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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

25 नवंबर, 2024

जयश्री सी.कंबार की कविताऍं

 

सातवीं कड़ी 

डॉ. जयश्री सी. कंबार वर्तमान में के.एल.ई.एस निजलिंगप्पा कॉलेज, बेंगलुरु में अंग्रेजी विषय के सहायक प्राध्यापक पद पर

कार्यरत हैं। उन्होंने 3 यूजीसी प्रायोजित राष्ट्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया है और विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों और सम्मेलनों में शोध पत्र प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने 02 कविता संग्रह - 'विस्मय' और 'हसिद सूर्य', 03 नाटक- माधवी और एकलव्य और 1 अनुवाद- बुद्ध, कन्नड़ से अंग्रेजी में प्रकाशित किया है। उनके पास 2 अप्रकाशित नाटक, 2 अनुवादित नाटक और कविताओं का एक संग्रह है। उनकी लघु कथाएँ और कविताएँ कर्नाटक की प्रमुख समाचार पत्रिकाओं और जर्नलों में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने अपने नाटक माधवी के लिए इंदिरा वाणी पुरस्कार जीता है। कन्नड़ में यात्रा वृत्तांतों पर उनके लेख प्रमुख प्रकाशनों में प्रकाशित हुए हैं।

उन्होंने केरल में आयोजित तांतेडम महोत्सव- अखिल महिला लेखिका सम्मेलन में मुख्य भाषण दिया है, त्रिशूर में मध्यम साहित्य उत्सव में एक पैनेलिस्ट के रूप में, लिटिल फ्लावर कॉलेज, गुरुवायूर में राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुख्य भाषण दिया है। इसके अलावा उन्होंने 9 जनवरी 2014 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हैदराबाद में आयोजित ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली द्वारा आयोजित कवियों की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संगोष्ठी में कविता प्रस्तुत की है। उन्होंने पंजाब, तिरुपति, बैंगलोर, शोलापुर, शिमोगा, मैसूर, कालीकट, लक्षद्वीप और कर्नाटक में कई स्थानों पर आयोजित लेखक-कवि सम्मेलन में भाग लिया है। रंगमंच पर उनकी बातचीत ऑल इंडिया रेडियो, बैंगलोर द्वारा प्रसारित की गई थी। उन्होंने कई अवसरों पर दूरदर्शन पर अपनी कविताओं को भी प्रस्तुत किए हैं। आप 'कन्नड़ सेवा रत्न', 'इंदिरा वाणी राव पुरस्कार' दो बार कन्नड़ साहित्य में योगदान के लिए प्राप्त कर चुकी हैं।

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कविताऍं 


 मृगतृष्णा


जिस क्षण उसने अपनी आँखें बंद कीं 

सामने खड़े उसे पहचान नहीं पायी।

सुबह की मंद रोशनी में जब दिन छोटे,

आधी नींद में सोई हुई धुंधली दुनिया  

अस्पष्ट आकृति।


सूरज की रोशनी फैलते ही 

पन्ने पर कविता एक उभर आई। 

अस्पष्ट अक्षर।

कहीं से आए घने बादल की

धूल को पोंछ डाला।

फिर वह कवि पुरुष  

पलकों में नहीं झपकाई।

*****


चांदी की झील


ऊपर तारों का जंगल है, 

वहाँ एक चांदी की झील है, 

तुम जहां हो वहीं से 

देखो, एक बार झांक के 

मैं यहीं से दीख पड़ती

तुम्हारा बिंब।

*****


सफेद राख


यादों के ढेर रात में 

दहकर अंगार बन जाते हैं। 

दिनभर सफ़ेद राख नभ में।

*****


चाँद


चाँद से आपके शब्द 

सुनना काफी है, जिसे 

अब देखा जा सकता है; 

बजाय उन सितारों को देखने के 

जो कभी रोशनी उगलते थे।

*****


जी....


जी....

मेरे सपने सिर्फ रात को ही आते हैं, 

दिन के उजाले में उन्हें रास्ता 

नहीं मिलता बेहतर है।

*****

बातचीत


प्रेमिकाः- चलो कल की तरह 

सपनों का खेल खेलते हैं? 

अगर यह नया है तो ठीक है, 

नहीं तो, जहाँ रुकें वहीं से शुरू करें?


प्रेमीः- कल का खेल न हो और 

ऐसा बेकार खेल कभी न छूटे?


प्रेमिकाः- ऐसी डायन वनदेवी! 

पन्ने की तरह हरी पहनी है, 

हम दोनों हरे में रहें हरे, 

टहनी से टहियाँ जमकर

सात पहाड़ियों परे, 

सात समुद्रों के पार 

लहरों में तैरती 

मंद समीर, 

गली-गली में घुसकर

सूरज की नस-नसों में

गुदगुदी करने का खेल!


प्रेमीः- वाह! हरे में हरे बनकर

हरियाली की भंवर में फंस के

चटपटाहट नहीं करूंगी मैं।

क्या आपको नहीं आना चाहिए था?

मैदान खुला है, चलो 

अंत तक स्वतंत्र रूप से तैरातें, 

ऊपर-ऊपर सपनों की तरह 

उड़ने दें पतंग क्षितिज तक।


प्रेमिकाः- यदि क्षितिज तक पहुँचने के लिए 

डोरी को ढीला कर दिया जाए, 

तो क्या पतंग ऐसे ही घुटने टेके?


