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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 अप्रैल, 2015

बहादुर पटेल जी की कविता

शब्दों को देता रहता है रौशनी
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एक पत्ता हरता है हमारा दुःख कई रूपों में
हहराता हुआ या सूखता हुआ
या अपने पीलेपन के साथ
आखिर में सूखा खनक
हमेशा मंडराती रहती है
उसकी आत्मा हमारे आसपास
हमारे साथ देर तक उड़ता रहता है
लेप बनकर फ़ैल जाता है
हमारे जीवन के समूचे विस्तार में

बहुत दबे पांव आता है हमारे स्वाद में
कोई हड़बड़ी नहीं
सबसे उजास चीजों में भरता है अपना प्रकाश
अपनी ही ज्योति में देखता है अपने आपको
अपना इतिहास खुद लिखता है हमारी कापी किताबो में
सूखता रहता है उन्ही में
शब्दों को देता रहता है रौशनी
जब खुलती है किताब
तो शब्दों से पहले वह कहता है कोई कहानी
अपनी पीठ के निशान दिखाकर देर तक रोता रहता है हमारे सामने
हमारे रोने को कई बार इस तरह सोखता है
और जब बिखरता है तो न किताब समेट पाती है
न हमारा शरीर
हमारी स्मृति के केनवास बिखर कर एक चित्र की शक्ल लेता है

कितनी तरह से आता है
कितनी कितनी बार आता है
संगीत के कितने राग समेटे रहता है अपने भीतर
उसकी परछाई में जीवन के कितने ही रहस्य छुपे होते हैं
हमारी उदासी उसके हरेपन में तैरती रहती है
हमारे सपनों की तलछट में बैठकर जीवन भर गंधाता रहता है.
�� बहादुर पटेल

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