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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

10 नवंबर, 2017

अनुपमा तिवाड़ी की कविताएं
अनुपमा तिवाड़ी

कविताएं


पागलों के लिए कोई जगह नहीं


पागलों का कोई,
घर नहीं होता
पागलों का कोई,
गाँव नहीं होता
पागलों का कोई,
देश नहीं होता
कोई हक़ नहीं जमाता पागलों पर
फिर भी पागल अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाते हैं
किसी न किसी गाँव में / शहर में / देश में.
पागल गाँव में होते हैं तो बच्चे,
उन्हें पत्थर मारने का मज़ा लेते हैं
घरों / दुकानों के सामने से वे दुत्कार दिए जाते हैं
पर, शहर बड़े सभ्य होते हैं
यहाँ के न पुरुष, न महिलाएं और न बच्चे उन्हें तंग करते हैं
यहाँ कोई पत्थर नहीं मारता उन्हें
कोई देखता तक नहीं उन्हें
वो मुट्ठी भर – भर गालियां फेंकें,
दिन भर बड़ - बड़ करते फिरें,
तब भी कोई नहीं देखता उन्हें
सब, आंखें चुराते हुए जल्दी से गुज़र जाना पसंद करते हैं,
इनके पास से
कौन मुंह लगे इनके ?
शहरों में पागल पुरुष तो किसी भी काम के नहीं होते
अलबत्ता औरतें, दिन में कितनी ही बदसूरत या पगली कहलाएं
पर, रात के अंधेरों में वहशी आँखों द्वारा मौका पाते ही खींच ली जाती हैं
और फिर भरी जून में कम्बल में लिपटी,
बड़े – बड़े, ऊबड़ – खाबड़ सख्त जूते पहने
लूले हाथ की गूंगी पगली औरत,
दिखती है मुझे, पूरे नौ महीने से.
 ००
अवधेश वाजपेई

 नहीं चाहिए शब्द


मुझे नहीं सुनने अब शब्द
मैं देखना चाहती हूँ
उन शब्दों को,    
जो सुनाई नहीं, दिखाई देते हैं.
सिर्फ सुनाई देने वाले शब्द बड़े अखरते हैं मुझे.
कई बार लगता है, क्यों बने हैं ऐसे शब्द ?
जो दिखाई नहीं देते
सिर्फ सुनाई देते हैं
बताओ, क्या करूँ ऐसे शब्दों का ?
चलो शब्दों, तुम बोलो अब
मैं चुप हो जाती हूँ
यूँ, कई मर्तबा मुझे चुप रहना ही अच्छा लगता है.
मैं ये जानती ही नहीं,
गहरे अंधेरों में भी पहचानती भी हूँ कि
इन दिनों शब्दों का बाज़ार गर्म है
गर्म शब्द, तुरंत बिक जाते हैं
बड़ी – बड़ी दुकानों पर ही नहीं,
छोटी – छोटी थडियों पर भी.
मुझे ये शब्दों के बड़े – बड़े गुब्बारे
रात – दिन खूब दिखाई देते हैं
तुम्हें नहीं देते क्या ?
गुब्बारों में क्या होता है, सिर्फ हवा
जिसे निकालने लिए एक पिन काफी होती है
पर आज के दौर में ये गुब्बारे फुलाने का हुनर भी कोई कम बात है ?
तुममें ये गुब्बारे फुला सकने की कला नहीं है तो कोई क्या करे ?
तुमने देखा है कई बार ये शब्द
छोटी – छोटी चौकियों पर चढ़ टेंगा दिखाते हैं हमें
गलबहियां डालते हैं जाने किस – किसके
पान खिलाते हैं जाने किस – किस को
सभाओं में सत्ता के कन्धों पर चढ़ इठलाते दिखते हैं ये
कितनी ही पगार हर दिन चबाते हैं ये
सत्ता के जूतों को सूंघ, कितनी ही बार
पदोन्नति के बिल्लों की तरफ इशारा करते हैं ये
शब्दों ! बहुत हो गया अब,
चुप हो जाओ
बहुत बोल लिए अब तक
कान पक गए हैं हमारे
हो सके तो अब सारी ताकत संजोओ
और ऐसे बनो कि तुम सुने नहीं, देखे जा सको  !
००



