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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 सितंबर, 2018

कहानी:

रोज़ का एक दिन
कैलाश बनवासी


कैलाश बनवासी 



    मुझे ऑफिस छोड़ने में हमेशा दिक्कत होती है। रोज। वह चश्मिश प्रमोद अग्रवाल-मेरा मालिक- हमेशा इसी वक्त कुछ न कुछ काम पकड़ा देता है।मुझे लगता है जानबूझकर परेशान करने के लिए।
   ‘‘ये बिल इंट्री कर दो। अर्जेंन्ट है।’’ फिर घड़ी की तरफ देखकर कहेगा,‘‘अभी छह दस ही हुए हैं।तुम्हारी ट्रेन तो पौने सात की है न...?’’

   ‘‘सर छह चालीस पर। फिर स्टेशन भी तो दूर है सर, तीन किलोमीटर।’’ मैं कहने के लिए कहता हूँ क्योंकि पता है इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।मन ही मन भुनभुनाते हुए उसे गालियाँ देते हुए काम जल्दी से जल्दी निपटाने की कोशिश में लग जाता हूँ।मेरे लिए घड़ी की सुई सहसा ज्यादा रफ्तार से घूमने लगती है। उसकी टिक-टिक दिमाग में हथौड़े की तरह बजती है।छह सत्रह होते‘-होते मेरी अधीरता चरम पर पहुँचने लगती है।ेनों में ट्रेन की सीटी बनजे लगती है।मैं जैसे-तैसे काम पूरा कर,चीजें समेट कर अपना बैग लिए भागता हूँ।एक कोने में खड़ी अपनी साइकिल का ताला खोल बहुत जल्दी से चल पड़ता हूँ।छह बाइस।अंधेरा बढ़ रहा है शाम का।मैं बहुत तेजी से साइकिल चला रहा हूँ रायपुर की बेहद भीड़ और ट्रैफिक वाली सड़क पर।मैं खुद को मोटर-गाड़ियों के जंगल में फंसा पाता हूँ।साइकिल तेज चला रहा हूँ।तेज।और तेज।इस समय दूजा और कोई खयाल नहीं।पौने सात की लोकल मिस न हो।क्योंकि इसके बाद की लोकल साढ़े आठ पर है,जिसमें घर पहुँचते-पहुँचते ग्यारह बज जाते हैं।कई दफे भुगत चुका हूँ।इसलिए तेज।मुझे हमेषा ऐसे समय में लगता है कि ऐसी साइकिलिंग से तो मैं ओलंपिक में और कुछ नही तो कांस्य पदक तो ला ही सकता हूँ।और देश के लिए कांस्य पदक लाकर छोटा-मोटा हीरो बन सकता हूँ।और कुछ नही तो कुछ कंपनियों का एड करने को मिलेगा-सुंदरियों के कमर में हाथ डाले...या उन्हीं के बीच घिरा हुआ।
सेलिब्रेटी हो जाने पर कितने मजे हैं आपके जीवन में-मैं सोचता हूँ।फिर खुद ही अपनी इस भटकन को कोसता हूँ।रोशनियों से चकचकाती सड़कों पर मैं तेज-तेज पैडल मार रहा हूँ।बस इस समय और कोई क्षयाल नहीं।श्रेया भी नहीं।पर मेरी राह इतनी आसान कहाँ? जगह-जगह विज्ञापनों के होर्डिंग लगे हैं,चिकने और चमकदार और झकाझक उजाले से भरे....हम सबका ध्यान खींचते हुए।भीड़ में तंग और आपाधापी के बावजूद मेरी नजर वहाँ जाती है और कुछ देर के लिए मानो ठहर जाती है।खूब उजली और चिकनी त्वचा वाले बहुत-बहुत खूबसूरत चेहरे।और एडवांस्ड कैमरों का कमाल है कि मॉडल सुंदरी का रोम-रोम दिखता हुआ...उसके गले की उभरी नीली नस भी सुंदर...!मन होता है कि जाकर तुरंत छू लूँ और उके छूने से होने वाली सिहरन को महसूस करूँ...।लेकिन फिर कभी।इस समय तो तेज साइकिलिंग के मारे मेरी सांस फूली हुई है...फेफड़ों को ज्यादा-ज्यादा हवा की दरकार है...।
   पर हाय! कितने सुंदर हैं ये लोग!कौन हैं ये लोग? क्या इसी भारत में रहते हैं?आप कहीं ये तो नहीं सोचने लगे कि इन मॉडल्स के चक्कर में मैं अपनी ट्रेन मिस कर दूंगा? नहीं सर, पूरा ध्यान है ट्रेन का। लेकिन ये बाधाएं,मैं चाहूँ न चाहूँ सामने आ के पकड़ लेती हैं।डिस्टर्ब करती हैं मेरे दिमाग को।लेकिन इतना

भी नहीं कि मुक्त नहीं हुआ जा सके। अब थोड़ा टाइम तो लगता है,भाई जान।ऐं, कहीं आप तुरन्त कुछ सोचने तो नहीं लग गए मेरे बारे में...कि कुछ खास।खास काट के लोग-गोल टोपी,दाढ़ी,कुरता-पाजामा,चांद,मस्जिद या मीनार वगैरह?क्या मुसीबत है!एक रूब्द,सिर्फ एक शब्द आपको तुरंत एक पहचान दे देता है-अच्छा,ये ‘वो’ हैं!है न हमारे ग्रुप में एक।उससे ही आदत पड़ी है।आगे आपको मिलवता हूँ उस बंदे से।पहले जरा स्टेशन तो पहुँच लूँ।
  स्टेशन के बाहर दाहिनी तरफ साइकिल स्टैण्ड है।खासा बड़ा एरिया,लोहे के तारों से घिरा हुआ।मैं हड़बड़ अपनी साइकिल उधर ले जाकर खड़ी करता हूँ जिधर साइकिलों का अम्बार है। स्टैण्ड में मोटर साइकिलों की संख्या ज्यादा है।साइकिलें पीछे खड़ी की जाती हैं।यहाँ इतनी संक्ष्या में स्कूटर,स्कुटियों या मोटर साइकिल्स का होना वैसे भी हाशि्ए में डाल देता है।साइकिल वालों पर किसी का ध्यान नहीं जाता।इस स्टैण्ड से मेरी एक साइकिल गुम होचुकी है।यह पिछले साल की बात है।उसे मैंने सैकेण्ड हैंड खरीदा था,आठ सौ पच्चीस रूपये में।साइकिल की कंडीशन अच्छी थी।जब वह गायब मिली तो यहाँ का काम देखने वाले से मैंने शिकायत की।उसने कहा, मिल जाएगी। आज नहीं तो कल।हो सकता है कोई धोखे से ले गया हो।स्टैण्ड वाले ने इसे बहुत लापरवाही से कहा था और तत्काल किसी दूसरे ग्राहक से उलझ गया था।यह तो दिखता था कि उनकी दिलचस्पी जरा भी मेरी साइकिल को ढूंढने में नहीं है,इसके बावजूद मैं उनसे कहता था।क्योंकि मेराबड़ा नुकसान हो रहा था।किराए की साइकिल से काम पे जाना पड़ रहा था। दस रूपये रोज का।चार दिन हो गए।मेरी साइकिल नहीं मिली।मैं रोज इस जखीरे में अपनी साइकिल एूंढने की कोशिश करता।मेरे सवाल को वे बहुत आसानी से टाल जाते।हमें क्या दिलचस्पी होगी आपकी साइकिल में के भाव से। मेरे पूछने से उनका मूड बिगड़ने लगा था। ये ठेकेदार के आदमी थे।वही ठेकदार जो राज्य के मंत्री का बेहद खास है और राज्य के तरह-तरह के ठेके उसी को मिले हुए हैं।पाचवे दिन मेरे पूछने पर तंग आकर वह मुझे उस ओर ले गया जहां बीसियों साइकिलें कोने में कबाड़ पड़ी थीं।मुझसे कहा अपने काम के लायक छांट लो।हम इसे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते।तुमको हमारे खिलाफ रपट लिख्खनी है तो वो भी लिखा दो। दर्जनों केस चल रहे हैं और इससे कुछ हासिल नहीं होगा।वह कहकर हँसने लगा था।मैंने उसकी बात मान ली थी। और उस कबाड़ से एक साइकिल निकाल ली थी। उसे मरम्मत करा चलने लायक बनाने में दो सौ दस रूपय खर्च हुए थे।अब वही लावारिस साइकिल मेरी साइकिल है।
   यहाँ साइकिल खड़ी करते हुए मुझे हमेशा लगता है जैसे मैं भी इसी कबाड़ में शामिल हूँ...जंग खाता,पुराना पड़ता,उपेक्षित और अनुपयोगी... कि जिसके होने या न हाने से कोई फर्क नहीं पड़ता...।
  ऐसे ही टाइम पे मुझे अपनी कद-काठी को लेकर सक्ष्त अफसोस होता है। क्यों रह गया मैं ऐसा इतना दुबला-पतला!डेढ़ पसली! चचा छुटपन से मुझे यही बुलाते थे और मैं उनसे चिढ़ता था। भुनभुनाता था। चाचा हँसते थे।कुछ बड़ा हुआ तो यह कहना छोड़ा।फिर मेरी नाक पे अटका ये चश्मा! ये मेरी बी. काम. की पढ़ाई के दौरान चढ़ गया था नाक में, और उतरने का नाम नहीं लेता कमबख्त।बगैर चश्में के कभी आइने में खुद को देखता हूँ तो खुद को पहचानना मुश्किल हो जाता है।अजीब सी दिखती है शक्ल, और अजनबी। मुझे उन लागों से ईर्ष्या होती है जिनकी हेल्थ हाइट अच्छी हो।फिल्मी हीरोज की तो बात ही क्या!मसल्स मेन संजय दŸा,सन्नी देओल या सलमान खान जो अपनी हर फिल्म में शर्ट उतारता है,से लेकर शाहरूख खान के सिक्स पैक एब्स या आमिर खान के एट पैक एब्स के नये-नये फंडे तक...।तुम्हारे

