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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 नवंबर, 2024

नीला प्रसाद की कहानी

 

थैंक्यू और सॉरी !

नीला प्रसाद 


हर रिश्ते को  नाम देने की ज़रूरत एक बहुत बड़ी ज़हमत है। अपने सम्मान में भरे हॉल के मंच की सीढ़ियाँ चढ़ते, पहली क़तार की अंतिम सीट पर कोने में बैठी मेघा पर नज़र पड़ी तो इसी अहसास से घिरा मैं क्षण भर को ठिठक गया। आज पैंतीस सालों की नौकरी के बाद अपने रिटायरमंट के दिन जो कहने जा रहा था, उसमें उसकी उपस्थिति कई-कई मुद्दे जोड़ती थी। पर क्या वह सब मैं मंच से कह सकता था? 

ऑफ़िस के रिश्ते से वह मेरी जूनियर थी। मुझसे पहले आए बॉसों ने उसे एक ऐसे फ़ालतू सामान की तरह किनारे रख छोड़ा था जिसे आप न तो सजा सकते हैं, न फेंक... तो एक किनारे पड़ी, धीरे-धीरे पुरानी,बदरंग होती जा रही वह साँवली-प्रतिभासंपन्न-स्मार्ट महिला, रोज-रोज ऑफ़िस आना और उपेक्षित -सी वापस घर लौट जाना सीख गई थी। सब कहते थे कि वह प्रतिभाशाली और मेहनती है पर काम उससे कोई लेता नहीं था। मैंने उसे देखा तो लगा कि उसे जाना-समझा जाना चाहिए। इसी कोशिश के तहत मैंने उसे कुछ चुनौतीपूर्ण काम दे दिए और सबकुछ बदल गया... सिर्फ उसके और मेरे जीवन में नहीं, पूरे ऑफ़िस में! 

 क्या मुझे उससे प्यार हो गया था? क़तई नहीं। उसने अपने दिल का दरवाज़ा थोड़ा-सा खोला था, तो मैंने भी... पर दरवाज़ों में बनी वह फाँक एक-दूसरे के दिल के अंदर झाँक लेने को काफ़ी थी। आख़िर किसी दरवाज़े की झिर्री से अंदर का पूरा दृश्य दिख ही जाता है न! मैंने भी बाहर खड़े-खड़े उसके अंदर का सबकुछ अच्छी तरह देख लिया - भीतर पड़ी चमकीली चाहतें, ज़ख़्मों से पटे पड़े अतीत के दिन, व्यक्तिगत सुख-दुख, अरमान, दर्द, भय, तकलीफ़ें, अपमान और सपने - जिनसे वह बनी थी। छोटे शहर से इस महानगर में आकर कुछ बनने और बस सकने की कोशिशों से अब भी गुज़रती हुई! 

 मेरे मन में बोलने के मुद्दे बहुत सारे थे। उनमें से कितना मैं बोल पाऊँगा और कितना बोलना उचित है - मेरे मन में तय नहीं था। महानगर और वह भी राजधानी के सरकारी दफ़्तर में काम करते, मंत्री जी और मंत्रालय की सेवा में हर वक़्त प्रस्तुत रहने की मजबूरी सहते, अपनी कंपनी के बारे में निरंतर सोचते पर बहुत कुछ नहीं कर पाते, तमाम कुंठाओं से घिरे जीते एक बॉस की व्यथा बहुत नई और बहुत पुरानी थी। ऐसा बार-बार, बहुतों के जीवन में हुआ था कि वे अपनी नौकरी के आख़िरी दिन पछताएँ कि नौकरी किसी और तरह निभा सकते थे। कुछ कर दिखाना था तो सरकारी की बजाए कोई प्राइवेट कंपनी ज्वायन करके उपलब्धियों की लंबी सूची अपने नाम के साथ चस्पा करके विदा हो सकते थे, पर सच यही था कि उन्होंने विभिन्न कारणों से सरकारी नौकरी को ही चुना था। पक्की नौकरी और कच्ची मान्यताओं के साथ गुज़ारी थी ज़िंदगी - जहाँ प्रतिभा और तमाम प्रयासों के बावजूद बहुत कुछ कर दिखाने से बारंबार चूकते, सरकारी दफ़्तर के माहौल का हिस्सा होने की सच्चाई से टकराते आप मन मसोसकर रह जाते हैं। पर व्यवस्था के इस सच या माहौल की इस सच्चाई के बारे में सबों को मालूम है, तो उन्हें फिर से क्या दुहराना! नौकरी के आख़िरी दिन सिर्फ अच्छा-अच्छा बोलने, अच्छा सोचने और अपनी नौकरी के दौरान जीवन में घुस आए लोगों का सिर्फ अच्छा पक्ष दिखाने की परंपरा भी बहुत पुरानी, घिसी पिटी-सी थी - ये रस्म अदायगी क़तई जरूरी नहीं थी।


मैं जो कहना चाहता था वह उस पक्षी की दास्तान थी जो एक अँधेरे बंद कमरे में, रोशनी और रास्ते की चाहत में दीवारों से टकराता, अपने पंख लहूलुहान करता, चोंच से दीवारों में छेद करके रास्ता बना सकने की चाहत में जीता रहा था। इस कोशिश में हॉल की पहली पंक्ति के आख़िरी सिरे पर बैठी एक साँवली महिला ने मुझे शक्ति दी थी। वह मेरे पंखों से जुड़ गई थी, बल्कि मेरा दूसरा पंख बन गई थी - तो ज़ाहिर है - मेरे साथ ही उड़ी और दीवारों से टकराकर लहूलुहान हुई थी। उसके जीवन के अपने दुख थे, जिसमें उसके जिस्म का साँवला रंग, महानगरीय लटकों-झटकों और ओढ़ी हुई मासूमियत से कोसों दूर उसकी ठेठ अदाएँ, खरा सच मुँह पर बोल देने की लाइलाज आदत, छोटे शहर के एक आदर्शवादी परिवार में पले-बढ़े होने की पृष्ठभूमि, साथ ही यह भोली सोच कि वह अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर हर किला फतह कर लेगी - अहम भूमिका निभाते थे। उसके निजी अनुभवों से इस हॉल में बैठे कई लोगों को सोचने के मुद्दे मिल जाते, पर ऑफ़िस में किसी छोटे-से जुगनू की तरह रोशनी बिखेर चुकी उस महिला का जीवन मैं मंच से उघाड़ कैसे सकता था? निजी तो दूर, उसके ऑफ़िस के जीवन के बारे में भी कुछ कहना किसी विवाद को जन्म दे सकता था, वह भी तब − जब कल से बॉस की कुर्सी पर कोई और होगा! मैं उसे बेकार की चर्चाओं और भेदभाव में फिर से धकेलना नहीं चाहता था, पर अंदर कुछ था, जो बाहर आ जाने को कुलबुला रहा था। मंच की सीढ़ियाँ चढ़ता मैं उस कुलबुलाहट को रोकने की भरसक कोशिश करता रहा। मैं तो ख़ुद समझ नहीं पाता कि ऑफ़िस में इतनी सारी सुंदर, गोरी, मनमोहक अदाओं से भरी महिलाओं के होते इसने मुझे छा कैसे लिया? मैं तो वैसे भी सुंदर महिला का पति और ख़ूबसूरत बेटियों का पिता हूँ। इसके अपने जीवन में घुस आने के पहले तक मैं ख़ूबसूरती से घिरा-घिरा ही जीता रहा था आख़िर!  पी.ए तक मैंने सुंदर नहीं तो आकर्षक ज़रूर चुनी। इस रंग बदलती दुनिया में एक रंग जो जीवन में स्थायी बना रहा, वह था घर और बाहर, ख़ूबसूरत और अदाओं भरी महिलाओं की चाहना का रंग। ये चाहना एक परंपरा के रूप में मेरे दिमाग़ को दे दी गई थी और मैं इसे बिना सवाल निबाहता रहा। तोड़ पाया तो अपनी नौकरी के आख़िरी पाँच सालों में।

