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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

23 नवंबर, 2024

कहानी: एक गुम-सी चोट



सुशांत सुप्रिय

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कैसा समय है यह

जब बौने लोग डाल रहे हैं

लम्बी परछाइयाँ

( अपनी ही डायरी से )

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बचपन में मुझे ऊँचाई से , अँधेरे से , छिपकली से , तिलचट्टे से और आवारा कुत्तों से बहुत डर लगता था । उन्हें देखते ही मैं छिप जाता था । डर के मारे मुझे कई बार रात में नींद नहीं आती थी । सर्दियों की रात में भी पसीने से लथपथ मैं बिस्तर पर करवटें बदलता रहता था । यदि नींद आ भी जाती तो मेरे सपने दु:स्वप्नों


से भरे होते । माँ कहती-- " बेटा, रात में पैर धो कर सोया करो और सोते समय भगवान् से प्रार्थना कर लो ।" लेकिन ऐसा करने से भी कोई फ़ायदा नहीं होता ।

मुझे भीड़ और अजनबियों से भी डर लगता था । जब भी मैं बेहद डर जाता तो मुझे बेइंतहा हिचकियाँ आने लगतीं । तब कई गिलास पानी पीने के बाद भी हिचकियाँ नहीं रुकतीं । मैं बहुत घबरा जाता और तनाव में आ जाता । जब मैं डर के स्रोत से दूर चला जाता तब जा कर मुझे राहत मिलती ।

दरअसल पिता की गोद में जाकर ही मुझे सभी डरों से मुक्ति मिलती । वे मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरते और मैं भयमुक्त हो जाता । तब मैं चाहता कि मैं सदा पिता की गोद में ही रहूँ । किंतु मेरे पास डर बहुत ज़्यादा थे और पिता के पास समय बहुत कम ।

घर के लोग मेरे बारे में ये बातें जानते थे । मेरे भाई-बहन अक्सर इसलिए मेरा मज़ाक़ उड़ाते थे ।

बचपन में मैं दुखी और उदास भी रहता था । मुझे मुकेश के दर्द भरे गीत बहुत अच्छे लगते थे । असल में मेरे पास आशंकाएँ बहुत ज़्यादा थीं , जबकि बड़े-बुज़ुर्गों के पास आश्वासन बहुत कम थे । माँ कहती-- " झूठ बोलना गंदी बात है ।" पर झूठ बोलने वाले अक्सर मज़े में जी रहे होते । पिता सिखाते -- " कभी किसी को सताओ मत। किसी का हक़ नहीं मारो ।" लेकिन मैं पाता कि दुनिया में ऐसे ही लोगों की चाँदी है ।

जब भी घर में मेहमान आते, वे मेरे भाई-बहनों की बहुत तारीफ़ करते ।

वे सब रट्टा मारने में तेज़ थे , जबकि मैं किसी भी नई चीज़ को ठीक से समझना चाहता था । नतीजा यह होता कि बहन सुभद्रा कुमारी चौहान की लंबी कविता

" सिंहासन हिल उठे / राजवंशों ने भृकुटी तानी थी / ... खूब लड़ी मर्दानी / वह तो झाँसी वाली रानी थी " कंठस्थ करके मेहमानों को सुना देती और उनसे वाहवाही पा जाती । भाई न्यूटन के सिद्धांत , डार्विन की थ्योरी या सोलर-सिस्टम के बारे बता कर मेहमानों को प्रभावित कर लेता । लेकिन मेरे ज़हन में इन सब के बारे में इतने प्रश्न कुलबुलाते रहते कि मैं मेहमानों के सामने दावे से कुछ नहीं कह पाता । इसलिए पढ़ाई-लिखाई में फिसड्डी माना जाता ।

" आपका छोटा बेटा स्लो है । पढ़ने-लिखने में कमज़ोर है । " मेहमान पिताजी से कहते । यह सुन कर मैं अपने ही खोल में घुसकर सबकी आँखों से ओझल हो जाना चाहता ।

