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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

06 अप्रैल, 2015

प्रज्ञा जी की कहानी पाप, तर्क और प्रायश्चित

प्रज्ञा


शिक्षा-दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पीएच.डी ।

प्रकाशित किताबें
नुक्कड़ नाटक: रचना और प्रस्तुति राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रकाशित। वाणी प्रकाशन से  नुक्कड़ नाटक-संग्रह जनता के बीच जनता की बात । एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा तारा की अलवर यात्रा। सामाजिक सरोकारों  को उजागर करती पुस्तक आईने के सामने स्वराज प्रकाशन से प्रकाशित।

कहानी-लेखन
कथादेश परिकथा जनसत्ता बनासजन पक्षधर जनसत्ता साहित्य वार्षिकी सम्प्रेषण आदि पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।
पुरस्कार - सूचना और प्रकाशन विभाग भारत सरकार की ओर से पुस्तक तारा
की अलवर यात्रा को वर्ष 2008 का भारतेंदु हरिश्च्ंद पुरस्कार।

जनसंचार माध्यमों में भागीदारी
जनसत्ता राष्ट्रीय सहारा नयी दुनिया जैसे राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्रों और विभिन्न पत्रिकाओं में नियमित लेखन।
संचार माध्यमों से बरसों पुराने जुड़ाव के तहत आकाशवाणी और दूरदर्शन के
अनके कार्यक्रमो के लिए लेखन और भागीदारी।

रंगमंच और नाटक की कार्यशालाओं का आयोजन और भागीदारी।

सम्प्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज के हिंदी विभाग में
एसोसिएट प्रोफेसर के रूप मं कार्यरत।

सम्पर्क: ई-112 आस्था कुंज सैक्टर-18 रोहिणी दिल्ली-110089
दूरभाष-9811585399
ई.मेल. pragya3k@gmail.com

