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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

07 अप्रैल, 2018

भारत बंद: एक मूल्यांकन


उदय चे

2 अप्रैल को हुआ "भारत बंद" जिसमे दलित-आदिवासी एकता मजबूत नजर आयी। बहुमत आदिवासी और दलित जातियां इस बन्द में शामिल रही। इसके साथ ही देश के प्रगतिशील, बुद्विजीवी, लेखक, रंगकर्मी, कम्युनिस्ट पार्टियां बन्द के समर्थन में मजबूती से शामिल हुए।
      
उदय चे

आदिवासी जिनका इतिहास ही सदियों से लड़ने का रहा है। जिनकी संस्कृति ही अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की, लड़ने की रही है। जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए जिन्होंने अपने सर कटवाए है तो दुश्मन के सर भी काटे है। आदिवासियों ने जंगल में जहाँ गोरे अंग्रेजो को नही घुसने दिया तो वही आजादी के बाद उन्होंने भारत के काले अंग्रेजो को भी नही घुसने दिया है। वो आज भी लड़ रहे है मजबूती से गोरे और काले अंग्रेजो की सयुंक्त लुटेरी सत्ता से, उन्होंने भारत बंद में मजबूती से विरोध दर्ज करवाया। उनके बन्द में सत्ता के उत्पीड़न के खिलाफ विरोध का स्वर मजबूत दिखाई दिया।
        लेकिन क्या दलित सच में एकता की तरफ बढ़ रहे है। दावा तो ये भी किया जा रहा है कि दलित-मुस्लिम-पिछड़ा इकठ्ठे हो रहे है अपनी एकता बना रहे है। क्या इसमे सच्चाई है?
     2 अप्रैल के भारी जनआक्रोश को देखते हुए दावे तो ब्राह्मणवाद को हराने के किये जा रहे है। बोला जा रहा है ब्राह्मणवाद हार रहा है, अब कुछ दिन का मोहताज है ब्राह्मणवाद। बहुत जल्दी ही दलित-पिछड़ो का राज होगा। सपने बहुत लिए जा रहे है वैसे सपने लेने का सबको अधिकार भी है लेकिन जब सपना टूटता है तो इंसान टूट जाता है भविष्य में खड़ा होना उसके लिए बहुत कठिन हो जाता है।
पूंजीपतियों द्वारा खड़े किए गए अन्ना और केजरीवाल के आंदोलनों से भी देश के लाखों लोगो ने परिवर्तन के सपने देखे थे। लेकिन जब सपना टूटा तो सपना देखने वाले भी टूट गए आज उनकी हालत बहुत बुरी है वो न इधर के रहे और न उधर के रहे।
इसलिए सपना जरूर देखो लेकिन पहले ठोस मैदान जरूर तैयार करो।

 किसी भी आंदोलन का ईमानदारी से मूल्यांकन किये बिना आगे बढ़ना "अंधेरे में लठ मारना है"

सबसे पहले तो ब्राह्मणवाद क्या है इसको जानने की जरूरत है। ब्राह्मणवाद के नाम पर जो रोजाना ब्राह्मणों को गाली दे कर सन्तुष्टि की जा रही है।
क्या इससे ब्राह्मणवाद हार जाएगा?



ब्राह्मणवाद

लुटेरी क़ौम द्वारा श्रम की लूट को धर्म का चोला पहनाकर लूट को जायज ठहराने और लुटेरो को सर्वश्रेठ साबित करने वाला विचार ब्राह्मणवादी विचार है। ब्राह्मणवाद जिसका प्रतिनिधित्व कभी सवर्ण जातियां करती थी। लेकिन वर्तमान में आज ब्राह्मणवाद सभी जातियों में है। जो भी जाति या व्यक्ति लुटेरी मण्डली में शामिल हो जाता है या होने का इच्छुक होता है वो ब्राह्मणवाद की चपेट में है। आज प्रत्येक जाति दूसरी जाति से खुद को स्वर्ण समझती है। एक झूठे औऱ काल्पनिक मिथकों व इतिहास के सहारे श्रेष्ठ बनने की कोशिश प्रत्येक जाति द्वारा की जा रही है।
बहुमत की मजदूर और किसान जातियाँ जो वर्तमान में दलित व पिछड़ो में विभाजित है। सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन में जिनकी एकता बहुत जरूरी है। ये जातियाँ आपस में ब्राह्मणवाद का बहुत गहरे से शिकार है। आज भी ब्राह्मण ही ब्राह्मणवाद की अगुवाई कर रहा है। लेकिन इसके पीछे सभी जातियाँ खड़ी है।

