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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 नवंबर, 2017

आत्मा रंजन की कविताएं

आत्मा रंजन: शिमला के निकट गांव हरीचोटी चनारडी (धामी) के किसान परिवार में जन्मे और हि. प्र. विश्वविद्यालय शिमला से शिक्षा हासिल की है। देश भर की साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविता- कहानी और समीक्षाएं प्रकाशित होती रही है।
आत्मा रंजन
आपकी कविताएं बहुत सहजता से कम शब्दों में गहरे अर्थ और अमिट छाप छोड़ती है। आपकी कविताओं के अनेक भाषा में अनुवाद हुए हैं। आपकी कविताओं का संग्रह- पगडंडियां गवाह है, शीर्षक से प्रकाशित है। आपकी रचनाओं को देश भर के समीक्षकों, आलोचकों और पाठकों का स्नेह मिला है। आपको अनेक बार कविताओं के लिए सम्मान भी मिले हैं। आइए आत्मा रंजन की कविताओं से मिलिए।

कविताएं

कंकड़ छांटती

भागते हांफते समय के बीचोंबीच
समय का एक विलक्षण खंड है यह
अति व्यस्त दिन की
सारी भागमभाग को धत्ता बताती
दाल छांटने बैठी है वह
काम से लौटने में विलम्ब के बावजूद
तमाम व्यस्तताओं को
खूंटी पर टांग दिया है उसने
पूरे इत्मीनान से टांगे पसार
बैठ गई है गृहस्थ मुद्रा में
हाथ मुंह धोने, कपड़े बदलने जैसी
हड़बड़ी नहीं है इस समय
एक आदिम ठहराव है
तन्मयता है पूरी तल्लीनता
पूरे मन से डूबी हुई एक स्त्री
एक-एक दाने को सौंप रही
उंगलियों का स्निग्ध स्पर्श
अन्न को निष्कंकर होने की
गरिमा भरी अनुभूति
स्वाद के तमाम रहस्य
और भी बहुत कुछ.....

एक स्त्री का हाथ है यह
दानों के बीचोंबीच पसरा स्त्री का मन
घुसपैठिए तिनके, सड़े पिचके दाने तक
धरे जाते हुए
तो फिर कंकड़ की क्या मजाल!
उसकी अनुपस्थिति में
एक पुरुष को
अनावश्यक ही लगता रहा है यह कार्य
या फिर तीव्रतर होती जीवन गति का बहाना

उसकी अनुपस्थिति दर्ज होती है फिर
दानों के बीचोंबीच
स्वाद की अपूर्णता में खटकती
उसकी अनुपस्थिति
भूख की राहत के बीच
दांतों तले चुभती
कंकड़ की रड़क के साथ
चुभती रड़कती है उसकी अनुपस्थिति
खाद्य और खाने की
तहजीब और तमीज बताती हुई

एक स्त्री का हाथ है यह
जीवन के समूचे स्वाद में से
कंकड़ बीनता हुआ!
००


अवधेश वाजपेई

हांडी

काठ की हांडी
एक बार ही चढ़ती है
जानती हो तुम
मंजूर नहीं था तुम्हे शायद
यूं एक बार चढ़ना
और जल जाना निरर्थक
इसलिए चुन ली तुमने
एक धातु की उम्र
धातु को मिला फिर
एक रूप एक आकार
हांडी, पतीली, कुकर, कड़ाही जैसा

मैं जानना चाहता हूं
हांडी होने के अर्थ
तान देती है जो खुद को लपटों पर
और जलने को
बदल देती है पकने में

सच सच बताना
क्या रिश्ता है तुम्हारा इस हांडी से
मांजती हो इसे रोज
चमकाती हो गुनगुनाते हुए
और छोड़ देती हो
उसका एक हिस्सा
जलने की जागीर सा
खामोशी से

कोई औपचारिक सा खून का रिश्ता मात्र
तो नहीं जान पड़ता
गुनगुनाने लगती है यह भी
तुम्हारे संग एक लय में
खुदबुदाने लगती है
तुम्हारी कड़छी और छुवन मात्र से
बिखेरने लगती है महक
उगलने लगती है
स्वाद के रहस्य

खीजती नहीं हो कभी भी इस पर
सांझा करती है यह तुम्हारे संग
न चढ़ पाने का दुख
और तुम इसके संग
भरे मन और खामोश निगाहों से

सच मैं जानना चाहता हूं
कैसा है यह रिश्ता।
००



औरत की आंच

भुलेखे में हैं पुरूष
नंगे जिस्मों में कहीं ढूंढ रहे जो
औरत की आंच
भुलेखे में वे भी
बरबाद कर रहे जो इसे
ठंडे मौसम में सड़कों पर
भेजकर उसे फटेहाल
जबकि भव्य भवनों
आलीशान कालोनियों तक में
पसरी हुई है चारों तरफ
इन्सान को निचोड़ती गलाती ठंड

आपने छूकर देखा है कभी
शाम को उतार कर अलगनी पर रखी
उसकी शॉल को
दुनिया का एक श्रेष्ठ और कोमल कवच
होने का गौरव लिए
सहेजे रहती है जो औरत की आंच
छूकर देखा है कभी
उसके पर्स में रख शीशा, रूमाल या बिंदिया
संजोए हुए हैं जो उसके पोरों की नाजुक छुवन
छूकर देखा है
सड़क के किनारे लेटाए
उसके बच्चे के गाल को
पसीना पोंछती बार-बार पुचकारती
जी खोलकर सौंपती है जिसे
होठों का स्पर्श

आंच का व्यापार भी है
हर तरफ ज़ोरों पर
सतरंगे तिलिस्मी प्रकाश की चकाचौंध में
उधर टी.वी. पर भी रचा जा रहा
आंच का प्रपंच

ज़रूरी है आग
और उससे भी ज़रूरी है आंच
नासमझ हैं
समझ नहीं रहे वे
आग और आंच का फ़र्क
आग और आंच का उपयोग
पूजने से जड़ हो जाएगी
क़ैद होने पर तोड़ देगी दम
मनोरंजन मात्र नहीं हो सकती
आग या आंच
खतरनाक है उनकी नासमझी

राखी बंधवाते महसूस कर सकते हो
इस आंच को
वहीं आंच जिसे महसूस कर रहा
ठण्डे पानी से नहाता वह फूल
जिसे सींच रही एक बच्ची
हाथ-बुने स्वेटर के
रेशे रेशे में विन्यस्त है
तमाम बुरे दिनों
और ठंडे मौसमों के लिए
गुनगुने स्पर्श से संजोई आंच

औरत की आंच
पत्थर, मिट्टी, सिमैंट को सेंकती है
बनाती है उन्हें एक घर
उसकी आंच से प्रेरित होकर ही
चल रहा है यह अनात्म संसार

एक अण्डा है यह पृथ्वी
मां मुर्गी की तरह से रही जिसे
औरत की आंच
एक बर्फ का गोला है जमा हुआ
जिसकी जड़ता और कठोरता को
निरंतर पिघला रही वह
जीवित और जीवनदायी
जल में बदलती हुई।
००


अवधेश वाजपेई

पृथ्वी पर लेटना

एक


पृथ्वी पर लेटना
पृथ्वी को भेंटना भी है

ठीक वैसे जैसे
थकी हुई हो देह
पीड़ा से पस्त हो रीढ़ की हड्डी
सुस्ताने की राहत में
गैंती बेलचे के आसपास ही कहीं
उन्हीं की तरह
निढाल लेट जाना
धरती पर पीठ के बल

पूरी मौज में डूबना हो
तो पृथ्वी का ही कोई हिस्सा
बना लेना तकिया -
जैसे पत्थर
मुंदी आंखों पर और माथे पर
तीखी धूप के खिलाफ
धर लेना बांहें
समेट लेना सारी चेतना
सिकुड़ी टांग के खड़े त्रिभुज पर
ठाठ से टिकी दूसरी टांग
आदिम अनाम लय में हिलता
धूल धूसरित पैर
नहीं समझ सकता कोई योगाचार्य
राहत सुकून के इस आसन को

मत छेड़ो उसे ऐसे में
धरती के लाडले बेटे का
मां से सीधा संवाद है यह
मां पृथ्वी दुलरा बतिया रही है
सेंकती सहलाती उसकी
पीराती पीठ
बिछावन दुभाषिया है यहां
मत बात करो
आलीशान गद्दों वाली चारपाई की
देह और धरती के बीच
अड़ी रहती है वह दूरियां ताने
वंचित होता / चूक जाता
स्नेहिल स्पर्श
खालिस दुलार
कि तमाम खालिस चीजों के बीच
सुविधा एक बाधा है

खास कर इस तरह
पृथ्वी पर लेटना
पृथ्वी को भेंटना भी है
जिंदा देह के साथ
जिंदा पृथ्वी पर लेटना।
००

दो

सुख का क्या है
एक छोटे से स्पर्श में भी
मिल जाता है कभी
अपने असीम की झलक देता हुआ

जैसे पा रहा अनायास वह
अपने ही विलास में कहीं
समुद्र किनारे धूप स्नान की मुद्रा में
औंधे मुंह निढाल लेटा रेत पर
छाती को गहरे सटाता पृथ्वी से
आंखें मूंदे
और-और फैलाता बांहें
पूरी पृथ्वी को
अपनी सटाई देह और
फैलाई बांहों में
भरने समाने के
लुत्फ में डूबा

पाना हो तो पा लें
यूं भी कभी
स्पर्श का सुख ही सही
पृथ्वी से
थोड़ा ऊपर जीने वाले।
००

तीन

मिट्टी में मिलाने
धूल चटाने जैसी उक्तियां
विजेताओं के दंभ से निकली
पृथ्वी की अवमानना है
इसी दंभ ने रची है दरअसल
यह व्याख्या और व्यवस्था
जीत और हार की

विजेता का दंभ है यह
सिमैंट कंकरीट में मढ़ दी गई
तमाम मिट्टी
घुसपैठ करती धूल के लिए
वैक्यूम क्लीनर जैसे
शिकारी हथियार

कौन समझाए इन्हें कि सिर्फ
हारने वाला ही नहीं
मिलता है मिट्टी में
यह भी कि धूल चाटने वाला ही
जानता है असल में
मिट्टी की महक
धरती का स्वाद

कण कण में घुले मिले
कितने कितने इतिहास
मिट्टी से बेहतर कौन जानता है
कि कौन हो सका है मिट्टी का विजेता
रौंदने वाला तो बिल्कुल नहीं
जीतने के लिए
गर्भ में उतरना पड़ता है पृथ्वी के
गैंती की नोक, हल की फाल
या जल की बूंद की मानिंद
छेड़ना पड़ता है
पृथ्वी की रगों में जीवन राग
कि यहां जीतना और जोतना पर्यायवाची हैं
कि जीतने की शर्त
रौंदना नहीं रोपना है
अनन्त अनन्त संभावनाओं की
अनन्य उर्वरता
बनाए और बचाए रखना।

(चार)
पृथ्वी पर लेटना सचमुच
पृथ्वी को भेंटना ही है
कौन समझाए विजेताओं
बुद्धिमानों को
कि लेटना न सही
वे सीख लें कम से कम
पृथ्वी पर लौटना
वह तो दूर की बात है
जानता है जो एक मनमौजी बच्चा
असीम सुख का असीम स्वाद
कि क्या है -
पृथ्वी पर लोटना!
००

अवधेश वाजपेई

पत्थर चिनाई करने वाले

बहुत लोग
मानते ही नहीं उसे कारीगर
मजदूर और कारीगर के
लगभग बीच की स्थिति है वह
लगभग उतनी ही हैसीयत
उतनी ही पहचान

मारतोड़ कहलाने वाला
एक सरल सा हथौड़ा
मात्र उसका औज़ार
या ज्यादा से ज्यादा
एक सूत एक साहल एक गुणिया भर
मारतोड़ से कोने कगोरे तोड़ता
पूरी तन्मयता से
पत्थर चिनाई कर रहा है वह

चिड़िया के घोंसला बनाने
मधुमक्खी या तितैया के
छत्ता बनाने जैसी
आदिम कला है यह
सदियों से संचित
बरसों से सधी हुई
पहुंच रही एक एक पत्थर के पास

ईंट नहीं है यह
सुविधाजनक सांचों में ढलकर निकली
सीधे समतल सूतवां जिस्म की तराश लिए
पृथ्वी का सबसे सख्त हिस्सा है
आकार की सबसे अनिश्चित बनावट
बिल्कुल अनगढ़ खबड़ीला बेढंगा जिस्म
याद है उसे गुरू के शब्द -
गारा या सिमैंट मसाला
बैसाखियां हैं
कला की मिलावट
असल तो वह है
बिना मसाले की सूखी चिनाई
कि डिबिया की तरह
बैठने चाहिए पत्थर
खुद बोलता है पत्थर
कहां है उसकी जगह
बस सुननी पड़ती है उसकी आवाज़
खूब समझता है वह
पत्थर की जुबान
पत्थर की भाषा में बतिया रहा है
सुन रहा गुन रहा बुन रहा
एक एक पत्थर

बेतरतीब बिखरे पत्थरों में
दौड़ती पारखी नज़र
टिकती है लगभग उपयुक्त विकल्प पर
हाथ तौलते विकल्पों को
उंगलियां पोर पोर टोहतीं उतार चढ़ाव
‘लगभग’ को ‘बिल्कुल यही’ में बदलते
देखते ही देखते
ऐसा बैठ जाता पत्थर
जैसे यहीं के लिए बना था वह

पत्थर की रग रग से वाकिफ है
किस रंग का कैसा है वह
कमजोर है या मजबूत
कौन आगे लगेगा कौन पीछे
कहां कितनी चोट से टूटेगा
किस आकार में कितना कोना

मिट्टी से सने हैं पत्थर
मिट्टी से सने हैं उसके हाथ
और बीड़ी और जर्दे की गंध से सने
और पसीने की गंध से सने
पृथ्वी की आत्मा
और उसकी देह गंध से सने
और पृथ्वी पर फूलते फलते
जीवन की गंध से सने हैं उसके हाथ
जड़ता में सराबोर भरता जीवन की गंध
पत्थर चिनाई कर रहा है वह

पत्थर चुनता है वह
पत्थर बुनता है
पत्थर गोड़ता है / तोड़ता है पत्थर
पत्थर कमाता है पत्थर खाता है
पत्थर की तरह रूलता पड़ता
धूल मिट्टी से नहाता है
पत्थर के हैं उसके हाथ
पत्थर का जिस्म
बस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थर
पत्थरों के बीच रोता है वह
पत्थरों के बीच गुनगुनाता
एक एक पत्थर को सौंपता अपनी रूह

पत्थर पर पत्थर पर पत्थर
धर देने जैसा
सरल नहीं है यह काम
चीजों की बनावट
कहां होती है सरल उतनी
दिखती है जितनी
जितनी मान लेते उसे हम
बेहद महीन बुनावट है यह
पत्थर के चौफेर वजूद
बेढंगेपन को नापकर
बनानी होती है जगह
धरना उसे जमाना होता है इस तरह
कि टुकड़े टुकड़े बिखरी कठोरता को जोड़ कर
बुननी होती है मजबूती

बेकार कहलाने वाले
कहीं रास्ते की बाधा तक बनते
पृथ्वी के टूटे अंग को जोड़ता
फिर बनाता उसे पृथ्वी की ज़िंदा देह
बेकार हो चुके के भीतर खोजता रचता
उसके होने के सबसे बड़े अर्थ
बेकार हो चुके के भीतर खोजता रचता
पृथ्वी के प्राण
पत्थर चिनाई कर रहा है वह

पृथ्वी को चिनने की कला है यह
टूटी बिखरी पृथ्वी को
जोड़ने सहेजने की कला
रचने, जोड़ने, जिलाने का
सौंदर्य और सुख !

दो

तीखी ढलान की
जानलेवा साज़िशों के खिलाफ
एक मजबूत निर्माण का नाम है डंगा
ढहने के खिलाफ
डटे रहने का जीवट

दुनिया की तमाम खाइयों के विपरीत
मजबूती से डटे हुए हैं डंगे
सधी हुई रूहों के साथ
डटे हुए हैं पत्थर जिस्म
पूरी मुस्तैदी के साथ
अपनी देहों पर उठाए हुए
सभ्यता विकास के तमाम रास्ते।
००

अवधेश वाजपेई
रंग पुताई करने वाले

रंगों से है उनका
और उनके जीवन का वास्ता
कुछ-कुछ हो सकता है
पर ठीक वैसा नहीं
रहा जैसा पिकासो का
गुरु देव रवीन्द्र या एमएफ हुसैन का
हालांकि रंग इन्हें भी खींचते हैं
लुभाते हैं वैसे ही
कमोवेश मिल सकती हैं
उनसे इनकी रूचियां
प्राथमिकताएं तो लगभग नहीं ही

अपनी प्राथमिकताओं में बंधे
सुबह के जाड़े के खिलाफ मुस्तैद
गलबंद कसी कनपटियां ताने
जर्दा तंबाकू मलते फटकते
चल पड़े हैं वे काम पर

ये किशन रहता है दड़बेनुमा खोली में
करीम कच्चे मटकांधों में
ये रामधन तबेलेनुमा भाड़े की कोठरी में
पर बड़े-बड़े लोगों के पास
महफूज हैं इनके नाम पते
कि रंग पुताई के माहिर कारीगर हैं वे
बड़े-बड़े आलीशान घरों को
तितलियों-फूलों की मानिंद
रंगते सजाते हैं वे महंगे रंगों से
ये बात अलग
कि उनके घरों में
लगता रहा है चूना ही

सुबह से शाम तक
रंगों से खेलते रहते हैं वे
अपने पूरे कला कौशल के साथ
पर कोई नहीं मानता इन्हें कलाकार
वे जीते हैं पुश्त दर पुश्त/अनाम
हालांकि कम नहीं है इनकी भी रंगों की समझ
क्या कितना मिलाकर बनता कैसा रंग
किशन कहता है- साहब
आसान नहीं है मथना सहेजना ये सफेद
जरा नहीं मानता लाग लपेट
ब्रश तक चाहिए सुथरा और बर्तन भी
कहता करीम- ब्रश धोने पर
कैसा गंदला बच रहता बाल्टी में
ठीक-ठीक काला भी नहीं- बदरंग
जैसे तमाम रंगों की हो कोई साजिश
हाथों से तो छूटता ही नहीं कमबख्त
यही आता उसके हिस्से में अधिकतर
हाथों में नाखून कोनों में जमता हुआ
गहरा उतरता हुआ फटी बिवाईयों में
चीकट कपड़ों पर अधिकतर यही
या और भी कैसे-कैसे बेतरतीब रंगों के छींटे

कितना सधा है उनका हाथ
दो रंगों को मिलाती लतर
मजाल है जरा भी भटके सूत से
कैसे भी छिंट जाए उनका जिस्म, उनके कपड़े
सुथरी दीवार पर मगर
कहीं नहीं पड़ता कोई छींटा

कितने महंगे कितने बढ़िया
बनाए गए रंग ये ब्रश
पता नहीं निर्माताओं को
किसी किशन, करीम या रामधन के
हाथों में ही जीवित हो उठते ब्रश
और लकदक हो उठते रंग

करते हंसी ठठा, बतियाते
दूर देहात का कोई लोक गीत गुनगुनाते
रंग पुताई कर रहे हैं वे
कहां समझ सकता है कोई
खाया-अघाया कला समीक्षक
उनके रंगों का मर्म
कि छत की कठिन उल्टान में
शामिल है उनकी पिराती पीठ का रंग
कि दुर्गम ऊंचाईयों के कोनो कगोरों में
पुते हुए हैं उनकी छिपकली या
बंदर मुद्राओं के जोखिम भरे रंग
देखना चाहो तो देख सकते हो
चटकीले रंगों में फूटती ये चमक
एशियन पेंट के किसी महंगे फार्मूले की नहीं
इनके माथे के पसीने पर पड़ती
दोपहर की धूप की है

दरअसल महंगी कला दीर्घाओं की
चारदिवारी तक महदूद नहीं
हमारी रोजमर्रा की दृश्यावलियों को
खूबसूरत बनाया है इनके रंगों ने

इन हाथों के पास हैं
तमाम सीलन को पोंछने हरने का हुनर
खराब मौसम और खराब स्थितियों की
खामोश साजिश है सीलन
मौन पकता कोई अवसाद
बदरंग छाईयों या चकत्तों में कहीं प्रकट होता
हवाओं में घुलता

दरअसल यह दीवार की नहीं
पृथ्वी की सीलन है
इन हुनरमंद हाथों से पुंछती
मरहम लगवाती हुई।  
००

बिजूका के लिए रचनाएं भेजिए: bizooka2009@gmail.com
सत्यनारायण पटेल

2 टिप्‍पणियां:

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  2. भाई आत्मा रंजन को बहुत बहुत बधाई इन सुंदर कविताओं के लिए. शुक्रिया सत्या भाई

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