न कोई आँधी, न तूफान, न झरना, न बारिश... धीमी फुहार की तरह, हौले-हौले क़दमों से चलती कुछ कर दिखाने के आत्मविश्वास से भरी मेघा मेरे ऑफ़िस की ज़िंदगी में घुस आई और चहुँ ओर विरोधों से घिरा मैं, एक से दो हो गया। मैंने दो से एक नहीं कहा, क्योंकि यह प्यार थोड़े था!

मुझे पता था मैं अंदर उठती कुलबुलाहट को असल में रोक नहीं पाऊँगा और इस मंच से ऑफ़िस में दिए जा रहे संभवतः आख़िरी भाषण में उसके लिए कुछ कहना ज़रूर चाहूँगा।

अनचाहे ही कुछ दृश्य मेरे दिमाग़ में घूमने लगे। ऑफ़िस का वह बड़ा-सा कमरा जहाँ मैं इस महिला यानी मेघा से - लंबी-लंबी बातें किया करता था। वह जब भी मेरे कमरे में आती मुझे बहुत अच्छा लगता। न, न, कहा न! प्यार नहीं, किसी की उपस्थिति मात्र से उपजा कोई गहरा सुकून... समान विचारों से मिली राहत की हवा जो ऑफ़िस पॉलिटिक्स से घिरे मुझको उबार लेती थी। उसकी फिलॉसफ़िकल बातें, लोगों के व्यवहार की समझ, सबों से एक अलगाव बना कर चलने की अदा − जिसमें बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि उसके लिए कौन-कैसे-क्या बोल रहा है; और इसीलिए ऑफ़िस की तथाकथित पॉलिटिक्स का अपने आप बेमानी होते जाना... लोग जानते-मानते थे कि वह अच्छी और गुणवान इग्जेक्यूटिव है पर बॉस से उसकी प्रशंसा कम ही करते थे− बल्कि मौक़ा मिलते ही हर महत्वपूर्ण काम से उसका पत्ता कटवा देते थे। मेघा को फ़र्क़ नहीं पड़ता था क्योंकि यह तो पूरा ऑफ़िस मानता था कि वह बहुत बोल्ड, दृढ़ और इंटेलिजंट है, काम में निहायत सिंसियर... साथ ही इस सोच की हामी कि जिन लोगों को बोलने का हक़ ही नहीं, उनके जबरन बोले का क्या महत्व? अगर काम नहीं देकर भी उसे नीचा दिखाया नहीं जा सका, फ़ालतू इग्जेक्यूटिव सिद्ध नहीं किया जा सका, तो पोल तो खुल ही गई न! लोग बोलते थे उसके काम करने के उस अंदाज़ के बारे में जिससे दूसरों की अंदरूनी नीयत उघड़ जाती थी, खरा-खरा मुँह पर बोल देने और लीक से भाग रही सोच को औचित्यपूर्ण सिद्ध कर देने के बारे में, उसके अंतरजातीय विवाह और जीने-रहने के आधुनिक तौर-तरीक़ों के बारे में.. लोगों को ज्यादा भाव नहीं देने या उनसे ज्यादा नहीं जुड़ने को अहंकार समझने के बारे में!

‘ये चरित्रहीन क्या देंगे मुझे चरित्र प्रमाण-पत्र?’ वह खुलेआम मुझसे कहती, ‘ये फ़र्ज़ी बिल देने वाले, नौकरीशुदा पत्नी को आश्रित दिखाकर तमाम लाभ ले लेने वाले, काम से जी चुराने, ऑफ़िस में पॉलिटिक्स करने में समय गुजारने और इसकी-उसकी बॉस से बेवजह लगाते रहने वाले... बच्चों को जाति, धर्म का भेदभाव सिखाने, दहेज लेने-देने और गलत परंपराएँ खुलेआम मानने वाले.. ये तो मेरे ईमानदार होने को घमंड ही मानेंगे न सर?’ 

मैं हल्की हामी भरकर चुप लगा जाता। 

मैं जानता था कि वह कंपनी के पैसे बचाने को अतिरिक्त परेशानी मोल ले रही है। फंक्शन के लिए ऑफ़िस को फूलों से सजवाने का जो काम दीपक ने चालीस हजार में करवाया, मेघा ने जाने कितनी मुश्किलें मोल लेकर मात्र छह हजार में। 

‘किसी को ठेके पर क्यों दें सर? क्यों न ख़ुद ही फूल ख़रीदताकर क्लास फोर स्टाफ को जल्दी बुलाकर उनसे ही सजवा लें.. और उन्हें एक्स्ट्रा पेमेंट कर दें?’

‘क्या वे तैयार होंगे?’

