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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

27 अप्रैल, 2015

अर्चना चावजी की कविता

साथियों आज रविवार  है, अत: व्यवस्था के अनुसार समूह के सदस्य  की किसी कविताओं  पर विचार करेंगे , जिन पर सभी सदस्य कृपया अपना अभिमत दें .
एक निवेदन कि कविताओं पर अपनी टिप्पणी अवश्य दें लेकिन उम्दा,बेहतरीन,सुन्दर , खूबसूरत आदि से थोड़ा ऊपर उठकर , ताकि रचनाकार को अगली रचना में उसका लाभ मिल सकें . अर्थात यदि वह रचना आपको अच्छी लगी तो क्यों लगी , उसका कौनसा पक्ष अच्छा लगा और नहीं लगी तो क्यों नहीं लगी , उसका कौनसा पक्ष अच्छा नहीं लगा . साथ-साथ आप उस रचनाकार (कवि/कथा लेखक) को अपने सुझाव भी दे सकते है कि उस रचना में और क्या किया जा सकता है , लेकिन ध्यान रहें टिप्पणी कैसी भी हो उसका हेतु सकारात्मक होना चाहिए .

एक निवेदन और कि कोई भी बीच में अन्य कुछ भी पोस्ट न करें .

१)
सुबह-सुबह गिरती है जब ओस 
भीग जाता है मन 
देखकर अलसाते फूल 
उनींदी आँखों से दिखाता है सूरज 
एक सपनीला नज़ारा 
धुंध में छिपा लगता है 
प्रकृति का कण-कण प्यारा 
सिहरन देती चलती है 
मॉर्निंग वॉक करती ठंडी हवा 
उम्र कई साल पीछे जा 
हो जाती है नटखट- जवां 
अलाव से उठता धुंआ 
रगड़ती हथेलियां 
गर्माता खून 
और दुबके परिंदे देख 
मन भरता है उड़ान 
और लांघता है लम्बा पुल
यादों का 
पार होते ही गलियारा 
दूसरी ओर दिखता है 
फिर एक पुराना 
सपनीला नजारा 
फिर गिरती है ओस 
इस बार कोर से 
उनींदी आँखों की 
भीग जाता है मन 
सुबह-सुबह ..

000

सूरज गया है छुट्टी पर
या जबरन भेज दिया गया लगता है
बादलों ने जमा लिया है कब्ज़ा 
पूरे आसमान पर 
शायद धरती की हरियाली से
इश्क हो गया है
धरती की खुशी 
किसमें है? किसको फिक्र?..
0000


३)
"सुनहरा वक्त"
वो भी क्या दिन थे 
हम हाथों में हाथ लिए 
साथ बतियाते थे 
रूठकर एक दूसरे से ही 
एक दूसरे को ही मनाते थे 
मैं तुम्हारी और तुम मेरी 
उलझन सुलझाते थे 
अब हरदम 
यादों में डूबी रहती हूँ 
जिन्दगी का दिया हर गम 
खुशी-खुशी सहती हूँ 
ईश्वर से एक ही आस है फ़क्त 
कभी तो पिघलेगा 
और
लौटाएगा सुनहरा वक्त....
0000


४)
बहुत करीने से 
सजाने होते हैं आँसू 
आँखों की पोरों पर 
पलकों की कैद में भी
रूकते नहीं ये बेशरम
करते हैं-अपने मन की
इतना भी नहीं जानते 
बह जायेगी साथ इनके 
यादें मेरे साजन की
0000


५)
ये सच है कि मन भटकता है
मन के पीछे मैं भी
स्थिर तो सिर्फ तुम हो...
तुम्हे खोज लेने की चाह
बेचैनी बढ़ा देती है मेरी
न जाने कहाँ गुम हो...
छटपटाहट का क्या कहूँ
जैसे दूर आसमान में
कटी पतंग की दुम हो..
0000
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बी एस कानूनगो:-
कविताएं अच्छी हैं।केवल एक बात कहना चाहता हूँ। संवेदनाओं को व्यक्त करने लिए शब्दों का इस्तेमाल कम हो बल्कि शब्दों के माध्यम से कविता में संवेदनाएं खुद ब खुद बाहर निकलें तो क्या कहने।कुछ ऐसा ही अपेक्षित है आज की कविताओं से।

