image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 अगस्त, 2018


 संजीव जैन की कविताएँ


मैं और मेरा लिखना

मैं और मेरा लिखना इस तंग और खांचाबद्ध दुनिया के लिये नहीं है, वह तो इससे परे एक स्वतंत्र, मुक्त, आजाद मानवीय संदर्भ और परिप्रेक्ष्य के लिए है। लेखन मुझे इस 
तंग और खांचाबद्ध दुनिया से कुछ समय के लिए मुक्त कर देता है। मैं जब कविता या लेख में डूबा होता हूं उस वक्त तमाम सीमाओं से परे निजी और स्वतंत्र समय में होने का अहसास होता है। मुझे यह कहने में संकोच नहीं हो सकता कि यदि लेखन और पठन हमें मुक्ताकाश में चील की तरह हवा में तैरने के अनुभव के अलावा कुछ भी पाने की ओर ले जाता है तो वह लेखन एक 'माल’ या पण्य की तरह का उत्पाद है जो बाजार में बिकने के लिए तैयार किया गया है।





संजीव जैन 

कविताएं


नफ़रत अपनी पहचान से

वे जो
घूम रहे हैं
एकरंगी परचम उठाये
विश्वविद्यालयों में, सिनेमाघरों में,
दलित और अल्पसंख्यक बस्तियों में
बुद्धिजीवियों के खिलाफ
जहीन पत्रकारों और संस्कृति कर्मियों के खिलाफ
हत्यायें करते
हुड़दंग करते
मूर्तियां गिराते
झुग्गियों में, बस्तियों में आग लगाते
बलात्कार करते
या नारे लगाते उनके पक्ष में
ये डरे हुए लोग हैं
ये अपनी ही पहचान से करते हैं नफ़रत
इन्हें पता ही नहीं है
कि यदि वे अपने एक रंग के साथ
बचेंगे तो
यह उनकी  दुनिया कितनी
बेरंग दिखेगी
और ये खुद ही
भागने लगेंगे अपनी बनाई
इस बेरंग दुनिया से
और जो इनकी आदत पड़ गई है
हत्या करने की
फिर क्या करेंगे ये?
ये खुद अपने वजूद से करते हैं नफ़रत
ये अपनी ही अस्मिता की करते हैं
हत्या
एक विशिष्ट संस्कृति को जिसमें ये
पैदा हुए और जिसने
बनाया इन्हें इस लायक
ये उसी संस्कृति की ही करते हैं हत्या
ये दर असल शवकामी लोग हैं
श्मशानी संस्कृति की करते हैं चाहत
ये नहीं जानते की एक रंग
कभी अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सकता
काला बिना सफेद के
जिंदा रह ही नहीं सकता
और भगवा तो बिना लाल के
जैसे अस्तित्व हीन है
दुनिया का कोई भी अस्तित्व अपने
प्रतिद्वंद्वी के बिना
स्वयं अपना अस्तित्व
नहीं रख सकता कायम
तो ‘ये’ जो भी
लोग हैं
यह महत्वपूर्ण हैं
एक संघर्ष के लिए
बेहतर संसार के अस्तित्व के लिए
ये उन सुषुप्त शक्तियों को
जगा रहे हैं
जो दुनिया को बेहतर बनाने के लिए
लड़ेंगी और सफल होंगी
बढ़ती हुई बर्बरता
अमानुषिक गतिविधियां हीं तो
एक द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध को उभारेंगी
अपनी पूरी ताकत से
और इन चंद-तंग जेहनियत के झुंडों से
करने मुकाबला होंगी संगठित
बनेगी एक बिखरी ताकतें
कसेंगी मुट्ठी
और उठेंगी सुनामी की तरह
बिखेर दी जायेंगी
प्रतिगामी ताकतें तिनकों की तरह
हवा में……….
‘ये’ जो भी लोग हैं
ये अपने आत्म से कटे और विमोहित लोग हैं
अंदर की वास्तविक जीवन की प्रेरणा से
वंचित…….खोखले घोंघे की तरह
निरे पशु…….
अनैतिहासिक
असांस्कृतिक
सभ्यता के मानवीय गुणों से असंपृक्त
ये जीवन की हरी भरी बगिया में
हमेशा से उगते रहे हैं खरपतवार की तरह
इनकी नियति
इतिहास के हर युग में
एक सी रही है………..
'ये’ जो भी लोग हैं
ये जीवन से वंचित
शवकामी
मृत्योपसक
विविधता से हरी-भरी बगिया
को श्मशान बनाने पर तुले हैं
‘ये’ जो भी लोग हैं
ये स्वयं अपने जीवन से करते हैं
नफ़रत नफ़रत नफ़रत।