‘यह ज़िम्मा मेरा। आप मुझपर छोड़कर देखिए’, वह मुस्कराती बोली।

मैं चकित रह गया कि इतने अच्छे वातावरण में ख़ुशी-ख़ुशी काम संपन्न हुआ। ऑफ़िस की दूसरी महिलाएँ भी साज-सज्जा में राय देने को अपने मन से जाकर खड़ी हो गईं। कंपनी के चौंतीस हजार बच गए। दीपक कसमसाया। ठेकेदार से जो हिस्सा फिनांस वालों और दीपक को मिलना था, नहीं मिला। मेघा उन सबों की आँखों की किरकिरी हो गई। पर मैं ख़ुश था। यही तो मैं चाहता था - निजी फायदा लेने की बजाए कंपनी को फायदा पहुँचाना।

और ऐसे क़िस्से होते रहते। वह दो लाख में इतना अच्छा फंक्शन करवा देती, जितना दस लाख में दूसरे नहीं करवा पाते। जाने कैसे फटोग्राफर से, बैनर वालों से, स्टेशनरी सप्लायर और कार्ड प्रिंटर से निगोशिएट कर लेती। सब चाहते कि कोई चूक हो और वह बदनामी झेले। पर वह इतनी सजग रहती कि कभी कोई चूक निकालना संभव नहीं होता। स्थिति यह हो गई कि बाहरी कंपनियों से बातचीत और निर्णय वाले सारे काम मैं उसी को सौंपने लगा... और लोग नाराज़ होने लगे। टैक्सी वाला हो कि टूर एजेंट... ख़बर छपवानी हो कि प्रेस मीट अरेंज करना, बस फ़ोन और ई मेल से सब हो जाता, पहले की तरह न तो चक्कर लगा-लगा, लोगों से मिलने को टैक्सी मँगाई जाती, न हज़ारों-हज़ार का बिल आता। मंत्री जी के यहाँ टेक्निकल प्रेजेन्टेशन मीटिंग हो तो मेघा की पुकार, प्रेस रिलीज़ बनाना हो तब भी.. किसी को कंपनी के रूल जानना हो तब तो खैर ज़ाहिर तौर पर उसकी बुलाहट होनी ही थी− आख़िर वह पहले से दिया गया अपना काम कैसे छोड़ती? 

स्टाफ़ आकर मुझसे कहने लगे - ‘आपने सही किया इन्हें काम देकर’.. अधिकारी आकर मुझसे कहने लगे ‘आपने मेघा को इतना सर क्यों चढ़ा रखा है?’

अंदर-अंदर साज़िशें चल रही थीं, पर मेघा बेपरवाह थी। 

मैं वैसे भी कुछ कहते हिचकता था, क्योंकि उसके दिल के अंदर झांकने पर मन बहुत पिघल जाता था। ऑफ़िस की साजिशों से अतीत में वह कई बार दुख पा चुकी थी!

‘सर, मैंने सोचा था मैं आपसे वैसे ही मिल सकती हूँ जैसे दो वयस्क मिलते हैं - पर मुझे पता है कि मैं इस बंद कमरे में देर तक बैठ जाती हूँ तो बाहर लोग बेचैन होने लगते हैं।  अनचाहे भी मेरे -आपके बीच में इस ऑफ़िस की पूरी दुनिया घुस आती है− उनकी बातों -विचारों, करतूतों-कनफुसकियों की दुनिया। मैं उस दुनिया को भूलकर आपसे बातें करना चाहती हूँ, पर भूल नहीं पाती... मेरे सर पर हावी होने लगती हैं वे बातें जो किसी के काम के कारण नहीं;  अपनी ईर्ष्या, वैल्यू सिस्टम, अपेक्षाओं और अतीत के अनुभवों के कारण दी जाती हैं... इसीलिए लगता है कि जब भी दो लोग मिल रहे होते हैं, असल में दो लोग भर नहीं मिल रहे होते। देखिए न, शादी भी मात्र दो लोगों का मिलन नहीं होता! पत्नी और पति के बीच में दोनों के अतीत में जीवन में आए लोग, प्रेम के उनके अनुभव, दोस्त, संस्कार, वैल्यू सिस्टम, अन्य संगतियाँ, परिवार, ऑफ़िस और समाज− कहिए कि पूरी दो दुनियाएँ होती हैं, जो उन्हें प्रभावित कर रही होती हैं। जैसे शादी हो जाने मात्र से कोई किसी का हो नहीं जाता, वैसे ही काम करने की क्षमता मात्र नौकरी निभाने को पर्याप्त नहीं होती। मेरी और आपकी समान सोच भी हमारे बार -बार मिलने या नहीं मिलने का कारण नहीं बन सकती।’

‘ये तुम क्या कह रही हो? क्या ऑफ़िस में कोई समस्या है?’ मैं ज्यादा आशंकित हो जाता।

‘मैं सिद्धांत रूप में कह रही हूँ सर, व्यक्तिगत तौर पर नहीं!’ वह खुलकर हँसती कहती।

‘कहना यह चाहती हूँ कि मैं और आप जब ऑफ़िस में मिलते हैं तो हम परतों में लिपटे मिलते हैं, बीच में एक क्या कई-कई दुनियाओं की उपस्थिति के अनकहे अहसास के साथ!’

वह पिघली आँखों से कहती। मैं भी उसके लिए पिघलने लगता। जब वह बातों के बीच किसी भावुक पल में रुमाल के कोरों से आँसू पोछने लगती, मैं तुरंत नज़रें घुमा लेता।

वह चली जाती, तब लोग कमरे में घुसते और बहाने से मुझे जताते कि मेघा इतनी-इतनी देर कमरे में जमी रहती है तो उन्हें मुझसे मिलने और ज़रूरी बातें करने को कितना इंतज़ार करना पड़ता है।

‘तुम आ क्यों नहीं गए उसी के सामने?’ मैं किसी से पूछ बैठता तो कोई जवाब नहीं मिलता।

मेघा रोज आती, रोज एक विचार, एक मंतव्य छोड़ जाती।

‘सर, लोगों में इतनी लड़ाइयाँ, एक -दूसरे को चोट पहुँचाने की इतनी कोशिशें क्यों चलती रहती हैं? हर दिन ऑफ़िस में सात घंटों का साथ, उसमें पंद्रह मिनट लेट आए, आधे घंटे पहले निकल गए, लंच टाइम को दुगना कर लिया... फिर बचे कितने? इतने कम समय में ही इतनी लड़ाइयाँ, इतने खेल, इतनी प्रताड़नाएँ..’

 ‘हाँ, लड़ाइयाँ, खेल− यह सब हमने भी देखा-सहा है। मेघा, दिस इज़ लाइफ़!’ मैं हँसकर कहता।

‘लो, कॉफी पिओ’।

वह हँसती और कॉफी पीने लगती।

‘सर, आपको पता है एक कामकाजी महिला अपने दिन का सबसे ख़ूबसूरत हिस्सा ऑफ़िस में गुज़ारती है! सुबह उठकर भूख को नज़रअंदाज़ करती, जल्दी-जल्दी घर के काम निबटाती जाती ऑफ़िस जाने की तैयारियों में व्यस्त हो जाती है। शाम को थकी-सी अपने बसेरे वापस लौटती है। नहा-धोकर तैयार, भूखे पेट में कुछ इंधन डाल चुकी वह जब ऑफ़िस पहुँचती है, तब शुरू होता है उसका असली दिन! तब वह अंदर-बाहर से महकी-महकी, निश्चिंत, दिन के सबसे ख़ूबसूरत हिस्से का अधिकतम उपयोग करने की इच्छुक होती है। दे देने को प्रस्तुत होती है−अपना टैलेंट, अपना श्रम। तो उसके जीवन में बॉस कितना महत्वपूर्ण व्यक्ति है, यह कोई भी समझ सकता है। बॉस अच्छा हो, उसकी मजबूरियाँ − व्यक्तिगत हों, पारिवारिक या सामाजिक− ध्यान में रखकर उससे काम लेता हो और किए गए कामों की खुलकर प्रशंसा करता हो तो महिला की ज़िंदगी कितनी ख़ुशगवर हो जाती है। घर के दरवाज़े पर ताला बंद कर ऑफ़िस पहुँचने वाली मैं भी यहाँ पहुँचते ही एक खुले आसमान में पहुँच जाती हूँ। घर की सभी समस्याएँ दिल के तहखाने में डाल, उनपर ताला लगाकर..’

‘तुम्हें तय है न कि मैं एक अच्छा बॉस और काबिलेतारीफ़ प्रफेशनल हूँ!’ मैं चुटकी लेता ख़ुश होकर कहता। ‘तुमने सर्टिफिकेट दे दिया तो अपनी पीठ ख़ुद थपथपा लूँगा। वरना तो इस कंपनी में मैंने बहुत अन्याय झेला है− सही काम नहीं दिए जाने से लेकर प्रमोशन तक में!’

फिर हम किसी फ़ाइल पर बातें करने लग जाते और व्यक्तिगत सुख -दुख, विचारों की बातें एक किनारे लग जातीं।

मैं सीढ़ियाँ चढ़ता ठिठक गया। गुमशुदा विचारों की तलाश में एक बार फिर से अतीत में खो जाता हुआ...

उस दिन वह मेरे कमरे में आकर चुपचाप बैठ गई थी। मैं उसे प्रश्नवाचक निगाहों से देखता रहा कि वह कुछ बोले − ऑफ़िस के काम के बारे में, किसी भी मुद्दे पर− फिर चली जाये और मैं अपने काम में लग जाऊँ। पर वह बहुत देर चुपचाप बैठी रही। मैं उलझन में मेज़ पर पड़ी दूसरी फ़ाइलें निबटाता रहा। कमरे के बाहर लोग इंतज़ार करते रहे कि कब वह निकले... आशंकित था कि वह अपनी मेज़ पर पड़ा ऑर्डर पढ़कर आई होगी। मैं कोई जवाब, कोई सफ़ाई देना नहीं चाहता था− देने की स्थिति में था भी नहीं। यह ऑफ़िस है और ऑफ़िस की अपनी मजबूरियाँ होती है। मैं उसे पसंद करता था− यानी उसके काम को− काम करने के उसके तरीक़े, तेज़ी और लोगों को डील कर सकने की चकित करती क्षमता को...जिस काम में औरों की सहायता चाहिए होती थी, उस काम में लोगों की सहायता जुटा लेने की उसकी अद्भुत दक्षता को... क़ायल कर सकने वाली तार्किक बुद्धि और विश्लेषण की क्षमता को... आम तौर पर वह एक चुप्पी-सी महिला थी, पर जब बोलने पर आती, तो देर तक बोलती ही चली जाती थी... बड़ी देर की चुप्पी के बाद उसने ख़ुद को बात करने को तैयार किया।

‘सर, आपने ऐसा क्यों किया?’

मैं श्योर हो गया । हाँ, वह अपनी मेज़ पर पड़ा ऑर्डर पढ़कर आई थी।

‘मजबूरियाँ थीं। मेघा, दिस इज़ ऑफ़िस... बॉस ऐसा ही चाहते थे।’, मैंने कहा।

‘और आप? आप क्या चाहते थे?’ उसने सीधे पूछा।

‘मैं? मेरा तो यही मानना है कि तुम बहुत अच्छा काम कर रही थी और किसी बदलाव की ज़रूरत नहीं थी। पर चेयरमैन का मानना है कि तुम्हें बेवजह ज्यादा तरजीह दी जा रही है। ऐसे काम दे दिए गए हैं जो पुरुष ज्यादा अच्छी तरह कर सकते हैं− मसलन भाग-दौड़ की माँग करने वाले प्रशासनिक काम, मंत्रालय से संपर्क, प्रेस को डील करना, न्यूज़ निकलवाने की जुगत...आउटसाइड एजेंसीज़ हमसे ख़ुश नहीं। सप्लायर्स कह रहे हैं उन्हें वक़्त पर पेमेंट नहीं मिलता। मैं जानता हूँ कि यह सही नहीं। सबकुछ अच्छा चल रहा है, और पेमेंट में दैरी फिनांस का मामला है, पर चेयरमैन कुछ भी सुनने को राज़ी नहीं।’

पर यह सब मैं किससे कह रहा था? वह तो सुन ही नहीं रही थी!

‘सर, ऐसा मेरे जीवन में बार -बार हुआ है। बहुत कोशिश करके नदी के तल से सतह पर ऊपर आना और एक झटके से वापस अंदर धकेल दिया जाना... लोग कहते हैं सफलता सबों से नहीं सँभलती− मैं भी शायद उन्हीं लोगों में से हूँ।’

‘पर यहाँ तो तुम्हारा कोई दोष नहीं। बॉस होने के नाते मैं कह सकता हूँ कि तुम बहुत अच्छा काम कर रही थी और किसी बदलाव की ज़रूरत नहीं थी।’ मैंने दुहरा दिया।

उसने फिर नहीं सुना। खोई-सी बोलती रही−

‘शायद ऐसा है कि मुझे जो मिल जाता है उसके लिए मैं मान लेती हूँ कि वह हमेशा मेरा रहेगा, अब मुझसे छिन नहीं सकता... मैं ख़ुद को रिवाइज़ नहीं करती, सोचती नहीं कि दुनिया पल-पल बदल रही है तो कुछ भी स्थिर कैसे रह सकता है − कोई भी काम, सफलता, रिश्ता?!’

‘पर मेरे -तुम्हारे रिश्ते में कोई बदलाव नहीं आने वाला। मुझे जब भी किसी महत्वपूर्ण काम के लिए काबिल इग्जेक्यूटिव की दरकार होगी मैं तुम्हें ही याद करूँगा।’

मैंने उसे भरोसा दिलाने को कहा पर वह तो कुछ और कह रही थी।

‘सर, ऑफ़िस में मैंने जब-जब सोचा कि सब ठीक और स्थिर है, दुर्भाग्य की कोई बड़ी-सी उमड़ती लहर आई और सब मिटा गई। मैंने हिम्मत नहीं हारी, फिर लिखा− पर बालू की जमीन पर लिखी मेरी इबारत वक़्त की लहरों द्वारा फिर-फिर मिटा दी जाती रही। तो मैं ख़ुद को कितनी बार लिखूँ सर− कितनी बार तोड़ूँ-बनाऊँ? अपना पुरजा-पुरजा अलग करके कितनी बार उसे नई शक्ल दूँ? मैं चाहती हूँ, कभी नहीं थकूँ। जब भी बिगाड़ी जाऊँ, ख़ुद को नए रूप में गढ़कर दुनिया के सामने प्रस्तुत कर दूँ। पर सच तो यह है कि मैं अब थकने लगी हूँ। कितनी बार टूटूँ, बनूँ, टूटूँ... शायद जो चाहिए होता है स्थिर जीवन जीने के लिए, वह मेरे पास है ही नहीं! मैं सिर्फ काम कर सकती हूँ; जोड़-तोड़, अपनी नुमाइश या अपने काम का विज्ञापन करती नहीं फिर सकती। तो ऑफ़िस में जो चाहिए होता है वह मेरे पास है ही नहीं, इसीलिए कष्ट है। सर, हम सबों के जीवन में बार-बार इतने खलनायक क्यों आते रहते हैं? अगर मेरे जीवन में बार-बार ऐसा होता है तो मुझमें ज़रूर कोई गंभीर समस्या है न?’

 ... मैं क्या कहता! मेघा एक स्पष्ट सोच, प्रखर व्यक्तित्व और लगन से काम करने वाली महिला है− विचारों में बहुत मॉडर्न, दिखने में बहुत औसत.. वह सरकारी नहीं, किसी प्राइवेट कंपनी में होती तो काम के मामले में बहुत सराही जाती। पर शायद मैं गलत हूँ। आख़िर रंगभेद और जोड़-तोड़ वहाँ भी काम करते हैं! वहाँ भी होते हैं ऐसे पुरुष जो काम में बराबर दक्ष दो महिलाओं में से एक को चुनना हो तो सुंदर रंग-रूप, मुँह पर सच न बोलने वाली, बॉस को प्रशंसा के पहाड़ पर चढ़ाए रखने वाली महिला को चुनते हैं.. और फिर हर ऑफ़िस एक जंगल होता है, जहाँ गधे और घोड़े तो कई होते हैं, शेर सिर्फ एक! अगर आप शेर नहीं हैं या नहीं हो सकते, तो कम से कम शेर के इतने विश्वस्त ज़रूर रहिए कि वह आपको खा नहीं जाए। मेघा रंगभेद, जोड़-तोड़, ईर्ष्या की शिकार है। मेघा शेर से नजदीकी नहीं बना पाने की मजबूरी या चुनाव की शिकार है। मुझे भी लोगों ने कम नहीं उकसाया था कि मैं उसे साइड लाइन करके रखूँ, पर मैंने एक बार उससे बात की और उस जैसी काबिल, दृढ़ स्वभाव महिला को बहुत महत्वपूर्ण काम देने के अपने फैसले पर अड़ गया− तब तक, जब तक कि ख़ुद चेयरमैन ने मुझे आदेश नहीं दे दिया कि मेघा का काम बदल दिया जाए। मैं ख़ुद जला हुआ था तो किसी और को जलाने से पहले ज़रूर हिचकता। मैं तो ख़ुद सालों-साल साइड लाइन किया जा चुका था तो उसके दुख को कैसे नहीं समझता?  मेरी और उसकी मुलाकात एक-एक पंख टूटे दो पक्षियों की मुलाकात थी जो अपनी आधी - आधी ताकत एक करके साथ उड़ना चाहते थे। वह ख़ुश थी, बहुत अच्छा काम कर रही थी, उसके अच्छे काम की वजह से ऑफ़िस की कई समस्याएँ क़ाबू में थीं और प्रशंसा मैं बटोर रहा था। न्याय कर चुकने के बाद, रंगभेद की पुरुष मानसिकता से उबर चुकने के बाद, मैं अपनी नजरों में दुबारा गिरना नहीं चाहता था... मैं पछताना नहीं चाहता था, पर यह चेयरमैन का आदेश...   

आख़िरकार मैंने सारी सीढ़ियाँ तय कर लीं और मंच पर बने पोडियम तक पहुँच ही गया।

‘बेचने और ख़रीदने का खेल आज ख़त्म होता है’, मैं मंच से कह रहा था। ‘हाँ, ये पूरी ज़िंदगी एक बार्टर सिस्टम ही तो है! एक हाथ देना, दूजे लेना। अच्छे बच्चे बने रहे तो माता -पिता ने प्यार किया, पढ़ाई में अच्छा किया तो मान मिला, अच्छे कॉलेज में अडमिशन मिल गया। अच्छी डिग्री के बदले इस कंपनी ने नौकरी दे दी। अच्छी पज़िशन थी, अच्छा पैसा था तो अच्छी-सी अनु शादी में मिल गई... भावनाएँ दो, तो भावनाएँ लो - के सिद्धांत पर शादी लंबी चल गई। कंपनी के वैल्यू सिस्टम अपना लेने के बदले प्रमोशन मिलता रहा... जैसे शर्तों पर मिली थी ज़िंदगी, कि ख़ुद को माल बनाकर बेच पाने का हुनर सीखो या फिर ज़िंदगी के बाज़ार में बिन बिके पिछड़ जाओ। ज़िंदगी का दाँव हार जाओ। मैं कुछ अनर्गल तो नहीं कह रहा न? तो अपना हुनर, अपनी क़ाबिलियत, अपनी मेहनत बेचकर पैसा कमाते रहने का मेरा खेल आज ख़त्म हो रहा है।