शारीरिक ढांचे से काफी कुछ तय हो जाता है।बहुत सी समस्याएं सुलझ जाती हैं।आज कल के लड़कों में शायद इसीलिए बॉडी-बिल्डिंग का क्रेज़ है।मुझे लगता है अपनी इस शक्ल सूरत के साथ आने वाले कई बरसों तक ऐसा ही कुछ कड़वा होता रहेगा, और मुझ जैसे लाखों,बल्कि करोड़ों, सिर्फ कल्पना में अपने दुश्मनों से ढिशुम-ढिशुम करते रहेंगे... या बच्चों की तरह वीडियो गेम में उन्हें की बोर्ड के बटनों के सहारे ढेर करते रहेंगे...और जीत के नकली अहसास पर खुश होते रहेंगे...।
  मैं भी न हर जगह अपना रोना लेके बैठ जाता हूँ।
  मैं स्टेशन के भीतर आ चुका हूँ। रेलवे ब्रिज पर जल्दी-जल्दी चढ़ते हुए देख चुका हूँ अपनी लोकल खड़ी है।प्लेटफार्म नं. 3 पर। रोज की तरह। मैं अब डिब्बों में अपने ग्रुप को तलाश रहा हूँ...।
   ‘एइ मनीष’! वर्ष एक डिब्बे की खिड़की से मुझे देखते ही चिल्लाकर हाथ हिलाकर बुला रही है‘इधर हैं, आजा।’
   मैं अपने दोस्तों के मिल जाने की मुस्कान से भर जाता हूँ। वहाँ पहुँचकर हाथ टकराता हूँ। प्लेटफार्म से ही। मोटू वर्षा के सामने की सीट पर बैठा है। मोटू यानी गौतम भट्टाचार्या।






 थैंकगॉड। टेँन मिल गई। मैं राहत की सांस लेता हूँ। पता नहीं ट्रेन किस कारण से लेट है। शायद कोई सुपर फास्ट आ रही हैकृउसे पास देने खड़ी है। मैं दूर रेलवे ट्रैक पर सिग्नल देखता हूँ। पीली बŸा। इकबाल,संध्या,अविनाश और आदेश भीतर हैं। मुझे देखकर सहसा मोटू की आँखें मोटे जेंस के भीतर शरारत से चमकती है,‘‘अबे, जा बात कर ले। टेंशन नइ लेने का। अभी ट्रेन खुलने में टाइम है।’’
   मैं उसके कंधे पर धौल मारके हंसता हूँ।और एक ओर सरक लेता हूँ।जेब से मोबाइल निकाल डायल्ड नंबर ओपन करता हूँ।स्क्रीन में श्रेया चमकने पर डायल करता हूँ।
  मेरे मोबाइल पर श्रेया के मोबाइल से उठती तैरती एक धुन बजने लगती है...मैं उसे सुनता हूँ...मेरी सबसे प्यारी धुन!लोगों की भीड़ का कोलाहल,एनाउंसर की एनाउंसमेंट की शोर के बीच वह धुन बह रही है... और वह धुन मेरे भीतर उतर रही है,गहरे...।
   उधर से श्रेया है,‘‘हाँ, हैलो मनीष...।’’
   मैं-‘‘ क्या हैलो? यार तुम कितना सुस्सू जाती हो?’’
   वह हंसती है। छोटी-सी हंसीष्धीमे से।
   मैं-‘‘ तुमने आज दो बार सु सु  किया  लड़की। छिः गंदी लड़की!’’
   अब श्रेया खुलकर हंसती ह। मुझे और अच्छा लगता है। उसका हंसना मुझे हमेशा अच्छा लगता है...। एक संगीत...घंटियों का बजना...या कुछ सिक्कों का खनखना जाना...।
   जब वह मुझे अटेंड नहीं करती,घंटी पूरी बजती है, तो मैं मान लेता हूँ वह सुस्सू में है। इस कोड को जानती है वह।
    ‘‘वो न मनीष,’’अपनी हंसी रोककर वह कह रही है,‘‘एक्चुअली आज हम लोग बॉस की पार्टी में बिज़ी थे।’’
  ‘‘तुम्हारे बॉस की तो! आज काहे  की पार्टी?’’
    आाज उनका बर्थ डे था। मीन्स है। तो शाम को अभी हम सबने मिल के अरेंज किया।मैं भी इसी में लगी थी कुछ डेकोरेट करने में। बैग में मोबाइल साइलेंट मोड में था...इसी से पता नहीं चल पाया...सॉरी। आ’म सॉरी, रियली, प्लीज। अभी ही फ्री हुए हैं।’’
  ‘‘ओके श्रेया।’’
    ‘‘ मनीष ट्रेन छूट गई क्या?’’
    ‘‘ हाँ, अब तो सरोना टच करने वाली है।’’ मैं उसे फेंकता हूँ।
   ‘‘ ओ माँ!सच्ची? मुझे लगी रहा था आज अपनी लोकल गई करके। फिर भी कोशिश करती हूँ। निकल रही हूँ तुरंत।तुम वेट करना...।’’ वह हड़बड़ा गई एकदम।
  डसका इतना हड़बड़ाना मेरी सोच में नहीं था। कहा,‘‘अरे नहीं,हड़बड़ाओ मत। मज़ाक कर रहा था।ट्रेन अभी रायपुर में ही खड़ी है और मैं प्लेटफार्म से तुमसे बात कर रहा हूँ। और अभी तो सिग्नल भी नहीं हुआ है।’’ मैं हंसता हूँ।
   ‘‘यू चीटर! लायर! तुम आओ तुमको बताती हूँ!’’ वह झूठ-मूठ का गुस्सा करती है। मुझे अच्छा लगता है।बहुत-बहुत अच्छा। सुख। मेरा तनाव बह रहा है...मैं मुक्त अनुभव कर रहा हूँ खुद को...भीतर और बाहर की और बहुत हल्का... इतना कि उड़ सकता हूँ... और मैं जैसे सचमुच हवा में तैर रहा हूँ...।
   मैंने कहा,‘‘अच्छा, बॉस के लिए गाना गाया होगा न तुमने भी... हैप्पी बर्थडे टू यू...और कहा होगा- मैनी-मैनी रिर्टर्न्ज़ ऑफ द डे... नहीं?’’
   हाँ, सिम्पल। और यू नो, सबसे पहले केक उन्होंने मुझे ही खिलाया।’’ थोड़ा पॉज लिया है उसने मुझे भांपते हुए...फिर शायद धीमें से मुस्कुराई है-‘‘क्यूँ,तुम्हे जलन हो रही है?’’
   ‘‘जलकर ख़ाक हो गया हूँ जानेमन! मैं अपनी सचमुच की जलन को भाषा का आवरण देता हूँ,‘‘अब तो मेरी राख ही मिलेगी तुमको!’’
   मेरी बात पर हंसती है जरा सा। अब स्वर तनिक धीमा है,‘‘अब कहना तो पड़ता ही है मनीष। इट्स कर्टसी। क्या तुम नहीं कहोगे अपने बॉस के लिए?’’
   ‘‘नहीं, मैं तो कभी नहीं। मुझे अभी उस साले की याद मत दिलाओ!’’ मैं ज़रा बिफरता हूँ।
  ‘‘ठीक है, मैं याद नहीं दिलाती।’’उसने अपनी आवाज़ को और नर्म बनाकर कहा है,‘‘ओ.के.मि. केला प्रसाद!’’
  वह हंसती है। मुझे चिढ़ाकर वह बहुत खुश है।
 मैं झल्लाता हूँ-‘‘ठीक है तू आ मोटी! तुझे बताता हूँ!’’
  ‘‘ओ.के. मनीष। गेट पे रहना।’’
  कट!
 उसके लाइन से हटने के बाद भी मैं कुछ पल जैसे उसी के साथ होता हूँ...इस भीड़ और शोर के बावजूद। उस दुनिया से इस दुनिया में आ पाना तत्काल कभी संभव नहीं हो पाता। यह दुनिया देर तक घेरे रहती है आपको। मोबाइल जेब में रखते हुए मेरी उसे चूमने की इच्छा होती है। पर चूमता नहीं। पर बहुतों को देखा है ऐसा करते । यह कुछ ‘ओव्हर’ लगता है मुझे।