शब्दों का एकांत

शब्द
शब्दकोश में अकेले होते हैं
वे अपने अर्थ में भी अकेले होते हैं
वे हर जगह केवल
निरभ्र एकांत को जीते हैं
जब कभी कोई
तोड़ना चाहता है शब्दों का एकांत
तो उसे शब्दकोश से बाहर निकालना होता है
शब्दों को…….
उसे उनके साथ चिपका दिए अर्थों से भी
करना होता है मुक्त
तमाम संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण की उपाधियों
को दिखाना होता है पलीता
सदियों से कैद हैं शब्द अपने एकांत रेगिस्तान में
हर शब्द एक रेत कण की तरह बिछा है
मगर वे कोई जीवन नहीं बनाते
शब्दों के इस एकांत रेगिस्तान में
नये अंकुर नहीं फूटते
उन्हें बनाना होता है मिट्टी-कण
गुथना होता है
अनुभव के जल से आपस में
सोखना होता है
धूप, नमी और हवा को अपने अंदर
तब कहीं एक अंकुर
तोड़ता है शब्दों के एकांत को
जैसे तोड़ती है कविता
एक चीख की तरह
जीवन के एकांत को।





भीड़ में निर्वासन 

भीड़
रेत कणों का सामूहिक निर्वासन है
आंधियों से गतिमान रेत के ढूहे
बदलते रहते हैं
अपनी जगह और आकृतियां
भीड़ का गतिमान होना
सिर्फ सक्रियतावाद है
आचरण नहीं
भीड़ सदा ही रेत की तरह
बदलती है जगह और आकृति
वह राहगीरों की आंखों में किरकिरी कर सकती है
उनके पथ को कर सकती है अवरुद्ध
पर भीड़ का क्रियाशील होना
उसका क्रांतिकारी आचरण नहीं है
वह बाहरी अदृश्य ताकत से होती है संचालित
इसलिए भीड़ एक एकांतिक रेगिस्तान है
जिसमें निर्माण की संभावना हैं शून्य
भीड़ सिर्फ विध्वंस रच सकती है
भीड़ की हर इकाई अलहदा होती है
भीड़ क्रांति नहीं कर सकती
भीड़ को बुर्जुआ लोकतंत्र पैदा करता है
वह मानवीय आलोचनात्मक चेतना को
अनालोचक वस्तु में बदल देता है
पूंजीवादी नेतृत्व जनता को सोचने नहीं देता
उसका काम है
मानवीय वैचारिक क्षमता को
दया, उपकार, सुधार, सहायता की भीख देकर
लकवाग्रस्त कर देना
यह नेतृत्व जनता की
“जीवित मृत्यु” के सहारे पनपता है
यही उसका खाद्य है
भीड़ अपने एकांतिक रेगिस्तान से
बाहर निकल वैचारिक समूह में बदलने लगे
तो पूंजीवाद की जड़ें
और लोकतंत्र के पाखंड
सबकी चूलें हिलने लगेंगी।