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कहानी-‘‘सुनो, तुम मीनू को जानते हो?...वही जो तुम्हारे भैया के पास पढ़ती थी।’’
‘‘ न... नहीं तो।’’
‘‘अरे काफी समय से पढ़ रही थी उनसे और तुम्हें तो अच्छी तरह जानती है। शायद देखा हो तुमने कभी। पतली-दुबली सी लड़की है। कद ठीक-ठाक ही है, हां सांवली है और बात-बेबात हंसती रहती है। और वो न...’’
‘‘अरे भैया के पास कितने बच्चे आते हैं ट्यूशन पढ़ने, मेरे पास सबका रिकार्ड है क्या? और जहां तक मेरी बात है तो भैया ने बताया होगा कभी मेरे बारे में या देखा होगा उसने कभी जब मैं घर गया हूंगा।’’
‘‘जानते हो आज उसका पहला दिन था कॉलेज में और मुझे देखते ही बोली-‘आप संजय सर की छोटी बहू हो न?’...मुझे अच्छा नहीं लगा। पहली ही मुलाकात में इतना बेतकल्लुफ हो जाना उसका।’’
‘‘इसका मतलब तो ये हुआ कि उसने मुझे ही नहीं तुम्हें भी देखा है घर में। और फिर भैया ने कह दिया होगा कि हमारी बहू है, पढ़ाती है कॉलेज में। पर तुम्हें  बुरा क्या लग रहा है- उसका बेतकल्लुफ होना या उसका भैया की छोटी बहू कहना?’’
मानस की बात तीर की तरह मेरे कलेजे में जा लगी। दरअसल बात तो यही थी कि मेरे वर्कप्लेस पर एक अजनबी लड़की पहली ही बार में मुझसे इतनी लिबर्टी लेकर मुझे टीचर नहीं बल्कि अपने टीचर की बहू कह रही थी। उसके एक वाक्य ने मेरा सारा वजूद हिलाकर रख दिया था। मैं डॉ. सहज त्रिपाठी, एक लंबा अनुभव है मेरा इस संस्थान में। कितने ही छात्र पढ़ाए। एक रूतबा है मेरा और मात्र बारहवीं पास एक लड़की ने मुझे मेरे ही गढ़ में चित्त कर दिया। देखा जाए तो कुछ गलत तो नहीं था उसके कहने में पर उसका परिचय की कड़ी जोड़ने का  अंदाज़ ही मुझे न भाया। उसके चंद शब्दों ने मेरी पहचान को सीमित कर दिया और उसकी बेसाख्ता हंसी मुझे इसलिए नापसंद हो गयी कि शायद परिचय के घेरे का लाभ उठाकर वो क्या मुझे एक मामूली औरत समझ रही है ? और फिर अब तीन साल इसे पढ़ाना है। अपनी क्लास के बच्चों पर भी मुझे जानने का रौब गांठेगी और मेरा परिचय एक बहू के रूप में ही देगी। दिमाग में अटके उसके शब्दों ने जब बहुत तूफान मचा दिया तो मैंने उसे संभालने के लिए गर्दन को तेजी से झटका। अगले दिन पढ़ाए जाने वाली क्लास की सभी तैयारियों के साथ मैंने मीनू को भी दुरूस्त करने के कुछ तरीके सोच लिए।
                अगले दिन सबसे पहलेे उसकी बेतकल्लुफ हंसी को अपनी गंभीर नजर जो अपरिचय की हद पार कर रही थी, उसीके रिमोट से मैंने कंट्रोल करने की कोशिश की। पर उसे तो जैसे फर्क ही नहीं पड़ा। कॉलेज के माहौल ने उसकी हंसी को नए पंख दे दिए थे शायद। वो वैसे ही बिंदास हंस रही थी। क्लास शुरू होने पर नए बच्चों में मैंने अतिरिक्त दिलचस्पी लेकर उसे नियंत्रित करने का नया तरीका ईजाद किया पर फिर भी कोई फर्क नहीं। तब मैंने अपने तरकश का अचूक तीर निकाला। विषय पर आने से पहले बच्चों से सवाल-जवाब का। पर यहां भी मेरा अंदाज़ा गलत निकला। उसकी हंसी से मुझे लगा था कि पढ़ने-लिखने में औसत या उससे कम ही ठहरेगी पर दिमाग से पैदल नहीं निकली मीनू और ऐसे लोगों की कद्र करना मेरे स्वभाव में था। पर मैंने ये बात जाहिर नहीं होने दी। मेरी मुद्रा काफी अर्से तक उसके प्रति अतिरिक्त रूप से गंभीर और सचेत ही बनी रही। उसने पहली ही मुलाकात में मुझे असहज कर दिया था इसलिए उसका असर आसानी से जाने वाला नहीं था।
मेरी नज़र सख्त बने रहने के बावजूद उसका पीछा किया करती। अक्सर देखती कॉरिडोर उसकी हंसी से झूमता मिलता। कुछ ही दिनों में सीनियर्स से भी अच्छी दोस्ती गांठ ली उसने। उसे देखकर कोई कह नहीं सकता था कि ये फस्र्ट ईयर की लड़की है, यूनिवर्सिटी की शब्दावली में कहें तो ‘फच्चा’ है। वह तो अपने अलमस्त स्वभाव से ऐसी लगती थी कि बरसों से इस कॉलेज के चप्पे-चप्पे से वाकिफ है। क्लास में आते-जाते मैं कनखियों से उसे निहारने का कोई मौका न चूकती। ऐसा लगता जैसे मेरी सारी इंद्रियां अपनी पूरी ऊर्जा के साथ उसे सुनने-सूंघने की क्रिया में प्राणपण से जुट गईं हों। बात-बात पर ताली मार कर उसका हंसना, गलियारों में भागना, तेज़ स्वर में उसकी तीखी आवाज़ का गूंजना, गलियारों में भागते-दौड़ते परांठों का रोल बनाकर खाना या जबरन लोगों को खिलाना या फिर घर की सी उन्मुक्तता महसूस करते हुए अचार की चूस-चूसकर पतली कर दी गई झिल्ली जैसी परत का भी उसके धूमिल होने की हद तक लुत्फ उठाए चलना --सब उसकी आदतों में शुमार था। और फिर बात-बात में उसके ‘चल जा ना ’ या ‘हट भई हवा आने दे’- जैसे जुमलों की मैं आदि होती जा रही थी। ऐसे ही उसकी हरकतों को अपनी जासूस निगाहों से टोहते हुए मैंने जाना लोग उसे नाम की बजाय ‘जैनी या जैन साब’ पुकारने लगे थे। इसका राज़ बाद में फाश हुआ। दरअसल इसके भी दो कारण थे। एक सामान्य कारण ये कि क्लास में दो मीनू होने के कारण पहचान की सुविधा के लिए सरनेम का सहारा एक सरल उपाय था और दूसरा विशिष्ट कारण था कि अक्सर कॉलेज में अधिक घनिष्ठ संबंध होने या दूसरों से खास होने वाले को ये बच्चे ऐसे नाम अपनेपन और प्यार से  दे दिया करते थे।
                मुझे शुरू से ही ऐसे मस्तमौला बच्चे पसंद थे पर मीनू उस दायरे में होकर भी बाहर थी। उससे पहली मुलाकात का असर अब तक कायम था। हालांकि ये असहजता मुझे अक्सर परेशान भी करती। खांमखां मैंने उससे दूरी बना ली है। आखिर कब तक ? और एक दिन पुरानी बातों पर खाक डालने की बात सोचकर और कड़ा निश्चय करके मैं कॉलेज आई थी तो सामने पड़ते ही मीनू बोली,
‘‘ कल आपके ससुराल गई थी मैं। मैंने बताया सर को कि आप हमें पढ़ाते हो।’’
सहज-सरल से इस वाक्य ने एक बार फिर मुझे घायल कर दिया । अपनी पीड़ा को छुपाकर और अपने गुस्से को जताकर मैंने दो-टूक कहा ‘‘देखो मीनू, ये कॉलेज है और मैं नहीं चाहती कि तुम मेरे घर-परिवार से जुड़ी कोई चर्चा मुझसे  या किसी और से करो।’’ उसकी चेहरे पर नासमझी के भाव की परत मुझे भली  लगी। हालांकि बाद में ठंडे मन से सोचा तो पाया कि क्या गलत कहा था उसने ऐसा। पर मुझे हर बार क्यों चुभती है उसकी बात? क्यों ये लड़की मुझे बार-बार मेरे कर्म के दायरे से धकेलकर घर में बंद कर देती है? क्या उसकी नज़र में मैं केवल एक पत्नी, बहू,मां ही हूं ? अब तक शिक्षक का मेरा स्वतंत्र अस्तित्व उसकी नज़र में कुछ भी नहीं है क्या ?पता नहीं वो इस बात को समझी कि नहीं पर उस दिन का असर ये हुआ कि मीनू ने फिर मेरे परिवार से जुड़ी बातों का जि़क्र नहीं छेड़ा। फिर जैसे-जैसे उसने मेरे परिवार से जोड़कर मुझे देखना बंद किया वैसे-वैसे वो और बच्चों की तरह मेरे करीब होती चली गई।
                उस दिन बच्चों की फ्रेशर्स पार्टी थी। नए बच्चों के लिए आयोजित प्रतियोगिता को जांचने वाले तीन लोगों के निर्णायक-मंडल में मैं भी एक थी। जैसे ही मीनू का नाम पुकारा गया एक शोर-सा उठा। ये शोर यों ही नहीं उठा था, हरदिलअजीज़ मीनू के लिए उठने वाला शोर था,जिस पर कई टीचर्स ने उसकी लोकप्रियता के कारणों को मुस्कुराते हुए मौन समर्थन दिया। सबकी निगाहें उसी पर जमी थीं। निहायत सलीके से अपना परिचय देते हुए जब उसने कोई शेर कहा तो दाद देने वालों की तालियां न थमीं। पहले रांउड में अपने गजब के आत्मविश्वास से उसने बाज़ी मार ली थी अब पार्टी के सेकेंड रांउड की तरफ सबकी आंखें लगीं थीं। उसके नाम की पर्ची में उसे डांस करके दिखाना था। बेधड़क आवाज़ में बोली
‘‘म्यूजि़क....फुल वाल्यूम ।’’
और ये क्या वो तो गाना शुरू होते ही फिरकी की तरह नाचने लगी। करीना पर फिल्माए किसी पॉपुलर गाने पर उसका ठुमका लगाकर थिरकना कभी भूल सकती हूं क्या? बिना किसी बेढंगेपन के, लय के अनुकूल नाचना और तेज और धीमे संगीत के मुताबिक अंग-संचालन। पांच मिनट तक बिना हांफे पूरी गरिमा के साथ वो नाची और मैं सोच रही थी कि करीना ने कितने री-टेक दिए होंगे इसमें और कितना टच-अप कराया होगा मेकअप का। वो दिन मीनू अपने नाम लिखवाकर ले गई। बिना कोई हिचक सबने उसे मिस-फ्रेशर चुन लिया। यही नहीं मिस टैलेंट का खिताब भी उसे साथ में मिल गया। पहले से बढ़ रही उसकी ख्याति और भी महक उठी। सबसे अच्छी बात तो ये थी कि उसका व्यक्तित्व इतना निराला था कि वो जलनप्रूफ और ईष्र्याप्रूफ था। फिर लोग भी उसके सरल स्वभाव और साफगोई पर जान छिड़कते थे। वो लड़ती-झगड़ती रहती तो भी कोई उसका दुश्मन नहीं था और पीठ पीछे भी कोई उसे बुरा न कहता था।