केला प्रसाद! टपने इस नाम पर मैं मुस्कराता हूँ। यह मेरा आई. कार्ड है,हमारे उबल्यू डबल्यू डबल्यू अप एंड डाउन डॉट कॉम ग्रुप का दिया हुआ। पिछले साल स ेचल ाहा है मेरा यह नाम। मेरे सेठ के कारण। करोड़पति पार्टी है,राज्य का एक बड़ा होल सेल डीलर है कृषि उपकरणों का। बड़ी पार्टी होने के बावजूद वह विश्वकर्मा पूजा में अपने कर्मचारियों,नौकरों को प्रसाद में सिर्फ एक केला देते हैं...इतने कंजूस! ज्बकि ग्रुप के सभी लोगों को कुछ न कुछ अच्छा गिफ़्ट मिलता है। और कुछ नही ंतो पाव भर मिठाई का डिब्बा ही। पर ये रायपुर एग्रो एजेंसी वाले तो महान ठहरे!
सब हंसते हैं इस पर।
खीझ कर मैं भी हंसने लगता हूँ।पहले झेंपी-झेंपी-सी, फिर खुलकर। और पाता हूँ कि सबसे ज़ोर से मैं ही हंस रहा हूँ।
 
   मैं बी. काम. ग्रेजुएट हूँ। और बेसिक कम्प्यूटर एप्लीकेशन का डिप्लोमा है। पिछले दो साल से रायपुर एग्रो एजेंसी में काम कर रहा हूँ। काम का समय सुबह दस बजे से शाम छह तक। मेरा घर दुर्ग में है। घर में माँ, बाबूजी और एक छोटी बहन है। बहन  का नाम नेहा। बाबूजी सरकारी स्कूल में चपरासी थे। इसी साल फरवरी में रिटायर हुए हैं। नेहा अभी बी. ए. फाइनल कर रही है। मुझसे पांच बरस छोटी है। मैं पच्चीस का हूँ। पढ़ने-लिखने में बहुत अच्छा नहीं रहा। फाइनल में भी मार्क्स कम आए। अड़तालीस प्रतिशत। इसे छुपाने के लिए पहले मैं सैकेण्ड डिविजन कहा करता था,पर बाद में देखा,शर्मिन्दगी अपनी ही होती है। इसलिए कहना छोड़ दिया।

  एजेंसी के ऑफिस वर्क के लिए हम तीन लोंग हैं।दुकान के मालिक तीन भाइयों में से एक प्रमोद अग्रवाल हमारा बॉस है। ज्योतिका राय मुझसे सीनियर है, और एक तरह से मुख्य काम वही संभालती है। मेरा काम कुछ प्राथमिक किस्म का है।बिलों को चेक करना,लेजर में इंट्री करना, फिर मिलान करना ऐसी बारीकी से कि एक रूपये का हेर-फेर न हो।कंपनियों या पार्टियों के  चेक आ गए तो बैंक में जमा कराना,या यहाँ से जारी होने वाले चेक लोकल पार्टी तक पहुँचाना।बैंक के चार चक्कर लगाना मेरे लिए रोज की बात है। ज्योतिका राय मैडम रायपुर ही रहती हैं।यह एजेंसी शहर की बहुत जानी-मानी और स्थापित दुकान है।पिछले अठारह बरसों से जमी हुई।रायपुर के पुराने, घने बसे भीड़ वाले मार्केट एरिया में यह दुकान है, मालवीय रोड से थोड़ा आगे जाकर बाँयी सड़क पर कुछ भीतर। एरिया बहुत कम है,बीस फीट चौड़ा और अस्सी फीट लंबा।दुमंजिला इमारत।नीचे लगातार चार कमरे,ठीक रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह।

मेरा ऑफिस सबसे आखिर,यानी चौथे नंबर का कमरा है,जहाँ जाने के लिए सामने के तीन कमरों से एक के बाद एक, लोहे लक्खड़ के ढेर सामानों को पार कर जाना पड़ता है,कमरों की अजीब सी सीलन और सामानों की मिली-जुली गंध से भरकर। अक्सर इनसे गुजरते हुए मुझे रेल के डिब्बों से गुजरने का अभास होता है।सबसे आखिर का कमरा ऑफिस है।बिल्डिंग काफी पुरानी है,लेकिन इस कमरे को ग्लास के काम से और फर्नीचर से मॉडर्न लुक देने की कोशिश की गई है।हमारा बॉस भाइयों में मंझला है,और सबसे ज्यादा पढ़ा-मैट्रिक तक।बड़े और छोटे भाई सामने दुकान संभालते हैं।दुकान एक ही है,लेकिन इन्कम टैक्स और सेल टैक्स बचाने के लिए तीन फर्म शो किए जाते हैं।इससे मेरी या ज्योतिका मैडम की मुसीबत बढ़ जाती है,सबके अलग-अलग बिल,व्हाउचर्स और खातों को मेंटेन करना पड़ता है।बाकी पूरे हिसाब-किताब की देख-रेख प्रमोद अग्रवाल करते हैं।दुकान में यही कमरा एयरकंछीशंड है। यह अच्छा है कि कमरा इतने भीतर है,तो उनके भाइयों की तेज़ आवाज़ें,जो अक्सर नौकरों को दी जा रही गालियाँ होती हैं,कम ही आ पाती हैं।इसके बावजूद वे आवाज़े हम तक कई बार पहुँच ही जाती हैं,जिसे हम सुनकर अनसुना करते हैं,मैडम की बोर्ड के बटनों से खेलने लगती है,और मैं किसी रजिस्टर में गुम हो जाता हूँ,इसके बावजूद यह अहसास होता है कि मैडम के कान के लव लाल हो गए हैं गुस्से से।

