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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 जून, 2018

एक मां की डायरी  


हस्त –लेखन पर

जया घिल्डियाल 


“स्मूथ राइड” तो बिलकुल नहीं था तुम्हारे साथ ,ये सत्रह साल का सफ़र ....

हाँ ! एक ऐसी यात्रा ज़रूर थी , जिसने मुझे इंसान के तौर पर  ख़ुद को ख़ूब उलट –पलट कर जानने का मौका दिया | एकदम स्याह अंधेरी किसी खाई में डूबते जाने का भय सा कभी और कभी शिखर पर चढ़ कर जीत के परचम लहराने वाले उत्सव जैसे पल भी , तुमने ही दिए |

जया घिल्डियाल


तुम थोड़ा तो अलग थे सब बच्चों से , लेकिन समाज की भी जिद होती है कि सब एक  से हों , भेडें बने सब ..एक लीक पर चलने वाली , किसी एक का अनुसरण करने वाली भेडें , भोली-भाली बस में-में करने वाली भेडें ।

बहुत बडा़ संघर्ष था  । लेकिन मन के हारे हार ,मन के जीते जीत ....और हम जीत गए !

ये जीत इसलिए संभव हुई कि जिद्दी मैं भी कम नहीं थी ।  तुम्हारी खराब लिखावट  को लेकर कितनी पेरेंट्स मिटिंग्स में लेक्चर सुने । ऐसा नहीं  कि कोशिश नहीं की तुमने या मैंने लिखावट  सुधारने की । लेकिन वो हुआ ही नहीं ,  क्योंकि  वो इस तरह से होना मुश्किल था  |

मैं जानती हूँ तुम्हें |  तुम्हारे शब्दों को लिखने का तरीका , चीजों को देखने , पढ़ने , समझने का नजरिया , सब  अलग है ।

लिखावट के लिए विचारों का फ्रेम ,किसी भाव या अवधारणा को प्रकट करने कि क्षमता  और आपकी उँगलियाँ ,हाथों का समायोजन ; सब एक साथ चलता है | कैसे एक विशेष तरीके से पेपर पर शब्द रचना हो, यह इन सब कारकों पर भी तो निर्भर करता है |

ये सब जानने और समझने के बीच मुझे कहीं भी नहीं लगा कि यह तुम्हारी किसी लापरवाही कि वजह से हो रहा हो | क्योंकि कहीं यह तुम्हारे चीज़ों को देखने के नज़रिए या कहे visual perceptual से भी सम्बंधित था |

कहते भी हैं कि मानसिक भाषा का ही लिखित भाषा में अनुवाद है ,शब्द रचना | हमारी  मन:स्थिति पर बहुत हद तक निर्भर करती है लिखावट |

कोई टीचर , कोई स्कूल तुमसे ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है | ये बात देर से समझ आई ; लेकिन आ गई । इक वक्त था कि मैं भी निराश हो जाती ,रो पड़ती थी । लेकिन कुछ साल पहले से सब समझ आने लगा, मुझे अपनी उस जिद पर फक्र है और तुम पर भी ।
टीचर्स जब बाक़ी बच्चों की सुंदर लेख वाली कॉपियाँ दिखातीं , तो लगता जैसे कोई  उंगलियों पर गिन- गिन तुम्हारी कमजोरियाँ बता रहा हो ।  शाप सा दे रहा हो कि इसका कुछ नहीं हो सकता ।  लेकिन कहीं तो जिद्दी मन था कि नहीं माना , कतई तैयार नहीं हुआ कि एक सुंदर लिखावट ही आधार है शिक्षा का , ज्ञान का और सुखी भविष्य का ( कम से कम उस वक़्त तो यही एहसास दिलाया जाता था न !)  उस वक्त तो वह बच्चे के विषय के प्रति रूचि ,ज्ञान के प्रति जिज्ञासा और उसकी समझ से भी ऊपर की बात बन गई थी।






