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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 जून, 2018

मैं क्यों लिखती हॅूं

 उषाकिरण खान

यह प्रश्न बड़ा मौजॅूं है किसी भी लेखक के लिए जो हिन्दी और मैथिली में लिखता है, वह भी लम्बे समय से। आश्चर्य का विषय है कि तमाम अधिक यशस्वी और आकर्षक कार्य है दुनिया में करने को तब यह लेखनी ही क्यों हाथ में पकड़ कर बैठी हॅूं ।

उषाकिरण खान


हिन्दी में लेखक को कोई खास आर्थिक सुविधा नहीं मिलती, मैथिली में लिखने से लेकर प्रकाशन वितरण सब स्वयं करना पड़ता है। ऐसे में नौकरी के पैसे से घर चलाने बचाने और जीवन सरलता से जीने के बाद जो बचे उसे लेखन प्रकाशन में झोंक देना कहॉं की होशियारी है? परन्तु यदि होशियार ही हों तो क्यों बने हिन्दी और मैथिली के लेखक? सो सबकुछ पर अपनी संवेदनशील प्रवृति हावी हो गई । हमारे गांधीवादी पिता के पास हजारों किताबों का जखीरा था। बिना किसी कॉलेज की डिग्री के उन्हें हिन्दी, अंगेजी, बंगला, उर्दू उनकी लिपि में पढ़नी आती थी। क्योंकि मैंने किताबें और पत्रिकायें देखी थीं। बहुत छोटी थी तब बंगाली टोला वाले अपने आंगन में दीमक खाई किताबों का अम्बार उन्हें जलाते और रोते देखा था । मॉं उनके जेल जाने के बाद बच्चों को देखती, खेती कराती किताबों का रख-रखाव न कर सकीं। परन्तु बाद में भी पकरिया में पड़े विशाल लकड़ी की आलमारी कई भाषाओं की किताबों से ठसाठस भरी थीं। वह सब पाठक तो बना ही गया कालान्तर में लेखक बनने की प्रेरणा भी दे गया । अल्पायु में जिस घर और जिस लड़कें से विवाह हुआ उसकी पहली और आखिरी शर्त्त पढ़ना ही रहा। साहित्य, समाज और राजनीतिक सभी प्रकार की पत्रिकायें खरीदने का स्वभाव दोनों अभिभावकों के यहॉं रहा। कवि, लेखक, सम्पादक इत्यादि खादी भंडार और गांधी आश्रम के सदा के आग्रही रहे। सो हम पारंपरिक विद्याव्सनी हो गये।
पढ़ने वाले संवेदनशील जन की मार्गदर्शक होती हैं किताबें । मैं कवितायें लिखने लगी, स्कूल में छोटे नाटकों के स्क्रिप्ट डायलॉग लिखने लगी। वह सब स्वान्तःसुखाय ही था। कवितायें बहुत दिनों तक लिखीं। शिक्षा दीक्षा खत्म, बच्चे पालना शुरू! बच्चे भी जब स्कूल जाने लगे तब गद्य की ओर मुड़ी। मन में आया कि जब भी कथा लिखॅूंगी अपने पिता और माता की कर्मभूमि कोसी के तटबन्ध के भीतर के डूब क्षेत्र के रहवासियों की व्यथा कथा ही लिखॅूंगी। वैसे तो मिथिला की कथा पाठक फनीश्वरनाथ रेणु और नागार्जुन से सुन चुके थे परन्तु वे सभी पक्की सड़क के किनारे के गॉंव के वासी थे। उन्हें डूब का इतना बड़ा अनुभव नहीं था जो मुझे सद्यः है। सो मैंने उनकी कथा लिखने का मन बनाया। मैं जिस गॉंव में बड़ी हुई वहॉं आज जिसे आप दलित पिछड़े कहते हैं उसी की हिन्दू मुस्लिम आबादी है। सो उनकी कथा पूर्णरूप से कोई लेकर नहीं आया था। उनका रहन-सहन उनके रीति रिवाज, खान-पान, जीवन पद्धति अलग है। उनकी मान्यतायें अलग हैं । उनके दुःख सुख भी अलग हैं। धर्मयुग जैसी बहुप्रसारित पत्रिका ने मुझे घर घर पहुॅंचा दिया। उत्साहवर्धन होता रहा । मैंने उस समय के लेखकों का हसरत भी पाल लिया था कि पहली कहानी ‘‘कहानी’’ पत्रिका में छपे जिसे श्री श्रीपत राय जी इलाहाबाद से निकालते थे। सो पहली कहानी ‘‘ऑंखें, स्निग्ध तरल और बहुरंगीमन’’ सन् 1978 में कहानी में ही छपी थी वह एक शहरी कहानी है।