 यह सुनना हमारे काम का कोई हिस्सा है जैसे।
 नौकरी की शुरूआत के दिनों में बड़े सेठ अति करने लगे थे मेरे साथ।उनके दुकान के एक-दो नौकर यदि काम पर नहीं पहुँचे तो मुझे बुला लेते थे,ग्राहकों को सामान देने,या दिखाने।दो-तीन बार तो मैंने झेल लिया,लेकिन बाद में साफ-साफ कह दिया,मुझसे ऑफिस का काम कराना है तो रखो,नही ंतो छुट्टी करो! और ताज्जुब,कि उन्होंने मेरी छुट्टी नहीं की।
  मुझे चार हजार देते हैं महीने के और मैडम को पाँच हजार।लेकिन मैं तलाश रहा हूँ इससे कोई बेहतर जॉब।
  मेरी माँ, जैसे सारे संसार की माएँ होती हैं,मेरे दुबलेपन की चिंता में अक्सर कहती है,तू ठीक से खाना नहीं खाता क्या? नेहा से हर हफ्ते-दस दिन में कहती है-इसकी रोटी में घी लगाया कर।
  नेहा हंसती है-वो तो मैं वैसे भी लगा के देती हूँ।
  तड़ से माँ का जवाब-तो दो रोटी और डाल देना आज से।
  ठीक है माँ।वह माँ की तसल्ली के लिए कह देती है,पर जानती है एक भी रोटी ज्यादा होने पर मेरी डांट उसे ही सुननी पड़ेगी।
 ज्योतिका मैडम और मैं लंच-ऑवर में टिफिन के साथ ये सब बातें भी शेअर करते हैं।

   पौने सात वाली रायपुर-डोंगरगढ़ लोकल चल पड़ी सात पांच पर।यानी बीस मिनट लेट।जब ट्रेन चल पड़ती है तो ही हम कुछ सहज महसूस करते हैं,वरना एक अजीब घुटन-सा,कुछ रूका-रूका सा महसूस करते हैं। रोज़ के आने-जाने में ट्रेन का चलना ही जैसे हमारे चलने,गतिशील होने की पहचान है और रोज़ की भीड़-भाड़,शोर,सीट के लिए चखचख...कभी-कभी यह चखचखबाजी मार-पीट में बदलती हुई। और इस भीड़ के बीच धक्का-मुक्की खाते चमत्कार की तरह प्रकट होते ट्रेन के फेरीवाले।केले-संतरे बेचती स्त्रियाँ या फल्ली-चना बेचते बारह-चौदह बरस के लड़के,या कि भिखारी,अपनी दीनता से हमारी मनुष्यता को परखती उनकी बहुत उदास निराश आँखें...गहरी याचना लिये हुए...।

वर्षा खिड़की के पास बैठी है,उसे यही जगह पसंद है अगर मिल जाए तो।आजवह धूमिल भूरे रंग की सलवार सूट में है।वह हमेशा ऐसे ही कपड़े पहनना पसंद करती है,थोड़े डल, कि किसी का भी ध्यान उसके कपड़े के कारण तो उस पर न जाए। उसका रंग सांवली से बस जरा साफ है।साथ बैठे इकबाल से बतियाती हुई।इकबाल मोनेट स्टील्स में असिस्टेंट इंजीनियर है।उसका पूरा नाम मोहम्मद इकबाल बेग है।कंपनी में शार्ट चलता है-एम.आइ्र. बेग।कंपनी के लोग ही नहीं,हम लोग भी चिढ़ाते है-क्या मैं थैला हूँ?वह पिछले चार साल से है यहाँ। भिलाई से अप-डाएन करता है।उन दोनों के सामने की सीट पर खिड़की की तरफ मोटू यानी गौतम बैठा है।उसके दाहिने,उससे छूटी बहुत कम सी जगह पर मैं बैठा हूँ।दुबला होने के कारण यह सुविधा कहो या असुविधा,मुझे अक्सर मिलती है।गौतम भी असिस्टेंट इंजीनियर है,एस. के. स्पंज आयरन इण्डस्ट्री में।उसे छह हजार मिलते हैं।यह तीसरा साल है वहां इसका।और संध्या,वह इकबाल के बाद गली के बाद वाली सीट पर बैठी है।हम लोगों से मुखातिब।वह लाइट पिंक सूट में है।वर्ष और संध्या राख्पुर के श्रीराम हास्पिटल में हैं,एकाउंट सेक्शन में। वर्ष एक साल सीनियर है संध्या से। अविनाश और आदेश को सीट की चिंता करते कभी नहीं देखा ।लिहाजा मेरे पास ही खड़े हैं।उन्हें यही भाता है,सीट के ऊपरी भाग से अपनी कमर टिकाए। आदेश के गले से लटकता होण्डा कंपनी का आई कार्ड कम ही उतरता है।शायद घर जाकर भी बहुत एहतियात से टेबल या दराज पर रखता होगा।हम लोग कहते हैं,अबे, तू कंपनी का फोकट में एडवरटाइज़ करते मत फिरा कर।पर वह नहीं मानता।और अविनाश अपने रूटीन सफेद शर्ट और नीले जींस मे है। वह बिजली का सामान बनाने वाली एक कंपनी में मार्केटिंग का काम देखता है। वह ही हमारे ग्रुप में सबसे नया है,और उम्र में सबसे छोटा।बाइस साल का।अक्सर,बहस में ज बवह हमें हराने लगता है तो हम उससे कह देते हैं-बेटा,अभी तू हमसे छोटा है। हमारा एक्सपिरिएंस तेरे से ज्यादा है।वह चिढ़कर, कुनमुनाकर रह जाता है।इसी चिढ़ के कारण शायद,उसने जाने कहां से जुगाड़कर एक शेर रट लिया था, और जब किसी ने उसे छोटा होने का ताना दिया था तो दन्न से वह शे’र दे मारा था। बोला था,अबे, एक दिन ऐसा आएगा कि तुम लोग मेरे लिये कहोगे कि,‘कल तक सोचता था मैं जिससे बड़ा था, आज मैं उसके साए तले खड़ा था।’