गाँधी जी तक से जिद कर बैठी थी मैं ,यह बात तो वो भी नहीं मनवा पाए |  जब उनकी जीवनी पढ़ रही थी और सुंदर  लिखावट का महत्व वाला  टॉपिक आया ।  तुम्हें  भी पढ़ कर सुनाया । तब तुम छोटे थे, ये सब तो नहीं समझ पाए कि गांधी जी ने क्या महत्व बताया । लेकिन इतना जरूर  समझ गए कि गांधी जी कोई  हैं ,वो जो भी कहते हैं  अच्छा कहते हैं | मम्मी की तरह उनका भी कहना मानना चाहिए । छोटे से ,प्यारे से तुम ,फिर परेशान हो  गए थे और फिर कॉपी लिए सुलेख लिखने बैठ गए | लेकिन वो नहीं हुआ क्योंकि तुम्हारा चीज़ों को देखने , समझने और उसकी विवेचना करने के तरीका आमजन जैसा नहीं है | ये अलग है |

Impossible says I am possible जैसे कोट्स को भी कभी "सूखा कचरा" वाले डस्टबिन में डाल देना चाहिए । हो सकता है कि कभी रिसाइकल या रिन्यू हो कर वापस आए ।
लेकिन कभी तो सच में सब प्रयास छोड़ कर , बस बहाव के साथ बहना चाहिए ।
तुम आज जीवन में बहुत अच्छा कर रहे हो | मुझे गर्व है तुम पर | मेरा खुद पर भरोसा और बढ़ा है कि मैंने सही फैसले लिए ,दुनिया को नहीं बल्कि तुमको देखा |

इक बच्चा दुनियादारी और उसके नियमों पर खरा उतरने वाला औज़ार नहीं  है ।
उसे देखो तो तितली, फूल, बादल ,समन्दर ,अंतरिक्ष , आकाशगंगा  ये सब याद आना चाहिए।
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यौन शिक्षा और मां की भूमिका


