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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

27 अप्रैल, 2015

कविता क्या कर सकती है... उदय प्रकाश

शनिवार, 25 अप्रैल। बिजूका-2 पर आज विचार विमर्श का दिन है।कविता की संगत, उसकी ताकत और कवि की नियति पर कवि-कथाकार उदय प्रकाश की एक टिप्पणी।
कविता क्या कर सकती है... 

उदय प्रकाश 
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कविताएं बचपन से ही मेरे सबसे निकट रही हैं। वे मेरे अस्तित्व के एकांत, निस्संग सन्निकटता और नीरवता की सबसे भरोसेमंद और अटूट साथी रही हैं। कई बार जब यह गहरा संदेह पैदा होता है कि इस समय और स्थान में, जहां चारों ओर अनगिन सत्ताओं का सर्वव्यापी साम्राज्य है, क्या सचमुच मेरी भी कहीं कोई मौलिक सत्ता और कहीं कोई प्रामाणिक अस्तित्व  है, क्या मैं भी कहीं ‘उपस्थित’ हूं, तो कविता ही उसका, कमज़ोर ही सही, पर सबसे पहला और शायद 
अंतिम प्रमाण होती है। 
जब सारी सत्ताएं साथ छोड़ जाती हैं, या उनके फैसलों का शोर चारों ओर गूंज रहा होता है, तो वह कविता ही है, जहां अपनी आवाज़  साफ सुनाई देती है। कविता कभी भी, पराजय, विध्वंस, आत्महीनता और गहरे दुखों के पल में भी हाथ और साथ नहीं छोड़ती। वह एक ऐसे 
निरापद दिक-काल का निर्माण करती है, जहां पूंजी से लेकर राजनीति, धर्म, नस्ल, जाति, 
मास-मीडिया और तकनीक की तमाम संगठित सत्ताओं की हिंसा और अन्याय के विरुद्ध किसी 
वंचना या विराग में डूबा एक गरीब या फकीर अपना कोई सबसे मानवीय, नैतिक और पवित्र 
फैसला सुनाता है। दिक और काल, समय और यथार्थ, निजता और समूह, व्यक्ति और सत्ता-प्रणालियों के बारे में कोई धीमा, मंद, निजी निर्णय। एक ऐसा अस्फुट एकालाप, जो बहुत करीब से, ध्यान लगाकर ही सुना जा सकता है। 


कविता समूची प्रकृति और मनुष्यता के उत्पीड़न और विनाश में लगी सबसे बलशाली ताकतों के 'पाप’ (नैतिक) और ‘अपराध’ (सामाजिक-संवैधानिक) के खिलाफ़ हमेशा  कोई न कोई ‘फतवा’ जारी करती रहती है और अपने जीवन को बार-बार दांव पर लगाती है। वह हर बार कोई न कोई जोखिम या खतरा मोल लेती है और हर बार किसी संयोग या चमत्कार से बच निकलने पर अपना पुनर्जीवन हासिल करती है और एक बार फिर सांस लेना शुरू करती है। फिर से किसी नये जोखिम भरे दायित्व का बोझ उठाने के लिए। 


मुझे याद है, जब मैं बहुत छोटा था और मां कैंसर में मर रहीं थीं। डाक्टरों ने जवाब दे दिया 
था और उन्हें मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल से गांव के घर में वापस ले आया गया था। पिता जी के पास सारे पैसे और जेवर खत्म हो चुके थे। अब कोई भौतिक और बाहरी मदद मां के लिए निरर्थ हो चुकी थी। वे सिर्फ अनार का रस पी रहीं थीं। तब भी वह कविता ही थी और चित्र, जिनके जरिये मैं अपनी मां को बचाने के लिए कैंसर से पूरे भरोसे के साथ लड़ रहा था। 
मां की मृत्यु के वर्षों बाद तक उस कमरे की दीवारों पर, जिसमें मां अपने जीवन में रहतीं थीं, 
मेरी बनाई अनगिनती आकृतियां थीं और उतने ही शब्द, जो उस समय मेरी समझ में अबूझ शक्तियों से भरे थे और वे मृत्यु को कहीं दूर रोक कर, मां को मेरे लिए बचा सकते थे। ऐसा लेकिन नहीं हुआ। शब्द और दीवारों या कागज़ों पर, किसी अकेले निर्बल कलाकार या कवि द्वारा उकेरे गये अक्षर या आकार अक्सर प्रत्यक्ष और प्रबल भौतिक शक्तियों के हाथों पराजित 
होते हैं, मिटा दिये जाते हैं। लेकिन जिसके पास कोई और बल न हो, दूसरा कोई विकल्प ही न 
हो, तो बार-बार अपने इन्हीं उपकरणों की ओर लौटने के, कोई दूसरा चारा भी तो नहीं होता। 