मेरी कुंडली में लिखा था कि मुझे तेज धार वाले हथियारों से ख़तरा

है । ऐसा पिताजी कहते थे । पर मैं यह सब नहीं मानता था । मेरे दाएँ हाथ की 'लाइफ़-लाइन' भी कुछ जगहों से टूटी हुई थी । हालाँकि स्कूल में मैं ज़रूरत पड़ने पर सब बच्चों की मदद करता था , वे सब मुझसे मदद भी ले लेते थे और मुझे ' स्केलेटन ' कह कर छेड़ते भी थे क्योंकि मैं बेहद दुबला-पतला था ।

धीरे-धीरे मैं बड़ा हो रहा था । मैंने पाया कि मेरे शहर में बहुत सारे हिले हुए और खिसके हुए लोग थे । लेकिन वे मुझे बुरे नहीं लगते थे । पड़ोस में एक बूढ़े मास्टर जी रहते थे , जिन्हें सब पागल कहते थे । वे अक्सर हवा से बातें करते और शहर की दीवारों पर गणित के मुश्किल थ्योरम हल करते रहते । लोग उनके बारे में बताते थे कि अपनी जवानी में उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति जी के हाथों ' सर्वश्रेष्ठ शिक्षक ' का पुरस्कार भी मिला था । बहुत ज़्यादा पढ़ने-लिखने की वजह से उनका दिमाग़ खिसक गया , ऐसा गली वाले कहते थे । मास्टरजी के घर वालों ने उनका इलाज कराने की बजाए उन्हें घर से निकाल दिया था । हालाँकि मुझे मास्टरजी ने कभी कुछ नहीं कहा , लेकिन गली के शैतान बच्चे जब उन्हें तंग करते या उन पर पत्थर फेंकते तो वे उन्हें गालियाँ देने लगते ।

दूसरी ओर इलाक़े का पंसारी, हलवाई और दूधवाला थे जिन्होंने खाने-पीने के सामान में मिलावट करके अपने-अपने तिमंज़िले मकान बनवा लिए थे । कोई सरकारी अधिकारी उन्हें कभी नहीं पकड़ पाया था क्योंकि वे सभी रिश्वत दे कर उन अधिकारियों को लौटा देते थे । ऐसे ही लोग दुनियावी और सफल माने जाते थे ।

अब मैं बड़ा हो गया था । चूँकि मुझे अकेले रहना अच्छा लगता था इसलिए मेरा कोई दोस्त नहीं था । दरअसल मैं समझ चुका था कि ज़्यादातर लोग आपसे अपने किसी स्वार्थ के लिए जुड़ना चाहते थे । ऐसे मतलबी और अवसरवादी लोगों से मेरी वैसे भी नहीं बनती थी । लोग अपने चेहरों पर कई मुखौटे लगाए घूम रहे होते । वे आपको ठगने और मूर्ख बनाने में माहिर होते । वे मुँह से कुछ कह रहे होते जबकि उनकी आँखें कुछ और ही बयाँ कर रही होतीं । इस युग में ऐसे ही दोगले लोग सफल माने जाते । वे हें-हें करते हुए दोपहर में आपसे गले मिलकर ख़ुद को आपका अच्छा दोस्त बता रहे होते , आपके साथ खाना खा रहे होते । पर कुछ ही समय बाद अपने फ़ायदे के लिए वही लोग आपके विरोधियों के पास बैठ कर आपकी जड़ काट रहे होते । ऐसे अवसरवादी युग में मेरा मन किसी सच्चे मित्र के लिए तड़पता रहता ।