अध-पूरा होना

जीवन कभी
पूरे न होने का नाम है
हर चीज
अध-पूरी रह जाती है
कोई किताब आज तक
मुकम्मल रूप से नहीं पढ़ी जा सकी है
न कोई किताब पूरी तरह से
लिखी ही जा सकी है
पृष्ठों का अंत हो जाना
मुकम्मल होना नहीं होता किताब का।
हर कविता, हर कहानी अधूरी ही रह जाती है
पूरा होने से पहले
जीवन बदल जाता  है
यह अधपुरा-पन ही
दूसरी कविता या कहानी को
बनाता है संभव
कितनी यात्रायें की हैं आज तक
आनंद धाम से मानसरोवर तक
गुरूडोंगमर झील से
पंगोंग झील तक
या कैलाश से अमरनाथ तक
सब अध-पूरी ही हैं
तभी न हम नयी यात्रा पर निकलते हैं
हर बार
तमाम इतिहास अध-पूरा है
मोहनजोदड़ो से बामियान तक
जिंदगियां जो कभी पूरी तरह से
नहीं जी जा सकीं
असंख्य हैं
कितने युद्ध हुए हैं
पर संपूर्ण विजय अभी तक नहीं मिली
हर युद्ध के बाद
कुछ दिमाग, कुछ पुस्तकालय,
कुछ कलायें और कुछ आग
रह जाती है शेष
जिस पर विजय नहीं
पाई जा सकी होती है
और यह अविजित चीजें फिर
नये युद्ध को देती हैं चुनौती
हो गये विजित कुछ सपने
मगर अभी बचे हैं कुछ
छोटे-छोटे स्वप्न
मानवीय संभावनाओं के
जंगलों में आग है अभी शेष
भले ही पेड़ सारे काट लिये गये हों
तुम काट सकते हो पेड़
पर आग को जीतना तुम्हारे बस में नहीं
आग अभी अविजित है
पूरी तरह से
और यह आग कभी भी भड़क सकती है
आग सोई रहती है चुपचाप
पत्थरों में
दिलों में
जिंदगी चाहे हो अधूरी पर
आग अभी बची है
पूरी …….!




व्यवस्था के पुर्जे

यदि
तुम बेईमान नहीं हो तो
मारे जाओगे
तुम्हें झूठ बोलने और
फरेब करने की आदत नहीं है तो
तुम जल्दी ही बर्खास्त कर दिये जाओगे
यदि तुम
दूसरों की मक्कारियों में शामिल नहीं हो सकते हो तो
तुम मक्कार सिद्ध कर दिये जाओगे
यदि तुम सरकारी लूट में
भागीदारी नहीं करते हो तो
देशद्रोही, अयोग्य और निष्ठाहीन
सिद्ध करके
सस्पेंड कर दिए जाओगे….!
इस व्यवस्था में
आदमी होने और जिंदा रहने का
गणित है
बेईमानों की शर्तों पर जीना
झूठ और फरेब की यह दुनिया
अंततः आत्महत्या करने की राह दिखा देगी
तुम्हें
यदि तुम लड़ने की कोशिश करोगे तो
अपंग कर दिए जाओगे
फिर भी खड़े होने की कोशिश करोगे तो
मार दिए जाओगे………!
यदि
तुम व्यवस्था के पुर्जे
नहीं बन सकते तो
तुम्हारे ऊपर नकारा होने का
तमगा लगा दिया जायेगा
व्यवस्था के तमाम कलपुर्जे
मिलकर बनाते हैं
इस व्यवस्था को निकृष्ट तम
इस पर चढ़ा देते हैं
न्याय, समानता, निष्ठा और ईमानदारी के
जुमलों से सजा रेशम का बना खोल
इसे लोकतंत्र का जामा पहनाकर
तानाशाही से भी बदतर मूल्यों से
किया जाता है संचालित
और हर उस शख्स को जो
इसके खिलाफ है
सच्चाई के पक्ष में जीना चाहता है
उसे असंगत कर दिया जाता है घोषित
यही है लोकतंत्र ।










आज जो हो रहा है

हमने सत्तर सालों में
गढ़ और मठ बनाये
वे संगठन बनाते रहे
हम संस्थाओं में बैठ
पुरस्कार और प्रकाशन
का खेल खेलते रहे
वे जनता के बीच
जगह बनाते रहे
हम गांधी बनाम अंबेडकर
पर करते रहे सेमिनार
वे हिंदुत्व की विचारधारा को
करते रहे रोपित
हम भूल गये भगतसिंह के वामपंथी
विचारों को …..!
वे करते रहे विचार और आचरण की संगति को
छिन्न-भिन्न
हमने भी कसर नहीं छोड़ी
विचार और आचरण की खाई को बढ़ाने में
इस खाई को जितना बड़ा कर सकते थे हमने किया
जनता आचरण से विचारों को करती है ग्रहण
विचारों को किताबों तक कर दिया सीमित हमने
वे खून में घोलते रहे अपनी विचारधारा
और उस वक्त हमने स्वयं को
काट लिया था जीवन की धारा से
वे तब भी सड़कों, गलियों में थे
वे आज भी वहीं हैं
हम तब भी अकादमियों में बंद थे
अब भी बंद है
अपनी खोल में…….
तो आज जो हो रहा है
सड़कों पर ……..!!!!!!
वह तो तय किया था हमने…..?





शवकामी शासक

यदि
तुम जनता की
'जीवित मृत्यु’
पर जीने की लालसा रखते हो
तो तुम 'शवकामी’
श्मशानी दुनिया बना रहे हो
यदि यह दुनिया
बदल भी गई
जीवित मृत्यु में
पूरी तरह
तो “तुम”.........!!!!
अपने …...इंच की छाती सहित
जिंदा लाशों के मृत शासक कहलाओगे।
सुनो……..!!!!!!!!
लाशों की बैचेन बिलबिलाती भूखी चीखें
तुम्हें चैन से बैठने नहीं देगीं
और तुम्हारे साथ
तुम्हारे लुटेरे कुनबे को
दफन हो जाना होगा इन्हीं चीखों के बीच
सोचो ……….!!!!
यदि तुम्हें दिखें
ताबूतों से उठते बिना मांस की स्त्री देहें
कितनी देर देख सकोगे तुम
यदि ऐसा नहीं हुआ
और ये जीवित मृत्यु की ओर बढ़ने वाले
नंगे भूखे कंकालनुमा इंसान
संसद या रेस कोर्स रोड़ की ओर बढ़ने लगें
किसी दिन अपनी सूखी आतंडियों को
तुम्हें दिखाने
तो तुम शायद
अट्टाहस लगा कर हंसोगे
मगर जब यह  हंसी
इंसानी कंकालों के चीखनूमा अट्टाहस से टकराकर
वापस आयेगी
तुम्हारे पास
तो ………..
यह प्रतिध्वनि
तुम्हारे सुनने की क्षमता
और सोचने की ताकत को
कुंद कर देगी
और तुम
बदल जाओगे एक जिंदा लाश में
तब
तुम्हारी …...इंच की छाती का……..
क्या कीजिएगा…….?









आभासीय स्टेटस

लगातार दृश्यमान होती जा रही दुनिया में
अदृश्य है सब कुछ
सेल्फी और पिक से अटी पड़ी हैं
फेसबुक, व्हाट्स एप
तमाम चेहरे बदल गये हैं
इलेक्ट्रॉनिक रंगों में
खुशियां पोत दी गईं हैं
मेकअप की लीद से
अब हर चेहरा
मुस्कराने की कोशिश करता दिखता है
दुखों की बदरंग विविधता
छिपा दी गई है
चेहरे की सिलवटों के साथ
कितनी खूबसूरत है फेसबुकीय दुनिया
तमाम हकीकतें, परेशानियां, उलझनें
गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गईं हैं
इस आभासीय दुनिया में
स्वर्ग ही स्वर्ग है
हकीकत के आसमां पर
कृत्रिम रंगों की तितलियों की तरह उड़ रही है
खुशियां की बहार
दारूण वास्तविकता पर
सेल्फीय मुस्कराहट
टिड्डीदल की तरह छा गई है
जिंदगी एक लंबी पिक थी
श्रम और धैर्य से बदलती थी
सूरत……...
जो अब हर सुबह दोपहर शाम
बदल जाती है
स्टेट्स पर
इंसान की फितरत की तरह…..।