तमाम सारी बाहरी ताकतें जब भाषा पर आक्रमण करती हैं और स्मृतियों का विनाश करने के 
अपने राजकर्म या वणिककर्म में संलग्न हो जाती हैं, तो कविता मनुष्य या किसी व्यक्ति की 
स्मृतियों को बचाने के प्राणपन संघर्ष में मुब्तिला होती है। विस्मरण के विरुद्ध एक पवित्र और ज़रूरी संग्राम की शुरुआत सबसे पहले कविता ही करती है, अगर वह अपने किसी अन्य हितसाधन 
में नहीं उलझ गयी है, और सबसे अंत तक वही उस मोर्चे पर रहती है। सबसे पहले और सबसे अंत में 
यह मोर्चा भाषा का ही होता है। कविता की एक ऐसी निजी कवि-भाषा, जो जीवन के अनुभवों से अपना अर्थ प्राप्त करती है, प्रचलन, प्रयोग और मुहावरों से नहीं। कविता भाषा के चालू प्रत्ययों, मुहावरों और वागाडंबरों (रेटरिक या डेमागागी) को नष्ट करती है। उन्हें प्रश्नांकित करती है। .....और जो कविता जितना अधिक यह काम करती है, वह अपने विरुद्ध 
उतना ही विस्मरण का विरोध एकत्र करती है।एक तरफ वह स्मृति की रक्षा करती है, दूसरी 
ओर वह भाषा में शब्दों के अर्थ की भी रक्षा और उनका पुनरुद्धार करती है। वह शब्दों में नये 
अर्थों को आविष्कृत भी करती है। वह शब्दों को उनकी विनषट स्मृतियों के साथ बचाते हुए उन्हें 
किसी शरणार्थी शिविर तक पहुंचाती है। उनके घावों पर मलहम लगाती है और पट्टियां बांधती है। हमारे समय में, भाषा का अलग-अलग गैर-मानवीय या मनुष्य-विरोधी परियोजनाओं में जैसा ‘इस्तेमाल’ किया गया है, उसके संदर्भ में मुझे पोलिश भाषा के अपने प्रिय कवि ताद्युश रोज़ेविच की कविता 'शब्द’ की याद आ रही है -‘‘बचपन में शब्द मलहम की तरह घावों पर लगाये जा सकते थे/ हम दे सकते थे उसे/ जिसे हम प्यार करते थे/’’ 


हर सच्चे कवि को संसार की बाहरी सत्ताएं भाषा और अपने समाज से हमेशा बेदखल करती हैं। 
वह विस्थापन और उत्पीड़न की यातना उसी तरह भोगता है जैसे कोई आदिवासी या संस्कृति और 
समाज का सबसे निचला वर्ग और वर्ण।  वह कविता या रचना ही है, जो उसे करुणा और सहानुभूति से भरे, एक पवित्र और अपेक्षाकृत सुरक्षित शरण्य में आश्रय देती है। ......और वह थोड़ी-सी गरिमा जो हर मनुष्य और हर तरह की कला के लिए अभीष्ट है। 


कहीं पढ़ा था कि कविता किसी अनजान देश के किसी छोटे-से स्टेशन के निर्जन प्लेटफार्म में देर 
रात खड़ी किसी रेलगाड़ी की तरह होती है। बिल्कुल खामोश। अपनी अगली यात्रा को फिलहाल कुछ समय तक स्थगित करती हुई। बीच-बीच में, कभी-कभी इंजन से निकलती भाप से ही पता चलता है कि सांस अभी कायम है। .....और अहभी आगे कुछ स्टेशन और हैं, जहां तक यात्रा जारी है।
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कुमार अनुपम:-
"दोस्त, यही तो वह चीज़ है, जिसके कारण तुम अजीब और किसी हद तक क्रूर दिखाई देते हो, इसलिए मैंने हटा दिया।" रघुनंदन जी मेरे प्रिय कथाकार (रहे ) हैं, यह कहने के साथ मैं अपनी बात कहने की अनुमति चाहता हूँ। जो अंश मैंने संदर्भित किया है, उसमें किसी व्यक्ति (किसी जाति विशेष की खास पहचान से इसे न जोड़ा जाय तो भी) की क्रूरता का बायस दाढ़ी कैसे माना जा सकता है? जिसे हटा देने मात्र से दोस्ती का व्यक्ति-चित्र यथेष्ट बना देने की कथाकार संकल्पना प्रस्तावित करता है। यह मेरे लिए अबूझ है। और दूसरा भी दाढ़ीविहीन छवि को ही अपने मित्र का उचित रूप (चित्र) मानने की प्रस्तावना करता है। यह विचार किस समन्वयवादी आत्मीय मित्रता की छवि उपस्थित करता है? क्या दाढ़ी हटा देने मात्र से अलगाववादी सोच की प्रवृत्ति का तुष्टिकरण करने की सरल कोशिश इस कठिन समस्या के प्रति कथाकार द्वारा अख्तियार किया गया अगंभीर रवैया नहीं है? मैं अब भी इस बारे में सोच रहा हूँ। कृपया सही राय बनाने में मेरी मदद करें!


अंजू शर्मा :-
अनुपम इतनी रात को मदद मुझे लगता है यहां निहितार्थ इतने गूढ़ नहीं जितनी व्याख्या की गई है। यह व्यक्तिगत पसंद का मसला है। दाढ़ी भला क्रूरता का मापदण्ड कैसे हो सकती है। इसे किसी खास प्रतीक से जोड़ना कुछ जंचा नहीं।  ये निजी पसन्द से जुड़ा हो तो बात समझ आती है। मने हम औरों को अपनी पसन्द के अनुसार ढला हुआ देखना चाहते है पर स्वयं में कोई बदलाव हमे स्वीकार्य नहीं। जबकि ऐसा ही सामने वाले पर भी लागू हो तो यकीनन ऐसे रिश्ते दूर तक नहीं चलते।

कुमार अनुपम:-
अंजू जी : और अगर 'यह' प्रतीक वास्तव में हमारे समय में एक त्रासद अलगाव का कारण हो, जो कि दुर्भाग्य से बना दिया गया है तो...

कुमार अनुपम:-
निजी पसंदगी का निहितार्थ मैं व्यक्ति तक संकुचित अर्थों में नहीं देख पा रहा हूँ और रघुनन्दन जी जैसे बड़े लेखक के सोच को भी इतने छोटे फलक पर देखने की हिमाकत भी कैसे कर सकता हूँ जबकि कथाकार एक "क्ल्यू" उपलब्ध करवा रहा हो।

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 05 मई 2018 को लिंक की जाएगी ....http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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  2. मोटा मोती बात जहाँ पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि
    सार्थक आलेख.

    खैर 

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