  वाह-वा हके साथ हम लोग खूब हंसे थे। खासकर इकबाल,वह तो हंसते-हंसते दोहरा हो गया था और कुछ देर बाद जब हंसी का आवेग कुछ कम हुआ,वह हंसते हुए ही बोला था,‘साले, तेरे इस शे’र पर तो जान देने का जी कर रहा है। बहुत खूब! इसके बाद अब किसी को तुझे छोटा कहने की हिम्मत नहीं होगी मेरे भाई!’
  मेरे दाहिने बाजू की सीट पर होटल मयूरा की लड़कियाँ बैठी हुई हैं,अपने ड्रेस कोड में।कॉफी रंग के कोट और पेंट,खूब सफेद रंग की शर्ट के साथ।कोट पर केधे के नीचे,दिल वाली जगह पर होटल का लोगो है।बीस-बाइस के आसपास की ये लड़कियाँ खासी खूबसूरत हैं,एक माडर्न, किंतु सौम्य लकु लिए हुए। मेकअप के नाम पर प्रायः आँख में पतली काजल की रेखा,जो उनके बहुत साफ रंग के चेहरे के साथ एक कंट्रास्ट रचता है, जो सहज आकर्षित करता है। ये चार लड़कियाँ अक्सर आते-जाते मिल ही जाती हैं। जब कोई साथ न हो, तो इन्हें देखकर भी आपका सफर अच्छे से कट सकता है।
 ये पावर हाउस भिलाई से चढ़ती हैं।

  जहाँ ये बैठती हैं या होती हैं,कॉलेजिया लड़के आस-पास ही होते हैं। आज भी हैं। मुझसे चार-पांच कदम आगे।अपने ग्रुप में खड़े और इन्हीं को देखते हुए।
  ये लड़कियाँ, जाने क्यों, ट्रेन में भी बड़ी नाजुक सी बनी रहती हैं।धीरे-धीरे बात करती हैं। और बात करने से ज्यादा मुस्कुराती हैं। और इतने से ही उनका काम चल जाता है। अपने ग्रुप की तरह उन्हें कभी हंसते या ज़ोर-ज़ोर से बातें करते नहीं देखा। शायद इनके होटल मैनेजमेंट की ट्रेनिंग ही इन्हें ऐसा गुड़ियों की तरह होना और रहना सिखाती है। प्रोफेशनल स्माइलिंग गर्ल्स!
  वर्षा, जो आमतौर पर दूसरों पर कमेंट कम करती है,एक बार बोली थी,‘ये तो लगता है ट्रेन में भी अपनी ड्यूटी पर हों!’

  मैने कहा था,‘अच्छा है। ये हमारे डिब्बे की होस्टेजेस हैं। लगता है अभी आके मुस्करा के हमसे पूछने लगेंगी,एक्सक्यूज़ मी सर,मे आय हेल्प यू?’
  बात को गौतम ने तुरंत लपक लिय था,‘मैं कहूँगा,ओ श्योर श्योर!प्लीज मेरी कमर की बेल्ट बांध दीजिए...मुझसे नहीं बांधा जा रहा...।’
  मोटू की बात पर हम हंस पड़े थे। संध्या ने एक जोर का धौल उसके कंधे पर मारा था,‘बदमाश मोटू!तू बैठे-बैठे यही सब सोचता रहता है क्या?’
   सामने खड़े लड़कों में से किसी ने अपने मोबाइल में लोड गाने का वॉल्यूम बढ़ा दिया है-‘हम तेरे बिन कहीं रह नहीं पाते,तुम नहीं आते तो हमम र जाते...हाय प्यार क्या चीज़ है जान नहीं पाते...।’
 अविनाश के मोबाइल पर कॉल है।सबसे ज्यादा उसी का मोबाइल बजता है-इनकमिंग और आएटगोइंग,दोनों।वह कंधे और कान के बीच मोबाइल सटाए अटेण्ड कर रहा है-‘येस...अविनाश श्रीवास्तव हियर...।ओ येस सर...गुडइवनिंग सर! डिलेवरी मिल गई? ओ. के. सर...।सर आपको कहने की बिल्कुल जरूरत नहीं।आप तो हमारी कंपनी के रेपुटेड डीलर हैं सर!कंपनी आपको नाराज करके कैसे बिज़नेस करेगी। डिस्काउंट?...वो तो दिया है न सर। आप बिल देख लीजिए प्लीज़, कंपनी ने आपको अपने रूल्ज़ के मुताबिक फिफ्टी परसेंट का डिस्काउंट दिया है।बिल में लेस किया होगा... आप देखिए प्लीज...,और सर,आपके कहने से खास आपके लिए एक परसेंट और लेस किया है...एक्स्ट्रा।सर इसके लिए मुझे अपने सेल्स मैनेजर से स्पेशल बात करनी पड़ी थी।सर,अब इससे ज्यादा तो पॉसिबल नहीं है...।ओव्हर आल,हमारी कंपनी ब्रांडेड है...आप जानते हैं, सर।आपको कोई नुकसान नहीं होगा,सर।शायद नेक्स्ट टाइम कंपनी और बेटर ऑफर दे...।आपके नेक्स्ट ऑर्डर का इंतजार रहेगा।ओ.के., मैं चेक कलेक्ट करने कल ही आ जाता हूँ...।ओ.के. सर...।थैंक्यू वेरी मच सर...थैंक्यू।’
   बातचीत खत्म होन पर उसने गहरी सांस छोड़ी है।हमें देखा है, और मुक्त भाव से मुस्कराया है।यह जैसे एक दुनिया से दूसरी दुनिया में लौटना है।
   ‘‘बेटा,तेरा काम देख के लगता है,तू बहुत जल्द ऊपर जाएगा।’’ इकबाल ने कहा है शांत भाव से,पर वाक्य में तिरछा व्यंग्य है।
     ‘‘हां यार! ब्ंदे को तो जल्द ऊपर जाना है।’’खुश है वह।
     ‘‘कब जा रहा है?’’ मैं पूछता हूँ।
     ‘‘फरवरी लास्ट तक मिल जाएगा प्रमोशन।’’
     ‘‘क्या बन जाएगा फिर?’’
     ‘‘एरिया मैनेजर।’’
      ‘‘गुड।वेरी गुड!यू डिज़र्व इट,अविनाश।कांग्रेच्युलेशंस!’’ वर्षा है।
      ‘‘अरे खाली-पीली में काहे को बधाई दे रही है?’’इकबाल वर्षा को शिकायत की नजर से देखता है।
    ‘‘अमा पार्टी होगी न यार,क्यों चिंता करता है!’’ अविनाश उसे आश्वस्त करता है।
     ‘‘हम लोग तो भाई तभी तुझे बधाई देंगे।बहुत ढीठ और बेशरम हो गए हैं हम लोग।अब हंसता है इकबाल।
      इस बीच कॉलेजिया लड़के के मोबाइल का गाना बदल चुका है, और जो बज रहा है वह मेरा आजकल का फेवरेट है...के.के. का गाया हुआ...फिल्म ‘रकीब’ का गाना...।
      ‘तेरा चेहरा सनम इक रूबाई-सी है
       मेरे दिल जिस्म-ओ-जां पे तू छाई-सी है...।’
     मैं तरंगित हो रहा हूँ,शोर और भीड़ के बावजूद...श्रेया...श्रेया...।श्रेया श्रेया श्रेया श्रेया...।वह शायद इस समय रिलायंस एजेंसी-जहां वह बिल काउंटर पर बैठती है-से निकलकर भिलाई-3 रेलवे स्टेशन पहंच गई होगी और प्लेटफार्म पर खड़ी होगी...ट्रेन का इंतजार करती...।
   सामने हैं कॉलेज के लड़के।उन्नीस-बीस साल की उमर के।झुंड में हैं। और जोर-जोर से बातें करते।इनकी बातों का विषय प्रायः लड़कियां होती हैं।चालू फैशन के रंग-बिरंगे कपड़ों में हैं ये...ज्यादातर टी-शर्ट और जींस में।उनकी जींस में बड़ी-बड़ी थैलियाँ हैंजिन परलटकते हुए फीते हैं।और टी-शर्ट पर कुछ न कुछ लिखा हुआ।अक्सर ऊंट-पटांग वाक्य।अंग्रेजी में। आजकल इसी का क्रेज़ है।क्रेजी होने का और क्रेजी दिखने का।जैसे एक टी-शर्ट पर देखा था-‘जस्ट डिस्चार्ज्ड फ्राम मेंटल हास्पिटल।’ या हाल ही में एक लड़के की टी-शर्ट पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था-‘डू नाट डिस्टर्ब मी’ और ठीक इसके नीचे छोटे अक्षरों में लिखा था-‘ऑलरेडी डिस्टर्ब्ड।’