प्रेमी:- पगली, सरल नहीं है यह खेल, 

चाहे बवंडर में फंस जाए, 

धागे को न हिलाते छोड़ दो। 

मंदगति सेखींचे

तो आगे बढ़ते छल से

क्षितिज तक पहुंचना चाहिए न? 

सूत्र पकड़ना कला है, 

नहीं तो, सावधान,

पतंग ज़मीन पर गिरता

अनियंत्रित सपने की तरह। 

*****


यात्रा के पृष्ठ से


पत्थर की सीना खोल

आकाश की ओर माथा कर

कहीं बादल की प्रतीक्षा 

कर रहा हो। 

गरजते बादल से 

कविता की दो बूंदें डालो? 

उसी की इंतजार करते हुए 

आप इस सफर पर निकले। 

बातों ही बातों मे पिरोकर

धागे बन विकसित होते

रस्साकसी नया क्षितिज बना

कुछ ही क्षणों में! 

तुम्हारी आँखों की 

निर्मल रोशनी में 

ध्यान करते हुए उस 

हरे जंगल में 

मोर की तरह 

नाच रहा हूँ। 

हज़ारों आँखें खोलकर

खोई हुई कविताएँ 

ओस में डूबे फूलों की तरह 

खुल जाती हैं

तत् क्षण में अंधकार

आकाश की तरह खींचाव

मैंने खींच-खींचकर अपनाया

कविताओं को सितारों की तरह 

सफ़र की मंज़िल तक पहुँचे!

*****


अनुवाद : डॉ.प्रभु उपासे 

 अनुवादक परिचय 

परिचयः- कर्नाटक के वर्तमान हिंदी साहित्यकारों में विशेषकर अनुवाद क्षेत्र में विशेष नाम के डॉ.प्रभु उपासे संप्रति सरकारी महाविद्यालय, चन्नुट्टण, जिला रामनगर में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। डॉ.प्रभु उपासे जी का जन्म कर्नाटक के विजयपुरा


जिला, तहसील इंडी के ग्राम अंजुटगी में हुआ। पिता श्री विठ्ठल उपासे तथा माता श्रीमती भोरम्मा उपासे। गांव में ही प्राथमिक शीक्षा पाकर श्री गुरुदेव रानडे ज्ञानधाम प्रौढ़शाला, निंबाळ, आर.एस. में हाइस्कूल की शिक्षा प्राप्त की। कर्नाटक विश्वविद्यालय से एम.ए तथा बेंगलोर विश्वविदायलय से डॉ.टी.जी प्रभाशंकर प्रेमी के मार्गदर्शन में "समकालीन काव्य प्रवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में दिविक रमेश की काव्य कृतियों का अध्ययन" शोध प्रबंध के लिए पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की। आप ने कर्नाटक मुक्त विश्वविद्यालय, मुक्त गंगोत्री मैसूरु से एम.एड. की उपाधि प्राप्त की है।  

आपने विविध छत्तीस राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भाग लिया एवं शोध-पत्र प्रस्तुत किया है। अनुवाद क्षेत्र में गणनीय सेवाएं की है। कर्नाटक में हिंदी के प्रचार वं प्रसार एक अध्ययन विषय पर यूजिसी द्वारा प्रायोजित माइनर रिसर्च प्रैजेक्ट (20025-2007) पूर्ण की है। बसव समिति बेंगलूरु द्वारा प्रकाशित बसव मार्ग पत्रिका के ले पिछले बत्तीस वर्ष से लेख लिखते रहे हैं। इनकी अनूदित कृति "आत्महत्या, समस्याएँ एवं समाधान" कृति के लिए बेंगलूर विश्वविद्यालय द्वारा 2021 वर्ष का लालबहादुर शासत्री अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ है। नव काव्य प्ज्ञा फाउंडेशन द्वारा कई राष्ट्य पुरस्कारों से नवाजा गया है। प्रतिभारत्न-2023, साहित्य रत्न-2024, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान 2024 उल्लेखनीय हैं।

3 टिप्‍पणियां:

  1. अनुवाद में गड़बड़ी है या अनुवादक की भाषा में? कुछ तो सही नहीं है। कविता संप्रेषित नहीं होती पाठक तक।

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  2. मैं वत्सला पांडे जी की इस बात सहमत हूं कि अनुवाद कमज़ोर है। यह मैं जानता हूॅं , फिर भी यह रचनाएं लगातार कड़ी दर कड़ी लगा रहा हूॅं, क्योंकि मुझे बिजूका से जुड़े हिन्दी के पाठकों पर यक़ीन है कि वे अनुवाद की उन कमियों जानते हुए भी कविताओं तक पहुॉंच जाऍंगे। यह कविताऍं जिस भाषा से हम तक पहॅंच रही है, और जो साथी पहॅंचा रहे हैं, उनका योगदान कम नहीं है। यदि कोई साथी इनसे बेहतर अनुवाद उपलब्ध कराता है, हम उनका भी स्वागत करेंगे। वत्सला जी इस ओर आपका भी ध्यान गया, बहुत अच्छा लगा।

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