                ‘‘जैन साहब इलैक्शन लड़ लो इस बार।’’ पूरे विभाग की राय यही बन रही थी और सीट भी काफी सुरक्षित थी- ‘लैंगुएज रिप्रेज़नटेटिव’ की। मीनू ने हामी भी भर दी। नामांकन दाखिल करने की औपचारिकताओं से जुड़ा पहलू उसके दोस्तों ने संभाल लिया। सभी टीचर्स भी इस निर्णय पर संतुष्ट थे। सब जानते थे अपने स्वभाव और प्रभाव से जीतने पर कुछ बेहतर कर दिखाएगी मीनू। पर उसका सीनियर अनिल झा पिछले साल से इस सीट के लिए मन बनाए हुए था। दिक्कत उसके सामने ये भी थी कि अनिल के आने से सारा खेल उतना आसान नहीं रह जाता जितना मीनू के लिए था। उसे टक्कर देने वालों की कमी नहीं थी। मीनू के असर से संकोच के दरवाजों में कैद हो गई उसकी इच्छा न जाने किस खुली रह गई खिड़की से मीनू के पास तक जा पहुंची।
‘‘अरे सर आपने बताया क्यों नहीं मुझे? जानती होती तो ये सब होता ही न। आपका हक पहला है, वो तो अच्छा हुआ कि नॉमीनेशन फाइल नहीं किया था। इस बार आप ही आंएगे और जीत की गारंटी मेरी।’’
 मीनू ने न केवल सीट अनिल के नाम कर दी बल्कि सारे वोट भी उधर खिसका दिए। और उम्मीदवार न होते हुए भी सबके दिल पर उसकी उम्मीदवारी तय हो गई। उसके खुलेपन और दोस्ताना रवैये ने उसे सबकी चहेती बना दिया था। उसे देखकर लगता था कि मानो ये अक्षय ऊर्जा का कोई स्त्रोत है। जब देखो -किसी पहर देखो, आंखों में वही चमक, आवाज़ में वही खनक। मन कहता ‘‘थकती नहीं है ये  लड़की? हर काम को करने में गजब का उत्साह।’’ ऐसे बच्चे पूरे माहौल को ताज़गी से भर देते हैं। सालाना उत्सव में निबंध लेखन प्रतियोगिता से लेकर लोकगीत प्रतियोगिता तक सबमें उसकी काबिल- ए- तारीफ प्रस्तुति। उसी दिन लोकगीत की अदायगी से मैंने जाना कि मीनू राजस्थान से संबंध रखती है। कितना बढि़या गीत गाया था उसने।
                ‘‘मैडम आपके घर के पास आ गई हूं मैं। यहीं पास में नवज्योति अपार्टमेंट्स में किराए का फ्लैट लिया है पापा ने। कभी आओ न घर आप।’’
‘‘हां ज़रूर कभी।’’ बच्चों की इस फरमाईश की आदत लगभग हर टीचर को होती है इसीलिए ‘फिर कभी’ जैसे शब्दों से एक अनिश्चयात्मक स्थिति रचकर अपना निश्चयात्मक रूख दिखाना हर टीचर को बखूबी आता है। सो मैंने भी वही किया। सोचा दो-एक बार कहेगी फिर सच जानकर कहना छोड़ देगी पर मीनू तो धुन की पक्की थी। अड़ गई और मुझे घर बुलाकर ही मानी। और एक तरह से अच्छा ही हुआ। मैंने देख लिया कि उसका परिवार काफी धार्मिक है। चार भाई-बहनों में मीनू तीसरे नम्बर पर थी और सबसे छोटा था भाई। एक बहन की शादी जल्दी ही होने वाली थी। मीनू के स्वभाव के प्रतिकूल घर बेहद शांत था। जगह-जगह उनके किन्हीं गुरू जी के चित्र लगे थे। घर क्या था मंदिर था। जूते बाहर ही उतारने पड़े थे। घर में कोई चप्पल भूले से भी नहीं दिख रही थी। बड़े संयमित ढंग का परिवार था और फर्नीचर भी सादा और बेहद कम। उसकी मां ने ही बताया कि साल में दो-तीन बार राजस्थान अपने गुरूजी के आश्रम में उनका जाना बरसों से जारी है। पिता छोटा-मोटा कोई व्यवसाय करते हैं। अकेले कमाने वाले हैं और कमाई ज्यादा नहीं है पर धर्मपरायण वो भी बहुत हैं। इसीके चलते खर्चे ज़्यादा भी थे, ऐसा उसकी मां ने ही बताया। हालांकि दूसरे नम्बर वाली बहन गणित में होशियार होने के कारण ट्यूशन भी पढ़ाती है।  तीनों लड़कियां गुरूजी के आदेशों का पालन करती हैं। इसके अलावा पता नहीं कौन-कौन से व्रत-त्यौहार की जानकारी वो मुझे दे रहीं थीं जिनसे मैं आत्मा की गहराई तक ऊब रही थी।
‘‘आइये आपको अपना पार्क दिखाती हूं।’’ मुझे बचाने का अच्छा बहाना बनाया उसने। जान बची तो लाखों पाए की तर्ज पर मैंने मुग्धभाव से जूते पहनते हुए उसे देखा। पार्क घुमाते हुए उसकी मस्ती फिर से तारी हो गई और मुझे लगा कि जाने किस कैद से छूटकर आए हैं हम दोनों। हैरत की बात तो ये थी कि मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि मीनू इसी परिवार की लड़की है या गोद ली गई है? कई फिल्मों में जन्म के वक्त बच्चों की अदला-बदली के दृश्यों को देखने के बाद मुझे लगने लगा कि मीनू भी शायद वही बदला हुआ बच्चा है। पर कमाल की बात है अपने चुप्पा भाई-बहनों के बीच भी वो अपनी लय में ही जीती थी।
                देखते-देखते मीनू बेहद अच्छे नम्बरों से पास होकर दूसरे साल में आ गई। दरअसल उसके जीवन में घटनाओं की उथल-पुथल यहीं से शुरू हुई जिसके कारण कुछ भी सामान्य न रहा, न उसके जीवन में और न ही उससे जुड़े लोगों के जीवन में। नया सत्र शुरू ही हुआ था और मीनू लंबे समय तक कॉलेज नहीं आई। ‘‘मैडम फोन ही नहीं उठाती क्या करें?’’ बच्चों से पूछने पर पता चला।
मैं अतिरिक्त रूचि नहीं लेती तो पता ही न चलता। क्लास का कोई भी बच्चा उसके घर के बारे में कुछ नहीं जानता था। अपने घर की कोई बात नहीं करती थी कॉलेज में। वो तो एम.ए. में पढ़ने वाली वर्षा  ही अकेली लड़की थी जो मीनू के घर आती-जाती थी शायद किसी पुरानी पहचान के कारण , उसीने बताया-
‘‘ मैडम बीमार है वो।...उनके यहां कोई कठिन व्रत होता है वही रखा था उसने।’’
‘‘  एक दिन के व्रत में ऐसा क्या हो गया उसे?’’
‘‘ एक दिन नहीं मैडम एक महीने का व्रत था। बेहद कठिन, चातुर्मास करके कुछ। कहीं आ-जा नहीं सकते और गरमी में भी गरम पानी पीना है। पूजा-पाठ और बुरे कामों से मुक्ति का संकल्प जैसा भी कुछ होता है इसमें। तीनों बहनों ने रखा था।’’
‘‘मीनू और उसकी बहनों ने ऐसे क्या बुरे काम कर दिए? बड़ी ही प्यारी बच्चियां हैं वो तो?’’
मेरी बात पर गौर किए बिना ही वर्षा बोलती गई,‘‘ पर व्रत के अंतिम दिन काफी खुश थी वो कि अब कॉलेज जा सकेगी। मुझे बुलाया था उसने, मेंहदी लगवाने जा रही थी।’’
‘‘ वो किसलिए?’’
‘‘पता नहीं मैडम, रिवाज सा है उनके यहां, कन्याएं व्रत के अंतिम दिन खूब सजती हैं या खुशी मनाती हैं, ऐसा ही कुछ। और उस दिन अपने करीबी लोगों से मिलती भी हैं। बस मैं तो इसी करके चली गई थी उसके घर। उसकी दोनों बहनों ने भी व्रत रखा था पर ये कितनी दुबली है पहले ही, सह नहीं पाई। कई दिन हॉस्पिटल में रही है। अब घर आ गई है। उसका हीमोग्लोबिन काफी कम है।’’
तो ये थे मीनू के गुरू जी के बताए नियम-कायदे, जिनकी कसौटी पर खरा उतरना था उसे और उसकी बहनों को। वो बीमार न पड़ती तो शायद इस रहस्य से पर्दा ही न उठता? या अगर वर्षा  भी उसके घर न आती-जाती तो कुछ भी पता न चलता। बहरहाल कुछ दिन बाद मीनू लौटी। बीमारी की बात तो उसने बताई पर कारण गोल कर गई। मुझे लगा वो मुझे वास्तविकता बताने से कतरा रही है। उसकी व्रत-कथा पर पर्दा ही पड़ा रहा। पर अब मीनू में पहले जैसी ऊर्जा नहीं रह गई थी।
‘‘भाई भगा न मुझे, सांस भूलती है मेरी। ले मान ली मैंने हार अपनी।’’ क्लास के बाहर गलियारे में मीनू की ये बात सुनकर जहां उसका साथी जीत की खुशी में इतराने लगा, मेरा मन किसी आशंका से भर गया। क्या हुआ मीनू की हिम्मत को? हारना तो उसका स्वभाव ही नहीं था।
                नए बच्चों के स्वागत की तैयारियां चल रहीं थीं। सभी टीचर्स चाहते थे कि शुरूआत मीनू के डांस से ही हो। उसने भी खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। पर हैरानी की बात ये थी उसका ये कहना-
‘‘ दो दिन के लिए कॉलेज में ही रिहर्सल की व्यवस्था करा दें आप। घर में पॉसीबल नहीं। ’’
 बात अजीब तो नहीं थी पर लगा शायद घर में उसे नाचने-गाने की अनुमति नहीं है। मैंने व्यवस्था तो करा दी पर घर के बारे में पूछने पर उसने बेहद नपे-तुले शब्दों में इतना ही कहा-‘‘बस ऐसे ही। पापा को पसंद नहीं।’’ मेरे मन ने प्रतिवाद किया, क्या ज़रूरत है पापा को बताने की? कौनसा वह सारे दिन घर में रहते हैं? और आखिर नाचने में ऐसी कौनसी बुराई है जिसे छोड़ा जाना चाहिए। क्या उसके पापा ने देखा है कभी उसका नाचना? शायद नहीं ,इसीलिए तो वे जान ही नहीं सके कि नाचते हुए उसकी खुशी सातवें आसमान पर होती है। बात करना चाहती थी मैं उससे खुलकर। चलकर समझाना चाहती थी उसके पापा को पर उसके कसकर भिंचे होंठो ने एक सीमा रेखा खींच दी थी जिसके पार जाने की अनुमति मुझे नहीं थी। 