दुःख और समस्याओं का अंत नहीं । खेत उपजाने वाले मजदूर मिथिला में भूखे नंगे कभी नहीं रहे क्योंकि वह ऊर्वर प्रदेश रहा है। उनकी तकलीफ थी शुद्ध पेय जल की, स्वास्थ्य केन्द्र की, बाढ़ आने पर नाव न रहने की जो उत्तरोत्तर बढ़ती गई । मेरे बाबूजी वहॉं गये तब देखा लोग बहती नदी का पानी ही पीते हैं । ऐसे तो पानी साफ ही रहता, पर बाढ़ आने पर वह पानी मिट्टी बालू से युक्त होता। घड़ों में पानी भरकर स्थिर रख दिया जाता, जब बालू मिट्टी बैठ जाता तब निथार कर लोग पानी पीते । मलेरिया से ग्रस्त लोग, हैजा से साफ होते गॉंव के गॉंव और कहीं से कोई मदद नहीं। पहला चापाकल उन्होंने गड़वाया। कुछ सम्पन्न यादवों को लेकर दरभंगा आये, चापाकल दिलवाया। आपको लगेगा कि क्या कुएॅं नहीं थे? नहीं थे, क्योंकि बालू और फुलपॉंक में कुएॅं कहॉं ? एक तो दो फीट पर पानी आ जाता दूसरा जल्दी ही भथ भी जाता। पानी बहती कोसी में कम न था। जवान तब भी बंगाला, मोरंग (नेपाल) काम करने जाते । अधिकतर पाट की धुलाई करने जाते । गॉंव में बूढ़े, बीमार और बच्चे होते। स्त्रियॉं तो होती ही । उनके जिम्मे परिवार की देखभाल थी। वे ही गाय भैंसों का चारा काटने नाव से जाती; बीमारों को नाव पर बैठा कर स्त्रियॉं ही सुदूर रसियारी नामक गॉंव के स्वास्थ्य केन्द्र ले जातीं ऐसे मजलूमों; जॉंबाज स्त्रियों की कहानी कहकर मैंने हिन्दी जगत का ध्यान आकृष्ट किया। औरतों का रोना धोना बहुत अधिक मेरी कहानियों का विषय नहीं है क्योंकि मैं उस समाज से हॅूं जहॉं सारे लोग मेहनतकश हैं । उस क्षेत्र को शब्द दिया ।
मैं असावधान हॅूं, मेरे ऊपर लिखी गयी, किताबों के ऊपर लिखी गयी सामग्री मेरे पास सुरक्षित नहीं है । यह मुझसे नहीं हो पाता । मैं बस लिखती हॅूं । अब लेखन आदत हो गई है । यही ओढ़ना बिछौना है । कभी कभी लेखन से थक जाती हॅूं पर ऊबती नहीं । लिखने से ज्यादा अच्छा लगता है पढ़ना। आराम से लेटकर पढ़ती रहॅूं यह सुख परम अनूपा। परन्तु लेखन कहॉं छूटता।
समय के साथ परिस्थितियॉं बदल रही हैं । पंचायती राज हुआ, राज में स्त्रियों को 33 प्रतिशत फिर 50 प्रतिशत आरक्षण मिला। पहले स्त्रियों के पति, ससुर, भाई, पिता काम करते स्त्रियॉं अंगूठा निशान लगाती, अब घूंघट उठ चुका है। स्त्रियॉं मात्र ठप्पे लगाने वाली नहीं हैं । कुछ अवश्य हैं। गॉंव में सड़कें बनती हैं; बरसात में दह-भॅंस जाती हैं, मोटर साईकिल और गाड़ी भी चल पड़ी है। सो मैं बदलते समय की कहानी लिखती हॅूं । कुछ लड़कियॉं पढ़ रहीं हैं । कुछ लड़के पढ़ चुके हैं । दलित होते हुए भी किसी को सरकारी स्कूल के मास्टर की नौकरी भी नहीं मिली । कई युवकों ने गॉंवों में ही छात्रों को पढ़ाने के लिए खानगी स्कूल खोल लिया है। बिजली नहीं गई है तो अपने अपने जेनरेटर से बल्ब के नाम पर पैसे लेकर स्वयं मुहय्या करने लगे हैं। अभी भी हमारे उस खास इलाके में नाव से नदी पार कर जाते हैं, हमारे जैसे बुजुर्ग बैलगाड़ी में चढ़कर गॉंव के दालान छूते हैं ।  बच्चे और जवान कूदतें फॉंदते या मोटर साईकिल पर लद कर पहुॅंच जाते हैं ।
आपको लगता है कि मैं उस यथार्थ को लिखने से कभी बच पाउंगी? बहुत बदलाव हुए हैं । जिबछी की झुल्ला की जेब में बीड़ी माचिस नहीं मोबाईल रहता है, परदेस कमाने वाले बेटे सेबात करने को, यह कहने को कि -
‘‘बौआ रे तुम्हारी समदाही दूनू बच्चा को ठीक से न नहलाती है, न खिलाती है मगर तुम फिकर न करना, तुम्हारी मॉं अभी जिन्दा है वैसी वहू को ठीक करने को। हम भी दिन भर उसको गाय बकरी चराने बाधबोन भेज देते हैं।’’
कैसे न लिखॅूं इस मोबाइल वार्त्ताओं के किस्से ?
००



7 टिप्‍पणियां:

  1. धर्मयुग के कुछ पुराने पन्ने याद आ रहे हैं।

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  2. सादगी और वास्तविकताओं के करीब पहुंचकर लिखा गया उषा जी का यह आलेख अच्छा लगा ।

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  3. जितनी सहज उषाजी की कहानी उतनी ही सहज उसकी बयानी।

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  4. बहुत सरलता से कह दिया कितना कुछ..

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  5. Yatharth me Sadgee aur Saundarya. Sangharsh karne aur Aage badhne hetu Disha nirdesh

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