 एक टी-शर्ट मेरे भी पास है श्रेया का दिया हुआ,मेरे जन्म दिन पर।उसकी पीठ परलिखा है-‘इफ यू वांट टू सी मी,क्लोज़ योर आइज़।’सफेद टी-शर्ट पर काले हरफों से लिखा हुआ।





‘यू नो,इस लाइन के कारण ही ये मुझे पसंद आया था...।’ उसने बताया था। और पूछा थातुम्हें पसंद आया? मैं हंस दिया था पसंद है करके।वह मेरी अलमारी में रखा हुआ है।आज तक नहीं पहना उसे।मुझे हिम्मत नहीं होती यों नमूना बनने की।पर लगता है किसी दिन उसने जिद की तो टाल नहीं पाऊंगा।अच्छा है कि उसने अभी जत ऐसी कोई जिद नहीं की है।शायद वह मुझे समझने लगी है...।
   मंगफली बेचता एक अधेड़ इषर आया तो आदेश ने दस रूपये क खरीद लिए।अब यह बंट रहा है हम लोगों में,और मस्ती भी चालू है।मोटू कहता है-अबे सड़ा वाला है क्या? आदेश बोला,‘हां,इसे मैंने तेरे लिए सड़ाया है ताकि तू दुबारा मत मांगे।’
  एक ठोंगे को वर्षा और इकबाल शेअर कर रहे हैं।सहसा वर्षा मुझसे पूछती है,‘‘तूने मंत्रालय वाली वेकेंसी भरी कि नहीं?’’
   ‘‘हाँ, वह तो दूसरे दिन ही भेज दिया था।’’ मैंने बताया।राज्य पंत्रालय में विभिन्न विभागों के काम-काज के लिए नियुक्तियाँ की जा रही हैं।संविदा नियुक्ति।कांट्रेक्ट बेसिस।लेकिन सरकारी होने के कारण उम्मीद जागती है देर-सवेर परमानेंट होने की।इसीलिए इन पोस्टों के लिए बहुत मारा-मारी है,एप्रोच है। मंत्रालय के ही कर्मचारी दलाल बनकर घूम रहे हैं...।
   ‘‘मैं भी तो भरने के लिए भर दी हूँ,पर किसका होता है ये तो लिस्ट निकलने के बाद ही पता चलेगा।’’वर्षा ने फिर पूछा,‘‘अच्छा, वो ‘ब्लू हेवेन’ हैदराबाद का भर दिया है तूने?’’
  ‘‘नहीं। नहीं भरा हूँ।’’
  ‘‘अरे तो भेज ना।’’ वर्षा थोड़ी चिंतित हो गई है मेरे लिए,‘‘तीन का पैकेज है...अच्छा पैकेज है।मैंने अपना रिज़्यूम भेज दिया है।और पता है,उसमें प्लेस में मैं रायपुर दे रही थी,एक्सेप्ट नहीं हो रहा था।पता चला रायपुर नहीं, छत्तीसगढ़ देना है।’’
     आदेश ने मूंगफली टूंगते हुए कहा,‘‘अच्छा पैकेज है,कम से कम हम जैसों के लिए।लास्ट डेट निकल गई क्या?’’
 वर्षा ने बताया,‘‘नहीं, अभी है।बारह दिसम्बर तक।आज चार दिसम्बर है।’’
  मैंने आदेश से पूछा,‘‘तुझे भी भेजना है?’’
   ‘‘और क्या!’’
   ‘‘ठीक है,’’मैं कहता हूँ उससे,‘‘कल दोपहर में जैसे ळी फ्री होता हूँ तुझे रिंग करता हूँ।एक साथ ईमेल कर देंगे।’’
   ‘‘ओ.के.’’ वह सिर हिलाता है।
  ‘‘अरे यार, मैं तो भूल ही गई थी!’’संध्या को अचानक कुछ याद आयाहै,और अपनी भूल पर हंस पड़ी।अपने बैग से उसने क्रीम बिस्किट का एक पैकेट निकाला है।
    मोटू उसे छेड़ता है,‘‘भूल गई थी या खिलाने का इरादा नहीं था?’’ संध्या बनावटी गुस्से से उसकी तरफ आँखें तरेरती है-‘‘तू कभी नहीं सुधरेगा क्या?’’ फिर पैकेट इकबाल की तरफ बढ़ाती हुई कहती है,‘‘देख,एक-एक लेना भाई...ईमानदारी से।’’
   इकबाल ने हंसकर दो निकाल लिए और कहा,‘‘ईमानदारी से...थैंक्यू, संध्या।’’सब एक की जगह दो निकाल रहे हैं।वर्षा को छोड़।सबसे आखिर में गौतम तक पहुंचा तो सिर्फ एक बचा हुआ था,वह भी कोने से टूटा हुआ।।हंसकर संध्या को दिखाता है,‘‘ये तो आधा है?’’
  ‘‘आधा कहां, बस ज़रा सा तो टूटा है,’’संध्या कहती है।
   गौतम बोला,‘6नहीं मैडम,ये तो इसका मेनुफैक्चरिंग डिफेक्ट है और इसमें एक्साइज़ ड्यूटी फ्री है।संध्या तूने इसीलिए ये पैकेट चूज़ किया होगा,हैन? तीन रूपये कम देने पड़े होंगे।तीन रूपये की बचत!अच्छा है।तू भी न मेरी एक चाची टाइप है।वो भी जब कभी मार्केट जाती है तो ऐसी ही चीजें खरीद के लाती है...मैनुफैक्चरिंग डिफेक्ट वाली।साड़ी है तो प्रिंट मिस्टेक वाली,काजू है तो टूटे वाले...।तू मिलना उससे।तेरी उससे बहुत जमेगी।’’
   ‘‘तू ऐसे नहीं सुधरेगा चाची के भतीजे!’’ संध्या सचमुच उसे पीटने को खड़ी हो गई है।इकबाल उसका हाथ पकड़ के बिठाता है‘‘अरे-अरे,इस नामाकूल,नालायक नामुराद एटसेट्रा को भिलाई उतर के पीट लेना।कहाँ जाएगा मोटू? यहाँ सब देख रहे हैं...।और इस तरह बीच बाजार पिटेगा तो बेचारे की जो थोड़ी बहुत इज़्ज़त है,वो भी जाती रहेगी।’’
    हंस रही है संध्या।हंस रहा है गौतम।हम सब।
   ‘‘मोटू,अबे तू कितना अहसान फरामोश है? मैंने तेरी इज़्ज़त बचाई और तू थैंक्यू भी नहीं बोलता!’’हंसता है इकबाल।