दलित जातियाँ भी आपस में छुआछूत उतना ही करती है जितना उनसे सवर्ण जातियाँ करती है।

            सबसे पहले दलित जातियों की बात करे तो अपर दलित जातियाँ चमार, धानक, नायक जाति दलितों में स्वर्ण भूमिका में है। जितनी नफरत सवर्ण, दलितों से करते है उतनी ही नफरत अपर दलित जातियां के लोग अति दलित में शामिल जाति सेंसी, बावरी, वाल्मीक, पासी, भंगी इनके साथ करते है।
जातियों में भी अंदर ये जात और गोत्रो में बंटे हुए है।
किसी भी गांव में इनके मकान इकठ्ठे नही है। जात के अनुसार अलग-अलग बस्तियां है। दलित तो जात के अंदर भी जात में बंटे हुए है। जिस समय गांव में पानी का साधन कुँए होते थे तो दलितों ने भी जाति अनुसार कुँए अलग-अलग बनाये हुए थे। चौपाल अलग-अलग, गांव में श्मशान भूमि जहाँ सवर्णो ने अलग बनाई हुई है ऐसे ही दलितों ने भी श्मशान भूमि के अंदर अलग-अलग जगह बनाई हुई है।
स्वर्ण जातियों में जो रीति-रिवाज, सामाजिक जकड़न और समाज का ढांचा है, वैसा ही ढांचा पिछड़ो व दलितों में है।
आप बराबर सवर्णो का ढांचा अपनाए हुए है। बराबर उन्ही नियम कानून कायदों में रहना पसंद करते है। लेकिन ब्राह्मणवाद को गालिया देते है उसको खत्म करना चाहते है। आपके जो दलित नेता है जो सुबह से शाम तक ब्राह्मणवाद के नाम पर सिर्फ ब्राह्मणों को गाली देकर वोट बटोरना चाहते है। लेकिन इस सामाजिक ढांचे को तोड़ना नही चाहते है। ये दलित नेता आपको गुलाम बनाये रखना चाहते है। ये दलित नेता वोटो की फसल के लिए दलित जातियों की एकता बने कभी नही चाहते है।
क्या 2 अप्रैल के भारत बंद में कोई दलित नेता आपको भारत बंद में शामिल होता दिखा? जबकि 60 से 70 सांसद और सैंकड़ो विधायक दलित है।

पिछड़ो के हालात -  

जिसको इस आंदोलन से ये लगता है कि इस आंदोलन में ओबीसी साथ आये है वो भी मूर्खता कर रहे है। obc आरक्षण के लिए obc है नही तो मानसिकता से सवर्ण है।
ऐसे ही मुस्लिम-सिख-ईसाई भी भारतीय संधर्भ में जातियों में बंटे हुए है। उनमें भी जातीय भेदभाव है।
 पिछड़ी जातियों में 2 तरह की जातियाँ है। छोटा किसान और भूमिहीन पिछड़े भूमिहीनों के सामाजिक हालात दलितों से थोड़े से बेहतर है लेकिन जातीय उत्पीड़न के वो भी शिकार है। OBC किसान जो बहुमत संख्या में ज्यादा है वो दलितों का जमकर उत्पीड़न करता है। सवर्णो के इशारे पर वो गांव में दलितों का सामूहिक सामाजिक बहिष्कार, आर्थिक बहिष्कार, राजनीतिक बहिष्कार करता रहा है। सवर्ण जाति खासकर ब्राह्मण इन पिछड़ी जाति के किसानों को आगे करके दलितों का जमकर उत्पीड़न करता है।
कुछ मामलों में स्वर्ण इन पिछड़ो का भी जातीय शोषण करते है। जहाँ सवर्ण जातीय बहुमत में है वहां वो OBC किसानों को अपना हुक्का भी नही पीने देंगे।
आरक्षण के सवाल पर सवर्ण इनकी खिलाफत करते है।
OBC जातियाँ खासकर किसानी से जुड़ी जातियाँ 2 अप्रैल के भारत बंद के खिलाफ थी और ये ही जातियाँ 10 अप्रैल के लुटेरी जातियों द्वारा बुलाये गए भारत बंद के समर्थन में खड़े है। क्योंकि SC/ST एक्ट उन जाहिलो को नकेल डालने का काम करता है जो इंसान को इंसान न मानकर उनसे जानवरो से भी बुरा व्यवहार करते है।
इसलिए ये जाहिल चाहते है कि उनको और आजादी मिल जाये मेहनतकश जातियों को लूटने की, लूट के खिलाफ आवाज उठाए तो जातीय आधार पर उनका दमन करने की, वो कोई भी कानूनी पाबन्दी नही चाहते है। वो मानवता को कुचलने का जो नंगा नाच धर्म की आड़ में हजारो सालो से करते आ रहे है उस नंगे नाच पर भारत के सविधान ने जो रोक लगाई थी उस रोक से आजादी चाहते है। इसलिए 10 अप्रैल को उन्होंने भारत बंद बुलाया है। इस भारत बंद में obc किसान जातियाँ बढ़-चढ़ कर भाग लेंगी। भाग नही लेगी तो विरोध कभी नही करेगी इस भारत बंद का।