प्रज्ञा :-
कविताओं के भाव अच्छे हैं । पर अचानक से ये अंत पर पहुंच गयी लगती हैं। शिल्प के धरातल पर लगा कि कविता शब्द से शुरू होकर वाक्य पर पहुंच रहीं हैं ।

फरहात अली खान :-
बेहद सलीक़े के साथ बहुत उम्दा कविताएँ लिखी गयी हैं। पहली कविता सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है। कल्पनाओं की उड़ान कहाँ तक जा सकती है ये यहाँ नज़र आता है। कवित्री ने सर्द मौसम में दुबके परिन्दे तक देख लिए और उनका भी ज़िक्र किया है यहाँ; ये कोई बारीक-नज़र रखने वाला शख़्स ही कर सकता है।
तीसरी कविता में जब हम सबके अकेले पालनहार का ज़िक्र आया ही है तो मैं भी कुछ कहना चाहूँगा, वो यह कि वह तो रहीम और करीम है; किसी के दिल में अगर कोई करुणा या ममता है तो वो उसी रब की दी हुई है; इसलिए 'पिघलने' वाला कॉन्सेप्ट किसी इंसान पर तो लागू हो सकता है लेकिन ख़ुदा पर नहीं। इसलिए यहाँ तीसरी कविता में 'पिघलने' वाली बात न कहकर अपनी इच्छापूर्ति के लिए 'दुआ' की जाती तब ठीक रहता।
इसके अलावा 'फ़क्त'(faqt) की जगह 'फ़क़त'(faqat) होना चाहिए था।
इन बातों को छोड़ दिया जाए तो सभी कविताएँ फ़िक्र-ओ-फ़न(भाव और कला) के पैमाने पर खरी उतरती हैं।

सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-
पहली कविता में बिखराव बहुत है। प्रतीकों में कहीं कोई साम्य या संगठन दिखाई नहीं देता। कोई सम्यक भाव देने में  यह कविता असमर्थ है।
शब्दों का कोई ठीक 'बंदोबस्त' नहीं। 'नजारा' शब्द तो महज घसीट कर लाया हुआ लगता है। यह शब्द अपनी रचना ही से कविता के भाव को बुरी तरह प्रभावित करता है।
बहरहाल इसे कविता कहने में ही बाधा है।

सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-
दूसरी कविता में कवि कहना क्या चाहता है, यही समझ में नहीं आया।
मुझे तो डर है कि इसे बचपन में लिखा हुआ न कह दिया जाए!

सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-
"रूठकर.......ही मनाते थे" में "ही" निपात का प्रयोग मूर्खतापूर्ण है।
'फकत' शब्द हास्यास्पद ढंग से रखा गया है।
किसी अनाडी बच्चे की सी लिखी जान पडती कविता। 
इसे कविता ही क्यों कहा जाए??

सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-: 4 'साजन' 'बेशरम' ऐसे शब्द इस तरह प्रयोग में लाए गए हैं जैसे अभी अभी 'समीर' के गाने सुनकर कुछ लिखने का मन हुआ और लिखकर छुट्टी की।

सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-
अंतिम रचना ऊपर की कविताओं ? के 'स्तर' से कुछ ठीक कही जा सकती है।
'दुम' शब्द पर हंसी छूटे तो कोई क्या कर।

सुवर्णा :-
कविताएँ अच्छी हैं। पर कानूनगो जी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ। कम शब्दों में प्रभाव कविता को कविता बनाता है साथ ही प्रतीकों का सहज इस्तेमाल। इन बातों को अपनाकर शायद और बेहतर सा कुछ किया जा सकता है। धरती की ख़ुशी.... अच्छी लगी। इसे प्रतीक लेकर आगे रचा जा सकता है। साधुवाद।

