image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 अप्रैल, 2015

प्रज्ञा पाण्डेय की दो कविता

( एक )
ब्रह्माण्ड में बैठी है जो चुप्पी/इसे आप नहीं जानते यह बोलती तो है
पर अपनी आवाज़ में/ जैसे बच्ची/जब मारी गयी हों भ्रूण में/
कि उसकी आवाज़ भरती है गर्भ का ओर छोर !/ठीक दोपहर यह चुप्पी आ खड़ी होती है चौपाल में/
धूप लू की तरह बरसती है ताबड़तोड़ /करती है लहू लुहान मारती है जाने कितनों को/बिना हर्फों की ये जुबान!
ये चुप्पी जमती जाती है शिराओं में जैसे/ हाशिये पर  रुक जाता है वक़्त/ इस चुप्पी की खातिर लोग गंगा में नहाते हैं कि  शायद धुल ही जाए गर्भ का खून /पर वह धुलता नहीं किसी तरह /चुप्पी बनाती जाती है सन्नाटों के चक्रव्यूह / चक्रव्यूहों के चक्रव्यूह !
इस चुप्पी को पीसता है खेत में खडा बिजूका जो आँधियों में गिर गया है लगता /चुप्पी साधती है मौन और होती है युद्ध-रत निरंतर !
चुप्पी आत्महंता की होती है खतरनाक कहती है / पूरी बात करती है पूरा घात !
--
(दो)
अगली बार तुम स्त्री बनकर जन्म लेना। 
तब समझ पाओगे स्त्री - देह में एक जो अंग विशेष  है
वही   उसकी थाती है .
जिसे  हरेक पल हर जोर और  जुल्म से वह बचाना चाहती है  .
क्योंकि उसमें वह रचती है  
समय के प्रवाह की सबसे ज़रूरी  लहरें।
जाने-अनजाने उस के लहू में उस  दायित्व की अस्मिता बहती है
जब भी स्त्री सौपती हैं स्वयं को, पुरुष को ,
अपनी गरिमामय सम्पूर्णता में
अपने मान से लबरेज प्रेम में वह
दायित्व की अस्मिता   सौपती है  .
धरती को बसाने का  चिर स्वप्न सौपती है
प्रकृति ने स्त्री के साथी पथिक को गर्भ - भार का खजाना  सौपा नहीं है ।
वह मुक्त हर दिशा में खोजता है नए स्वप्न
पहली किरण के
नयी दुनिया के नए  उत्स के    
स्त्री ने रचे हैं असंख्य   गीत
बसाव के, उजाड़ के .
ब्रम्हांड  को बसाने का
स्वप्न लिए.
000 प्रज्ञा 
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------
टिप्पणी:-

हेमेन्द्र कुमार
प्रज्ञा पाण्डेय की  कविताएँ - - प्रज्ञा पाण्डेय की दोनों कविताएँ अच्छी लगीं।पहली कविता की पंक्ति "इस चुप्पी को पीसता है खेत में खड़ा बिजुका जो आँधियों में गिर गया है लगता" के अनुसार बिजूका खड़ा है या गिर गया मैं समझ नहीं पाया।

अग्निशेखर
Maine kal dinbhar dekha ki is kavita samooh ke kai mitron ne meri dono kavitayen 'chaukhat' aur 'sangrahalay mei kate huye paanv' khoob sarahi..us par gahan ghambhir sameekshaatmak tipanniyan bhi lagayin ..mai un sab mitron ka abhaar prakat karta hoon..visheshkar Rajesh Jharpure, Poornima Mishra,surendra Raghuvanshi,Arun Aaditya,Leena Malhotra,Pragya,Bharat Funkwal tatha Bharat Tiwari aadi ka...aapki saarthak tippaniyaa'n ahtvpoorn thee..abhaar.aur ORZU ke saath aapka ...agnishekhar

शैली किरण
कितनी सरलता से बिन कहे सब कहना , कविता के इस खूबसूरत रहस्य को विरले ही समझ पाते हैं...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें