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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 सितंबर, 2018

निर्बंध: सात

किसी का नाम हम  कैसे भूल जाते हैं ?
यादवेन्द्र


आस पास के लोगों और अन्य संगी साथियों के नाम याद रखना अब हमारी प्राथमिकता में नहीं रहा....सबसे बड़ी विस्मृति चिड़ियों और फूल पत्तियों की हुई है - उनका दिखना तो कम हुआ ही है दिखने पर नाम से पहचानना गहरे संकट में है।यदि हमें इनका पता होता भी है तो देसी नाम से नहीं,विदेशी  नाम से।फेसबुक पर हमारी मित्र अपर्णा अनेकवर्णा हैं जिन्होंने कुछ साल अंग्रेजी में पत्रकारिता की है - दिल्ली के पॉश इलाके में रहती हैं पर बचपन का पटना और गोरखपुर उनकी स्मृतियों में आज भी वैसा ही जिन्दा है .... सबसे बड़ी बात  यह है कि आप किसी फूल , पौधे या चिड़िया की तस्वीर फेसबुक पर लगायें और कुछ मिनटों के अंदर वे उसका बिलकुल देसी नाम लेकर आपकी वॉल पर हाजिर हो जायेंगी। मुझे उनके दिमाग में बैठी हुई सक्रिय सजीव डिक्शनरी से कई बार ईर्ष्या होती है। 


यादवेन्द्र


रुड़की से पटना आकर चिड़ियाघर में सुबह सुबह सैर करने का एक लाभ यह हुआ कि कुछ वृक्षों के देसी नाम पढ़ने को मिले....रोज रोज नजरों के सामने पड़ने पर लगता है गिनती पहाड़े की तरह कोई रटवा रहा है।ऐसा ही एक वृक्ष "आकाशनीम" का है जिसकी पत्तियाँ नीम जैसी हैं पर लंबी छरहरी देह के काफी ऊपर जाकर पत्तियाँ छितराती हैं .... शायद इसी कारण इस नीम के साथ आकाश विशेषण जुड़ गया।
यह नाम पढ़ कर मुझे अनायास याद आया - छोटी बिटिया (1988 में जन्म) के पहली बार चलने पर मैंने एक कविता लिखी थी जिसमें मैंने आकाश को एक रूपक की तरह इस्तेमाल किया था ( स्मृति से लिख रहा हूँ) - 
वह आज चली पहली बार 
वह आज गिरी पहली बार 
उसने मुझे पकड़ा भर कर
तारे तोड़ लाऊँगा तुम्हारे लिए 
मैं आकाश तक हो गया बढ़ कर ..... 

घर आकर और पड़ताल की तो मालूम हुआ यह अपनी प्रखर खुशबू के लिए विख्यात है और इसकी पत्तियों में औषधीय गुण होते हैं...लकड़ी का फर्नीचर बनाने में और तने के अंदर का मुलायम भाग शीशियों के कॉर्क के लिए उपयोग में लाया जाता है।इसीलिए आम बोलचाल में इसे इंडियन कॉर्क ट्री कहते हैं।कुछ मित्रों से मैंने पूछा तो वे इसका हिंदी या देसी नाम नहीं बता पाए...मुझे तो चिड़ियाघर वालों ने बता दिया तो सब पर रोब झाड़ने का मौका मिल गया....इसी सिलसिले में मुझे सीएसआईआर (मुझे गर्व है कि मैंने 38वर्ष इस महान संस्था में काम किया) के दुर्लभ प्रकाशन 'भारत की सम्पदा' (कई खंडों में) का स्मरण हो आया जिसको किसी वनस्पति,खनिज या उत्पाद के बारे में  आवश्यक जानकारी इकट्ठा करने के लिए इंसाइक्लोपीडिया की तरह इस्तेमाल करते मेरा जीवन बीता है - आज गूगल पर तथ्य जुटाते हुए इस ग्रन्थमाला का वैसे ही कोई अता पता नहीं मिला जैसे सीएसआईआर ने अपनी विरासत से चुपके से किनारा कर लिया।
बहरहाल अकाशनीम में  फूलों के खिलने की बेसब्री से प्रतीक्षा है। 
नाम भूलने या नाम याद न रहने ... या नाम याद रखने की जरूरत न समझने पर मेरे प्रिय कवि राजेश जोशी ने सालों पहले उन्होंने  एक अनूठी कविता लिखी थी  -  "उस प्लंबर का नाम क्या है?" बड़े कटाक्ष भाव से कहा ( किसी और को नहीं अपने आप को कहा ) कि तानाशाहों ,खूँखार हत्यारों ,भ्रष्ट अफसरों ,नाकारा राजनीतिज्ञों ,तमाम बुरे लोगों के हम कितना कुछ विस्तार से  जानते हैं पर आड़े वक्त पर रात बिराट आकर काम संभालने वाले प्लंबर सरीखे हुनरमंद कारीगर का नाम तक नहीं जानते :
पाइप लाइन में आयी किसी गड़बड़ी को 
किसी तानाशाह ने कभी ठीक किया हो 
इसका ज़िक्र उसकी जीवनी में नहीं मिलता .... 
भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक और "नया ज्ञानोदय" के संपादक नहीं बल्कि आत्मीय कवि मित्र लीलाधर मंडलोई के साथ बात बार बार करना याद आ रहा है जिसमें सतपुड़ा के पक्षियों और वनस्पतियों की सघन व अनिवार्य उपस्थिति रहती  है ..... जब ज्यादातर लोग साधारण लोगों और साधारण वस्तुओं को विस्मृत करने में अपना बड़प्पन और शान समझते हों उस समय में उनका यह कहना कितना अविश्वसनीय  लगता है : "मैंने अनेक पक्षी स्मृति से खो दिए.... मैंने उन्हें देखा लेकिन नाम से नहीं जानता। यह अधूरापन मुझे चुभता है। "
अपनी एक प्रिय कविता आपसे साझा करना चाहता हूँ: 

भूली बिसरी भाषा
 शेल सिल्वरस्टीन 
( अमरीकी कवि )

कोई जमाना ऐसा भी था 
जब मैं बोल लेता था भाषा फूलों की
कोई जमाना ऐसा भी था 
जब मैं समझ लेता था लकड़ी में दुबक कर बैठे 
कीट का भी बोला एक-एक शब्द
कोई जमाना ऐसा भी था जब गौरयों की बतकही सुनकर
चुपकर मुस्करा लिया करता था मैं
और बिस्तर पर जहाँ तहाँ बैठी मक्खी से भी
दिल्लगी कर लिया करता था

एक बार ऐसा भी याद है जब
मैंने झींगुरों के एक एक सवाल के 
गिन गिन कर बकायदा जवाब दिये थे
और उनकी बतकही में  शामिल भी हो गया था।

कोई जमान ऐसा भी था
जब मैं बोल लिया करता था भाषा फूलों की।

पर ये सब बदलाव हो कैसे गया।
ऐसे सब कुछ यूँ लुप्त कैसे हो या ?
००


निर्बंध की पिछली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए

गाय के मरण नहीं जीवन की बात करिए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/08/blog-post_31.html?m=1

Y Pandey
Former Director (Actg )& Chief Scientist , CSIR-CBRI
Roorkee
   

यादवेन्द्र 
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की

पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,
जगदेव पथ, बेली रोड,
पटना - 800014 
मोबाइल - +91 9411100294 





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