स्त्री के मां रूप में उसकी भूमिका के हर पहलुओं  पर बातें होती है | लेकिन जिस तेज़ी से समय बदल रहा है और बच्चे प्री-टीन में उन अनुभवों से गुजर रहें है; जो कभी वयस्क होने पर मालूम होती थी । तब ऐसे समय में यौन शिक्षा और यौन व्यवहार को लेकर  ,कैसे मां अपनी भूमिका कैसे निर्धारित करें?
यौन शिक्षा के प्रमुख हिस्सों में जो सबसे महत्वपूर्ण है , वह बच्चे को नैतिक और भावनात्मक जिम्मेदारियां सीखाना है । यह और भी कठिन तब हो जाता है , जब आप बेटों की मां हों । जब भी बलात्कार की कोई घटना होती है तो मैं यही सोचती हूँ कि यह सेक्सुअल  ऐक्ट तो नहीं रहा होगा | इसमें मनौवैज्ञानिक पहलुओं  से ले कर , नैतिक पहलुओं का बहुत बडा रोल रहा होगा । किसी भी बलात्कार की घटना से जैसे किसी बेटी के माता पिता सिहर जाते है ,वहीं बेटों के माता पिता भी सिहरते है , शायद कम ही लोग वाकिफ़ होंगे इससे । लगता है, ईश्वर ना करे कभी मेरे बेटे से किसी भी स्त्री का दिल किसी भी रूप में दुखे ।
यहाँ फिर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ जाती है मां पर ।
 यौन शिक्षा का मतलब अधिकतर हम सिर्फ मनुष्य की यौन गतिविधियों तक ही सीमित रखते है ।जो लोग इसका विरोध करते हैं , वह भी इसी दृष्टि तक खुद को सीमित रखते है। यह सच है कि यौन व्यवहार प्राकृतिक एंव सामान्य गतिविधियों  का ही हिस्सा है । जो जानवरों में भी उतना ही सामान्य है। अब, क्योंकि मनुष्य "थिंकिंग बींग " है , तो समस्या भी यही से शुरू है ।
यौन शिक्षा के कुछ हिस्से जैसे- यौन शरीर रचना, प्रजनन स्वस्थ, गर्भनिरोध सहित कई विषय स्कूल के पाठ्यक्रम में हैँ । विज्ञान की अध्यापिका रही हूँ, तो यह सारे विषय मैने पढाये भी हैं  और बच्चे खुले विचारों से, सहज भाव से उनको पढते भी हैं। हम वयस्क ही विषय को जटिल बनाते है । गर्भनिरोधकों के उच्चारण में जब मैं झिझकती थी,, तो देखा बच्चे सहज भाव से शुद्ध वैज्ञानिक पक्ष के साथ उच्चारण भी करते और विवरण भी।
लेकिन यौन शिक्षा के नैतिक, भावनात्मक, यौन संयम एंव यौन अधिकार , यह सारे विषय तो मां को ही पढाने हैं , फिर आप विज्ञान पढें हो या ना हों। यह सारे विषय जितने जटिल हैँ, देखा जाये उतने ही सरल । सरल ऐसे कि उच्चतम नैतिक आर्दश तो आप को ही स्थापित करने है,आप ही प्रयोगशाला, आप ही प्रयोग ।
यौन गतिविधियाँ तकनीकी चीजें है । आसानी से सीखने, समझने वाली ।लेकिन अफसोस एंव चिंताजनक बात ये है कि हम उससे ऊपर नहीं उठे हैं  ।आप खुद ही महसूस करिए, लेख में जितनी जगह “ यौन” शब्द आयेगा, हमारा  मस्तिष्क सिर्फ “यौन गतिविधी ” पर ही अटकेगा , क्योंकि इसको बचपन से ऐसे ही प्रशिक्षित किया गया है । समस्या यहीं पर है । अभी तो हम तकनीकी समस्याओं पर ही है ।बच्चे को अपने शरीर के बारे में ही वैज्ञानिक ढंग से पता नहीं ,तो आप उससे यौन संयम विषय पर बात नहीं कर सकते। उसके फायदे -नुकसान आदि कैसे बता सकते हैं  ?