  वेश्या दो


अपने कलेजे के टुकड़े को नाले और झाड़ियों में फेंक देने वाली कलमुंही.
हर दो महीने में कोई न कोई अखबार कह देता है
"फिर एक पत्थर दिल माँ ने, मासूम को नाले में फेंका"
लेकिन कलमुहीं
वो कलमुंहा कहाँ है ?
अड्डे पर बैठी रंडी / वेश्या,
तेरे अड्डे पर आने वाला
वो रंडा / वेश्य कहाँ है ?
अपनी पलकों पर प्रेम के सपने सजाने वाली बदचलन
वो बदचलना कहाँ हैं ?
ये तीनों तुम्हें कहीं नहीं मिलेंगे
ये कहीं होते ही नहीं !
स्त्रियों देखो, तुम सब जगह होती हो
 तुम मंदिर में देवी हो
हराम की औलाद गर्भ में ले कर घूमने वाली चरित्रहीन हो
प्रेम करने वाली बदचलन हो
घर पर पैर की जूती हो
बस घर में एक औरत और बाहर एक स्त्री नहीं हो.
तुम्हें इन जगहों पर बिठाने वाला
पुरुष है,
पौरुष है,
पुरुषार्थ है
बस,
आदमी नहीं है.
आदमी होता तो वह,
यह नहीं कर पाता.
इसलिए ही तो पुरुष होना आसान है
आदमी होना बहुत कठिन है.
हम औरतें देखती हैं
एक पुरुषविहीन दुनिया का सपना,
अभी तो फिलहाल मिलते हैं,
लाख में कोई सौ आदमी !
००
अवधेश वाजपेई


कबीरे


कबीर,
तुमने सूत नहीं काता
तुमने ज़माना काता.
तुम जब भी बाज़ार गए तो
दुकानदारों ने दिखाई तुम्हें
सुन्दर बुनी महीन, गुदगुदी, रंगबिरंगी चदरिया
पर, तुम उन दुकानदारों से ही सवाल करने लगे
पहले ये तो बताओ कि ये चदरिया
किसने बुनी ?
कब बुनी ?
क्यों बुनी ?
किसके लिए बुनी ?
और कौन ओढेगा इसे ?
दुकानदार, तमाशबीन, खुदा के बन्दे, भक्त और सभ्य ज़रा यूँ तुनके -
तुम अपनी खड्डी संभालो,
सूत बुनो,
गृहस्थी देखो,
बच्चे पालो.
क्या मतलब तुम्हें इस सबसे ?
पर तुम समझते नहीं हो !
और फिर हर युग में आ - आ कर वही सवाल करने लगते हो
करो सवाल,
तुम्हें हर युग में वही जवाब मिलेगा
तुम अपनी खड्डी संभालो ,
सूत बुनो,
गृहस्थी देखो,
बच्चे पालो.
कबीर,
तनिक सभ्य बन जाओ,
ज्यादा सवाल करना ठीक नहीं !
इतने युगों से तुम्हें समझा रहे हैं ये
और तुम हो कि समझने को तैयार ही नहीं !
कोई नहीं,
हम जानते हैं
तुम्हारी फितरत
कि तुम फटे में पैर फंसाने से बाज नहीं आते हो
ओ फक्कड़े,
बेढ़बे कबीर,
तुम्हारे सवाल कितने धारदार होते हैं कि चीर देते हैं
आदमी को अन्दर तक
उनकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ती
वो चमकते रहते हैं
हर युग में
अंगारे से !
००


आदमी एक


आदमी बंटा है
हिन्दू - मुसलमान में
हिन्दू बंटा है
सवर्ण - दलितों में
सवर्ण बंटा है
ब्राह्मण - वैश्य में
ब्राह्मण बंटा है
आदि गौड़ - गुर्जर गौड़ में
आदि गौड़ बंटा है
राजस्थानी - गढ़वाली में
ये सभी ऊपर से आदमी
और अन्दर कितना टुकड़ा - टुकड़ा
इतना टुकड़ा कि आदमी ही ख़त्म हो गया है
रह गया है
बस टुकड़ा !
००

Kyr Thoykl

 आदमी दो

वह देख रहा था
आदमी को,
सही जगह पर पूँछ हिलाते हुए,
और मन ही मन
हीनभावना का शिकार हो रहा था.
काश ! उसके भी पूँछ होती
तो उसके भी शरीर का संतुलन बन गया होता.
यूँ तो पूँछ का बीज
उसके नर्म मिट्टी से बने शरीर में था या नहीं,
उसे खबर नहीं.
लेकिन उसे इतना पता है कि
मौसम की शुरूआती गर्म हवाओं ने कुछ ऐसा रंग दिखाया
कि उसके शरीर में पूँछ का बीज होता तो
इन हवाओं के चलते कहाँ अंकुआ पाता ?
साइंस कहता है
पूँछ,
शरीर का संतुलन बनाने के काम आती है
उसे अब समझ में आ रहा है
कि उसका शरीर इतना लड़खड़ाता क्यों है ?
००