रोटी-बेटी का रिश्ता

 सभी दलित जातियों की सवर्णो के सामने सामाजिक हालात बराबर है। इसलिए दलितों को दलित जातियों में सामाजिक बराबरी की तरफ बढ़ना चाहिए। दलित एकता अगर बनानी है तो सबसे पहले दलित जातियों को आपस मे रोटी-बेटी का रिश्ता कायम करना जरूरी है।
रोटी-बेटी के रिश्ते का अभी तक दलित-पिछड़े-सवर्ण सभी विरोध कर रहे है। जाति और शादी का भारतीय संधर्भ में मेल है। अगर सभी जातियों में रोटी-बेटी का रिश्ता बनता है तो जातिय बन्धन कमजोर जरूर होंगे।
मान लो किसी गाँव मे दलितों का सामाजिक बहिष्कार किया हुआ है। आज कोई सवर्ण दलितों के पक्ष में नही बोलता सिर्फ प्रगतिशील लोगो को छोड़ कर
लेकिन अगर उन दलितों में स्वर्ण जाति के बेटी या बेटा की शादी की हुई है या दलितों में ही आपज में शादियां होती है तो क्या वो सवर्ण जात वाले या दलित अपने रिस्तेदारो के पक्ष में नही आ खड़े होंगे?

भूमि बंटवारा

    बहुमत दलित व अति पिछड़ी जातियां भूमि हीन है इसलिए सबको भूमि बंटवारे की सांझी लड़ाई लड़नी चाहिए। जहाँ दलितों के पास बहुमत में खेती के लिए भूमि है वहाँ जातीय उत्पीड़न बहुत कम है।
दलित संगठित-असंगठित क्षेत्र में मजदूर है, वो खेत मजदूर है उनको श्रम की हो रही लूट के खिलाफ औऱ श्रम कानून लागू करवाने के लिए सांझी लड़ाई लड़नी चाहिए।

दलितों को शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार के लिए सामूहिक आंदोनल खड़े करने चाहिए।

दलितों को आदिवासियों, अल्पसंख्यको, महिलाओं के मुद्दों पर चल रहे संघर्षो में भागीदारी करनी चाहिए।

जब आप इन मुद्दों पर लड़ेंगे तो आपकी इस लड़ाई का हिस्सा पिछड़े, सवर्ण जो मजदूर-किसान है वो भी आपके पीछे आएंगे क्योकि उनके आर्थिक मुद्दे भी ये ही है। जब वो आपके साथ आएंगे तो ये जातीय बेड़िया कमजोर होगी।
अगर ईमानदारी से लड़े तो जीत आपकी तय है। ब्राह्मणवाद का खात्मा, लूट तंत्र का खात्मा है।
००








