पुणे निवासी डॉ अनिल अवचट एक ऐसा नाम है जिन्होंने मराठी साहित्य में अपना बहुमूल्य योगदान तो दिया ही है . वे डॉक्टर हैं , सामाजिक कार्यकर्ता हैं , चित्रकार हैं , ओरेगामी में सिद्धहस्त हैं और अत्यंत सरल व्यक्ति हैं . उन्होंने पत्रकारिता की , बाबा आमटे के आनंदवन से जुड़े रहे , भूदान आंदोलन के समय बिहार तक गए .उन्होंने कुलियों की दशा , वेश्याओं की बस्तियों जैसे विषय उठाए . नशा करनेवालों के पुनर्वसन के लिए वे ''मुक्तांगण'' नामक संस्था चलाते हैं , जो कई मामलों में आज भी अनोखी है .लगभग इकहत्तर साल के अनिल अवचट अभी भी बेहद सक्रिय हैं और सामाजिक कार्यों के लिए महाराष्ट्र परिवहन विभाग की बसों में यात्रा करते हैं .
यहाँ उनके एक लेख ''मोर'' का अंश प्रस्तुत है , जो उनकी लेखन शैली के एक अनोखे अंदाज़ को दर्शाता है .
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दोपहर के दो बजे , मूर्तिजापुर स्टेशन पर उतरते ही गर्मी का तीव्र अनुभव हुआ।महाराष्ट्र का ''वह्राड'' इलाका और अप्रैल का महीना। भरी दुपहरी में , तेज धूप से गुजरते हुए मै श्री तिडके के बंगले पर पहुंचा , तो कुछ राहत अनुभव हुई। श्री तिडके उस क्षेत्र के एक बड़े बागबान हैं और उनके पास संतरे के काफी बाग़ हैं। उनके बेटे की साहित्य में रूचि है और वह बड़े उत्साह से अपनी माँ की स्मृति में प्रतिवर्ष व्याख्यानमाला का आयोजन करता है और इस वर्ष एक व्याख्यान के लिए मै भी आमंत्रित था। व्याख्यान शाम सात बजे था , पर दूसरी कोई गाड़ी ना होने से मुझे इतनी जल्दी आना पड़ा। दूसरा कोई मौका होता तो मै हमेशा की तरह गरीबों की बस्ती चला जाता और उनकी समस्याओं को समझने की कोशिश करता , लेकिन पिछले सात-आठ दिनों से ऐसी ही गर्मी में मै नागपूर के दौरे पर था और अब मन तथा शरीर आराम की मांग कर रहा था। इसी वजह से साग्रह परोसे वह्राडी भोजन के बाद तिडकेजी ने जैसे ही आराम करने की सलाह दी , मैंने उसे तुरंत स्वीकार कर लिया।
तिड़केजी मुझे पहली मंज़िल पर ले गए, जहाँ एक बड़ा-सा हॉल था। हॉल से जुड़ी बालकनी थी। बालकनी में लगे कांच के दरवाजे खुले थे और इस वजह से हॉल काफी खुला-खुला लग रहा था। हॉल और बालकनी के बीच में एक ही व्यक्ति बैठ सके ऐसा बांस का एक झूला टंगा हुआ था। उसमें एक मुलायम-सा कुशन था। मुझे वह इतना पसंद आया कि नजदीक ही रखे पलंग पर लेटने की बजाय मैं झूले पर ही बैठ गया। बालकनी से नीचे देखने पर दूर तक फैला संतरे का बगीचा दिख रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे संतरों का गहरा हरा रंग क्षितिज तक पहुँच गया हो। वह्राड की बेतहाशा गर्मी में नज़रों ने कुछ ठंडक महसूस की। बंगले की अपूर्व शांति , शीतलता और दूर तक फैला संतरों का बगीचा सब कुछ बहुत ही आल्हाद दायक था। मैंने झूले के पास एक स्टूल खिसका लिया और उस पर पैर रखकर हल्के - हल्के झूलने लगा। हाथ में थी मेरी मनपसंद किताब।