मेरा बड़ा भाई आई.ए.एस. अधिकारी बनना चाहता था जबकि बहन एम. बी. ए. करके किसी मल्टी-नेशनल कम्पनी में जॉब ले कर लाखों रुपए का पैकेज लेना चाहती थी । मैं अब कविताएँ और कहानियाँ लिखने लगा था । सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर अब मेरी अपनी राय थी । मैं समाज के लिए कुछ करना चाहता था । लेकिन मुझे क्या बनना है , इसके बारे में मैंने अभी कुछ सोचा नहीं था । लिहाज़ा घर आए मेहमानों के पूछने पर उन्हें भी मैं यही बता देता । यह सुनकर वे मेरी ओर दया भरी नज़रों से देखते । फिर वे पिता से सहानुभूति जताते जैसे मुझसे कोई बहुत बड़ा गुनाह हो गया हो । मैं उनकी दया और सहानुभूति की नदी में डूब कर लगभग मर ही जाता ।

कुछ समय बाद मेरे पड़ोस में एक नया परिवार आ कर रहने लगा । उस परिवार में मेरे ही उम्र की एक लड़की थी जिसे देख कर मेरे दिल में कुछ-कुछ होता था । शायद मैं जवान हो गया था ।

मेरी माँ की दोस्ती उस लड़की की माँ से हो गई थी । एक दिन माँ के घुटनों में दर्द था । उन्होंने मुझे उस लड़की की माँ से ' गृहशोभा ' का नया अंक लाने के लिए भेजा जिसमें कई नए व्यंजन बनाने की विधियाँ छपी हुई थीं ।

इत्तिफ़ाक़ से दरवाज़ा उसी लड़की ने खोला । उसके दरवाज़ा खोलते ही मेरे मन के भीतर भी जैसे आस की एक खिड़की खुल गई जिसमें से झाँक कर मैं उसे अपलक ताकने लगा । तितलियाँ उड़ने लगीं । आँखों के आगे इंद्रधनुष छा गया ।

अब अक्सर मेरी मुलाक़ात उस लड़की से मदर डेयरी के बूथ पर या सब्ज़ी वाले के यहाँ या मंदिर के बाहर हो जाती ।उसका नाम सुरभि था । उसकी बातें मुझे अच्छी लगतीं । उसके साथ मैं बिना पिये ही ज़मीन से डेढ़ इंच ऊपर उठ जाता । सारा समय एक अदृश्य डोर मुझे उससे बाँधे रहती । मैं कहीं भी रहता , मेरा दिल करता कि मैं तैरते बादल के टुकड़े पर बैठ कर जल्दी से उसके पास पहुँच जाऊँ । जब मैं उसके साथ होता तो मुझे भीड़ में या अजनबियों के सामने भी हिचकियाँ नहीं आतीं । मैं जिन चीज़ों से डरता था वह उनसे बिलकुल नहीं डरती थी । हैरानी की बात थी कि उसकी संगत में अँधेरा, छिपकली, आदि से लगने वाला मेरा डर भी धीरे-धीरे ख़त्म हो गया । अब मैं ख़ुश रहने लगा था । अपने कपड़े इस्त्री करके पहनने लगा था । हर दूसरे-तीसरे दिन अपने बालों में शैम्पू करने लगा था । और अपना जेब-ख़र्च बचा कर महँगा वाला ' डीओ ' इस्तेमाल करने लगा था । सुरभि से बातें करते ही मेरे अंग-अंग में जैसे कोई अनजान रागिनी बज उठती ।

हालाँकि हममें कुछ रोमानी समानताएँ थीं लेकिन बहुत कुछ ऐसा था जो मुझे सुरभि से अलग करता था । मैं संवेदनशील था जबकि वह बेहद व्यावहारिक और दुनियावी थी । मेरे पिता सरकारी दफ़्तर में मामूली क्लर्क थे जबकि उसके पिता के शहर में कई शो-रूम थे । मेरे पिता के पास केवल एक स्कूटर था जबकि उसके पिता के पास दो-दो लक्ज़री-गाड़ियाँ थीं । शोफ़र थे ।

फिर भी एक सूर्य-जले दिन मैंने हिम्मत करके उससे कह ही दिया कि मैं उससे प्यार करता था । यह सुन कर वह ज़ोर से हँसी और बोली -- " लगता है , तुम हिन्दी फ़िल्में ज़्यादा देखते हो ! " यह सुन कर मुझे बेइंतहा हिचकियाँ आने लगीं । हिचकियाँ लेते-लेते ही मैंने उससे कहा -- " भगवान की क़सम, मैं सच कह रहा हूँ ।" वह बोली -- " तुमने नीत्शे को नहीं पढ़ा? भगवान कब का मर चुका है ! "

मैंने फिर हिम्मत की--" मैं सच कह रहा हूँ । मैं तुम्हें हमेशा ख़ुश रखूँगा ।" उसने कहा --" मुझे रखोगे कहाँ ? खिलाओगे-पिलाओगे कैसे और क्या ? तुम्हारे पास तो कोई नौकरी ही नहीं ! "

यह सुनकर मैं जैसे काफ़ी ऊँचाई से धड़ाम् से ज़मीन पर आ गिरा । फिर भी मैंने एक अंतिम कोशिश की । मैं बोला-- " अगर तुम मेरे साथ होगी तो मैं हम दोनों का वर्तमान सुधार लूँगा । "

इस पर वह बोली-- " लल्लू लाल, तुम्हारे साथ न मेरा वर्तमान, न भविष्य ही सुरक्षित होगा । तुम्हारे आदर्शों से घर का चूल्हा नहीं जल सकता । तुम्हारी कविताओं-कहानियों से गृहस्थी की गाड़ी नहीं चल सकती । तुम अपने सपनों में जीते हो । तुम अपनी कल्पना में जीते हो । तुम्हारा-मेरा कोई मेल नहीं । "

उसकी बातें सुनकर मैं मोमबत्ती की बुझती लौ-सा काँपने लगा । मैं जिसे कामेडी समझा था वह ट्रेजेडी निकली । मैंने अपने मन को उसकी यादों से छुड़ाया और भागा । मेरी पीठ पर कई बिच्छू रेंग रहे थे । मेरे ज़हन में कई मधुमक्खियाँ डंक मार रही थीं । मैं भरी भीड़ में ज़ोर से चिल्लाना चाहता था । मैं खम्भे से लिपट कर उसे अपना दुख-दर्द बताना चाहता था । मैं अपने बारूद में विस्फोट करके चिथड़े-चिथड़े उड़ जाना चाहता था । मैं सब कुछ भूल कर रिप-वैन-विंकल की तरह सदियों लम्बी गहरी नींद में सो जाना चाहता था । मैं दुनिया के अंतिम छोर पर जा कर कहीं छिप जाना चाहता था । मुझे ऐसा लगा जैसे मैं हर परीक्षा में फ़ेल हो गया हूँ । मेरे भीतर की सभी नदियों का जल जैसे यकायक सूख गया था । झुके हुए झंडे-से उदास पल मुझे घेरे हुए थे । मैंने अपने मन की तलाशी ली और उसे ख़ाली पा कर बेहद डर गया ...

उस रात मैं घर नहीं गया । आकाश के क़ब्रिस्तान में चाँद-सितारों की लाशें दफ़्न थीं । मैं पास के तालाब में रात भर पत्थर फेंकता रहा । मैं उस हिलते हुए जल में चाँद की खंडित छवि को रात भर देखता रहा । सुबह तक चाँद की अनगिनत नुकीली किरचें मेरी आँखों में चुभ गई थीं । दिशाओं में धोखे की गंध

थी । जीवन के ख़ाली गिलास में मैंने जो जल उड़ेला था उसमें समय ने ज़हर घोल दिया था । वह एक अशक्त-सी सुबह थी । मेरे भीतर एक गुम-सी चोट बंद थी । नरक-सा यह जो लम्बा जीवन मेरे सामने पड़ा था , उसे अकेले ही जीना मेरी नियति थी । बीच समुद्र में भटकता नाविक जिसे तट समझा था , वह एक छलावा था । स्मृति की कौंधती बिजली के पार केवल एक रिक्त सन्नाटे का न्योता था ...

जब मैं अपने भीतर गुज़र गए चक्रवात से उबरा तो मैंने कहीं नौकरी पाने की क़वायद शुरू की । हालाँकि मेरे पास प्रथम श्रेणी में पास होने की अंक-तालिकाएँ और डिग्रियाँ थीं, किंतु मेरे पास न कोई ' पुश ' था न ही मुझे ' जुगाड़ ' आता था । मैं सही जगह पर ' चढ़ावा ' चढ़ा पाने में भी असमर्थ था । लिहाज़ा नौकरी मेरे लिए आकाश-कुसुम बनी रही ।

इन्हीं दिनों शहर में दंगा हो गया । दो समुदायों के बच्चों में पतंग काटने को ले कर हुए झगड़े से बात शुरू हुई । देखते-ही-देखते पथराव, आगज़नी और छुरेबाज़ी शुरू हो गई । कट्टों और देसी बमों का भी प्रयोग किया गया । पुलिस मूकदर्शक बन कर बहुसंख्यक समुदाय के गुंडों का अल्पसंख्यकों पर उत्पात देखती रही । जब मेरे पड़ोसी लियाक़त मियाँ की दुकान पर दंगाइयों ने हमला किया उस समय मैं उन्हीं की दुकान पर था । मैंने उन्हें पिछले रास्ते से भगा कर बचा लिया पर मैं दंगाइयों के क्रोध का भाजन बन गया । मुझ पर लाठियों और धारदार हथियारों से हमला हुआ और मैं बुरी तरह घायल हो गया ।

डेढ़-दो महीने मैं अस्पताल में पड़ा रहा । घर वालों पर बोझ बन गया । जान-पहचान वाले कहते --" हीरो बनने की क्या ज़रूरत थी ? जान है तो जहान है । " रिश्तेदार कहते--" जब तुम्हारी कुंडली में लिखा है कि तुम्हें धारदार हथियारों से ख़तरा है तो दंगे-फ़साद के चक्करों में पड़ने की क्या ज़रूरत थी ? " कोई कहता -- " जो आदमी अपना बुरा-भला भी ना समझ पाए , वह आदमी किस काम का? " यदि आज गाँधीजी जीवित होते तो ये लोग उन्हें भी ऐसी ही सलाह देते !

अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा-पड़ा मैं सोचता -- " कैसे युग में जी रहे हैं हम! व्यावहारिक और दुनियावी बनने के चक्कर में हमने इंसानियत ही खो दी थी । जो जितना बड़ा कमीना था , उतना ही ज़्यादा सफल था । लोग मुझे 'सीधा' कहते थे । उनके लिए आज के युग में 'सीधा' होने का मतलब था , 'बेवक़ूफ़' होना । दरअसल गिद्धों और लकड़बग्घों के बीच मैं और मेरे जैसे लोग ' मिसफ़िट ' थे । हम जिस युग में जी रहे थे, उसमें न मूल्य बचे थे, न आदर्श । अपने फ़ायदे के लिए लोग थूक कर चाट रहे थे । गधे को बाप और बाप को गधा बता रहे थे । वे दोगलेपन , स्वार्थ और अवसरवाद से पनपी महत्वाकांक्षा का झुनझुना बजा रहे थे और नोटों के सूटकेसों के पीछे हाँफ़ते हुए भागे जा रहे थे । जीवन के गला-काट खेल में कोई नियम नहीं था । दूसरों की छाती पर पैर रखकर आगे बढ़ जाना ही इस युग में सफल होने का मूल-मंत्र था । जो मुट्ठी भर लोग यह सब नहीं कर पाते थे वे उपहास का पात्र बन जाते थे । जैसे वे किसी गुज़रे ज़माने के पुरावशेष हों जिनकी प्रासंगिकता अब केवल किसी संग्रहालय में बची हो ।

मेरे बाहरी घाव धीरे-धीरे भर रहे थे किंतु बचपन से ही युग और परिस्थितियों ने जो गुम-सी चोट मुझे दी थी , वह हर पल टभकती रहती । मेरे मन पर, मेरी आत्मा पर समय के भारी पैरों के निशान थे ।

अस्पताल से इलाज करवा कर जब मैं घर लौटा तो पता चला कि सुरभि का विवाह किसी आई. ए. एस. अधिकारी से तय हो गया है ।

फिर काफ़ी एड़ियाँ रगड़ने के बाद मेरी नियुक्ति शहर के एक प्राइवेट कालेज में अस्थायी शिक्षक के रूप में इस शर्त पर हो गई कि मुझे केवल आधी तनख़्वाह दी जाएगी । कुछ महीने वहाँ छात्र-छात्राओं को पढ़ाने के बाद मुझे पता चला कि कई अन्य शिक्षकों से भी जितने वेतन पर हस्ताक्षर करवाए जाते थे, उन्हें उसका आधा वेतन ही दिया जाता था । जो भी शिक्षक इस शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाता था उसे तत्काल नौकरी से निकाल दिया जाता था । चारों ओर अँधेरगर्दी मची हुई थी ।

कुछ महीने बाद एक शाम मैं कालेज से घर की ओर लौट रहा था । तभी मैंने रास्ते में कुछ गुंडों को एक बुज़ुर्ग आदमी को बुरी तरह पीटते हुए देखा । पास जाने पर मैंने पाया कि पिटने वाला व्यक्ति सुरभि का पिता था । आस-पास बहुत से लोग खड़े थे पर कोई उस बुज़ुर्ग को बचाने के लिए कुछ नहीं कर रहा था । पूछने पर पता चला कि ये गुंडे दरअसल एक राजनीतिक दल की युवा इकाई के सदस्य थे । उस राजनीतिक दल के स्थानीय माफ़िया से घनिष्ठ सम्बन्ध थे । मैंने मोबाइल फ़ोन से सौ नंबर डायर करके पुलिस बुलाने की कोशिश की । पर बार-बार उधर से केवल एक ही आवाज़ सुनाई देती थी-- " इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं... ।"

मेरे लिए यह दृश्य असहनीय होता जा रहा था । यदि उस बुज़ुर्ग को नहीं बचाया जाता तो वह मर भी सकता था । मैंने आस-पास खड़े लोगों की ओर देखा । मुझे लगा जैसे मैं बिना टिकट का तमाशा देख रही किसी भीड़ में खड़ा हूँ ।

अंत में मैंने अकेले ही उस बुज़ुर्ग को बचाने की कोशिश की । गुंडों से हाथापाई के बीच ही किसी ने मेरे सिर पर लोहे का सरिया दे मारा । और उसी समय किसी ने मेरे पेट में छुरा घोंप दिया ...

जब मेरी आँख खुली तो मैं अस्पताल में पड़ा था । एक बार फिर मुझे नसीहतें मिलने लगीं-- " क्या ज़रूरत थी तुम्हें दूसरों के मामले में टाँग अड़ाने की...?"

-- क्या ज़रूरत थी लाला लाजपत राय को देश के लिए लाठियाँ खाने

की ...

-- क्या ज़रूरत थी भगत सिंह , राजगुरु और सुखदेव को हमारी

स्वाधीनता के लिए फाँसी पर चढ़ जाने की ...

-- क्या ज़रूरत थी गाँधीजी को पराधीन भारतवासियों के लिए

बार-बार जेल जाने की ...

-- क्या ज़रूरत थी सुभाष चंद्र बोस को ...

-- क्या ज़रूरत थी जयप्रकाश नारायण को ...