                ‘‘ जल्दी चलिए मैडम, मीनू बेहोश हो गई है।’’
अगले दिन डांस की तैयारी के दौरान बच्चे बदहवास भागे आए। डॉक्टर ने बताया कि उसके शरीर में खून कम है और कम पोषण के चलते जान भी नहीं है। बच्चों ने एक और बात का भी खुलासा किया कि एन.एस.एस की ओर से लगे ब्लड डोनेशन कैंप से डॉक्टर ने इसे ब्लड डोनेट करने से मना कर दिया था। उस दिन ग्लूकोज़ चढ़वाकर मीनू को उसके घर लेकर गई । बाहर के गेट पर ही उतरते हुए बोली-
‘‘ मैं खुद चली जाऊंगी और प्लीज़ मेरे घर में कभी किसी को न बताएं कि मेरे साथ क्या हुआ। आप चलेंगी तो... कल तक ठीक रही तो डांस ज़रूर करूंगी।’’
आज सवाल उठा कि ये वही मीनू है जो मुझे घर बुलाने पर अड़ गई थी? दूसरे ही पल मैं कांप गई क्या मुझे घर बुलाने का कोई और मकसद तो नहीं था। उसके घर का धार्मिक अनुशासन और मेरी बातों में धर्म की रूढि़यों का तार्किक खंडन। तो क्या मीनू इसलिए मुझे...ओह ! हां,शायद इसीलिए। वैसे भी बच्चों के सामने डॉ सहज त्रिपाठी का जीवन खुली किताब ही तो था जिसने जीवन अपनी शर्तों पर जिया और किसी भी तरह की रूढि़ और पूर्वाग्रहों को कभी नहीं माना। पढ़ाई के विषय से लेकर जीवनसाथी के चुनाव तक का निर्णय उसका अपना रहा। इसीलिए मुझसे प्यार करती थी मीनू तो अब क्यों उसने अपने घर और मन के दरवाजे बंद कर लिए?
मेरा दिमाग उसके घर के रहस्य को खोलने में लगा था पर जुबान से यही निकला ‘‘ ठीक है और तुम कल की चिंता न करो अपना ध्यान रखो बस।’’ इस घटना के बाद कॉलेज में मीनू का डांस छूट गया। अब कभी-कभी गाना गा देती थी। बड़ी टीस-सी उठा करती थी मेरे भीतर और सवालों के जंगल में उलझते-दौड़ते जब लड़खड़ाती तो मैं खुद से सवाल करती आखिर क्या है ये- हरदम मीनू, मीनू? मीनू के अलावा और भी तो बहुत कुछ है न जि़ंदगी में। होते हैं कई बच्चों के अपने सवाल जि़ंदगी के। हम किस- किसके सवालात हल करते फिरें आखिर? और हल तो तब करें न जब कोई शामिल करे अपनी परेशानी में।
  इधर कुछ दिनों से मैं महसूस कर रही थी कि जो मीनू हंसना-खिलखिलाना भूलती जा रही थी, उसकी हंसी फिर लौट रही है। शरीर से कमज़ोर होने के बावजूद मन से मजबूत हो रही थी। उसकी चंचलता, चुलबुलापन फिर से गलियारों में गूंज रहा था। पर ये क्या, अब एक नई मुसीबत। वो क्लास में अक्सर गायब रहने लगी। खोजने पर भी कारण नहीं मिला तो अपनी आदत के मुताबिक एक दिन क्लास से पूछ ही लिया-
‘‘मीनू नहीं आई क्या आज?’’
‘‘मैडम वो तो रोज़़ आती है पर...।’’ इस अधूरे जवाब के साथ कुछ दबी ध्वनियां भी क्लास में गूंजी जिन्होंने मुझे बेचैन कर दिया। कुछ चेहरों पर शरारती मुस्कुराहट, आंखों-आंखों में बच्चों का एक-दूसरे को देखना  और फिर वो दबे से शब्द में प्रशांत का व्यंग्यात्मक धुन में गुनगुनाया गीत बहुत कुछ बयां कर गए - ‘‘आजकल पांव ज़मीं पर नहीं टिकते उसके। ’’ पर मन ने माना,हो सकता है ये बच्चों की खामाख्याली हो फिर ये मीनू का निजी मसला था और कॉलेज में ऐसा बहुत कुछ होता ही रहता है। दरअसल मेरी चिंता वो नहीं थी , चिंता इस बात की थी कि मीनू पढ़ाई के प्रति इतनी लापरवाह कैसे हो सकती है? उसके घर का माहौल फिर घर की माली हालत और मीनू का रवैया, सब कुछ परेशान करने वाला था। मीनू मिलती भी तो मैं उसे क्लास में आने के लिए ही कह सकती थी उस पर कोई दबाव नहीं डाल सकती थी।
‘‘आप मुझे पूछ रहे थे, मैडम़...कल ,क्लास में?’’
 अचानक अगले दिन वो खुद मेरे सामने मेरे सभी सवालों का जवाब बनकर हाजि़र थी।
‘‘हां भई, कहां हो तुम?’’
‘‘ फिल्म देखने गई थी...मैं और इमरान थे साथ में.....उसका जन्मदिन था न।’’ शुरूआती संकोच से निकले उसके बेधड़क शब्दों ने बहुत कुछ कह दिया।
‘‘ दोस्तों का जन्मदिन मनाओ पर रो़ज-रोज क्लास से कैसी नाराज़गी?’’
बहुत सारे सवाल होते हुए भी संयमित रहना वक्त की ज़रूरत थी। और मीनू मुस्कुराकर चली गई। मामले की भनक तो लग गई थी मुझे पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना अभी मुश्किल था। मीनू ने मेरी क्लास में आना दोबारा शुरू कर दिया पर बाकी लोगों के यहां वो गैरहाजि़र थी,दूसरे क्लास में वो इमरान के साथ ही बैठती। इमरान भले घर का अच्छा लड़का था और मीनू तो थी ही अच्छी पर ऐसा क्या था जो मुझे परेशान किए जा रहा था। वो शायद समय ही था जो उनके कच्चे मन पर भारी दस्तक दे रहा था जिसकी आवाज़ मेरे कानों में भी अपनी धमक के साथ गूंज रही थी। मेरे ही क्या कई कानों में गूंज रही थी और सबका मन यही कह रहा था-‘‘ ये कोई उम्र है भला?’’ पर बात कुछ और भी थी-‘‘क्या मीनू का परिवार इमरान को देख पाएगा मीनू के जीवन साथी के रूप में?’’ सवाल जटिल था पर बार-बार इसका जवाब बड़ी सरलता से मेरे सामने अपनी नन्हीं सी मुद्रा में आता-‘‘नहीं’’। दिक्कत एक ये भी थी कि मीनू इस सारे मामले को अपने तक ही सीमित रखना चाहती थी। अपने किसी दोस्त को भी उसने अपने प्रेम का राज़दार नहीं बनाया था, साक्षी को भी नहीं।
                इधर इमरान-मीनू प्रेम-प्रसंग ने कॉलेज में नई हलचल भर दी थी। कुछ तो उसके बोल्ड स्टैप को भावी प्रेरणा की तरह पा रहे थे तो कुछ की प्रतिक्रिया बेहद साम्प्रदायिक और घृणा से भरी भी थी।
‘‘ अरे ये ट्रेंड चल निकला है। लव-जेहाद के बारे में जानते हो क्या? अरे सोची-समझी साजिश है। ये लड़के ऐसे ही हमारी लड़कियों को बरगलाते हैं और उन्हें अपने धर्म में शामिल कर लेते हैं। अभी घर पर फोन खड़का दूं मीनू के तो सही रस्ते पर आ जाएगी।’’
 प्रशांत के अशांत मन में चल रही बातों का खुलासा कुछ बच्चे मुझसे कर गए। पीठ पीछे प्रशांत के तीखे-तल्ख जुमलों और भद्दे शब्दों से इमरान-मीनू दोनों ही आहत थे। एक दिन दोनों के सामने ही क्लास के दौरान प्रकारांतर से मैंने धर्मनिरपेक्षता और समतामूलक समाज की नींव में धार्मिक संकीर्णता की बाधा और इस दिशा में अंतर्जातीय-अंतर्धार्मिक विवाहों की ज़रूरत पर बात की। हमेशा की तरह बहुत से सहमत हुए और कुछ उदासीन ही रहे। पर प्रशांत जैसे बच्चे आक्रामक होकर बहस करने लगे। मैंने कई बार उन्हें तर्क के रास्ते लाने की कोशिश की पर वे लकीर के फकीर की तरह बोले-
‘‘ ये तो गलत होगा। हमारा धर्म तो सदियों से श्रेष्ठ रहा है। सबसे ऊपर, सबसे अच्छा। सब उन्नति का मूल। हमारी संस्कृति तो आधार है मैडम, इसे कैसे, क्यों और किनके लिए हिला दें?धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द सुनने में मधुर हैं, फैशनेबल हैं, वोट मिलते हैं इनसे पर इनके चक्कर में अपना धर्म नहीं छोड़ा जाता। मैडम ‘जाति कभी नहीं जाती’-सुना तो होगा आपने।’’
जिसने जीवन में इन बातों की परवाह नहीं की उसे ये बच्चे शायद जबरन समझाने की कोशिश कर रहे थे। यही नहीं एक दिन क्लास में घुसते हुए खौलते लावे जैसे शब्द भी कान में तैर गए-‘‘ ये सब साले पाकिस्तानी। खायेंगे यहां की और...। हम क्या चुप बैठे रहेंगे, पानी नहीं है खून दौड़ता है अंदर, दिखा देंगे।’’
   फिर अचानक कॉलेज फेस्ट के दौरान किसी बात पर लड़कों ने इमरान को बुरी तरह पीट दिया। धक्का-मुक्की में मीनू को भी चोट आई और मौके का फायदा उठाकर उससे छेड़छाड़ भी की गई थी शायद। कुछ बच्चों का कहना था कि नाचते समय इमरान किसी से टकरा गया और कहते-सुनते बात बढ़ गई। कुछ का कहना था मीनू के साथ बद्तमीज़ी का विरोध करने पर ऐसा हुआ तो कुछ ने बताया इमरान को पीटने वाले लड़के कह रहे थे-‘मार के गाड़ दो साले को देख लेंगे सब बाद में।’ मैडम, दोनों को पहले से दी जा रही धमकियां कोरी गीदड़ भभकी नहीं थीं।’’ थोड़े दिन बाद स्थितियां शांत हुईं और निष्कर्ष निकला ‘‘फेस्ट-वेस्ट में तो ऐसा हो ही जाता है। शान मारने के लिए लड़के ये सब किया ही करते हैं।’’ पर इस सबके बीच उन दोनों के प्रसंग को बड़े ही वाहियात तरीके से हवा दी गई। आग की चिंगारी मीनू के घर तक पहुंच गई। अब मीनू क्लास से गायब रहने लगी और ठीक होने के बाद कॉलेज आया इमरान मुझे अकेला बैठा मिलता। उदास और परेशान। कोई नहीं जानता था आखिर हुआ क्या? इमरान ने बेहद संकोच भरे शब्दों में यही कहा ‘‘मैडम उसका फोन बंद है। मैं कुछ नहीं जानता। शायद वो बात ही नहीं करना चाहती मुझसे। ’’
 पहले तो मुझे लगा कि कुछ दिन मीनू का न आना ही ठीक है पर जब कई दिन बीत गए तो मेरा माथा ठनका। इस मसले पर अपने एक सीनियर साथी से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने कहा-
‘‘ बी प्रैक्टीकल सहज। क्यों पड़ती हो इन चक्करों में नौकरी करो और खुश रहो। परिवार देखो अपना। किन झंझटों में फंस रही हो। ये बच्चे किसके सगे हैं?’’
सच ही तो कहा उन्होंने नौकरी करो और खुश रहो। हां नौकरी करने ही तो आते हैं हम। पर मन ने तुरंत प्रतिवाद किया क्या केवल नौकरी ही करने आते हैं हम? क्या हम भी किसी मंडी में बैठे हैं कि बस सामान को जल्दी से जल्दी बेचना और हर हाल में ग्राहक को खुश करते हुए उससे लाभ कमाना ही हमारा पेशा है। ऐसे ही गढ़ने हैं हमें ‘आदम के सांचे?’
                ‘‘मैडम मीनू दिल्ली में है ही नहीं, उसके पापा को बड़ा झटका लगा है बिज़नेस में। सब लोग दिल्ली छोड़कर राजस्थान चले गए।’’
वर्षा  से सारा हाल मालूम होते ही मैं बौखला गई-
‘‘ऐसे कैसे? अब उसकी पढ़ाई? थर्ड ईयर है आखिर।’’
‘‘ वो तो इमरान की बात के बाद ही खतम हो गई थी, मैडम। घर में मार पड़ी सो अलग। बहुत रोई थी मैडम वो। बहुत गिड़गिड़ाई कि पढ़ाई मत छुड़वाओ। रिश्ते की चाची के यहां रहकर पढ़ाई पूरी करने की भीख तक मांगी उसने पर किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। ऊपर से उसके पापा ने कहा ‘पाप किया है तूने अब प्रायश्चित तो करना ही पड़ेगा।’ पता नहीं मैडम क्या-क्या हुआ होगा? फोन भी छीन लिया उसका। न कोई नम्बर है न कोई पता। ’’
लोगों से भरी इस दुनिया से मीनू एकदम गायब कर दी गई। बिना पते और बिना फोन नम्बर के कहां ढूंढे उसे? मेरी तड़प यही थी कि काश मैं उसके माता-पिता को समझा पाती और किसी तरह मीनू बी.ए. पूरा कर लेती। सपनों से भरी एक लड़की अपने ही घर के आईने की किरचों में कहीं लहूलुहान पड़ी थी। उसके सपनों और उम्मीदों के पर नोंच डाले गए होंगे अब तक। उसका ख्याल मुझे किसी करवट चैन न लेने देता। परेशानी से भरे उन दिनों में एक मानस ही थे जो मुझे हौसला देते और दूसरी वर्षा  थी जिसके होने से उम्मीद बंधती कि कभी न कभी तो वर्षा  से उसकी बात होगी ही।
                आज थर्ड ईयर का फेयरवेल था, मीनू की क्लास का। पर मीनू नहीं थी और इमरान ने आना लगभग बंद-सा ही कर दिया था। उस आयोजन में कहीं किसी ने उसका जि़क्र भर किया था और अब इसके बाद उसका जि़क्र भी हमेशा के लिए खत्म होने वाला था। दुखी मन से कॉलेज से निकल रही थी कि वर्षा  मिल गई। ‘‘आपको चलना होगा मैडम मेरे साथ। अभी इसी समय।’’
‘‘कहां और किसलिए ?’’
‘‘मीनू आई है मैडम। दिल्ली में रहेगी कुछ दिन।’’
घबराहट में मेरे गले की सारी नसें तन गईं। अपनी सारी शक्ति समेटकर मैंने कहा,‘‘कहां है?जल्दी चलो। मम्मी-पापा को बिना बताए कुछ समय के लिए ही आई होगी न, हमसे मिलने। क्या इमरान भी पहुंच रहा है?’’
‘‘ नहीं वो नहीं आ रहा। अब मीनू को किसी से छिपने-बचने की ज़रूरत नहीं है मैडम, उसे दीक्षा दिला दी गई है मैडम।’’
दुखी स्वर में निकले साक्षी के शब्द किसी वज़नी हथौड़े की तरह मेरे दिमाग में पड़े। जीवन से भरी, उमंगों में झूमती, सपनों के गीत गुनगुनाती, फिरकी की तरह नाचती, प्रेम के पंख लगाकर उड़ने वाली मीनू और दीक्षा धारण करने वाली साध्वी मीनाक्षी -दोनों में कौनसा सच था, पहचान जटिल थी। क्या यही था मीनू का फेयरवेल?
 आज सोचती हूं तो लगता है कि वर्षा  से सच जानने के बाद मैं क्यों गई उससे मिलने? क्या बदल दिया मैंने? और क्या जान लिया नया ही कुछ? जितना उसका सच था साक्षी ने बता तो दिया ही था। फिर ऐसा क्या मिलने वाला था उसे देखकर? क्या  वर्षा के कथन का जीता-जागता सबूत लेने गई थी मैं? साध्वियों की तरह सफेद साड़ी में लिपटी, शांत मीनू ने तो मेरी मीनू के वजूद को ध्वस्त कर दिया था। उस सत्संग में नन्हीं, किशोरी, जवान और वृद्ध साध्वियों की पंक्ति में बैठी मीनू को पहचान लेना आसान बात नहीं थी। थोड़ी देर का समय निकालकर मीनू हमारे साथ बैठी।
‘‘कैसी हैं आप?’’
भला अपनी मीनू को मरते देख क्या खुश होंगी मैं? कैसा सवाल है? उसके चेहरे में अपनी मीनू की पहचान का कोई अवशेष ढूंढने की कोशिश में मेरे अधूरे से शब्द बाहर आए-‘‘क्यों मीनू?...ये सब किसलिए?’’
‘‘सब हमारे कर्म का खेल है और क्या? भाग में लिखा था।’’ सरलता से कही उसकी बात मुझे बड़ी ही बनावटी और थोथी जान पड़ी। चीखना चाहती थी उसपर, एक तमाचा मारना चाहती थी उसे पर उसकी बात खत्म नहीं हुई थी-
‘‘ परिवार के दुख का कारण बन गई थी। पढ़ाई छुड़वा दी गई, घर की हालत तो आप जानती ही थीं। उस घटना के साथ ही पापा का बिज़नेस भी डूबा, इसे कोई अनिष्ट मानकर पापा ने संकल्प लिया कि एक बेटी धर्म की राह पर जाएगी। फिर मुझे पाप का प्रायश्चित भी तो करना था।’’
उसके आखिरी शब्दों ने खुद को संयत रखने की भरपूर कोशिश के बाद भी व्यंग्य की रेखाएं और रंगों को उभार दिया।
‘‘ पर क्या यही रास्ता था?’’ मैं रोक न सकी किसी तरह अपने सवाल का तीर।
‘‘ क्या करती बीच रास्ते में पढ़ाई छोड़ बैठी एक परनिर्भर, बेरोज़गार, कलंकित लड़की? मेरी तो कोई भी साध पूरी होनी ही नहीं थी इस हालत में, पर पापा की तो हो ही सकती थी न। धर्म भी रह गया और दीक्षा ने बाकी खर्चे और झंझट भी बचा दिए। पुण्य मिला सो अलग। अब कोई परेशान नहीं, सब खुश हैं...आप ही कहा करती थीं न तर्क से सिद्ध करो अपनी बात। है न मेरी दीक्षा में गहरा तर्क। अकारण कुछ भी नहीं है।’’
तार्किक होते हुए भी उसकी बातें क्यों मुझे भावुक कर रही थीं।  भीतर के आवेग को रोकते हुए मेरा एक आखिरी सवाल अपनी पूरी उत्तेजना और जिज्ञासा में फूट पड़ा-
‘‘इतनी छोटी उम्र और इतना कठिन संकल्प?’’
आज मेरे हर सवाल का जवाब था उसके पास-‘‘ जो सबसे सरल लगता था जीवन में वही कठिन था मेरे लिए। इस जीवन में कैसी कठिनाई? देखिए न, यहां तो चार साल की बच्चियां भी ये कठिन संकल्प लिए हुए हैं और साठ-सत्तर साल की औरतें भी। फिर मेरे जैसी लड़की के लिए क्या मुश्किल है? ’’
बेहद नाटकीय होते हुए भी यही मीनू की जि़ंदगी की हकीकत थी। और क्या गलत कह रही थी वो, चार साल की अबोध बच्चियां और साठ-सत्तर साल की अशक्त औरतें सभी तो थीं उसके साथ। फिर मीनू न तो अबोध थी न अशक्त। सफेद साडि़यों में लिपटी ये बच्चियां, जवान और वृद्धाएं -इनमें से कितनी ही होंगी मीनू की तरह अपने अरमानों की गठरी में गिरफ्त, खुद ही अपनी इच्छाओं और जीवंत अतीत पर कसकर गांठ बांधने वाली। औरों के लिए सबाब कमाने वाली बेजान गठरियां ही तो दिख रही थीं सब।
                इस घटना के बाद बहुत कुछ बदल गया। मीनू से तो किसी मुलाकात की अब कोई उम्मीद थी नहीं पर एक नया परिवर्तन मेरे जीवन में ये आया कि साध्वियों से जुड़ी खबरों पर मेरा ध्यान विशेष रूप से जाने लगा। कभी झाबुबा में लंबे व्रत के कारण किसी साध्वी की मौत की खबर मुझे परेशान करती तो कभी महाराष्ट्र में बाल संन्सासिनों पर चलने वाले विवाद और कई न्यायिक मोड़ो पर, कभी देश के किसी भी इलाके में सम्पन्न हुई दीक्षा के भव्य आयोजन पर तो कभी साध्वियों के अपहरण और उनसे मार-पीट की वारदातों पर। शायद मैं इन सब में मीनू को ही खोजा करती थी। जैसे इन सबमें मीनू ही बसती थी? ऐसे ही एक दिन राजस्थान की किसी साध्वी के साथ बदसलूकी की खबर पर मेरी नज़र गई और मन ने  तुरंत कहा-
‘‘कहीं ये मीनू तो नहीं है?’’
खबर ने उसकी उम्र बारह साल बताकर मुझे गलत ठहरा दिया। कुछ पल के संतोष के बाद मीनू का ध्यान मुझे फिर से एक गहरे असंतोष से भर गया। काश! ये खबर मीनू की ही होती। कम से कम अर्से से उसके साथ हो रही बदसलूकी की खबर तो आज सब तक पहुंच जाती। मन भी कितना अजीब है न...

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टिप्पणियाँ:-

अंजू शर्मा :-
मैंने यह कहानी पहले भी पढ़ी है। तब भी अच्छी लगी थी। एक अध्यापिका और एक छात्रा के बीच एक अनदेखे रिश्ते की डोर की कहानी जो हालात का शिकार हो धर्म के नाम पर क़ुर्बान हो जाती है। कहानी में प्रज्ञा जी की डिटेलिंग लाजवाब है। आपको सीधे कैंपस के दिन याद आते हैं और मीनू की कहानी चलचित्र सी सामने चलती है। बधाई प्रज्ञा जी 

नंदकिशोर बर्वे :-
अच्छी कहानी। कहानी के मूल तत्वों पर खरी उतरती । घटनाक्रम कसा हुआ। संवाद पात्रानुकूल। सधी हुई भाषा। समसामयिक विषय। फिर भी मीनू से उपजी सहानुभूति के चलते सुखांत होती तो बेहतर होता। नंदकिशोर बर्वे इंदौर।                                                                                                                              

प्रज्ञा :-
शुक्रिया नन्दकिशोर बर्वे जी। आपको कहानी अच्छी लगी। पर तमाम कोशिशों के बाद भी इसे सुखान्त न बना सकी। जब पाप पाप न हो तर्क सा तर्क न हो और प्रायश्चित तो कतई नहीं फिर कथाधारा का प्रवाह सुखान्त कैसे करती।

मनीषा जैन :-
बहुत ही संवेदनशील कहानी।एक अध्यापिका का छात्रा के प्रति निर्मल व्यवहार ऑखें नम तो करता ही है लेकिन नायिका को परिवार द्वारा इस उम्र में धार्मिक में इन्डल्ज करना बच्चों के प्रति निर्ममता दर्शाता है। लेखिका ने काॅलेज लाइफ को जीवन्त कर दिया। कहानी में जबरदस्त संप्रेषणीयता है।छोटे छोटे वाक्य कहानी की रोचकता को बढ़ाते हैं। प्रज्ञा जी को एक अच्छी कहानी के लिए बधाई।
कहानी में जैन धर्म के व्रत उपवासो की व साध्वी बनने की निर्मम प्रक्रिया का इशारा बहुत कुछ कहता है। मधु काकंरिया ने अपने उपन्यास सेज पर संस्कृत में इस विषय पर सब कुछ खोल कर रख दिया है।
बधाई प्रज्ञा जी

आर्ची:-
सधी हुई सार्थक कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई. मन और जीवन के बहुत करीब लगते हैं सारे पात्र और घटनाक्रम.. )(वेलकम से फेयरवेल तक :) 
मैंने ये कहानी पहले नहीं पढी पर लग रहा है इसका नाम "मीनू का फेयरवेल" होना चाहिए  :)
कहानी भारतीय समाज की जडों मे जमे रूढिवाद का रोचकता और मार्मिकता के साथ चित्रांकन करती है.. धर्म का वास्तविक उद्देश्य समाज के संगठन को बनाए रखना होता है पर इसे सदियों से स्त्रियों को दबाए रखने के हथियार के रूप मे ही इस्तेमाल किया जाता रहा है...
सारे दृष्य चलचित्र की भाँति आँखों के आगे घूमते रहे जैसे ही मीनू को दीक्षा दिलाए जाने की बात आती है कहानी एक मार्मिक मोड ले लेती है सामान्य तौर पर जबरन कहीं और शादी कर दिए जाने की कल्पना ही दिमाग मे आती है हाँलाकि वह भी अरमानों का पंख कतर दिए जाने का ही एक विकल्प होता पर उमंग भरे मन पर वैराग्य थोप दिया जाना प्रसंग को बहुत मार्मिक बनाता है.. साहस के साथ बात रखने के लिए पुन: साधूवाद
अंत की कुछ पंक्तियाँ अनावश्यक लगीं जैसे...किसी अन्य बारह साला साध्वी के साथ हो रही बदसलूकी की खबर भी कोई संतोष की बात नही हो सकती भले ही वह मीनू न हो !
इससे फर्क नही पडता कि मीनू से जुडी खबर आ रही है या नहीं जहाँ उसपर त्याग और वैराग्य लाद दिया गया वहीं मार्मिकता का चरम है! 
बधाई साधूवाद और धन्यवाद। सधी हुई सार्थक कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई. मन और जीवन के बहुत करीब लगते हैं सारे पात्र और घटनाक्रम.. )(वेलकम से फेयरवेल तक :) )
मैंने ये कहानी पहले नहीं पढी पर लग रहा है इसका नाम "मीनू का फेयरवेल" होना चाहिए  :)
कहानी भारतीय समाज की जडों मे जमे रूढिवाद का रोचकता और मार्मिकता के साथ चित्रांकन करती है.. धर्म का वास्तविक उद्देश्य समाज के संगठन को बनाए रखना होता है पर इसे सदियों से स्त्रियों को दबाए रखने के हथियार के रूप मे ही इस्तेमाल किया जाता रहा है...
सारे दृष्य चलचित्र की भाँति आँखों के आगे घूमते रहे जैसे ही मीनू को दीक्षा दिलाए जाने की बात आती है कहानी एक मार्मिक मोड ले लेती है सामान्य तौर पर जबरन कहीं और शादी कर दिए जाने की कल्पना ही दिमाग मे आती है हाँलाकि वह भी अरमानों का पंख कतर दिए जाने का ही एक विकल्प होता पर उमंग भरे मन पर वैराग्य थोप दिया जाना प्रसंग को बहुत मार्मिक बनाता है.. साहस के साथ बात रखने के लिए पुन: साधूवाद
अंत की कुछ पंक्तियाँ अनावश्यक लगीं जैसे...किसी अन्य बारह साला साध्वी के साथ हो रही बदसलूकी की खबर भी कोई संतोष की बात नही हो सकती भले ही वह मीनू न हो !
इससे फर्क नही पडता कि मीनू से जुडी खबर आ रही है या नहीं जहाँ उसपर त्याग और वैराग्य लाद दिया गया वहीं मार्मिकता का चरम है! 
बधाई साधूवाद और धन्यवाद