अचानक कुछ आहट -सी महसूस हुई। देखा तो बालकनी की मुंडेर पर एक मोर बैठा था। चमकदार नीले रंग वाला मोर। उसने अपने पंख फैला लिए थे और वह बहुत सुंदर लग रहा था। मात्र दस/बारह फीट की दूरी पर मेरे सामने अदभुद नज़ारा था। ऐसा लग रहा था , मानो मै कोई सपना देख रहा हूँ। मैंने इसके पहले कभी भी इतनी स्वतंत्रता और स्वछंदता से विचरण करते मोर को नहीं देखा था। चिड़ियाघर के गंदे और छोटे पिंजरे का मोर दीन - हीन , फीका - सा दिखता है और यहाँ नीला आसमान , हरा बगीचा और इस पार्श्वभूमी में चमचमाता नीला-हरा मोर।
मोर के साथ मेरा एक अलग ही नाता है। एक ही विषय पर महीनों अलग-अलग चित्र बनाने का मुझे शौक है। दो/तीन बरस पहले मैंने एक दिन यूँ ही मोर का चित्र बनाया और फिर जैसे उसीका भूत सवार हो गया। मोर को माध्यम बनाकर उसके फैले हुए पंखों में मैंने अलग-अलग आकृतियां बनाईं। डेढ़ / दो साल तक यही चलता रहा। कुछ भी बनाने बैठता तो मोर ही बन जाता। बावजूद इसके मैंने प्राकृतिक वातावरण में मोर को नहीं देखा था। यूँ तो मोर पंख काफी आकर्षक माने जाते हैं , पर प्रत्यक्ष देखने पर मुझे उसकी गर्दन अधिक सुन्दर दिखाई दी।
वह अपनी गर्दन को किसीभी दिशा में मोड़ सकता था और वह भी गोलाकार। उसकी गर्दन में अंग्रेजी का ''एस '' आसानी से देखा जा सकता था। जमीन से चोंच में कुछ उठाने पर एक आकार , तो चलते समय शरीर पर सारा भार डालकर बनता था दूसरा ही आकार। गर्दन के इस प्रकार अलग-अलग तरीके से हिलने पर मोर का टरक्वाइज नीला रंग मनोहारी छटा बिखेरता था। यदि वह मोर उस दिन नहीं दिखता तो मुझे कभी भी पता नहीं चल पाता कि हरे और नीले रंग में कितनी विविध छटाएं छिपी हैं. चोंच के पीछे से सिर पर कलंगी निकली हुई थी। सिर की कठोर त्वचा से निकली नाजुक तंतु की तरह महीन काली रेखाएं। उनके सिरे पर उतने ही नाजुक नीले रंग के छोटे-छोटे तिकोने पंख और उनमें भी नीले रंग की विविध छटाएं।
पंखों का आकार मोर के शरीर के बाकी हिस्सों में भी दिख रहा था। गर्दन जहाँ शुरू हो रही थी उस किनारे पर पीले , तम्बाखू रंग में डिजाइन बना था और उसमें भी पंखों के आकार बने थे। एक दूसरे से अलग हो रही गोलाकार रेखाएं और उन्हें जोड़नेवाली तीसरी फिर एक गोलाकार रेखा। पीठ से पेट तक ऐसे अनेक आकार बने हुए थे। पंखों में तो अगणित आकार थे , जो सिरे पर तिकोने हो जाते थे , रंगों की बेमिसाल विविध छटाओं का खजाना था वहाँ। भूरे रंग पर जैसे टरक्वाइज ''आँखें'' चमक रही थीं। शरीर के भार से पंखों का भार ज्यादा था , लेकिन मोर उसे सम्हालते हुए बड़ी आसानी से अपने सुडौल कदम इस तरह रख रहा था , मानो रेम्प पर चल रहा हो।