अट्ठारह सौ सत्तावन

यदि
अट्ठारह सौ सत्तावन
सफल हो गया होता …….!!!!
तो देश में
गांधी नहीं होते
नेहरू नहीं लेनिन होते
साम्प्रदायिकता नहीं साम्यवाद होता
राज्यों का विलय नहीं एकीकरण होता
सरदार पटेल नहीं कावूर और बिस्मार्क होते
मैकाले और उसकी औपनिवेशिक शिक्षा नहीं
फुले और फ्रेरे जैसे शिक्षक और
राष्ट्रीय भाषाई शिक्षा नीति होती
आजाद और भगतसिंह
राष्ट्र निर्माण का दर्शन रचते
टाटा बिड़ला अम्बानी अडानी
देश के कर्णधार नहीं होते
दादाभाई नौरोजी, गोखले
तिलक देश की प्रगति की राह का नेतृत्व करते
पाकिस्तान, बंगलादेश नहीं होता
आतंकवाद, नक्सलवाद, और संघ नहीं होता
औपनिवेशिक मानसिकता का दासत्व नहीं होता
दाभोलकर, कलबुर्गी और सफदरहाशमी की हत्यायें
नहीं होती…….
विदेशी लूट और देशज आत्महत्याएं नहीं होती
भारत पाकिस्तान
और भारत चीन युद्ध नहीं होते
कारगिल और बड़ोदरा कांड नहीं होते
हिंदुत्व नहीं भारतीयत्व होता
अम्बेडकर और गोलवलकर नहीं होते
दलितत्व नहीं होता
दरिद्रता नहीं होती
आत्मगौरव का पतन नहीं होता
भारतीयत्व पर गर्व होता
भीड़ तंत्र की जगह
वास्तविक देशज लोकतंत्र होता
सत्ता नहीं समता राज करती
वर्चस्व की पतित भावना नहीं
सेवा का सच्चा स्वाद होता
वोट और नोट की गलीच राजनीति नहीं
दायित्व बोध का समर्पण होता
चुनाव आयोग नहीं
चयन होता जनता की सीधी भागीदारी से
जनता जनसंख्या में नहीं बदलती
जनता जनचेतना में उभरती
शिक्षा शोषण और असमानता का औजार नहीं बनती
शिक्षा समानता और समाजवादी लोकतंत्र की
वाहक होती
मजदूर मशीन का दास नहीं
स्वामी होता
आदमी मुद्रा का गुलाम नहीं
चालक होता।
न्याय और व्यवस्था संस्था नहीं होती
सेवक होती जनता की
पुलिस, प्रशासन, सेना सत्ता की गुलाम
नेताओं की सुरक्षाकर्मियों की तरह नहीं होती
जनता के प्रति उत्तरदाई होने में गर्व करती
हम विकास की दौड़ में पागल नहीं होते
समृद्धि का समाजशास्त्र रचते
जीवन सड़कों पर
हत्यारों
बलात्कारियों के हाथों
उत्पीड़ित नहीं होता
अट्ठारह सौ सत्तावन
घटित होना
शेष है अभी।





मृत्यु से जीवन

मृत्यु !!!
तुम
हमेशा जीवन दायी हो सकती हो
बशर्त तुम्हें चुना जाये
बेहतर जीवन के संकल्प के साथ
संकल्प जो सामूहिक हो
मृत्यु के वरण का
धीमी मौत से
एक बार ही मरण के वरण का
कीड़ों की तरह गरिमाहीन मृत्यु की जगह
नये और गरिमापूर्ण जीवन के
चुनाव के विकल्प के साथ
“ हम तैयार हैं”
हम करते हैं संकल्प मरने का
लड़ते हुए
लगातार लड़ते हुए
बहुत हो चुका मरते मरते जीना
अब नहीं ………!!!
अब हम जियेंगे एक
गरिमापूर्ण मृत्यु के लिये
एक ऐसी मृत्यु जिसके बाद
कभी नहीं मरेंगे हम
और कोई नहीं मरेगा
हमारे बाद
भरपूर जीवन जिये बिना…..!!!!
हम जियेंगे
एक मानवीय गरिमा युक्त मरण के लिये
हम भूख से नहीं मरेंगे
हम घुटनों के बल नहीं
अपने पैरों पर चलकर जियेंगे
और मृत्यु हमारा
अभिषेक करेगी
नये जीवन के लिए।
००


संजीव जैन का स्तम्भ मीडिया और समाजः नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/blog-post_49.html?m=1




एदुआर्दो गालेआनो के क़िस्से: पांचवीं कड़ी, नीचे लिंक पर सुनी जा सकती है।


https://youtu.be/9f-XwhpFQug

2 टिप्‍पणियां: