हेमंत देवलेकर की दो कविता संग्रह प्रकाशित है।
हेमंत विहान ड्रामा वर्क्स भोपाल में रंगकर्म में निरंतर सक्रिय है।
हेमंत की यहॉं छः कविताऍं दी जा रही है।
हिन्दी
सितंबर लगते ही
कार्यालयों के धूल खाते कोनों से
निकाला गया हिन्दी को
साफ़ किये गये उसके जाले
और स्थापित करने की तरह रख दिया गया
मुख्य द्वार के सामने
बांधे गये उसकी जय के नारे
सजा दी गयी रंगीन पताका
उसके निस्तेज चेहरे पर टांग दी गई थोड़ी रोशनी
और बुलाये गये लेखक - कवि
अचानक हिंदी - हिन्दी से भर गये कार्यालय
कवियों को सुनते हुए गला भर आया हिन्दी का
और एकदम से बढ़ गया उसका रक्तचाप
आवाज़ों के चक्रवात में
उसे याद आया केवल
पन्द्रह अगस्त सन् सैंतालीस
और हिन्दी मूर्छित होकर गिर पड़ी।
०००
मटर की फली
मटर छीलता हूँ
दानों के बीच एक इल्ली है
गहरे इत्मिनान में सोई
जैसे मटर के दाने में शामिल हो उसका भी बीज
आँखों में भर आती है ममता
मैं भूल ही जाता हूँ कि वह एक फली है मटर की
मेरी हथेली में अब एक गर्भाशय है
उसने खोली हैं झपझपाते आंखें
भय रहित, संपूर्ण अधिकार भरी आँखें
हर कोई कुछ न कुछ लेकर यहाँ आता है
जैसे यह इल्ली आई है दाना लेकर
क्या हक़ है मुझे
उसे दानों से अलग कर देने का?
मटर की फली मैं वहीं रख देता हूँ
और गर्भाशय बदल जाता है एक घर में।
०००
बच्चे
मेरे देश के बच्चे जब
रंगों, फूलों, रोशनियों से
सजा रहे थे घर आँगन
ग़ज़ा के बच्चे
साफ़ कर रहे थे चारों तरफ़ फैला खून,
और ध्वस्त जीवन का मलबा
मेरे देश के बच्चे
जब चला रहे थे पिचकारी,
लगा रहे थे गालों पर गुलाल
ग़ज़ा के बच्चे
पोंछ रहे थे एक दूसरे के आँसू
मेरे देश के बच्चों पर जब
निछावार हो रहे थे ईदी के तोहफ़े
ग़ज़ा के बच्चों पर
बरस रहा था बमों और मिसाईलों का कहर
मेरे देश के बच्चे
जब लहराते तिरंगे तले
शान से खड़े होते हैं सावधान
ग़ज़ा के बच्चे
बौखलाई हालत में भागते हैं
ढूंढते हैं अपनी आज़ादी,
अपना राष्ट्र गान
०००
अहं खुशास्मि
बड़ी गंभीर हालत में पहुंचा मैं
डॉक्टर के पास
और कहा -
हर छोटी छोटी बात पर दुखता है मेरा अहं
ऊँचाई से गिरने पर जिस तरह टूट टूट जाती
पसली - हड्डी
बिना गिरे भी ठेस लगती रहती अहं को
कुछ कीजिये डॉक्टर
बाहर से घाव मत टटोलिये
मैं भीतर से हूँ आहत, खून से लथपथ
हो सके तो किसी मज़बूत अहं का ट्रांसप्लांट कर दीजिये
डॉक्टर मेरी आँखों में टॉर्च की तरह झाँका
और ज़ुबाँ को परखते हुए हौले से मुस्कुराया
"तुम पहले व्यक्ति हो जिसने माना कि
यह भी एक गंभीर बीमारी है"
लेकिन देर बहुत हो चुकी है
तुम्हारी नस नस मे फैल चुका है अहं
तुम्हारी परछाई भी ग्रस्त है
अब तो वायरस की तरह फैलने लगा है यह
बचने का अब केवल एक उपाय है -
चुन चुन कर खींच निकालना होगा अहं तुम्हारे शरीर से
तुम बच पाओगे इसकी कोई गारंटी भी नहीं
कहो, तो कर डालूँ ऑपरेशन ?
कैसी भयानक बात थी
इससे बड़ी विकलांगता क्या होगी
मृत्यु से भी बड़ा एक डर देखा पहली बार
(कौन राज़ी होता?)
अपने आहत अहं को सहलाते- पुचकारते
मैं लौट आया वापस.
****
हार्मनी
सफ़ेद और काला अलग रहेंगे
तो नस्ल कहायेंगे
मिलकर रहेंगे तो संगीत
हारमोनियम
साहचर्य की एक मिसाल है
उंगलियों के बीच की ख़ाली जगह
उंगलियों से भर देने के लिए है
****
लोरी
बहुत चुपके से एक रात
लोरी के गायब होने का अंदेशा हुआ
हैरान था चंदा मामा कि बच्चों के पर्यावरण में
अचानक ये कैसा बदलाव आया कि
पलकों पर मंडराने वाली एक तितली खत्म हो गयी
मेरे बहुत ढूंढने पर एक सुराग मिला आख़िरकार
लोरी ज़िंदा ज़रूर थी
पर हुलिया और आत्मा सब कुछ बदल चुका था
उसमें अब कोई संगीत नहीं था बाक़ी
थपकी नहीं थी, नींद का बुलावा नहीं था
जितने भी शब्द थे, सब
गुड टच - बेड टच को समझा रहे थे
हिफाज़त अपनी कैसे करना, बता रहे थे
ये कैसी रातें हैं कि दादी - नानी
बच्चियों को सुलाते सुलाते
जगाने लगी हैं
०००
अप्रितम
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविताएँ हैं , सरल और सहज । यह पेंचदार कविताएँ क़तई नहीं हैं, उन कविताओं की तरह भी नहीं हैं जिसके मर्म को समझने के लिये, गणित के सवालों को हल करने जितनी ज़हमत उठानी पड़े । ये आसानी से हृदयंगम होने वाली कविताएँ हैं, जो सीधे मर्म पर चोट करते हुए सोचने को विवश कर देती हैं । हार्दिक बधाई 🎉
जवाब देंहटाएंगिरीश पटेल
अध्यक्ष, प्रगतिशील लेखक संघ
अनूपपुर