जूते एक

मुझे मेरे नाप के जूते नहीं मिलते
और तुम,
अपने बनाए जूते बदलने को तैयार नहीं
बताओ,
तुम मेरे नाप के जूते बना सकते हो
या
मैं अपने पैर कटवाऊँ ?
 ००


जूते दो

बहुत समय से ढूंढ रही हैं
मेरी आंखें,
अच्छे जूतों की दुकान
लेकिन कहीं चमड़ा ठीक नहीं
कहीं केनवास ठीक नहीं
तो कहीं उनकी बनावट ठीक नहीं
मुझे कोई दुकान नहीं दिखी
जिसमें मेरे पैरों के नाप और मन के मुताबिक जूते मिलें
पर, नंगे पैर कैसे रहूँ ?
कभी – कभी तो यूँ ही खीजती रहती हूँ अपने पैरों पर
कि ये इतने एड्ड – बड्ड क्यों हैं ?
जो किसी जूते में फिट नहीं होते.
 ००
अवधेश वाजपेई

जूते तीन

माना कि पैर पहले आए
और
जूते बाद में
लेकिन, अब जूते पैरों से पहले बाज़ार में आ जाते हैं
तो कई बार जूते फिट
और
पैर अनफिट हो जाते हैं.
००


जूते चार

 बहुत से लोगों के पैरों में,
चमकीले जूते देख
मैं भी पहुँच गई एक दिन,
भरे बाज़ार की बड़ी – बड़ी दुकानों पर
वैसे ही चमकीले जूते खरीदने
पर उन्हें छू कर देखा तो पाया कि वो जूते,
हड्डी, मांस, खून और मन से नहीं बने थे
उनकी तो बस त्वचा ही चमकीली थी
उस दिन के बाद मैं कभी नहीं गई ऐसी दुकानों पर
क्योंकि
खाली चमकीले जूते,
मेरा कितने दिन साथ देते  ?

००




परिचय  
नाम – अनुपमा तिवाड़ी                                                                                                          
जन्मतिथि – 30 जुलाई    1966                                                                                                                                  
जन्मस्थान – बांदीकुई ( दौसा ) राजस्थान.
माता – पिता – मायारानी तिवाड़ी एवं विजय कुमार तिवाड़ी
शिक्षा – हिंदी और समाजशास्त्र में एम. ए तथा पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातक।
कार्यानुभव – 1989 से शिक्षा जगत में बच्चों और राजकीय शिक्षकों के साथ अकादमिक संबलन के कार्य से जुड़ी रही हूँ साथ ही बाल अपचारी गृह के बच्चों, घर से निकले रेलवे प्लेटफॉर्म पर रहने वाले बच्चों, देह व्यापार में लिप्त परिवारों व शौचालयों में काम करने वाले परिवारों के बच्चों, तथा कामकाजी बच्चों के साथ उनकी शिक्षा व वंचितता पर काम करती रही हूँ वर्तमान में वर्ष 2011 से अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन राजस्थान में हिंदी विषय की सन्दर्भ व्यक्ति के रूप में कार्यरत हूँ.
संलग्न – लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में।
रचनाकर्म – 1997 से लेखन की शुरूआत की. लिखने की प्रेरणा मुझे मुझे आस – पास के लोगों, सामाजिक मुद्दों और स्वयं के जीवन से मिली. लेखन की शुरुआत से अब तक लगभग देश भर की 30 से अधिक पत्र – पत्रिकाओं में कहानियाँ, लघुकथाएं, कविताएँ और लेख प्रकाशित हुए हैं। जिनमें नया ज्ञानोदय, निकट, पुरवाई, लमही, अहा जिंदगी, परिकथा, जनसत्ता, डेली न्यूज़, एक और अंतरीप, आधी आबादी की यात्रा, अहा ज़िंदगी, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, लोकमत, निकट, कादंबिनी, विमर्श, अनौपचारिका, खोजो और जानें आदि प्रमुख हैं तथा ई – मैगजीन्स / ब्लॉग्स में स्त्रीकाल, टीचर्स ऑफ इंडिया, प्रतिलिपि, स्टोरीमिरर, शब्दांकन, हिन्दीनेस्ट, ई – कल्पना, फर्गुदिया और अपनी माटी मुख्य हैं।
एक कविता संग्रह ‘आईना भीगता है’ 2011 में बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित।
दूसरे कविता संग्रह की प्रतीक्षा है।
पिछले कुछ वर्षों से विभिन्न मंचों पर कविता पठन, आकाशवाणी,  दूरदर्शन पर शिरकत करती रही हूँ ।
पता – ए - 108, रामनगरिया जे डी ए स्कीम,
एस के आई टी कॉलेज के पास, जगतपुरा, जयपुर 302017
फोन : 7742191212, 9413337759 Mail – anupamatiwari91@gmail.com


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