आज सुबह अपनी सीट पर बैठते ही मुझे फूलों का एक बहुत बड़ा गुलदस्ता दिया गया, जिसमें कुछ सफ़ेद फूल भी थे। मुझे लगा, मैं अब उन्हीं सफ़ेद फूलों की तरह हो चुका हूँ, जिन्हें सुगंध और ख़ूबसूरती के बावजूद कोई प्रेमिका के लिए नहीं ख़रीदताता, क्योंकि जमाना रंगों का है - रंगीन होकर जीने वाले लोगों का.. नहीं, यह व्यंग्य नहीं, सच्चाई है। सच तो यह भी है कि सफ़ेद बालों और रंगहीन हो चुके चेहरे के बावजूद हम सब अपने अंदर रंग ही ढूँढते रहते हैं। मेरी सराहती नजरें भी सफ़ेद फूलों के बीच मुस्कराते लाल, पीले, गुलाबी, बैंजनी फूलों पर ही पहले पड़ी। तो यंग मेन ऐंड विमेन.. आप सबों में जब तक रंग और रंगत बाकी है, आप सराहे जाएँगे, ख़ुद को पैसा या प्यार कमाने को बेच पाएँगे। मेरी शुभकामनाएँ आप सबों को कि आख़िरी दम तक आपमें रंग और रंगत बाक़ी रहे!

अब देखिए न, एक ख़ाली जिल्द भर था मैं, जब इस दुनिया में आया। जैसे-जैसे बड़ा होता गया, अनुभवों के पन्ने दर पन्ने अंदर जमा होते गए... किताब मोटी होती चली गई... और अब तो मैं इतनी मोटी किताब हो गया हूँ कि कोई मुझे पढ़ना नहीं चाहेगा− इतना समय किसके पास है? और फिर किसलिए? क्या मेरे अनुभव नई पीढ़ी के काम के हैं?? हर बूढ़े को लगता है कि उसके क़ीमती अनुभवों से नई पीढ़ी को लाभ उठाना चाहिए और हर नई पीढ़ी को पुराने अनुभवों से सीखना, उसी अनुसार चलना, समय की बर्बादी और पिछड़ जाने की गारंटी लगता है, क्योंकि उनके अनुसार जमाना बदल चुका होता है।

मैं अपने अनुभव बाँटकर आपका समय बर्बाद नहीं करूँगा। आप सबों को अपनी ज़िंदगी अपनी तरह से जीने का हक़ है। जीवन तो प्रडक्टिव होकर जीने और प्रडक्टिविटि बढ़ाते जाने का ही नाम है। यहाँ तक कि जिसे ऑफ़िस पॉलिटिक्स कहते हैं - वह भी कहीं न कहीं प्रडक्टिव ही होता है− इतना कुछ सिखा -बदल जो देता है जीवन में! हर एक को उससे सीखना चाहिए− मेघा तुमको भी।

ये ऑफ़िस कितना छोटा-सा है! सिर्फ सवा सौ लोग− सवा सौ परिवार, यानी लगभग पाँच सौ जीवन, पाँच सौ चाहतें। उन पाँच सौ चाहतों के ऑफ़िस के मुखिया यानी मुझसे इस अर्थ में लेना-देना कि मेरे फ़ैसलों से वे प्रभावित हो जाते रहे। ऑफ़िस से मिले उपहार उन्हें ख़ुश कर देते तो काम के घंटों का बढ़ा दिया जाना उन्हें नागवार गुज़रता। घर जो कहीं और था, ऑफ़िस और ऑफ़िस के मुखिया द्वारा लिए गए निर्णयों से तत्काल प्रभावित हो जाता रहा। क्या हर चीफ़ को यह पता होते हुए भी इसका अहसास रहता है? मैं यहाँ बैठे सुनील को देख रहा हूँ। उसे टाइपिंग जॉब के लिए देर तक रोकते ही उसकी छोटी-सी बेटी फ़ोन पर फ़ोन करने लगती थी - ‘जल्दी आओ पापा’, और मैं समझ नहीं पाता था कि क्या करूँ!

थोड़ा-भी जल्दी बुलाए जाने पर सायमा के घर खाना नहीं बन पाता था और उसके बच्चे स्कूल से घर लौटकर बाहर से खाना मँगवाकर खाने को मजबूर हो जाते थे।’

मैं कुछ क्षणों के लिए थम गया।  

दरअसल मेरी निगाह बनर्जी पर चली गई थी और मन हो रहा था कि कह दूँ कि इकलौती संतान खोने का दुख मैं समझ सकता हूँ - वह तीतापन जिसने आपकी ज़िंदगी को निगल लिया है। ये हर बात पर विरोध, हर वक़्त अंदर खदबदाता, बाहर निकलने को आतुर फनफनाता ग़ुस्सा− चाहे किसी पर भी, किसी भी तरह.. पर ज़िंदगी में मिले हर अन्याय का बदला लेना संभव नहीं हो पाता। लाइफ हैज नॉट बीन फेयर विद यू मिस्टर बैनर्जी ऐंड देअरफॉर आई फ़गिव यू फॉर ऑल द नेगेटिव यू ब्रॉट टू ऑफ़िस ऐंड पर्सनली टू मी।

नहीं, यह कहना ठीक नहीं होगा।

मैं मिश्रा को देखता हूँ तो मुझे वह फ़ाइल याद आती है जिसमें उसने इतने सारे फ़िगर बदल दिए थे कि मुझे उस फ़ाइल को गुम हुआ डिक्लेयर कर देना पड़ा था।

श्रेया को देखते ही बंद कमरे में सामने बैठी धार-धार रोती उस महिला का चेहरा याद आने लगा जिसके काजल बह-बहकर गालों पर फैल गए थे और वह रोती हुई कह रही थी कि उसे बिना काम के ही रहने क्यों नहीं दिया जाता? 

मेरी निगाह उमा पर चली गई, जिसे मैंने एक साधारण-सा काम दे दिया तो उसने उसे कठिन कहकर मंत्रालय के एक बड़े अधिकारी से फ़ोन करवाकर मुझे डँटवाया कि उसे परेशान नहीं किया जाए। 

... और यह वर्मा, जिसे शिकायत थी कि इस ऑफ़िस के मुखिया का पद उसे क्यों नहीं दिया गया? इस नाते वह मुझे परेशान करने, मुझसे असहयोग करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ने लगा।

नहीं, यह सब मैं नहीं बोलूँगा− मैंने तय किया। मैं आगे बोलने लगा−

‘मैं सिन्हा के साथ गुजरी वह शाम कभी नहीं भूलूँगा, जब मंत्री जी को अगली सुबह दिखाने को एक नोट बनाते हम दोनों को पता ही नहीं चला कि शाम कब रात के दो बजे में बदल गई... 

क़तार में बैठे हर एक को मैं ध्यान से देख रहा हूँ और सबों के बारे में कुछ न कुछ बोलने की हैसियत रखता हूँ। साथ काम करते हमें सबों की अच्छाइयाँ, बुराइयाँ और उनके द्वारा घर-बाहर खेले जा रहे खेलों का पता होता है। उनके कच्चे चिट्ठे हमारी जेब में ही रखे होते हैं...’ मेरे यह कहते ही हॉल में ठहाका लगा।

 ‘मैं सिर्फ उस महिला के बारे में कुछ बोलूँगा जिसका शिकार अनजाने ही मेरे हाथों हो गया है। शिकार − उसके टैलेंट, उसके व्यक्तित्व का; उसकी मेहनत और प्रडक्टिवटि का... और इस सब से परे − उसकी इमेज का। शी हैज बीन पनिश्ड फॉर द क्राइम शी हैज नॉट कमिटेड। उसे दिया बहुत अच्छा काम मैंने चेयरमैन के आदेश से उससे छीन लिया − काम, जो वह बहुत अच्छे

तरीक़े, पूरी दक्षता से कर रही थी...और यह इसीलिए हुआ कि अफ़वाह फैला दी गई कि हम दोनों इन्वॉलव्ड हैं, प्रेमी -प्रेमिका हैं। सब जानते थे, जानते हैं, कि वह किस तरह की महिला है - मोरली अपराइट, वर्कवाइज आउटस्टैंडिंग...न पैसों का ग़लत लेन-देन करती है, न रिश्तों में घालमेल। पर बात ऊपर तक गई तो ऑफ़िस में इस तरह के रिश्तों को बढ़ावा नहीं देने के ख़याल से मुझे यह आदेश दिया गया कि उसे पहले की तरह साइड लाइन कर दूँ। मैं चाहता तो चेयरमैन के सामने अड़ जा सकता था क्योंकि ये क़तई सच नहीं था, सरासर अन्याय था ये! उसकी  इमेज ग़लत तरीक़े से बेचकर लोगों ने अपना हित ख़रीदा। आई अडोर हर थिंकिंग, आई अप्रीशिएट हर वर्क... बट, आई डोंट लव हर द वे यू पीपल थिंक। एक पुरुष और महिला के बीच पारंपरिक प्यार से अलग रिश्ते भी हो सकते हैं− ख़ूबसूरत रिश्ते, जो प्यार की तरह बाँधने, स्वार्थी बना देने वाले नहीं, बल्कि मुक्त कर देने, मन की उड़ान को ऊँचाई देने वाले होते हैं... पर मेरा और मेघा का सच जो भी, जैसा भी रिश्ता रहा हो - उसे डिफ़ाइन करने में दिमाग़ लगाना मैं ज़रूरी नहीं समझता। हर रिश्ते को कोई नाम देना संभव भी नहीं। पर इस कारण मेघा को जिबह किया जाना निहायत ही अनुचित था। मेघा, थैंक्यू सो मच फॉर बीइंग अ पार्ट ऑव माई लाइफ फॉर थ्री इयर्स एंड मेकिंग देम सो ब्यूटिफुल। ऐंड सॉरी फॉर वट आई हैड टु डू। न मैं तुम्हें ऐसा काम देता कि तुम्हें रोज मेरे कमरे में आने की ज़रूरत होती, न तुम बेकार में बदनाम होती... पर काम नहीं देता, तब मैं तुम्हें, और सारा ऑफ़िस तुम्हारे टैलेंट को एक बार फिर से जान कैसे पाता! अब भले तुम्हें सच्चाई पता है, तुम इसे इग्नोर करके ज़िंदगी में आगे बढ़ जाना।

 तुमने आज सुबह मुझे ई-मेल भेजकर करियर के तीन शानदार साल देने के लिए मेरा शुक्रिया अदा किया है। मैं रसिप्रकेट करना चाहता हूँ और बताना चाहता हूँ कि काम छीन लेने के ऊपर के फ़रमान से बहुत दुखी होता हुआ भी मैं तुम्हें डिफेंड नहीं कर पाया क्योंकि तुम एक महिला हो। डिफेंड करता तो ज्यादा बदनामी होती, उँगलियाँ उठनी लाज़िमी हो जातीं - तुम समझ रही हो न! मैं दिल से चाहता हूँ कि एक बंद कमरे में क़ैद चिड़िया की बजाए तुम असीम आसमान में उड़ने, ऊँचाइयाँ छू आने वाली चिड़िया बनो - बार-बार चैलेंजिंग काम लेकर कुछ कर दिखाती जियो। ज़िंदगी कभी कभी न्याय नहीं करती, पर सिर्फ़ कभी-कभी! जमाना जितना भी बदल जाए, विमन आर स्टिल वेरी सॉफ्ट टारगेट। समझ नहीं आता, हम पुरुष असल में अपनी सोच कब बदलेंगे!’

मैं चुप हो गया। लगा कि मैं तो कुछ और ही कहना चाहता था। मेघा के बारे में इतना ज्यादा कहना तो क़तई नहीं चाहता था। कुछ क्षणों की चुप्पी के बाद हौले से हिम्मत बटोरी मैंने।

‘आज सुबह उठा तो मुझे लगा कि मुझे तीन लोगों से तुरंत माफ़ी माँगनी चाहिए। मेघा से - जिससे मैं माँग चुका; अपने गुरु, अपने सर से जिन्होंने मुझे पोस्ट ग्रैजुएशन करते वक़्त पढ़ाया - जिनका लाड़ला शिष्य रहा मैं, और जो चाहते रहे कि मैं कभी किसी सरकारी कंपनी में काम न करूँ, सरकारी लालफ़ीताशाही का हिस्सा बनकर ज़िंदगी गँवा न दूँ; और अनु - अपनी पत्नी से। अनु तो ख़ैर अर्धांगिनी है। ज़ाहिर है - तीस सालों के साथ में मेरे बारे में बहुत कुछ जान चुकी। क्या पता माफी माँगने की मेरी इच्छा भी उसे पहले से पता हो! फिर भी अनु से मैं घर जाकर कहना चाहता हूँ− सॉरी, जब तक बिकाऊ रहा, कभी तुम्हें समय नहीं दिया। अब जब माल के रूप में बाज़ार में मेरी कोई कद्र नहीं - मैं तुम्हारे पास लौट रहा हूँ। अब मैं ख़ुद को पूरे का पूरा तुम्हें बेच देना चाहता हूँ− ख़रीदोगी? मुझे पता है, वह मुझे ख़ुशी-ख़ुशी ख़रीद लेगी.. पर मुझे बहुत अफ़सोस है कि ख़ुद को उसे पहले क्यों नहीं बेचा?  हम कर क्या रहे होते हैं इस ज़िंदगी में ख़ुद से एक्सपेरिमेंट के सिवा? अपनी ही ज़िंदगी को खरल में डाला, चूरा, जाने कितने तरह के इमोशन, महत्वाकांक्षाओं के केमिकल मिलाए और जब एन्ड प्रॉडक्ट बना तो आख़िर में दुखी हुए... अपने विचारों और अपनी भावनाओं को हमेशा अलग, यूनीक समझा और बुढ़ापे में पछताए कि हम भी तो दूसरों की तरह ही आम, ऑर्डिनरी निकले... खैर, बहुत लंबा भाषण देकर आपको बोर नहीं करूँगा। 

विदा के ये क्षण मेरे लिए बहुत कठिन हैं - बहुत भारी, एकदम पिघले!! 

मेरे सामने नौकरी के पहले दिन जॉइनिंग लिख रहे उस युवा लड़के का चेहरा घूम रहा है, जिसे लगा था कि वह इस कंपनी में अपनी कोई यादगार छाप छोड़ जाएगा.. और थक चुके उस प्रौढ़ का भी, जो हताश होकर अपनी नौकरी के बाकी बचे साल काटता जी रहा था। क़तार दर क़तार सामने बैठे लोगों के चेहरे सामने से गुज़रते जा रहे हैं, तो मैं उनसे जुड़े दृश्यों में डूबता चला जा रहा हूँ... बहुत तरतीबवार न बोल पाने का अफ़सोस जताते हुए मैं आख़िर में कहना यह चाहता हूँ कि ज़िंदगी सिर्फ एक बार मिलती है। आप कृपया वह गलती मत कीजिए, जो मैंने की। अनजाने में भी किसी का भौतिक या भावनात्मक नुकसान करने से बचिए− ऑफ़िस की जूनियर हो या पत्नी! आप मेरी तरह ज्यादा आदर्शवादी मत बनिए, पर साथ ही इतने चालाक भी नहीं कि सपने तक मशीन मेड देखें..   

और बोलना बंद करने से पहले आप सबों का शुक्रिया ज़रूर अदा करना चाहूँगा कि आपने मुझे इतनी देर तक शांति से सुना। ऑफ़िस में मेरे किसी काम, किसी निर्णय से अगर किसी का दिल दुखा हो तो सॉरी और आप सबों को मेरी ज़िंदगी का हिस्सा बनने के लिए थैंक्यू वेरी मच!!’

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मैं पोडियम के सामने से हटा और मुड़कर मंच पार करता, जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ उतरने लगा। जब से काम बदला, रोज कोई फाइल डिस्कस करने की मजबूरी नहीं रही, मेघा ने मेरे कमरे में आना छोड़ दिया था। मैं चाहता भी नहीं था कि वह आए। वह खरा सोना है, पर खरे सोने से गहने नहीं बन सकते − जिस दिन वह इस सच्चाई को समझ लेगी, दुखी नहीं रहेगी। खुले आम इतना कह देने के बाद मैं तो अब उससे आँखें मिलाने तक से बचना चाहता था। साथ ही अंदर से कहीं चाहता था कि मेरा-उसका रिश्ता चाहे जो भी था,  सब कुछ के बावजूद वह उस रिश्ते पर उसी तरह गर्व करती जिए, जैसे मैं जी रहा हूँ... वह उसी तरह मुझे नहीं भूले, जैसे मैं उसे कभी भूल नहीं पाऊँगा। वह जब-जब आसमान में उड़ेगी, मैं दूर खड़ा उसे उड़ती देख ख़ुश हो लूँगा.. मैं आख़िरी सीढ़ी से नीचे उतर एक पल को उसकी सीट के सामने ठिठका कि क्यों न हिम्मत करके उसे एक बार और ‘ थैंक्यू ऐंड सॉरी’ बोल ही दूँ, पर अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख, मैं झटके से आगे बढ़ गया।

***

प्रकाशित कृतियाँ:

चार कहानी संग्रह ‘सातवीं औरत का घर’, ‘चालीस साल की कुँवारी लड़की’, ‘ईश्वर चुप है’, ‘मात और मात’ तथा एक उपन्यास ‘अंत से शुरू’

सह-संपादित: ‘कृति और स्मृतिः दिनेश्वर प्रसाद’

प्रकाशनाधीन स्वीकृत पांडुलिपियाँ: 

पाँचवाँ कहानी संग्रह, चयनित कहानियाँ तथा

फ़ादर कामिल बुल्के के पारिवारिक पत्रों का हिंदी अनुवाद (संपादित)

दो वैचारिक लेख अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के स्त्री विषयक पाठ्यक्रम में।

कई कहानियाँ विषय-विशेष से संबंधित संकलनों में चयनित-प्रकाशित तथा शोध में सम्मिलित।

पहले कहानी संग्रह पर आगरा विश्वविद्यालय से डिसर्टेशन थीसिस।

कुछ कहानियाँ अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित।

विभिन्न ऑनलाइन साइट्स तथा बुक्स इन वॉइस पर कहानियाँ।

कथाक्रम में प्रकाशित कहानी ‘एक विधवा और एक चाँद’ के लिए कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2014

कहानी संग्रह ‘सातवीं औरत का घर’ के लिए 2011 का विजय वर्मा कथा सम्मान।

प्रबंधन सम्बन्धी लेख ‘मैनेजमेंट ऑफ परफॉर्मेंस इम्प्रूवमेंट’ के लिए 1993 का एन.आई.पी.एम. नैशनल यंग मैनेजर्स अवॉर्ड।

ई मेल p.neela1@gmail.com

मो. 9899098633


2 टिप्‍पणियां:

  1. कहानी अपने स्टेक्चर में एक बार में पढ़ी जा सकी । कहानीकार नीला प्रसाद ने सरकारी दफ़्तरों के बीच घटित होने वाली घटनाओं को बहुत ही बारीकी से प्रस्तुत किया है । अभी प्रतिभाशाली स्त्री को बहुत बार उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है ।

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  2. सुभाष मिश्र , रायपुर छत्तीसगढ़

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