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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 सितंबर, 2018

परख सत्रह:

उस रात सूरज नहीं छिपा !
गणेश गनी





गणेश गनी

उस दिन बहुत अजीब घटना घटी। सूरज दिन भर चलते चलते पहाड़ की चोटी पर पहुंचा और फिर  अपनी उंगलियों के सहारे पहाड़ की चोटी से लटके हुए पहाड़ के पीछे से इस ओर झांकता रहा सारी रात। जेठ और अषाढ़ की रातों में हम अक्सर छत पर सोते थे। उन दिनों मिट्टी का तेल बहुत मुश्किल से मिलता था। इसलिए ढिबरी को जल्दी बुझाकर सोने में ही भलाई समझी जाती थी। अधिकतर घरों में रात के वक्त उजाला बनाए रखने के लिए लोहे की एक तिपाई घर के ठीक बीचों बीच रखी जाती जहां एक लकड़ी का बड़ा मजबूत स्तम्भ होता है और उससे टेक लगाए घर का सबसे बड़ा व्यक्ति बैठता और इस तिपाई पर चील के पेड़ की बिरोज़े वाली लकड़ी के छोटे छोटे टुकड़े अनवरत जलाए रखता। जब आग थोड़ी धीमी पड़ जाती , तो एक और टुकड़ा तिपाई पर आग में डाल दिया जाता। यूं रोशनी बनाई रखी जाती और भोजन तथा अन्य कार्य जैसे ऊन कातना, अखरोट तोड़ना आदि इसी झिलमिल आग की रोशनी में होता। चुहले में आग  बुझने के बाद भी राख में अंगारे दबाकर रखे जाते थे ताकि भोर होते ही उन्हीं अंगारों से आग सुलगाई जा सके।
मैं अचंभित रह गया जब चौथे पहर मेरी नींद खुली और मैंने देखा कि पहाड़ से आती रोशनी की तेज चमकदार सुनहरी किरणों के एक पुंज ने केवल हमारी मिट्टी वाली छत को जगमग किया हुआ है। चारों ओर अंधकार है। पहाड़ के पीछे से झांकती सूरज की दो आंखें मुझे पहाड़ के उस तरफ बुला रही हैं। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता, सूरज ने धीरे धीरे अपनी उंगलियों की पकड़ को ढीला छोड़ा और पलक झपकते ही गायब। अब यह समय था भोर का। मां घर के अंदर से ऊपर छत पर हम बच्चों को जगाने आ रही थी। उस दिन माँ ने कई बार मुझसे नजरें चुराईं। जैसे वो अपना दर्द और उदासी छुपाना चाह रही हो। मैं रात की घटना पर बात करना ही चाह रहा था कि मां बोल पड़ी - 'तू भी अब शहर जाएगा मेरा बेटा पढ़ाई के लिए। शहर बहुत दूर है, पर दो दिन पैदल यात्रा के बाद तीसरे दिन बस द्वारा शहर पहुंच जाते हैं। साल में एक बार गर्मियों की लंबी छुट्टियों में गांव आना हर साल माँ से मिलने।'
फिर वो दिन भी आया जब मुझे शहर भेजा गया। सुना था कि उस दिन सूरज ही नहीं निकला। शहर और गांव के बीच की इन यात्राओं के बीच एक दिन माँ सदा के लिए मुझे छोड़ कर चली गई।
एक दिन मां सपने में आई तो मेरे पूछने से पहले ही कहने लगी - 'उस दिन सूरज ने मेरी अनुपस्थिति में तुम्हें धोखे से शहर बुलाया पर सूरज जानता था कि उस बात का मुझे पता चल चुका था। जब तुम पहली बार शहर के लिए रवाना हुए तो मेरी उदासी और तड़प का सामना सूरज नहीं कर सका और उस दिन पहाड़ से इस ओर निकला ही नहीं कमबख्त। वरना बहुत डांटती उसे।'
आज जब भी सूरज निकलता है, कुछ सहमा हुआ अंदर आता है और हर बार मुझे दुलारता है। सूरज की किरणें मुझे जगाती हैं -

रोज़ खिड़की से अंदर आती हैं
जाली से छनकर...शीशे को चीर
मुझे जगा जाती हैं
और मां की तरह चूमकर मुझे जगाती हैं।

बालकथाकर पवन चौहान कवि ह्रदय हैं। पवन चौहान की कविताएं पढ़ते हुए एक सादगी और भोलेपन की अनुभूति होती है। कवि कहता है -

किनारे पर बैठा कवि देखता है सब
लहरों के उन्माद... चट्टान की सहनशीलता
समुद्र से टकराने का हौंसला
उसकी दृढ़ता , आत्मविश्वास
वह भी होना चाहता है चट्टान
किनारे वाली चट्टान।

किनारे की चट्टान पर बैठना सुखद अनुभूति है। यह अनुभूति और भी सुखद हो जाती है जब चट्टान चनाब किनारे वाली हो। सुन्दर, सरल और अपने शब्दों में बनावटीपन के बिना जीवन के यथार्थ को कागज़ के पन्नों पर सहज और साधारण शिल्प में उतरी बेहद खूबसूरत कविताएँ हैं पवन की, इन्हें पढ़ते हुए छोड़ने का मन नहीँ करता-

खांसते पिता सम्बल हैं हमारे लिए
और हमारी चेतना का सैलाब
उनका खाँसना देता रहता है हमें
सुरक्षा का आभास।



पवन चौहान

यह भी क्या कमाल की बात है कि जब हम उदास होते हैं, तो हमारे बुज़ुर्ग भांप लेते हैं, भले ही हम उनसे बात न करें पर वो अपनी उपस्थिति का एहसास हमें दूर से ही खांसकर करवा देते हैं और यह भी कि चिंता न करो तुम सुरक्षित रहोगे। कवि तो समय से भी शिकायत कर सकता है-

वह आया
और चला भी गया
मैंने उससे कहा भी
दो घड़ी मेरा इंतज़ार तो कर।

कहते हैं कि अत्याधिक प्रेम भी विरह और पीड़ा का कारण बनता है। रिश्तों को सम्भालना और देखभाल करना आसान नहीं होता। टूटते रिश्ते भारी पीड़ा देते हैं और यह पीड़ा तब और भी बढ़ जाती है जब पास होते हुए भी रिश्ते बेहद उलझे होते हैं-

जाने क्यों बढ़ जाती हैं दूरियां
पास रहकर भी
रिश्तों की डोर उलझ जाती है
अपने ही तानेबाने में।

पवन चौहान यह भी कहते हैं कि दोस्तों की मुस्कान के लिए वो चलते रहे उन्हीं के इशारों पर ताकि दोस्तो को खुशी मिले। कवि जागरूक भी रहता है कि उसके साथ क्या हो रहा है-

मुझे आजमाया गया हर वक़्त
चाबी भर दी गई
चलता ही रहा मैं
सबकी मुस्कान के लिए।
०००

परख सोलह नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/09/blog-post_89.html?m=1

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