बी एस कानूनगो:-
अंततः पाप तर्क और प्रायश्चित पढ़ ही ली।बहुत बधाई प्रज्ञाजी।आप किसी भी कॉलेज में पढ़ाती होंगी लेकिन कहानी पर जिस कॉलेज की मुहर दिखाई देती है उसका अपना बड़ा महत्व है उसका सफलतापूर्वक आपने निर्वाह भी किया है।प्रगतिशील विचार धारा की रीढ़ ही कहानी को मजबूत बनाती है।उन्मुक्त नारी का उत्साह से अवसाद और फिर प्रेम की उमंग से विवशता की यात्रा का सफ़र भी बखूबी कहानी में हुआ है।लव् जेहाद की कहानी नहीं है यह मात्र जिक्र करते हुए आगे बढ़ती है।कहानी में बस इतनी ही जरूरत भी थी। बधाई और शुभकामनाएं।सार्थक हुआ आज का दिन।

नंदकिशोर बर्वे :-
ठीक कहा प्रज्ञा जी आपने। कई बार लेखक अपने ही रचे चरित्र के सामने इतना मजबूर हो जाता है कि फिर उसका ट्रीटमेंट खुद उसके हाथ में भी नहीं रह जाता। मैं यह बात इसलिए कह पा रहा हूँ मैं भी अपनी कहानियों के पात्रों के सम्मुख नतमस्तक हो चुका हूँ । नंदकिशोर बर्वे।

प्रज्ञा :-
आप सबका आभार कि मेरी कहानी ने आपके मन पर दस्तक दी। आप सबके सुझाव भी अलग अलग रूप में सामने आये जिन पर मैंने गौर किया। मनीषा जी बर्वे जी अर्चना जी निधि जी कविता जी आप सबका शुक्रिया। आज मैं अपनी रचना के साथ आपसे जुड़ पाई। ताई आपने लगातार धैर्य बनाये रखा कि कोई असुविधा न हो और बृजेश जी आपकी हिम्मत को सलाम कि अंततः आप अपने प्रयास में सफल हुए। आप सबकी प्रतिक्रिया मेरी हौसलाअफ़ज़ाई

प्रज्ञा :-
है। मैं निरन्तर अपने कथाकार को मथती रहूँ मांजती रहूँ। सिर्फ एक बात और ये मीनू देश भर के अनेक शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाली कोई भी मीनू हो सकती है। और उसके हालात इससे भी बद्तर हो सकते हैं।

फरहात अली खान :-
प्रज्ञा जी की इस कहानी का भाव पक्ष बेहद प्रभावशाली है। अक्सर जगहों पर कहानी दिल को छूती हुई जाती है। बारहवीं पास बच्चे आमतौर पर सोलह-सत्रह साल के होते हैं। बीए के तीन साल और जोड़ दें तो हो गए उन्नीस-बीस साल। यानी ये कहानी एक ऐसी लड़की के बारे में है जो लगभग 16 साल की उम्र में कॉलेज में दाख़िल होती है और लगभग 19 साल की उम्र तक उसकी ज़िन्दगी में बड़े बदलाव आते हैं।
असल में ये उम्र ही होती है कुछ बनने या बिगड़ने की और इसमें उनके माँ-बाप का बहुत बड़ा योगदान होता है।
प्रज्ञा जी ने एक अर्से से कॉलेज लाइफ़ को क़रीब से देखा है और उनका तजुर्बा इस कहानी में सामने आया है।
कहानी में भावनात्मक मुद्दों के साथ साथ कई संवेदनशील मुद्दे भी बा-ख़ूबी उठाये गए हैं जिसके लिए प्रज्ञा जी बधाई की पात्र हैं। कहानी का अंत भी वाक़ई क़ाबिल-ए-तारीफ़ है।

अब 'फ़न' यानी कला पक्ष पर आते हैं।
लगभग पूरी ही कहानी में शब्दों का चयन प्रभावित करता है। 'पराठों का रोल', 'आम का आचार' आदि पढ़कर लुत्फ़ आया।

हालाँकि कुछेक जगह वाक्यों के पूरा होते होते कुछ कमियों का अनुभव होता है:
1. "..उसकी बेसाख़्ता हँसी...समझ रही है?"
यहाँ दो शब्द 'शायद' और 'क्या' एक ही वाक्य में नहीं जंचते।

2. "अगले दिन सबसे पहले...करने की कोशिश की।"
इस वाक्य में कुछ अस्पष्टता सी है। अगर इस वाक्य को बार बार पढ़ा जाए तो कुछ संशोधन करके इस अस्पष्टता को दूर किया जा सकता है।
3. 'खांमखां' असल में 'ख़्वाह-म-ख़्वाह' होता है। अगर इसको तोड़ा मरोड़ा भी जाए तो भी परिणामी शब्द का उच्चारण इससे मिलता जुलता ही होना चाहिए। मिसाल के तौर पे:
'ख़्वामख़्वा' भी चलेगा।

कीर्ति राणा: 
प्रज्ञा जी की कहानी बांधे रखती है....विषय के लिहाज से मुझे एकदम नया विषय लगा....भावना और अहं को खूब अच्छे लेकिन सहज सरल शब्दों में प्रस्तुत किया है....मन को छू लेने वाली कहानी लगी मुझे।

नयना (आरती) :-
मैं डॉ. सहज त्रिपाठी, एक लंबा अनुभव है मेरा इस संस्थान में। कितने ही छात्र पढ़ाए। एक रूतबा है मेरा और मात्र बारहवीं पास एक लड़की ने मुझे मेरे ही गढ़ में चित्त कर दिया।----बडे सहज रुप से प्राध्यापिका के अंह्भाव को दर्शा गया. लेकिन विस्तार मुझे ज्यादा लंबा लगा

जैसे-जैसे कहानी आगे बढती गयी मैं अपने १०-११ की क्लास में पहुँच गई जहा हुबहु ऐसी घटना को मैने घटते देखा है. फ़रक इतना था कि वहाँ इमरान-मीनू प्रेम-प्रसंग सा प्रेम प्रसंग ना होकर महज लडको के स्कुल मे लडकी कैसे भेजे यह कहकर उसकी पढाई रुकवा दी गई थी.क्योकि तब वहाँ कक्षा ८ तक ही लडकियो का स्कुल था आगे की पढाई सह शिक्षा की थी और मै.स्वंय उसमे प्रवेश लेने वाली पहली लडकी.मेरे माता-पिता ने उसके माँ को बहुत समझाया था उसकी आगे की शिक्षा जारी रखने के लिये लेकिन ऎसा हो ना पाया.फिर वो घर मे रहकर ही अपनी माँ के साथ कागज के पुडे बनाने का काम करने लगी.वही सब फिर व्रत -उपवास नियमित सुबह मंदिर जना आदी.महाविद्यालयिन शिक्षा के लिये मैने फिर वह गाँव छोड दिया किंतु पत्र व्यवहार से कुछ दिनो संपर्क रहा धिरे-धिरे वह भी छुट गया.समाज मे दहेज प्रथा के चलते २०वे साल तक शादी ना हो पाने से घर के लिये वो बोझ बन गयी थी और एक दिन अचानक अपने शहर मे वो मुझे साध्वी के रुप मे मिली थी.मैं तो नही पहचान पायी उसे पर उसने पास बुलाकर अपनी पहचान बता दी थीऔर मै.सिर्फ़ अवाक खडी उसे देखती रह गयी.
आज की प्रज्ञा की कहनी ने मुझे फिर हिला कर रख दिया----
दीक्षा ने बाकी खर्चे और झंझट भी बचा दिए। पुण्य मिला सो अलग। अब कोई परेशान नहीं, सब खुश हैं
आज की पोस्ट बेनामी नही थी शायद इसलिये साथ-साथ प्रज्ञा जी भी जुडती रही.बहुत मार्मिक कहनी के लिये आप बधाई की पात्र है

