अरुण शीतांश की कविताएं
यह लङाई लंबी चलेगी
                                                     
  
  
  
    
        
                                              
                  
              
    
    
         
   
अरुण शीतांश: का  जन्म  १९७२ में अरवल जिला के विष्णुपुरा गाँव में हुआ। आपने एम ए ( भूगोल व हिन्दी) एम लिब सांईस एल एल बी पी एच डी शिक्षा हासिल की है। आपकी कविता लेखन में गहरी रुचि है। आपकी कविताएं ' एक ऐसी दुनिया की तलाश में  और हर मिनट एक घटना है, में संकलित हैं। आपका ताज़ा कविता संग्रह- पत्थरबाज, शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य। 
|  | 
| अरुण शीतांश | 
आपकी आलोचना पुस्तक-  शब्द साक्षी हैं, । आपके संपादन में ' बादल का वस्त्र,  पंचदीप,  युवा कविता का जनतंत्र, पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। आप देशज, नाम से पत्रिका का संपादन करते हैं । आपको शिवपूजन सहाय सम्मान , युवा शिखर सम्मान प्राप्त है। आप शिक्षण संस्थान में कार्यरत है। उम्मीद करते हैं कि बिजूका के मित्रों को अरुण की कविताएं पसंद आएगी। 
कविताएं
बाबूजी 
किसी विज्ञापन के लिए नहीं आया था यहां
धकेल दिया गया था गले में हड्डी लटकाकर
विष्णुपुरा से आरा
महज संयोज नहीं था
भगा दिया गया था मैं
बाबूजी
आपकी याद बहुत आती है
जब एक कंधे पर मैं बैठता था
और दूसरे कंधे पर कुदाल
रखे हुए केश को सहलाते हुए चला जाता था
खेंतों की मेड़ पर गेहूं की बालियां लेती थीं हिलोरें
थके हारे चेहरे पर तनिक भी नहीं था तनाव
नईकी चाची चट पट खाना निकाल जमीन को पोतते हुए
आंचल से सहला देती थी गाल
आज आप पांच लड़कों पांच पोतों और दो पोतियों के बीच
अकेले हैं
पता नहीं आब आप क्यों नहीं जाते खेत
क्यों नहीं जाते बाबा की फुलवारी
फिर ढहे हुए मकान में रहना चाहते हैं
और गांव जाने पर काजू-किशमिश खिलाना चाहते हैं
आप अब नहीं खिलाते बिस्कुट
जुल्म बाबा की दुकानवाली
जो दस बार गोदाम में गोदाम में या बीस बार बोयाम में हाथ डालकर
एक दाना दालमोट निकालते जैसे जादू
सुना है उस जादूगर की जमीन बिक गई
अनके लड़के धनबाद में बस गए
वहां आटा चक्की चलाते हैं
बाबूजी आपकी याद बहुत आती है
मधुश्रवा मलमास मेला की मिठाई
और परासी बाजार का शोभा साव का कपड़ा
आपके झूलन भारती दोस्त
सब याद आते हैं
सिर्फ याद नहीं आती है
अपने बचपन की मुस्कान.....
००
|  | 
| निज़ार अली बद्र | 
यह लङाई लंबी चलेगी
किसी ने कहा जात
किसी ने कहा पात
भात पर 
किसी ने कहा क्या
दुनिया की लङाई लंबी चलेगी 
पुरब से आयेगा भात
पश्चिमोत्तर से मिलेगी रोटी
दझिण से रुपया 
संगठन 
60 पार ऊपरवाले को बुलायेगा
30-40 वाले जाएँ भांङ में 
भात पर बहस नहीं होगी
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भात से नीचे है 
कई पर्व निकल आयेंगे
निकल जाएंगे 
त्यौहार पर कोई मृत्यु का समाचार मिलेगा 
जो होगा देखा जायेगा 
बाकी सब जगह प्रधान जायेगा
हम संवेदनशील लोग 
असंवेदनशील लोग हैं 
लिखो रोज़ चिङिया पर
सांप पर 
देश पर
देश के अंदर भात का आधार है 
उसपर मत लिखो ...
लंबी लङाई है।
००
 पहाड़ की दहाड़
पहाड़ तुम पहाड. नहीं रहोगे
एक दिन ढूह हो जावोगे
तुम्हारी छाती इतनी कमजोर हो जाएगी कि
तुम एक दिन गिर जावोगे
हवा खाने से पहले 
हवा पी जाएगी तुम्हें
आग लाने से पहले
आग ही समा जाएगी
सजला गाँव सेव के नहीं रहेंगे
कोई नहीं ढोएगा बोझा सेव का
एक दिन भाप की तरह 
उड़ोगे और बैठ जावोगे
आराम की मुद्रा में
कुफरी नहीं होगी 
नहीं ठंढ
ललित कैफे 
मैदान में आ चमकेगा .
और रोहतांग के भोजपत्र के पेड़
अदृश्य हो जाएगें
रोरीक की पेण्टींग 
हाथ के पँजो में रेखा बन उभरेगीं
सब सो जाएगें
दूर से चिल्लाने की आवाज आएगी !!!
 ०० 
 रोहतांग . ०६ .१० .१४
|  | 
| अवधेश वाजपेई | 
 साइकिल 
घर में  साइकिल है 
पहले दुकानदार रखा था
आज मेरे पास है 
पैसे वैसे की बात छोङ दीजिए 
साइकिल है मेरे पास 
रोज़ साफ करता हूँ 
उसपर हाथ बराबर रखता हूँ 
सुबहोशाम निहारता हूँ 
साइकिल को धोता हूँ 
चलाता नहीं हूँ 
रोज़ उसपर बैग टंगे रहते थे
बाजार से लौटती थी
तो घर लौट आता था
अब नहीं जाती
एक सब्जी भी लाने
टिफ़िन के रस नहीं लगते चक्के में 
वह चुपचाप खङी है 
उसे गाँव नहीं जाना
हवा से चलती
और उङती साइकिल   हवा से ही बातें करती रही
साइकिल  की पिछले सीट पर एक कागज की खङखङाहट सुनाई दी
उसमें लिखा था- पापा !इस साइकिल को बचाकर रखना
किसी को देना नहीं। 
 साइकिल को बारह बजे रात को भी देखता हूँ 
कल डब सैम्पू से नहलाऊँगा
तो साइकिल कम बेटी ज्यादा याद आयेगी 
इसलिए आज फिर देखकर आता हूँ- आपके पास।
थोङी देर हो चुकी है 
एक खिलौना को रखने में 
वह खिलौना नही जीवन है
जीवन की साइकिल है ..l
००
शीशम का पेड़ 
.................
यह पेड़ कितना हरा भरा है
पानी टपक रहा है पत्तो से 
इसकी जड़ें  तर हो रही हैं
बूंद बूंद 
भीगे हुए पेड.
 जंगल की तरह हैं
जंगल में कई  शेर हैं
शेर भी कई ढेर हैं
शीशम के छोटे छोटे पौधे बड़े नाज नखरे की तरह होते हैं
इसके बीज छिमियों की तरह जीवंत
हर डाल पर झूलते लटकते रहतें हैं बाली की तरह
न जाने कितने काटे गए
हत्यारे शोफे पर बैठतें हैं
होटल में सजातें है दरबार
मंत्रियों ने किसान के लगाए पौधे
बड़े होने पर हजार बार काटे
लगाये जनतादरबार
शीशम  तमाम कठिनाईयों के बीच भी लंबा होना कम नहीं किया
छायादार
दमदार हुआ
ताकतवर
शीशम का जीवन 
मनुष्य का जीवन है
हमारे हाथ ने कई बार लगाए पेड.
हमारे पॉव के अँगूठे से कई बार दबा बीज
और झूमने लगे खेत
हम शीशम हैं
शीशम के पेड़.....
००
 रास्ता 
रास्ते में सब जातें हैं 
पांव मेरे लड़खड़ाते हैं
किसान रास्ता नहीं नापता
नेता रास्ते पर दाँव लगाते हैं
पत्नी रास्ता देखती है 
प्रेमिका रास्ते पर आँख बिछा देती है
माँ
रोज़ रास्ता देखती है
पिता पैसे का राह देखतें हैं 
बेटा रास्ता में खेलता है 
बेटी रास्ते भर रोती रहती है
मित्र रास्ते में काट फेंकतें हैं 
मुझे और रास्ते को ..
दुनिया 
बिन रास्ते की हो गई है 
कोई बताए नया रास्ता सही सही 
जहाँ भूलकर मिल जाए सभी.
००
हमें ऐसा देश चाहिए                                  
रौशनी और बारिश के बीच 
एक शब्द है - हत्या ।
रोज कही न कहीं हो रही है 
पाठशाला कसाई का ठेहा हो गया है
शोर और शांति के बीच घट रहा है 
हमें ऐसा देश चाहिए 
जहाँ हर तट पर 
हर गाँव में 
शहर में 
छांव में 
रुमाल से निकाला कोई ताजा गुलाब हो
चाकू और राईफल्स लाल खून देखने के लिए है 
लाल गुस्सा और लाल फूल नहीं ...
००
|  | 
| निज़ार अली बद्र | 
 सुंदर कविता खेतों में हीं है
दोपहर में जैसे ही माथे पर धान का बोरा लदा
कराह के साथ खुशी थी कि
घर का अन्न है
वह उमर ही क्या थी
जवान चेहरा भी नहीं था
नौ साल का छोकरा था
माँ जब माथे पर बोझ देखी दब गई नव इंच जमीं के नीचे 
मुस्कान के साथ कहा दुनिया के बच्चे आज ढोये होंगे मुझसे भारी बोझ
रोती हुई माँ कलेजे से लगा ली
दादी चमचम करते लोटे में पानी दी
नौकरी करने के बाद अब पानी खूद पीता हूँ
दस कठ्ठे का प्लॉट हल से जोतते हुए पकड़ा गया
बैल के गोड़ में हल के फाल से कटा गया 
 मजदूर रोटी नमक खा रहे थे
और मैं उनके खाने पर मेहरबान 
ताज होटल फेल था उस समय
मेरा कर्ज अभी खेतों में है
और मैं कोलकत्ता जा रहा हूँ
बेटे के साथ
मेरे मन का सर्वोच्च न्यायालय भूख पर चिन्ता व्यक्त कर रहा है
और टीचर की तरह हिसाब 
एक एक रोटी पर
कल करखानों पर
रोती हुई माँओं पर
जंगल में दूर हैं देश के नागरिक पर
मेरा बोझ और बढ़ गया है
उस धान के बोरे से भी भारी हो गया है
जीवन हाहाकार कर रहा है
सामने  एक नन्हा पीपल का पौधा देख रहा हूँ 
दुर्गापुर में 
जब ये बड़ा होगा कुछ देश के बुरे लोग सत्ता 
के कारण मरने के करीब होंगे .
और हम बम की आवाज की तरह ठहाका मारेंगे 
रानीगंज से लेकर हावड़ा तक...
          २८.०५.२०१६ 
        ( हल्दिया यात्रा )
एक चोर
जाने तो कैसे जाने
फूल की तरह सुंदर था वह
पलाश की तरह खिला हुआ
घास पर लेटते ही बोला
कविता नहीं सुनाओ
एक बात सुनो
तुम कवि हो
चोर हूँ मैं
दोस्ती टूट गई तड़ से
 कड़ी धूप में भक से
जैसे सरकंडे की छड़ी फटाक से टूटती है
चोर ने कहा 
तुम सुखे पत्ते देखते हो
कविता के लिए
सुखी नालियाँ देखता हूँ मैं
चोरी के लिए...
लाख कोई जतन कर ले
तुम्हारी कविताएँ चोरी हुईं कभी?
तो मुझे बताना 
उसका घर खाली कर दूँगा 
हूँ मस्ताना
और मैंने कहा -- बाक ।
००
 ये शांत मन
जी घबराता है
मनुष्य से नहीं 
बॉस की हरकत से
ये शांत मन मेरा 
उड़ा जा रहा है रोज़ बुद्ध के पास
पृथ्वी के एक कोने में मिली है
थोड़ी जगह
कार्यालय  की जगह हमेशा असूरक्षित रही है
बॉस के कारण
ये दुनिया पर रेंगने वाले जीव !
तुम शांत हो जावो 
मेरे मन की तरह डिस्टर्ब न हो
भगवान के शरण में मत जावो 
नहीं तो कल ही बॉस
रे मारेगा
दरअसल दुनिया का युद्ध यहीं से शुरु होता है
पेड के पतों से दोस्ती है हमारी 
जहाँ बॉस की गाड़ी लगी रहती है
झटका देनेवाली
हवा से फ्रेंडशीप बढ़ा रहा हूँ
मोबाईल कनसर्न बढ़ा रहा हूँ
सरकार के अधिकारी ने पूछा - कैसा है बॉस
मेरी आवाज भभक कर बाहर आ गई
यह सम्मान का समय खोता जा रहा है
कवि किसी के शरण में नहीं रहा है
आज बुद्घ को याद कर रहा हूँ ..
एक और दुनिया है
जो बाट जोह रही है   
तोष इतना है कि पतों की तरह हरा हूँ  !
००
भेली
औरतें हैं तो पेड़ हैं
फूल है
फल है
पहला फल औरतों ने चखी
सड़ता हुआ देखी
उगता हुआ संजोई
पेड़ बढ़ते गए
कटते गए
फल फटते गए
पृथ्वी पर पहली बार 
घरों मे कैद स्त्रियों ने ही फल को देखा
धरती सुंदर होती गई
रात गहरी होती गई
मनुष्य हारता गया 
पराजय हवा ने दिलाई
और मौसम से बढ़ते गए हम
ढ़लते हुए सूर्य को 
रंगों में बदला चंपई 
चंपा साड़ी ली भंटई
खोटा बाँधकर बढ़ गई खेतों में 
फसलो  के बीच  
पसीने के गंध से इत्र मित्र हुआ
हम स्त्री के पक्ष में हैं
तप और ताप के बीच 
भेली खा रहा हूँ 
एक लोटा पानी पीकर ...
००
|  | 
| निज़ार अली बद्र | 
दुनिया का आंगन
स्त्री पर भरोसा कर 
रख दिया 
उसके लबो पर होठ
नाभी पर हाथ
दो खेत लहलहाने से पहले 
सुखने लगे
केक काटने से पहले 
वे काटने लगे हमें
निहत्था क्या करता
ठीक से देखने के पहले 
आँख पर बाँध दिया सब पट्टी
और नंगा कर आग लगाने की कोशिश की
पेड़ गवाह बचा था
मन रुठा नहीं
झांई मार दिया दोनो को
और हम  दोनो तलाब में कूद कर जान देने की कोशिश की
पाँव तले मछलियों ने ऊँचा मिनार बनाकर बचा लिया धीरे से
अंत में एक विधवा औरत का घर काम आया
और लौटकर धूल को संदूर बनाया 
भर दिया पुरी दुनिया के आँगन में
वहाँ जीवन था
००
मेका
चढ़ो और चढो़ 
उड़ जाओ आसमान में 
यह शोभनीय है चाँद सितारो सा
वैज्ञानिक एक दिन खोज करेंगे इस अदा पर
कैसे चढ़े पेड़ के शाखा पर
एक दिन उत्तर भारत की बकरियाँ सोचेंगी कि
हम भी पैदा हुए थे भारत में
भारत में आग लगी हुई है
यह पेड़ यह मेका यह अासमान यह दृश्य कैसे बच गया तिरुपति के रास्ते 
खगोलवेत्ता निहारेगे
एक साथ भारत में कई तस्वीरें बदल रहीं हैं
एक साथ कई नारे लग रहें हैं
एक साथ कई हत्याएँ हो रही हैं
एक साथ बच जा रहें हैं हम
समय का संगत करते हुए 
हमने कई कई क्षेत्रों में कई कई बार सोचा कि
दुनिया बदल रही है
राजनीति बदल रही है
सोच बदल रही है
यह मेका क्यों नहीं बदल रहें हैं 
क्या एक दिन इनकी भी हत्या होगी
क्या यह भी घास के शौकीन हो जाऐगे
हमने सोचना छोड़ दिया है .
हम देश प्रेमी है
देश पर सोचेगे
मेका पर माथा कौन खपायेगा ?
पेड़ पर चढ़े
या घास खायें !
दुनिया बदल रही है जरुर
दुनिया बच रही है 
मेका से....
००
रूप
रंग कभी भंग नहीं करता
समय से रंगत में रहता है
हर कोई के पास कोई न कोई रंग है
हरा  काला  उजला  नीला  बैंगनी   चंपई 
गेहूँवा 
भंटई
रंग हर सब्जी और फूलों में बसा है
मनुष्य  के रोगों  में भी
रंग खतरे में है
००
ईश्वर
मैं चाहता हूँ ईश्वर से मिलना .
ईश्वर लापाता हैं 
जमीन का ईश्वर गाली बक रहा
आसमान का ईश्वर पानी से घर बहा रहा
ईश्वर के हाथ कैसे होतें हैं
ईश्वर को ट्रेन में खोज रहा हूँ
रेल की पटरियों पर
यहाँ गंदा है 
गंदे जगह ईश्वर रहतें हैं क्या 
ईश्वर पानी दो 
घूँट घूँट पी लूँ
मरूँ नहीं
मेरी बच्ची ईश्वर से बात नहीं कर पा रही
नहीं पढ रही
बोर्ड में ईश्वर नहीं टीचर रहेगें
फौज की तरह तैनात
विनाशक को नाश कब करेगें
ईश्वर
आप होटल में या 
मंत्री के घर में छूपे तो नहीं  हैं ?
देश में ईश्वर के रहते 
कोई 
क्यों भीख माँग रहा है..........??????????.
०६.११ .'१४
रमना;, मंदिर के निकट; आरा
 बच्चे
बच्चे खेल रहें हैं
हम नहीं
बच्चे दौड़ रहें है
हम नहीं
बच्चे कूद रहें हैं
हम नहीं
बच्चे हँस रहें हैं
हम नहीं
बच्चे बच्चे के साथ है
हम नहीं
दुनिया के बच्चे एक जैसे हैं
हम नहीं
हम बच्चों की दुनिया में हैं केवल
और कहीं नही
राजा बच्चो के भार से दुखी है
हम नहीं 
हम नहीं
हम नहीं
किसी ने कहा है
भागो नहीं 
दुनिया को बदलो
मेरा कहना है
बच्चे 
पहले अपनी तरह से बदलें
दुनिया पुरानी हो चुकी है
बच्चे हमेशा नये होते हैं तो
दुनिया नई होगी!
दुनिया की आवाज 
नई होगी...!
००
|  | 
| निज़ार अली बद्र | 
बादल का अचानक आ जाना
बादल अचानक बहुत 
इकठ्ठे हो गए शहर में
हवा भी धीरे चल रही है
शांत वातावरण है
लोग घर से बाहर नहीं है
ये शहर महानगर होने के चक्कर में
पागल हो रहा है
दुकानदार धीमी आवाज में बात कर रहा है
पेपरवाला गला फाड़ चिल्लाए जा रहा है
तबतक एक बोली 
अले भैया ! आज कालतून छपी है मेरे नाम से
लड़की धड़ाधड़ दरवाजा खोल बाहर आई
सड़क पर केवल सामान था
जो अंतरिक्ष में भेजने के लिए हाई लेवेल की  मिटींग चल
००
अग्नि पुराण
जंगल की अाग 
अग्नि पुराण से ज्यादा पुराण है 
आग ही नहीं होती तो अग्नि पुराण कहाँ होता
न कोई बिल्डिंग या मकान होता 
मार्कण्डेय पुराण बाचते है तो हवन में अग्नि होती है
श्रीमद् भागवत पुराण नहीं होता 
समस्त देवताओं के काल से निकलकर बाराह पुराण कविता मे नहीं रची जा सकती 
पत्थरों पर पुराण लिख दिया जाए
पत्थर की टकराहट ही पुराण की अग्नि है 
नेट लहक दहक जाए
नेट के गुगल सर्च पर पुराण  मिल सकतें हैं 
अंतत: पुराण को नेट मे आग लगने से कौन रोक सकता है
भले वो सईबर क्राईम मे तब्दिल हो केस
पुराण पुराना जरुर है
अग्नि से पुरान नहीं है
पुराण ....
०१.०६.२०१५
( ब्रह्मपुर  स्थान भोजपुर )
चोंप 
पारिस्थितिकी संतुलन के लिए हर घर मे 
एक बागीचा चाहिए
पेडो़ं में फल हो 
छोटे पौधों मे फूल 
रोज़ नई घटना की तरह 
बना रहे सुंदर पर्यावरण
जंगल की तरह घेरे में पक्षियों के कलरव 
घोड़ों का टॉप सुनाई दे
ठक ठक ठक ठक
शुद्ध हवा में 
कोई माउस लैपटॉप न हो और मोबाईल
बस
संवाद हो निश्चल हँसी के साथ भरपूर
आम का पेड़  खूब हो 
जिस पर बैठकर ठोर से मारे मनभोग आम पर 
एक दिन गिरे तो चोंप कम हो 
धोकर खा जाँए सही सही 
मुँह में चोंप का दाग हो कोई बात नहीं 
हर भारतीय को नसीब कहाँ 
बाल्टी में भरकर खा लें भरपेट आम
कुत्ता बेचारा खा नहीं सकता देखता है कातर नज़र से
बच्चे हुं हां करते ओ ओ ओ 
आ आ आ आ आ
दौड़ते भागतें भैंस गाय के साथ चिलचिलाती धूप में 
माँए गाली देती 
अरे अरे ! खा ले खा ले लू लग जइहें 
महुआ को पसारती 
सुखाती भांड़ी में रख आई
 नयका चाउर के भात का माड़ कुत्ता खाता 
चपर चपर चपर 
चमकती बिजली की तरह टाल का खेत
कौंधती धमकती आँच लहकती सी देह 
तप्त पसीने से सराबोर 
पेंड़ की छाँव हीं काम आया 
गमछी बिछाकर ..
दू बात सबसे करके 
सानी पानी गोबर डांगर सब निफिकीर 
पीते हुए पनामा सिगरेट
जो पनामा नहर को याद दिलाती है किसानो को 
कल पेड़ और खेत के गीत गाए जाऐगें
रोपे जाऐगे फ़सल 
रात भर भरे जाऐगें 
खेत ....
  00 
संपर्क
मणि भवन , संकट मोचन नगर, आरा भोजपुर
८०२३०१, मो ०९४३१६८५५८९
बिजूका के लिए रचनाएं भेजिए: 
सत्यनारायण पटेल
 
 
 
स्तरीय रचनाएं लगाएं कृपया
जवाब देंहटाएंभेली और ईश्वर बेसिर पैर की कविता
कहाँ से बुहारन उठा लाये?
जवाब देंहटाएंसरल भाषा में बहुत अच्छी कविताएं। कुछ कविताएं बेहतरीन हैं जैसे
जवाब देंहटाएंबच्चे, ईश्वर, दुनिया का आंगन ,रास्ता, साइकिल, बाबूजी संवेदनशील और मार्मिक कविताएं हैं।