  ट्रेन चरोदा स्टेशन पार कर गई है।
  खिड़की से ठंडी हवा आ रही है। मैं बाहर देखता हूँ...रात के आकाश में णूमिल उजास है...शायद कुछ बदली छाई है। मेरा ध्यान अब तेजी से पीछे की तरफ भागते दृश्यों पर है...गाँव-घरों में जलते पीले बल्ब...छोटे-छोटे घर-आँगन...शरों की छानी से उठता हुआ धुआँ... तालाब...पेड़...।देखते-देखते मैं एक बात अचानक इनल ड़कियों के बारे में सोचने लगता हूँ...कि क्या लड़कियाँ ऐसी ही होती हैं जो हमेशा अपने बैग में दूसरों के लिए कुछ न कुछ रखे होती हैं? और कुछ नही ंतो कोई सस्ती सी टॉफी!संध्या हो या वर्षा,श्रेया हो या ज्योतिका।यह आदत हम लड़कों में नहीं।हम तो तत्काल कुछ दिख जाए,पसंद आ जाए तो खरीद लेते हैं।किंतु ये बैग में रखे होती हैं।ये क्या लड़कियों का अपना कुछ खास निजी गुण है...‘लड़कीपना’ है,जिसे ये हमेशा संभाल के रखती हैं और जिसे ये खोना नहीं चाहतीं?कई बार इच्छा होती है इनसे पूछूं,पर टाल जाता हूँ।इसके रहस्य बने रहने में ही जैसे कोई सुख है और मैंयह महसूस करता हूँ...एक मंद ऊष्मा...जिसे मैं तो क्या, कोई भी खोना नहीं चाहेगा...।
   ‘‘मनीष!’’
     वर्षा मुझसे मुखातिब है,‘‘मेरा एक काम कर देना भाई,प्लीज़!’’
     ‘‘हुं...बोलो।कहाँ का है,क्या है?’’
      ‘‘दुर्ग का है,इसी से तो तुमसे कह रही हूँ।’’
       ‘‘काम बोलो ना..।’’
        वह बता रही है,‘‘दुर्ग में फरिश्ता काम्लेक्स है न...उसके कार्नर में एक दुकान है...कम्पूशापी।...ढूंढ लेगा?’’
     मेरे हाँ कहने पर वह आगे बढ़ी,‘‘वहाँ तुम्हें अंजलि मिलेगी।वहीं जॉब करती है।’’
      सुनकर अविनाश चहका-‘‘वाऊ!अंजलि! राहुल की अंजलि!’’
     वर्षा ने उसकी इस चहक पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया,आगे कहा,‘‘मेरा एक पेन ड्राइव उसके पास है।मुझसे लेके गई थी अभी तक लौटाई नहीं है।यहाँ तो मुझे अपने आने-जाने से ही फुर्सत नहीं मिल पाती।मेरा रेफ्रेंस देगा तो समझ जाएगी।ठीक...?’’वह मुझे थोड़े संशय से देखती है,फिर जाने क्या सोचकर थोड़ा उदास होकर कहती है,‘‘देख भाई,नहीं जा सकता या कोई प्रॉब्लम है तो उसे भी बता दे,मैं मैनेज कर लूंगी।’’
    पहले तो सोचा था,मजाक में कहूँ कि नहीं जाता।पर उसकी चिंता देखकर लगा,और परेशान करना ठीक नहीं होगा।मैंने कहा,‘‘आज ही चला जाऊंगा।दुकान खुली तो होगी न? फिर ओ. के.।’’
    ‘‘थैंक्यू मनीष।’’वर्षा अब आश्वस्त हो मुस्कराई है।
    ‘‘अबे, तेरी अंजलि आ रही है कि नहीं?’’ गौतम मुझसे पूछ रहा है मुस्कुराते हुए।
     मैं कहता हूँ,‘‘तू उसकी चिंता क्यों करता है?’’
     गौतम हंसा,‘‘साले, मैं उसकी नहीं तेरी चिंता करता हूँ। देख देख...अपनी शक्ल देख! उसके लिए तू कितना बेचैन है!’’वह ड्रामा गढ़ने लगता है।
     मैं उसके ड्रामे से बेपरवाह कहता हूँ,‘‘अभी आने वाला है उसका स्टेशन। वो खड़ी है वहाँ।’’
    मोटू मुझे चिढ़ाने का मजा लेते गाने लगा है,‘‘बहुत पहले से तेरे कदमों की आहट जान लेते है,तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं...।’’


 


और मैं रोज की तरह भिलाई-3 स्टेशन आने के पहले ही अपने डिब्बे के गेट पर पहंच गया था। इस छोटे से स्टेशन में ज्यादा भीड़ नहीं होती। नही बहुत उतरने वाले।प्लेटफार्म पर श्रेया मुझे दिख जाती है।उसने भी मुझे देख लिया है।वह जल्दी-जल्दी चलकर इस डिब्बे तक आती है।मेरी धड़कन अपने आप तेज हो जाती है।
    ‘हाय!’ वह उसी सहज मुस्कान से भरी है जो भीतर से खुद-ब-खुद फूटती है।हम रोज की तरह थोड़ी देर तक प्लेटफार्म पर खड़े होकर बात करते हैं,ट्रेन जब चलने की सीटी बजाती है तो चढ़ते हैं। आज भी यही हुआ।
     मुझे टायलेट जाना है।मैं उससे कहता हूँ तुम चलो,मैं आता हूँ।वह आगे बढ़ जाती है,साथियों की तरफ।
    जब मैं वहाँ लौटता हूँ तो इनके हंसी-मजाक चालू हैं। अभी इकबाल संध्या की सीट पर है,और श्रेया वर्षा और संध्या के बीच बैठी है।
     ‘‘मनीष!’’ मुझे देखते ही इकबाल हंसते हुए कहता है,‘‘अरे,अभी वर्षा श्रेया से पूछ रही थी कि मनीष ट्रेन में चढ़ा के नहीं? कि कहीं श्रेया को देखके ऐसा पागल तो नहीं हो गया कि ट्रेन में चढ़ना ही भूल गया?’’
   संध्या कहती है,‘‘पर श्रेया इसको कैसे छूट जाने देगी? इसको तो ये अपने एक हाथ से खींच लेगी।’’
   हंस पड़े सब।आगे गौतम ने कहा,‘‘तुम लोग अभी थोड़ी देर तक नहीं आए तो हम लोगों ने सोचा,साला,आज उड़ गया लेके।’’
    हम हंस पड़े।खूब। खुश हैं।खूब।
    मुझे लगने लगा,सहसा डिब्बे की रोशनी कई गुना बढ़ गई है,और चीजें इस कदर साफ होकर चमक रही हैं जितनी पहले कभी नहीं।सबके चेहरों पर खुशी का उजलापन है...एक अछूता खिलापन, और इस खुशी का सलोनापन।मैं श्रेया को देख रहा हूँ,वह हल्के सिर झुकाए हवा से उड़ते अपने बालों को रह-रहकर समेटने की कोशिश कर रही है,यों ही महज अपना ध्यान बांटने का एक व्यर्थ उपक्रम...।वह आज बसंती पीले सूट में है,हल्की ठंड से बचने नीला जैकेट डाले हुए।श्रेया उन्हें आज के अपने लेट होने की वही बॉस वाली कहानी बता रही है,‘‘आज तो लगा अपनी ट्रेन गई करके!इसने तो मुझे फोन पे एकदम डरा ही दिया था। अच्छा हुआ जो आज बीस मिनट लेट है।कभी-कभी ट्रेन का लेट होना भी अच्छा होता है, है न...?
 ‘‘अरे अच्छा ही नहीं,’’ वर्षा धीमे से कहती है,बहुत गहरे अर्थ से मुस्कराकर,‘‘बहुत अच्छा।’’ फिर वे धीमे से हंस पड़ी हैं वे,जैसे मुक्त हो रही हों। जैसे उन्हें कुछ बहुत अच्छा लगा हो...।हल्के होकर वे मानो हवा में उड़ रही  हों...।
   मैं कहाँ हूँ अभी?...
 इस समय मैं लोगों की भीड़ और शोर से भरे, पसीने या टायलेट से उठती बदबू से गंधाती इस लोकल ट्रेन में तो हरगिज नहीं।मैं इस समय किसी और जगह में हूँ ...कोई अनजान सी जगह,जहाँ खूब हरी मखमली मैदान है, या किसी अनंत विस्तार वाले पकी फसल के सुनहरे खेत में... या किसी हरहराते नीले समुद्र के किनारे गीले रेत पर चहलकदमी करते हुए या किसी गहरे कत्थई पहाड़ पर जिसके परे एकदम साफ और चमकता नीला आसमान है...। और इन जगहों में मैं अकेला नहीं हूँ।यहाँ हम सारे हैं...एक साथ...ऐसे ही हंसते-खिलखिलाते...। यह जैसे हमारी काई दूसरी ही दुनिया है जिसे हमने अपनी सचमुच की दुनिया से पाया है...। हम हैं यहाँ एक दूसरे की बहुत छोटी-छोटी चिंताओं और जरूरतों से भरे हुए...।
   मुझे लगता है ये मेरे जीवन के दुर्लभ क्षण हैं...बहुत कीमती! या जैसे कोई बहुत सुंदर सपना...! और इनके किसी सपने की तरह अचानक खो जाने के भय से सिहरा भी हुआ हूँ मैं। अपने दोस्तों को, अपनी इस दुनिया को मैं किसी अजीब सपनीले विव्हलता में देख रहा हूँ...कुछ ऐसे मानो जीवन में आखिरी बार देख रहा हूँ...। और जाने क्यों,लगता है कभी भी ये दृश्य बदल जाएंगे,और बदले हुए दृश्य में हम ऐसे होंगे जो एक-दूसरे को पहचानते तक नहीं,और बिल्कुल अजनबियों की तरह देख रहे हैं एक-दूसरे को...बहुत सूखी तटस्थता से।...कि हम बहुत व्यस्त हो चले हैं और इस व्यस्तता में अपना सब कुछ भूल चुके हैं। हमें सिर्फ अपने फायदे के काम याद हैं... कि वही सबसे ज्यादा जरूरी और महत्वपूर्ण हो चुके हैं हमारे लिए...।




