में .."

नहीं नहीं मुझे नहीं मरना अभी
जीना है मुझे तुम्हारे साथ तुम्हारे प्रेम में!
अभी तो उगने लगे हैं ख्वाहिशों को हकीकतों के पंख
उड़ना है मुझे तुम्हारा हाथ थामे
नापना है मुझे तुम्हारे-मेरे हिस्से का आसमान

अभी-अभी तो शुक्लपक्ष का चाँद खिला है
चाँदनी के उजास में
ख्वाबों की तितलियों ने देखा है
नींद में महकता गुलशन

अभी तो सीख रही मुस्कराना
हँसी के झरने की कलकल सुनना है मुझे
भीगना है अभी उन एहसासों की बारिश में
जिनका इज़हार करना अभी-अभी तो सीख रहे हो

अभी-अभी तो मुख़्तसर हुआ है जन्मों का इंतज़ार
रफ़्ता-रफ़्ता कदम दर कदम
तुम आ रहे हो मुझ तक

अभी तो तुम्हारे प्यार के ख़ज़ाने से
दिल की तिज़ोरी को भर लेने के दिन हैं
खरीद लेनी है जिससे दुनिया की सारी खुशियां

अभी अभी तो सौपी है तुमने अपने मन की मिल्कियत
अभी तो करना है हुकूमत तुम्हारे दिल के सम्राज्य पर
और काबिज़ होना है शीर्ष पर बादशाहों के क्रम में

मुझे नहीं मरना,जीना है तुम्हारे प्रेम में......!



     



"तुमसे मोह सृजन है"

कहते हैं कि मोह से छूट जाना
मोक्ष की प्राप्ति है
जिससे कि
छूट जाता है मनुष्य
सारे दुःखों से और
हो जाता है आजाद
हर सांसारिक ताप से

मुक्त हो जाता है जीवन मृत्यु के चक्र से
आख़िर सभी दुःखों का हेतु मोह ही तो है
दुनियां में आवागमन के सफ़र का कारण भी!

लेकिन....
तुम्हारे मोह से छूटना
छूट जाना है सुखों का
रुठ जाना है खुशियों का
निमंत्रित करना है हर सांसारिक ताप!
तुम्हारे मोह से छूटना, मेरी कविता का मर जाना है!

तुमसे मोह सृजन है
संगीत है
उत्सव है
रंग है
जीवन है

तुमसे बंधन आज़ादी है
तुम पर मरना ज़िंदगी!
तुम्हारा साथ है तो धरती स्वर्ग है!
तुमसे मोह मुक्ति!



         



"आँखें बयां करती हैं"

बहुत कुछ चल रहा मन में
रफ़्ता-रफ़्ता रेंगती रात के साथ ही
उथल पुथल है भीतर इतना
कि लगता है जैसे
नींद आँखों के आस पास भी
नहीं फटकने पाएगी..

नींद आती तो है
लेकिन उसका बस नहीं चलता किसी भी तरह
नहीं जीत पाती चेतना से
क्योंकि नहीं चाहती मैं नींद
जिसकी गहराई में
कभी कभी विस्मृत हो जाता है वो
जिसे भूलने की कल्पना भी असह्य होती है....

लेकिन उस संज्ञा शून्यता के बीच
औचक ही आती है एक सदा सी
और आँखों से नींद ऐसे छिटक के भागती है
जैसे कि छू जाता है बिजली का नंगा तार
या कि बेखयाली से पड़ जाता है गर्म तवे पर पाँव....

मेरी आँखें बयां करती हैं
कहानी मेरी रतजगों की
कि कैसे आखों के इर्दगिर्द पड़े
इन स्याह गड्ढों में डूबी हैं
विरह की कितनी ही काली रातें...




-सुमन शर्मा
लखनऊ,उत्तर प्रदेश