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अगर आप बेटे की मां हैं , तो प्रश्न यह है कि उसके बचपन से ही आप कितना और किस सीमा तक उससे  से संवाद स्थापित कर पाती थीं । एक दिन में या झटके से इन विषयों पर संवाद के लिये ,ना आप तैयार हो पायेगी ,ना ही बच्चा । परन्तु आज और अभी से उसके रोजमर्रा के विषयों पर बातें कर, आगे संवाद आसान बना सकते हैँ ।
प्रश्न उठता है कि बेटे से जरूरत ही क्या है इन विषयों पर बात करने की?
 तो जरूरत ये है :
-कि उसके पास स्मार्ट फोन है या उसके पास ना हो, तो दोस्तों के पास है। बच्चे अपने स्कूल का पेंडिंग वर्क वटस्ऐप से मंगाते है ,उसमें इंटरनैट चाहिए  या गूगल सर्च करते है  प्रोजेक्ट वर्क के लिये , उस में भी इंटरनैट चाहिए ।
-गाने सर्च करते हुए , डाउनलोड करते हुए , आपने भी देखा होगा कि वहाँ अक्सर पोर्न साइट्स के लिंक होते है या कोई विज्ञापन जो आपको उन साइट्स तक ले जाए ..।
-यहाँ तक कि अगर आपने फोन पर ओनलाइन या ओफलाइन डिक्शनरी डाउनलोड की है ,इंटरनैट खुला होने पर कभीकभार वो भी आपत्तिजनक विज्ञापन  दिखाते है  ।
-यहाँ तक कि आपका बच्चा कार्टून देख रहा है किसी साईट पर ,  तब भी ये साइट्स ब्लिंक कर जाती हैं । अगर बच्चा जानबूझकर नहीं भी खोलता यह साइट्स , तो उसके सामने यह सब उपलब्ध है।
उसका अबोध और जिज्ञासु मन आज नहीं तो कल वहाँ जायेगा ही। फिर आपके पास कोई विकल्प कहां बचता है ।
यहाँ हम बात कर रहे हैं प्री टीन की । ग्यारह से तेरह   साल के बच्चे पर क्या असर हो सकता है और उसके भविष्य के नैतिक मूल्य क्या आकार ले सकते है ?
 अगर हम बात नहीं करेंगे तो कैसे चलेगा ? फिर से अधूरी शिक्षा के साथ हमारा बच्चा वयस्कों की दुनिया में आ जायेगा | माता- पिता  "किसी लडक़ी /लडके की तरफ आंख उठा के भी ना देखना " , टाईप नसीहत देकर  उसे परिचय करवाते हैं  समाज से। और यारों-दोस्तों के बीच आपका बच्चा क्या-क्या नहीं देख और कर रहा, इस बात पर हम आंखें मूंद लेते हैं ।
मैं भी दो बेटों की मां हूँ । जब मुझे पहली बार पता चला कि मेरे बेटे को पता चल चुका है इस दुनिया का ... वो कुछ कार्टून पोर्न साइट्स थी। तो दिल दहल सा गया और पूरा शरीर ज्वर से तप गया जैसे ।
अब मां के साथ परेशानी यह है कि वह अपने बच्चे के इन विषयों पर पति से चर्चा नहीं कर सकती । किस से कहूँ ?..कोई बहन भी नहीं ।
 तब मेरा बेटा तेरह साल का था। हिम्मत कर मैने उसे , मानसिक स्वास्थ्य एवं पढाई पर इसके बुरे असर इत्यादी  विषयों  से बात-चीत शुरू की । उसे बताया कि इस विषय पर जानने की उत्सुकता सहज और स्वभाविक है !
एक साल बाद जब वो दसवीं क्लास में आया ,तो यह सब उसके पाठ्यक्रम में था । यौन गतिविधियाँ और शरीर रचना वो जान चुका था । गर्भनिरोधक एंव STD ( सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिजीज ) के बारे में भी । आज वह सोलह  साल का है | जब कभी कोई इस विषय से सम्बंधित मुद्दा उठता है , तो मैं कोशिश करती हूँ इस विषय के कानूनी पहलूओं पर भी बात करने की ।
मैं उससे कहती हूँ कि अगर कोई तस्वीर या विडियो उसकी किसी कक्षा की दोस्त(लडकी) के वह्टस ऐप पर गलती से चला जाता है , तो लडकी के माता-पिता पुलिस में शिकायत कर सकते है फिर बताओ क्या होगा?  इन सब मामूली लगने वाले विषयों पर बात करती हूँ । आजकल  हम देखते हैं दोस्तों  के बीच लडकी हो या लड़का , दोनो ही कई यौन विषयों पर सहज भाव से बात करते हैं  । इसलिए बेटे को उसकी सीमाएं, नैतिकता में एंव कानूनी रूप में , दोनो में समझाना ही पड़ता है ।
बेटे को बताती हूँ   कि किसी भी रूप में गड़बड़ी से ,कानूनी और सामाजिक प्रतिष्ठा में परेशानी आपको ही होने वाली है।
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जया घिल्डियाल की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए

http://bizooka2009.blogspot.com/2018/03/blog-post_76.html?m=1

जया घिल्डियाल
पुणे ,महाराष्ट्र

3 टिप्‍पणियां:

  1. एक माँ की डायरी हस्तलेखन पर

    "इक बच्चा दुनियादारी और उसके नियमों पर खरा उतरने वाला औज़ार नहीं है ।
    उसे देखो तो तितली, फूल, बादल ,समन्दर,अंतरिक्ष,आकाशगंगा ये सब याद आना चाहिए !
    जया बहुत खूबसूरत बात कह गईं हैं !

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  2. बहुत बढिया लिखा है आपने 🍀🍀👍

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