4 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छे विचार हैं। भाषाई कमियाँ/वर्तनी चाहें तो दुरुस्त कर लें।...
    मुसीबत वही है, दलित आंदोलन भी प्रायः जाति के घेरे से नहीं निकल पाता। ब्राह्मणवाद का पैरोकार भले ही ब्राह्मण जाति में पैदा हुआ व्यक्ति माना जाय पर हर प्रकार का पुजारी ब्राह्मणवाद का शिकार ही नहीं पैरोकार भी है। अधिकांश जमींदार और क्रूर अत्याचारी प्रायः क्षत्रिय या राजपूत कही जाने वाली जाति रही है, पर आन्दोलनों में ब्राह्मणों को गालियाँ सुनाकर सन्तुष्ट हो लिया जाता है। डॉ आंबेडकर पर फूल मालाएं चढ़ाकर भी ब्राह्मणवाद को नहीं समाप्त किया जा सकता है। सच तो यही है कि जब तक दलित आंदोलन आर्थिक मुद्दों को लड़ाई का मुद्दा नहीं बनाता, ब्राह्मणवाद को भी परास्त कर पाना सम्भव नहीं!

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  2. अच्छे विचार हैं। भाषाई कमियाँ/वर्तनी चाहें तो दुरुस्त कर लें।...
    मुसीबत वही है, दलित आंदोलन भी प्रायः जाति के घेरे से नहीं निकल पाता। ब्राह्मणवाद का पैरोकार भले ही ब्राह्मण जाति में पैदा हुआ व्यक्ति माना जाय पर हर प्रकार का पुजारी ब्राह्मणवाद का शिकार ही नहीं पैरोकार भी है। अधिकांश जमींदार और क्रूर अत्याचारी प्रायः क्षत्रिय या राजपूत कही जाने वाली जाति रही है, पर आन्दोलनों में ब्राह्मणों को गालियाँ सुनाकर सन्तुष्ट हो लिया जाता है। डॉ आंबेडकर पर फूल मालाएं चढ़ाकर भी ब्राह्मणवाद को नहीं समाप्त किया जा सकता है। सच तो यही है कि जब तक दलित आंदोलन आर्थिक मुद्दों को लड़ाई का मुद्दा नहीं बनाता, ब्राह्मणवाद को भी परास्त कर पाना सम्भव नहीं!

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  3. अच्छे विचार हैं। भाषाई कमियाँ/वर्तनी चाहें तो दुरुस्त कर लें।...
    मुसीबत वही है, दलित आंदोलन भी प्रायः जाति के घेरे से नहीं निकल पाता। ब्राह्मणवाद का पैरोकार भले ही ब्राह्मण जाति में पैदा हुआ व्यक्ति माना जाय पर हर प्रकार का पुजारी ब्राह्मणवाद का शिकार ही नहीं पैरोकार भी है। अधिकांश जमींदार और क्रूर अत्याचारी प्रायः क्षत्रिय या राजपूत कही जाने वाली जाति रही है, पर आन्दोलनों में ब्राह्मणों को गालियाँ सुनाकर सन्तुष्ट हो लिया जाता है। डॉ आंबेडकर पर फूल मालाएं चढ़ाकर भी ब्राह्मणवाद को नहीं समाप्त किया जा सकता है। सच तो यही है कि जब तक दलित आंदोलन आर्थिक मुद्दों को लड़ाई का मुद्दा नहीं बनाता, ब्राह्मणवाद को भी परास्त कर पाना सम्भव नहीं!

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  4. अच्छे विचार हैं। भाषाई कमियाँ/वर्तनी चाहें तो दुरुस्त कर लें।...
    मुसीबत वही है, दलित आंदोलन भी प्रायः जाति के घेरे से नहीं निकल पाता। ब्राह्मणवाद का पैरोकार भले ही ब्राह्मण जाति में पैदा हुआ व्यक्ति माना जाय पर हर प्रकार का पुजारी ब्राह्मणवाद का शिकार ही नहीं पैरोकार भी है। अधिकांश जमींदार और क्रूर अत्याचारी प्रायः क्षत्रिय या राजपूत कही जाने वाली जाति रही है, पर आन्दोलनों में ब्राह्मणों को गालियाँ सुनाकर सन्तुष्ट हो लिया जाता है। डॉ आंबेडकर पर फूल मालाएं चढ़ाकर भी ब्राह्मणवाद को नहीं समाप्त किया जा सकता है। सच तो यही है कि जब तक दलित आंदोलन आर्थिक मुद्दों को लड़ाई का मुद्दा नहीं बनाता, ब्राह्मणवाद को भी परास्त कर पाना सम्भव नहीं!

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