निधि जैन :-
मॉर्निंग वाक
फ़क्त
दुम

मतलब तुकमिलानी के लिए कुछ भी
सोऽहं जी की समीक्षा से शत प्रतिशत सहमत

सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-
आजकल की समीक्षा में कार्यालयी भाषा के पारिभाषिक शब्दों का बहुतायत प्रयोग होने लगा है, किसी रचना के भाव को शिथिल और शुष्क ढंग से प्रस्तुत करता है कि पाठक किसी रचना के भाव को समझने के लिए इनसे भी किनारा करने लगा है।
मुझे लगता है यह आधुनिक मनोविज्ञान के अनुकरण पर किया जा रहा है।
अब काव्य कला को भी विज्ञान के दायरे में घसीट कर लाया जाने लगे तो उसे युगधर्मिता कहकर ही मन को समझाना पडेगा।

बी एस कानूनगो:-
कविता 4 में कहा गया की -बहुत करीने से सजाना होते हैं आंसू! बहुत बचकानी बात है।कौन करीने से सजाने के लिए आंसू बहाता है।केवल शब्दों को रख देना कविता नहीं होता।इसे शायद कवी को खुद ही नष्ट कर देना चाहिए। कविता 5 में आखिर पंक्ति आसमान में लहराती कटी हुई पतंग की बेसहारा डोर हूँ ... अधिक उपयुक्त हो सकता है।
कविता 2 में थोड़ा ठीक ठाक बिम्ब बनता है लेकिन कुछ शब्दों को बदला जा सकता है जैसे इश्क की जगह प्रेम ।फ़िक्र की जगह चिंता।कवि अपने शब्द सामर्थ्य को बढ़ाने का उपक्रम कर सकते है।पहले लिख लें।फिर धैर्य से सम्पादन करें।चाहें तो किसी परर्यायवाची समान्तर कोश की मदद लें।कविताओं को निखारें।

नंदकिशोर बर्वे :-
तीसरी कविता सूरज गया है ----भाव और कहन के पैमाने पर परिपूर्ण रचना है। शेष में ये दोनों ढूंढना पड़ते हैं।

अलकनंदा साने:-
साथियों आज किसी कारणवश थोडा जल्दी रचनाकार का नाम घोषित कर रही हूं । इसके बाद भी यदि कोई अपनी प्रतिक्रिया देना चाहे तो दे सकते हैं ।

हम लोग जिनकी मधुर आवाज में कई बार दूसरों की रचनाएं सुन चुके हैं वे अर्चना चावजी आज की कवयित्री हैं । एक विशेष बात मैं उनके बारे में कहना चाहूंगी कि वे स्वयं कभी भी अपनी कविताओं को साझा करने के लिए बहुत उत्सुक नहीं थी। बार बार कहती रही मुझे लिखना नहीं आता। लेकिन मैंने उनसे आग्रह किया कि जब तक आप अपनी कविताएं सबके सामने नहीं रखेंगी उनकी कमी बेशी पता नहीं चलेगी ।
मुझे लगता है कि आज की प्रतिक्रियाओं से उन्हें निश्चित ही लाभ मिलेगा ।
अब वे अपना वक्तव्य यहां रखेंगी ।

प्रज्ञा :-
आपने ठीक आग्रह किया ताई। अर्चना जी मैं पहले ही लिख चुकी हूँ भाव बहुत अच्छे लगे कविताओं के। और इस रचनात्मक मंच पर आपकी आने वाली रचनाओं का इंतज़ार रहेगा। शुभकामनाएं।

चंद्र शेखर बिरथरे :-
बिना शीर्षक की ये कविताऐं प्रभावित तो करती है मगर गहरी अनुभूति से सारोबार नहीं करती हैं । अभी और तपने की आवश्यकता है । कहन में , कथन में तारतम्यता का अभाव खटकता है । बिम्ब , उपमाएं भी भ्रमित करतीं हैं । शुभकामनाएं ।

1 टिप्पणी:

  1. आभार आपका ...और समस्त रचनाकारों का .... निश्चित ही मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित करेंगे ये सुझाव

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