 
और मैं बताऊँ, आप इसी ट्रेन की खिड़की से बाँयी तरफ देखते रहिए। जी हाँ बाँयी तरफ। बस, कुछ ही पलों बाद आपको पूर्व समाजवादी सोवियत संध के सहयोग से बना विशाल भिलाई स्टील प्लांट दिखना शुरू होगा,देश का सबसे बड़ा सार्वजनिक इस्पात उद्योगकृ।दूर तक फैला हुआ। रात के सांवले दृश्य में लाल,पीला काला धुआं उगलती भारी चिमनियाँ... कहीं पिघ्ले हुए लोहे की लाल-सुनहरी आभा से आकाश आपको मद्धम लाल झमकता दिखाई देगा, और इसी समय आपकी ट्रेकन बिजली के उन चमकते हरफों के ठीक बाजू से गुजर रही होगी‘ भिलाई इस्पात संयंत्र आपका स्वागत करता है!’... और तभी आप इकबाल और गौतम को देखिए...। देखिए कि किस हसरत से ये इसे देखते हैं...झिलमिलाता कोई सुंदर सपना,जो छिन गया हो इनसे...। कि पिछले कुछ बरसों से नयी नियुक्तियाँ बंद है। सिर्फ यहाँ नहीं तमाम सरकारी विभागों में। मेन्स पावर कम किए जा रहे हैं...अब ठेका सिस्टम आ गया है...अस्थाइ्र नियुक्तियाँ हैं...प्राइवेट इण्डस्ट्रीज़ में फायदे के हिसाब से काम है... न काम के घंटे तय हैं न कोई श्रम कानून... न भविष्य निधि न ग्रेच्युटी...कभी भी लात मारकर बाहर कर दिए जाने का असुरक्षा बोध हर समय दिलो-दिमाग में मंडराता रहता है...।
   प्राइवेटाइजेशन! लिबरलाइजेशन!ग्लोबलाइजेशन!
   अभी इसी का जमाना है। नई टेक्नोलॉजी ...ई-गवर्नेस... मल्टी स्किल्ड वर्कर्स... मैनेजमेंट।
   प्राइवेट कंपनियाँ मुनाफे पे मुनाफा बटोर रही हैं।
   -सेंसेक्स में अभूतपूर्व उछाल! आंकड़ा बीस हज़ार के पार!
   -विŸा मंत्रालय का ऐलान,आर्थिक विकास दर लगातार तीसरे साल 9 प्रतिशत!
   -फोर्ब्स में प्रकाशित अरबपतियों की सूची में 40 भारतीय!
   -शाइनिंग इंडिया! मिŸाल टाटा बिरला अंबानी!
  और शहरों में लगातार बढ़ते शॉपिंग मॉल्स...मल्टी प्लेक्सेज़..लक्ज़री रेसोर्टस...हाई-फाई अपार्टमेंटस...।
  ...इधर अपनी लोकल में भीड़ दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। हजारों की तादाद में गौतम इकबाल अविनाश आदेश मनीष ष श्रेया वर्षा संध्या सफर कर रहे हैं। रोज। आते-जाते किसी तरह अपनी जगह बचाए हुए।ट्रेन की गति और लय में डोलते हुए।
    अभी हम युवा हैं।हममें उत्साह है।पर यों अप-डाउन करते मैं अक्सर अपने आगे के कुछ बरस देखने की कोशिश करता हूँ।‘जो है बस आज है और आज को जिओ’ की पॉपुलर थ्योरी से हटके, तो जो दिखता है वह खुश नहीं करता।उत्साहजनक नहीं है। तमाम चिंतकों, मनोविश्लेषकों,सफलता के प्रवक्ताओं या आर्ट ऑफ लिविंग सिखाते गुरूओं के ‘पाज़िटिव थिंकिंग एप्रोच’ के ढेर-ढेर नसीहतों के बावजूद जो दिखता है वह स्याह है।हम ऐसे ही किसी छोटे-मोटे अस्थायी नौकरी में लगे होंगे,हमारे उत्साह के साथ-साथ हमारी आँखों में पलता एक बेहतर भविष्य का सपना भी हमारे अप-डाउन में घिसटते-घिसटते थक चुका होगा...इस बुरी कदर कि हमें किसी भी नयी,भली या कि क्रांतिकारी बात पर विश्वास नहीं होगा,कि हमारी आत्मा में तब एक अजीब सा पथरीलापन और वीरानापन घर कर चुका होगा,देह पर जगह-जगह उदासी के जाले लटक रहे होंगे....कि हम बूढ़े हो चुके होंगे...।
   और बेशक, ऊपर जिन लड़कियों का जिक्र आया है,वे आगे के दृश्य में हमारे साथ नही हैं,और हमें नहीं पता वे कहाँ हैं...।
 
   पावर हाउस भिलाई स्टेशन आने वाला है। होटल मयूरा की लड़कियाँ उतरने के लिए खड़ी हो गई हैं। कॉलेजिया छोकरे इधर ही आ गए हैं।
    वे उनकी छोड़ी हुई जगह पर बैठ जाते हैं।
   ‘‘अबे,थैंक्यू तो बोल!’’ एक कहता है दूसरे से।
   ‘‘अबे बोला न!’’ दूसरे का जवाब।
   ‘‘अरे यार अच्छे से बोल! सुनाई नहीं दिया।’’
   अब लड़के ने जोर से उच्चारा है-थैंक्यूऽऽऽऽ!
    और उनकी समवेत हंसी।

००

कैलाश बनवासी की डायरी नीचे लिंक पर पढ़िए
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 कैलाश बनवासी,41, मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा,दुर्ग (छ.ग.) मो. 9827993920

4 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन कहानी। डेली अप डाउनर्स के जीवन की व्यथि...

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  2. बेहतरीन कहानी। डेली अप डाउनर्स के जीवन की व्यथा...

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  3. बहुत अच्छा आप लगे रहे ऐसी करते रहे हैं और देश का उद्धार करते रहें

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