-- क्या ज़रूरत थी अन्ना हज़ारे को ....


ढाई महीने अस्पताल में रहने के बाद मैं एक बार फिर घर लौट आया हूँ । मेरे बाहरी घाव भर चुके हैं । डाक्टरों ने मुझे स्वस्थ घोषित कर दिया है । किंतु कालेज प्रशासन ने मुझे लंबे समय तक कालेज से ग़ैर-हाज़िर रहने के कारण नौकरी से निकाल दिया है ।

एक हफ़्ता पहले सुरभि मुझसे मिलने आई थी । उस मुलाक़ात में उसने मुझसे केवल एक बात कही -- उसके पिता को गुंडों से बचा कर यदि मैं यह सोच रहा हूँ कि वह मुझसे शादी कर लेगी तो यह मेरी ग़लतफ़हमी है ... ऐसा कभी नहीं होगा ! उसने यह बात बल दे कर कही थी । वह अपनी शादी का कार्ड भी मेरे मुँह पर मार गई थी । अगले रविवार की रात उसकी शादी है ।

आजकल सुबह के अख़बार भ्रष्टाचार , घोटालों और मासूम बच्चियों से बलात्कार की भयावह ख़बरों से भरे होते हैं । किसी पन्ने पर भ्रष्टाचार उजागर करने वाले की हत्या की ख़बर छपी होती है, किसी पर RTI के लिए संघर्ष करने वाले किसी एक्टिविस्ट को मार दिए जाने का समाचार होता है , तो किसी पन्ने पर किसी धर्म-निरपेक्ष व्यक्ति के क़त्ल की खबर होती है । रोज़ सुबह ऐसे समाचार पढ़ कर मेरी आत्मा कराहने लगती है और मेरे दिलो-दिमाग़ पर मुर्दनी छा जाती है । ज़माने की हालत देखकर लगता है जैसे भरी दुपहरी में अँधेरा छाया हुआ हो ।

इधर कुछ दिनों से मुझे शरीर में असहनीय दर्द रहने लगा है । कभी कहीं, कभी कहीं । जैसे मुझे गहरी चोट लगी हुई हो । मैंने अपनी देह के कई अंगों की एम.आर.आइ. और सी.टी. स्कैनिंग भी करवा ली है । पर रिपोर्ट में सब कुछ ठीक है । डाक्टर कहते हैं कि मैं पूरी तरह स्वस्थ हूँ । लेकिन अकसर मैं असहनीय दर्द से छटपटाने लगता हूँ । क्या आपके पास मेरी इस गुम-सी चोट का इलाज है ?


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 परिचय


जन्म : 28 मार्च , 1968

शिक्षा : अमृतसर , ( पंजाब ) तथा दिल्ली में ।

हिंदी के प्रतिष्ठित कथाकार , कवि तथा साहित्यिक अनुवादक । इनके नौ कथा-संग्रह , पाँच काव्य-संग्रह तथा विश्व की अनूदित कहानियों के नौ संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । इनकी कहानियाँ और कविताएँ पुरस्कृत हैं और कई राज्यों के स्कूल-कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में बच्चों को पढ़ाई जाती हैं । कई भाषाओं में अनूदित इनकी रचनाओं पर कई विश्वविद्यालयों में शोधार्थी शोध-कार्य कर रहे हैं । इनकी कई कहानियों के नाट्य मंचन हुए हैं तथा इनकी एक कहानी “ दुमदार जी की दुम “ पर फ़िल्म भी बन रही है । हिंदी के अलावा अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व रचनाओं का प्रकाशन । साहित्य व संगीत के प्रति जुनून ।सुशांत सरकारी संस्थान , नई दिल्ली में अधिकारी हैं और इंदिरापुरम् , ग़ाज़ियाबाद में रहते हैं ।

मो : 8512070086

ई-मेल : sushant1968@gmail.com

पता : A-5001 ,

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