तभी उसने अपनी चोंच में कुछ उठाया और गर्दन सीधी की , तब पता चला कि वह कितनी लम्बी थी। अब उसकी गोलाई भी नहीं दिख रही थी , बल्कि ऐसे लग रहा था जैसे ऊपर की तरफ संकरा होता गया कोई खम्भा है। गले से नीचे तक वह लगातार सिकुड़ रहा था , मै तो जैसे यह भूल ही गया था कि इतनी सुन्दर , चमकीली गर्दन के भीतर मांसपेशियां भी होंगी , अन्न नलिका भी होगी।
एकदम वह मुंडेर से नीचे उतरा। चोंच को जमीन से छूकर वह खाने के लिए कुछ तलाश रहा था. उसे मेरे होने का पता ना चले , इसलिए मैं बिलकुल चुपचाप , स्तब्ध बैठा उसकी गतिविधियां देख रहा था। यकायक उसने अपने पंखों को ऊँचा किया और वहाँ विष्ठा कर दी। फिर वहीँ और भी तीन/चार जगह उसने यही क्रिया दुहराई। अपने कुरूप पैर विष्ठा पर रखते हुए वह इधर-उधर घूमता रहा , वहाँ काले / पीले रंग का कुछ कीचड जैसा हो गया। फिर वह कुछ आगे आकर मेरे झूले के पास घूमने लगा। उसे जरासा भी डर या हिचकिचाहट नहीं थी। अभी तक वह मुझे शर्मीला लग रहा था और अच्छा भी , लेकिन अब मेरी उसकी ओर देखने की इच्छा ख़त्म हो गई और मै फिर से अपनी किताब पढ़ने लगा।
अब मोर मेरे पैरों के पास आ गया। उसने अपनी चोंच को ऊपर उठाया और पूरी तरह खोल दिया। उसकी चोंच के अंदर , शकरपारे के आकार का काला गड्ढा था। वह अत्यंत कर्कश आवाज में चिल्लाया ''क्वेक '' . शांत वातावरण में उस कर्कश आवाज से मैं चौंक गया। उसने चार/पांच बार वैसी ही आवाज निकाली , उसकी खुली चोंच का दृश्य और उसमें से निकली कर्ण कटु आवाज , मै सिहर गया।
अब उसे भगाना चाहिए यह सोचकर मैंने थोड़ा हाथ उठाकर ''शुक-शुक '' बोला। एक पल के लिए वह पीछे हटा और दूसरे ही क्षण वह मुझ पर झपट पड़ा। उसकी सफ़ेद चोंच , सिर का पिछला सफ़ेद हिस्सा और उस पर बनी काली आँखें देखकर मुझे खोपड़ी का कंकाल या भूत का मुखौटा याद आ गया। मै जितना उसे भगाने की कोशिश कर रहा था , वह उतना ही आक्रमक होता चला गया। क्या करूँ , ये मेरी समझ में नहीं आ रहा था। तभी चाय की ट्रे लेकर तिड़केजी ऊपर आये। उन्होंने मोर को मारने का अभिनय किया और वह एक क्षण में उड़कर मुंडेर पर जा बैठा और फिर वहाँ से नीचे चला गया। तिड़केजी कहने लगे - हमारा यह मोर बहुत तेज तर्रार है। किसी नए व्यक्ति को देखता है , तो चोंच से लहूलुहान कर देता है। चाय का कप हाथ में थमाते हुए पूछने लगे - आराम हुआ कि नहीं ? नींद आई ना अच्छे से ?