कविता वर्मा: 
आज लेखिका प्रज्ञा जी की कहानी पाप तर्क और प्रायश्चित पोस्ट की गई थी जिस पर सुधि जनों की अच्छी प्रतिक्रिया आई। हालांकि सहभागिता कुछ कम रही ये शायद कहानी के लम्बे होने की वजह से रहा या शायद कहानियों को कविताओं जैसा पाठक वर्ग कम मिलता है इस वजह से। कहानी एक पात्र मीनू के चुलबुलेपन सादगी और सरलता के साथ आगे बढती है जिसमे लेखिका (शिक्षिका ) का स्वयं की पहचान के लिए आवेग फिर मौन निरिक्षण के साथ नायिका मीनू के लिए स्नेह भाव ,कॉलेज की छोटी मोटी चटपटी घटनाओं के बीच धीमे से होने वाली घटनाये और बदलाव रोचक ढंग से प्रस्तुत किये गए हैं। एक माध्यम वर्गीय धर्म भीरु परिवार की विवशताएँ ,दो बेटियों की जिम्मेदारी ,विधर्मी से प्रेम जैसी घटनाओ के बीच शिक्षिका का ये महसूस करना कि मीनू ने अपने घर इसलिए बुलाया ताकि वह उन्हें कुछ समझा सके और शिक्षिका का समझ लेने के बाद भी चुप रह जाना आज के पढ़े लिखे सभ्य समाज को आइना दिखलाता है जो सुविधा जनक स्थितियों में ही अपने ज्ञान और तर्क का प्रदर्शन करते हैं। कहानी कई चौंका देने वाले मोड़ों के साथ धारा प्रवाह चलती है। धर्म ,पाप और प्रायश्चित के नाम पर स्त्री का बलिदान सदियों से चला आ रहा है। एक कसक के साथ कहानी का अंत एक जिज्ञासा छोड़ने में सफल रहा है। एक अच्छी कहानी के लिए लेखिका को बधाई। 

निधि जैन :-
जैन होने के नाते मुझे कहानी चुभी। कहानी के कंटेंट में सच जैसा कुछ नही
बहुत सारे तथ्य इकट्ठे रखे गए। कहानी में से कुछ तथ्य हटाकर थोड़ी छोटी करते तो और अधिक आनंद आता।
भाषा भी सुधारी जा सकती है
कहानी ठीक थी

Satyanarayan: 
निधि जी यदि आप जैन न होती
तब क्या कहानी नहीं चुभती....!
मैं जैन नहीं...हिन्दू भी नहीं...फिर भी
मीनू के साथ जो होता है...चुभता तो है
कहानीकार को भी कुछ चुभा ही होगा..तभी यह कहानी कही गयी है..
निधि जी की इस बात से सहमत
कि कहानी की भाषा पर और काम किया
जा सकता था...और गुंजाइश है काम की....

निधि जैन :-
मुझे कंटेंट चुभा तथ्य सही नही
हमारे यहाँ किसी को भी जबरदस्ती दीक्षा नही दी जाती न ही दिलाई जाती है
तथ्यों की कमी में कमजोर कहानी
Satyanarayan: 
मैं कुछ ऐसी घटनाएँ जानता हूँ...जिसमें जबरदस्ती हुई...या मौक्ष का लालच दिखाकर उन्हें उस रास्ते पर धकेला गया...वृहद समाज समाज में बहुत कुछ घटता है...सब कुछ कई बार हमारे सामने नहीं भी आता है.

निधि जैन :-
चलिए फिर अनुशासनहीनता मेरी वजह से न हो इसके लिए कंटेंट पर बहस न करके बात को बंद करुँगी
फिर भी कहानी औसत ही थी

Satyanarayan: 
अपन कहानी पर ही बात कर रहे हैं
और मैं आपकी बात का सम्मान भी करता हूँ...आप अपनी जगह...ठीक 
मैं अपनी जगह

नयना (आरती) :-
निधी जी बात यहाँ किसी धर्म विशेष की हैं भी नही परिस्थितिय कैसे एक लडकी को इतना कठिन निर्णय लेने को मजबूर करता हैं।

आर्ची:-
सही कह नयनाजी मुझे भी लगता है कि इसे किसी धर्म विशेष के संदर्भ मे नही बल्कि वृहत्तर भारतीय समाज के संदर्भ मे देखे जाने की आवश्यकता है धर्म का उद्देश्य अच्छा होने के बाद भी समाज में कुछ कुरीतियाँ पनप आती हैं कभी कभी तो इस हद तक कि ठीक उल्टा परिणाम आने लगता है ये सिद्धांत और व्यव्हार की हिप्पोक्रैसी सभी धर्मों मे आ जाती है
प्रज्ञा :-
इस कहानी में समस्या उस सोच और जकड़बंदी की है जिसका सहारा लेकर इंसान होने की आज़ादी ,चुनाव का हक छीन लिया जाता है। इस कहानी में यदि आप जैन धर्म हटाकर हिन्दू धर्म कर दे तो यह मानवीय नहीं होगी।
दूसरी बात फ़िल्मी होने की - कई बार सच्चाई इतनी एब्सर्ड लगती है कि सब फ़िल्मी ही लगने लगता है। मीनू मेरे सामने थी मीनाक्षी भी बनी। पर इसके बावजूद हज़ारों हज़ार ज़िंदगियाँ यूं ही कुर्बान कर दी जाती हैं। सिर्फ और सिर्फ इसलिये कि कभी गोत्र आज़ादी नहीं देता। कभी जाति तो कभी धर्म। एक बात ये भी कि इस कहानी को एक ही धर्म पर केंद्रित न कीजिये । ये हिन्दू भी हो सकता है मुस्लिम भी और ईसाई भी। 
तर्क झूठा है जिसका सहारा लेकर उसके पाप का बोध कराया जाता है। पर अगर सच है तो वो प्रायश्चित। मीनू अगर इमरान से प्यार न भी करती तो भी मीनू को इसी प्रायश्चित के लिये मज़बूर किया जाता। इस कहानी के पीछे एक बड़ा बेचैन कर देने वाला अनुभव खड़ा है। यहाँ कुछ अन्य मित्रों ने भी लड़कियों के सम्बन्ध में अपने ऐसे ही अनुभव साझे किये हैं। जो भीतर कसकते हैं, झँझोड़ते हैं और सवालों के बीहड़ में अकेला छोड़ देते हैं। इस सवाल के साथ कि हम बच्चियों के लिये स्त्रियों के लिये कैसा समाज चाहते हैं। मेरी कोशिश मीनू के जरिये इन्हीं सवालों को उठाने की रही। 
आप सबका शुक्रिया आपने एक लम्बी चर्चा इस पर की। और अपने विचार रखे। आपके शब्द को ही मैंने आकार दिया है। और न जाने कितने चेहरे और शामिल हैं नयना जी इसमें। अपने घर समाज स्कूल संस्थानों ससुराल और न जाने कहाँ कहाँ। जो टीस की तरह मन के किसी कोने में आजीवन जीते रहेंगे। पर हमें सोचने और बदलने के लिये प्रेरित करेंगे। इस मानवीय त्रासदी का यही सकारात्मक पहलू है और सबलतम पक्ष भी।

सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-
मात्र घटना ही की बात हो तो फिर भी, कहानी की भाषा, कथ्य की असंप्रेषणीयता, संवाद और शैली कहीं तो कोई स्तर साहित्यिक स्पर्श का हो।
ऐसा लगता है जैसे किसी फिल्म के एक दृश्य को उठाकर रख दिया गया हो...

प्रज्ञा :-
बरसों पुराने अनुभव का ये अंश जब कथा रूप लेने लगा तो पल पल मीनू का दर्द सघन से सघनतम हुआ। कहीं कायांतरण करके उस दुःख को महसूस किया तो उसके दुःख ने बहुत व्यथित किया। 
सुरेन्द्र जी चीज़ों का इतना भी मज़ाक न बनाइये कि आप की साहित्यिक समझ प्रश्नित की जाए। कम से कम लेखकीय गरिमा हम सबको बनाये रखनी चाहिए जबकि हम इतनी भयानक त्रासदी पर बात कर रहे हों।

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