मै क्या कहता। धीरे से मुस्कुराते हुए ''हाँ'' में गर्दन हिलाई और मन ही मन कहा - नींद कहाँ ? मैं तो ''सौंदर्य'' का आस्वाद ले रहा था।
(डॉ . अनिल अवचट के ''मोर'' शीर्षक से प्रकाशित ललित लेख संग्रह से )
प्रस्तुति:- अलकनंदा साने
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टिप्पणियां:-
राहुल वर्मा 'बेअदब'
वाह...संस्मरण(यात्रा-संस्मरण भी) आत्मानुभव/आत्मकथ्य होते हुए भी कितने अपने से लगते हैं...बेहतरीन
ख़ासकर विविध/अलहदा विधाओं वाले लेखकों के संस्मरण यथा-अमृतलाल जी बेगड़ या फिर मुन्नवर rana/महादेवी वर्मा जी के संस्मरण इत्यादि
गर समूह का अनुशासन भंग न हो तो आप सब से ये भी जानना चाहूँगा कि 'ललित निबन्ध' क्या होते हैं ? और ये 'निबन्ध' से किस तरह से भिन्न होते हैं ?
स्वरांगी साने:-
ललित निबन्ध पर बात चर्चा वाले दिन आप चाहे तो बाल भारती हिंदी उ मा वि की किसी किताब से भी जान सकते है। बहरहाल संस्मरण उम्दा। शानदार। शायद अनुवाद भी अलकनंदा जी का है। यदि मै गलत नही।
वागीश जी:-
इस सुन्दर लेख को पढ़ते हुए मुझे एक अपनी बात याद आई। उन दिनों JNU में काफी हरियाली हुआ करती थी और मोर भी अक्सर दिख जाते। तो मैंने अपने पिता को एक पत्र में कैंपस के सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखा की 'यहां मोर की मन मोहक और करुणआवाज से हमारे सुबह की शुरुआत होती है'। इस पर मेरा जो मज़ाक बना की वो आज भी पारिवारिक किंवदंती का हिस्सा है कि मुझे मोर की आवाज़ मनमोहक लगी। और मैं आज तक convince नहीं हूँ कि मोर की आवाज़ कर्कश होती है। बहरहाल, यह संस्मरण बहुत ही प्रवाहमय है और पूरा दृश्य सामने रख देता है। आज तो इस पर ही बात हो।
अमिताभ मिश्र:-
इस संस्मरण की खासियत यह है कि इसमें मोर की सारी असलियत बखान कर दी गई है और रोचक है।
अनुवाद भी बहुत बढ़िया है। मूल का आनंद है इसमें। ताई को सलाम।
अरुण आदित्य:-
वाकई रचना ललित है। और अनुवाद में भी उसका लालित्य बरकरार है।
सबकी ताई और स्वरांगी की आई
भौत भौत बधाई...
आर भारत:-
मैं इसे एक और दृष्टि से भी देख रहा हूँ। मोर की मनोरम रंग छवि की जो बारीक details हैं और जो सटीक अनुशाषित शब्द हैं, वह लेखक की परिपक्वता और ऑब्जरवेशन की क्षमता से चमत्कृत करते हैं। लेकिन लेखक मात्र इसी पक्ष में बहा नहीं है । इसके बाद विष्टा भी है। कर्कश आवाज,हिंसक प्रवृत्ति भी उसी सधी हुई सहजता और असंप्रक्तता से वर्णित हुए हैं। हमारी ज्यादातर दिक्कतें और नासमझी चीजों की एकांगी नज़र और समझ से होती हैं। यह अंश एक समग्र विवरण है। सच्चा है। सुन्दर के बाद की असुन्दर्ताओं के प्रति भी कोई विचलित करने का भाव,कोई जल्दबाज वैल्यू जजमेंट नहीं है।सब कुछ समग्र seamless है। यह परिपक्वता अनुभव और आतंरिक धीरता तथा ईमानदारी से आती है। आज के फटाफट ( कई बार इरादतन) फतवों के दौर और साथ में viral खतरों के दौर में ऐसी धीर समग्रता और ईमानदार अभिव्यक्ति ज़रूरी लगती है। जीवन भी तो ऐसा ही है। मनोरम रंग भी,कर्कश स्वर भी,विष्टा भी,हिंसा भी। सच्ची बात होगी तो सच्ची राह भी निकलेगी।
कुछ ताल-बेताल लिख गया हूँ तो बचपना समझ क्षमा कर दें।
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